विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मूलभूत सिद्धांतों में स्वास्थ्य की परिभाषा करते हुए स्पष्ट किया गया है कि “स्वास्थ्य शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की समग्र स्थिति है और यह किसी बीमारी या अशक्तता का अभाव नहीं है.” इस परिभाषा में आगे यह भी कहा गया है कि “जाति, धर्म, राजनीतिक विश्वास, आर्थिक या सामाजिक परिस्थिति के भेदभाव के बिना स्वास्थ्य का अधिकतम आनंद लेना हर मनुष्य का बुनियादी अधिकार है”. सारी दुनिया में खास तौर पर भारत सहित विकासशील देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के रूप में व्यक्तियों के शारीरिक स्वास्थ्य पर मुख्यतः ध्यान दिया जाता रहा है, लेकिन मानसिक और व्यवहार संबंधी समस्याएँ सार्वजनिक स्वास्थ्य की अन्य समस्याओं पर अधिकाधिक हावी होती जा रही हैं.
मानसिक बीमारियों का बोझ
भारत के स्वास्थ्य के मूल स्वरूप में बदलाव आने के कारण व्यवहार और पदार्थों के प्रयोग से जुड़े विकार सामने आ रहे हैं. इन विकारों से प्रभावित लोगों की रुग्णता, विकलांगता और मृत्यु दर में भारी वृद्धि हो रही है. विश्व-भर में भारत में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है और वाहनों से होने वाली दुर्घटनाओं से मरने वाले लोगों की संख्या के बाद 15-29 की आयु-वर्ग के युवाओं में आत्महत्या से होने वाली मौतों की संख्या दूसरे स्थान पर है. समाज में प्रचलित कलंक के कारण, इन विकारों को अक्सर लोगों से छिपाया जाता है या स्वीकार नहीं किया जाता, नतीजतन, मानसिक विकार वाले व्यक्ति बहुत ही खराब जीवन बिताने के लिए विवश हो जाते हैं.
हालाँकि पारंपरिक सार्वजनिक स्वास्थ्य आँकड़ों में (जो रुग्णता या अंगों की शिथिलता के बजाय मृत्यु दर पर अधिक ध्यान देते हैं) इसकी कम ही रिपोर्टिंग की जाती है, फिर भी मानसिक बीमारी दुनिया भर में अस्वस्थता और विकलांगता का सबसे बड़ा कारण है और यह संख्या हृदय रोगों और कैंसर के संयुक्त आँकड़ों से भी अधिक है. 2017 में विश्व की पूरी आबादी (970 मिलियन लोगों) में से 13 प्रतिशत लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त रहे हैं और इनमें भी बच्चे और युवा इन बीमारियों से सबसे अधिक प्रभावित रहे हैं. राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य व न्यूरोसाइंसेज़ संस्थान, बैंगलूरू द्वारा किये गये 1916 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत की कुल आबादी के 13.7 प्रतिशत लोग किसी न किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं और इनमें से 10.6 रोगियों का तत्काल इलाज करना ज़रूरी है. जहाँ एक ओर 150 मिलियन भारतीयों के मानसिक स्वास्थ्य के तत्काल इलाज की आवश्यकता है, वहीं 30 मिलियन लोग ऐसे हैं जिन्हें उचित देखभाल की आवश्यकता है.
अपर्याप्त देखभाल और सेवाओं की डिलीवरी
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य व न्यूरोसाइंसेज़ संस्थान, बैंगलूरू द्वारा किये गये 1916 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत की कुल आबादी के 13.7 प्रतिशत लोग किसी न किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं और इनमें से 10.6 प्रतिशत रोगियों का तत्काल इलाज करना ज़रूरी है.
भारत में मानसिक रोगियों को या तो देखभाल की सेवाएँ उपलब्ध नहीं हैं या जिन्हें ये सेवाएँ उपलब्ध हैं उनकी सेवाओं में भी गुणवत्ता की कमी है. ये सेवाएँ न तो किफ़ायती हैं और न ही आसानी से उपलब्ध होती हैं. फ़रवरी 2018 में तत्कालीन स्वास्थ्य व परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने कहा था कि भारत में कुल 13,500 मनोचिकित्सकों की आवश्यकता है, जबकि केवल 3,827 पंजीकृत मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में प्रत्येक एक मिलियन लोगों पर केवल तीन मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं और उपचार और परामर्श के लिए तो मनोवैज्ञानिकों की संख्या और भी कम है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की मानसिक स्वास्थ्य ऐटलस 2017 के अनुसार भारत सरकार ने सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर किये गए कुल खर्च का केवल 1.3 प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च किया है. जहाँ एक ओर थाईलैंड में सरकार की मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर केवल 0.30 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है, लेकिन वहाँ मानसिक स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की स्थिति कहीं अच्छी है. इसके लिए 100,000 प्रति व्यक्तियों पर .99 मनोचिकित्सक और.75 मनोवैज्ञानिक उपलब्ध हैं. श्री लंका में भी मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में लगे कर्मचारियों की संख्या हमसे अधिक है अर्थात् 100,000 प्रति व्यक्तियों पर क्रमशः .52 मनोचिकित्सक और.25 मनोवैज्ञानिक उपलब्ध हैं. दक्षिण अफ्रीका की सरकार अपने कुल स्वास्थ्य बजट का 3 प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती है अर्थात् प्रति 100,000 दक्षिण अफ्रीकी लोगों पर 1.52 मनोवैज्ञानिक उपलब्ध हैं.
दक्षिण अफ्रीका और थाईलैंड जैसे देशों में मानसिक स्वास्थ्य को भी काफ़ी राजनीतिक महत्व प्रदान किया जाता है. इन देशों में मानसिक रोगियों के प्रति मानवाधिकार संबंधी गंभीर रुख अपनाया गया है और दक्षिण अफ्रीका में तो सन् 2002 में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी देखभाल के लिए एक अधिनियम भी पारित किया गया है. थाईलैंड में सन् 2008 में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कानून पारित किया गया. भारत में अप्रैल, 2017 में मानसिक स्वास्थ्य सेवा संबंधी अधिनियम पारित किया गया है.
इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की घटनाओं में भारी कमी लाने के लिए भारत सरकार का लक्ष्य मानसिक स्वास्थ्य नीति के अंतर्गत "जैव-चिकित्सा" देखभाल के मॉडल को अपनाना रहा है. जैव-चिकित्सा, क्लिनिकल हस्तक्षेप और संस्थाकरण पर ज़ोर देने के कारण स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों (SDH), जिनका स्वास्थ्य के परिणाम पर सीधा प्रभाव पड़ता है, की अनदेखी की जाने लगी. स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक (SDH) या वे हालात जिनमें ये लोग पैदा होते हैं, पलते हैं और बड़े होते हैं, दैनिक जीवन के हालातों का निर्माण करते हैं और इनमें ही तमाम आर्थिक नीतियाँ और प्रणालियाँ, विकास का एजेंडा, सामाजिक मानक, सामाजिक नीतियाँ और राजनीतिक प्रणालियाँ शामिल होती हैं.
जैव-चिकित्सा मॉडल का बढ़ते महत्व से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानसिक अस्पतालों और मनोचिकित्सा संबंधी सुविधाओं के लिए ढाँचागत सुविधाएँ और संसाधन बढ़ते जा रहे हैं. राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य-सेवा अधिनियम 2017 उन सिद्धांतों से असहमति के कारण ही पारित किया गया था, जिसमें “स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों के अनुरूप स्वास्थ्य की ढाँचागत सुविधाओं को मज़बूत करने की आवश्यकताओं पर ज़ोर दिया गया था”. मानसिक स्वास्थ्य-सेवा संबंधी देखभाल की लगातार उपेक्षा को भारतीय समाज में मानसिक रोगियों के प्रति प्रचलित उस कलंक और भेदभाव से जोड़कर व्यापक संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए जिसके कारण इन रोगियों को समाज से अलग और बहिष्कृत करके रखा जाता है. यही कारण है कि मानसिक बीमारियों से ग्रस्त समाज और व्यक्तियों की लागत बढ़ती जा रही है.
मानसिक बीमारी का लागत
भले ही अनेक अध्ययनों में मानसिक और व्यवहार-मूलक अस्वस्थता से होने वाली बीमारियों के बोझ की गणना प्रत्यक्ष रूप में तो करना संभव नहीं हो पाया है, लेकिन यह स्पष्ट हो गया इनकी आर्थिक और सामाजिक लागत बहुत अधिक पड़ती है. लैन्सेट आयोग की वैश्विक मानसिक स्वास्थ्य और सतत विकास रिपोर्ट (2018) में बताया गया है कि मानसिक स्वास्थ्य के कारण 2030 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर $16 ट्रिलियन डॉलर की लागत आएगी. 1,000 में से 200 मानसिक रोगियों की प्रचलित दर और 500 रुपये के व्यक्तिगत खर्च के हिसाब से तैयार की गई भारत संबंधी 2010 की एक विशेष रिपोर्ट में बताया गया है कि शोधकर्ताओं के अनुसार भारत में मानसिक बीमारियों के उपचार पर प्रति माह 10,000 करोड़ रुपये ($100 बिलियन डॉलर) की कुल लागत आती है. इसके अलावा 2016 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में बताया गया है कि आर्थिक लागत के भारी खर्च के बोझ में मानसिक रोगियों की देखभाल पर आने वाला भारी खर्च भी आता है.
भारत में मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट का प्रमुख कारण यहाँ की गरीबी और सामाजिक उपेक्षा भी है. गरीबी में समाज से अलग-थलग पड़ने, सामाजिक रूप में बहिष्कृत होने, निराश और हताश होने और रोज़गार न कर पाने की पीड़ा भी छिपी होती है, जिसके कारण इन लोगों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है. मानसिक बीमारियों की सामाजिक लागत में उनकी अशक्तता और कई प्रकार के काम करने पर लगे प्रतिबंध, जिन्हें सामान्य ही समझा जाता है, शामिल होते हैं. मानसिक बीमारियों से ग्रस्त अधिकांश भारतीयों को न तो कोई लाभदायक काम मिल पाता है और न ही वे आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो पाते हैं. 2011 में भारत में की गई जनगणना के अनुसार 78.62 प्रतिशत मानसिक रोगी बेरोज़गार थे और इस समय केवल 13.15 प्रतिशत मानसिक रोगियों के पास ही कोई काम-धंधा है. इतनी बड़ी संख्या में बेरोज़गार मानसिक रोगियों के लिए कुछ नीतिगत उपाय करने होंगे ताकि उनके मानवाधिकारों की रक्षा हो सके और उन्हें अच्छा-खासा समावेशी काम-धंधा मिल सके. इस दिशा में ठोस कार्रवाई की जाए और उनके पुनर्वास के लिए अन्य उपाय किये जाएँ.
अंतराल को पाटना
भारत की सामाजिक कल्याणकारी नीति के अंतर्गत मानसिक स्वास्थ्य का महत्व और व्यक्तियों के कल्याण में उसकी प्राथमिकता सर्वविदित है. आवश्यकता इस बात की है कि मानवाधिकार की भावना से समन्वित एक मज़बूत स्वास्थ्य प्रणाली विकसित की जाए. रणनीतिक दस्तावेज़ों से ऊपर उठकर कार्य रूप में परिणत होने वाले विचारों को सामने लाने के लिए और व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में बदलाव लाने के लिए नीतिगत सुधार किये जाने चाहिए.
इस बात से अब इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है. सरकार को चाहिए कि वह अस्पतालों की निर्माण प्रणाली में सुधार लाने के लिए समुदाय-आधारित देखभाल में निवेश करने के लिए ठोस उपाय करे ताकि अधिक से अधिक संख्या में मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक और कार्यकर्ताओं को नियोजित किया जा सके.
साक्ष्य से पता चलता है कि बहुमुखी घटकों वाली बीमारियों के इलाज के लिए समग्र मानसिक-सामाजिक स्वास्थ्य समाधानों की सफलता की दर काफ़ी ज़्यादा है, क्योंकि इससे रोगी को समाज से फिर से जोड़ने में मदद मिलती है. इस प्रकार की देखभाल में पुनर्वास कार्यक्रमों को भी शामिल किया जाना चाहिए और उन्हें इस प्रकार के कौशल सिखाये जाने चाहिए ताकि वे या तो अपने बल पर जीवनयापन कर सकें या फिर कम से कम रोक-टोक के वातावरण में रह सकें. अंततः नीति और शासन के लक्ष्य ऐसे निर्धारित होने चाहिए ताकि मानसिक रोगी न केवल ज़िंदा रहें, बल्कि वे एक व्यक्ति के तौर पर शालीनता के साथ जीवन-यापन कर सकें और उन्हें अपनी ज़रूरत के मुताबिक हर प्रकार की सेवाएँ भी मिल सकें.
विवेक एन.डी. सूरत (भारत) में स्थित ऑरो विश्वविद्यालय के उदार कला व मानव विज्ञान स्कूल में सहायक प्रोफ़ेसर हैं. यहाँ वह राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919