हम कृत्रिम बुद्धि (AI) के ऐसे युग में रहते हैं जिसने हमें प्रोसेसिंग की ज़बर्दस्त शक्ति, भंडारण की क्षमता और सूचना तक पहुँचने की शक्ति प्रदान की है. इसी प्रौद्योगिकी के बढ़ते विकास के पहले चरण में हमें चरखा, दूसरे चरण में बिजली और औद्योगिक क्रांति के तीसरे चरण में कंप्यूटर की सौगात मिली. सन् 2016 में विश्व आर्थिक मंच ने कृत्रिम बुद्धि (AI) को “चौथी औद्योगिक क्रांति” का नाम दिया, जिसने हमारी जीवन शैली, कार्यप्रणाली और एक-दूसरे को कनैक्ट करने के तौर-तरीके में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है. लेकिन इसके कारण डेटा के स्वामित्व और श्रमिकों के संरक्षण जैसी विनियामक चुनौतियाँ भी हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं.
खास तौर पर स्वचालन के कारण काम-धंधों और मज़दूरी के स्तर पर प्रभाव पड़ा है. प्रौद्योगिकी और काम-धंधों से संबंधित ऑक्सफ़ोर्ड मार्टिन प्रोग्राम द्वारा किये गए 2013 के अध्ययन के अनुसार सन् 2000 से लेकर अब तक केवल 0.5 प्रतिशत काम-धंधों के ऐसे नये अवसर पैदा हुए हैं, जो पहले मौजूद नहीं थे. इसके मुकाबले विश्व की सात सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले G7 देशों में अगले आठ वर्षों में 173 मिलियन काम-धंधे स्वचालित हो जाएँगे. सन् 2016 में “OECD देशों में काम-धंधों के लिए स्वचालन का जोखिम” शीर्षक से लिखे गए OECD के वर्किंग पेपर में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि 32 OECD देशों के कुल काम-धंधों के 14 प्रतिशत काम-धंधे स्वचालित हो जाएँगे, जबकि 32 प्रतिशत और काम-धंधों पर स्वचालन का भारी जोखिम मँडराता रहेगा. विकासशील विश्व के लिए विश्व बैंक द्वारा तैयार की गई विश्व विकास रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि स्वचालन के दुष्परिणाम के कारण ही श्रमिकों के अधिशेष (सरप्लस) से श्रमिकों की अधिकता वाले एशिया के देशों से लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के कम श्रमिक वाले देशों में श्रमिकों का पुनः आबंटन होने लगा है.
इसके अलावा, “कृत्रिम बुद्धि (AI), स्वचालन और काम” शीर्षक वाले 2018 के अपने शोधपत्र में MIT के अर्थशास्त्री दारोन एसेमोग्लू और पास्कुअल रेस्ट्रेपो ने यह गणना की है कि प्रति 1,000 कामगार वाले हर रोबोट के कारण 0.25-0.50 प्रतिशत तक मज़दूरी के स्तर में कमी आई है. विश्व-भर में 702 पेशेवरों की जाँच-परख करने के बाद ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफ़ेसर कार्ल फ्रे और माइकल ऑसबोर्न ने “काम-धंधों का भविष्यः कंप्यूटरीकरण से काम-धंधे कैसे प्रभावित होंगे?” शीर्षक से किये गए अध्ययन में यह बताया है कि “मध्यम-कौशल” वाले रुटीन किस्म के ज्ञानपरक और हाथ से किये जाने वाले काम-धंधे अगले कुछ वर्षों में स्वचालित हो जाएँगे. उनके तर्क के अनुसार इसका परिणाम यह होगा कि भारत में इस समय 65 प्रतिशत काम-धंधे वैश्विक ऑफ़-शोर कामों से और 40 प्रतिशत काम-धंधे वैश्विक कारोबार की प्रोसेसिंग से जुड़े हैं. सन् 2030 तक औपचारिक काम-धंधों से जुड़े 69 प्रतिशत काम-धंधे स्वचालित हो जाएँगे. इस संदर्भ में हम भारत में स्वचालन के स्थूल और सूक्ष्म स्तर के निहितार्थों और श्रम नीति से उभरने वाले कुछ प्रश्नों की छान-बीन करेंगे.
स्वचालन का प्रभाव
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार भारत में औपचारिक काम-धंधों से जुड़े 60 प्रतिशत काम-धंधे “मध्यम-कौशल” से जुड़े हैं. ये काम हैं, लिपिकीय कार्य, बिक्री, सेवा, कुशल कृषि और कारोबार से जुड़े काम. ये सभी काम स्वचालित हो सकते हैं. इस प्रकार, स्थूल स्तर पर स्वचालन के अर्थ व्यवस्था से जुड़े अनेक निहितार्थ हैं और कामगारों के लिए सूक्ष्म-स्तर पर कार्यस्थल के स्तर पर अनेक निहितार्थ हैं. स्थूल स्तर पर स्वचालन से होने वाले परिवर्तन के तीन आयाम हैं: कुशल कारीगरों की माँग में परिवर्तन, कामगारों की पुनः तैनाती में लैंगिक असमानता और कारखानों को पुनः संगठित करना. सबसे पहले तो “कुशलता” की परिभाषा से ही यह अधिकाधिक प्रकट होता जाएगा कि कामगारों की स्वचालन के साथ किस हद तक अनुकूलता है. उदाहरण के लिए, शारीरिक या विषय-वस्तु की कुशलता के बजाय “सिस्टम की कुशलता” की माँग के अंतर्गत जटिल समस्याओं के समाधान की क्षमता और मानवीय धारणाओं से जुड़ी सामाजिक कुशलता की कहीं अधिक माँग होगी.
इसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के काम-धंधों पर लगने वाले समय और प्रयासों से होने वाले सापेक्ष लाभ में बहुत अंतर होता है. इसका अर्थ यह है कि कामकाजी जीवन के संतुलन से कुछ तरह के काम-धंधों में सुधार होगा और शेष काम-धंधे पूरी तरह से चौपट हो जाएँगे. उदाहरण के लिए, महिलाओं के वर्चस्व वाले कॉल सैंटर के काम, फुटकर काम और प्रशासनिक कार्य खत्म हो जाएँगे, जबकि पुरुष कर्मचारियों के वर्चस्व वाले डेटा क्लीन अप और डिजिटल अवसंरचना वाले कामों की माँग बढ़ जाएगी. इसके कारण इस बदलाव में लैंगिक पक्ष महत्वपूर्ण हो जाएगा. अंततः स्वचालन और कामगारों की पुनः तैनाती के कारण “मानवीय क्लाउड प्लेटफ़ॉर्म” पर फ़र्मों को फिर से व्यवस्थित करना होगा, जिनमें किसी भी स्थान पर बसे कामगारों को काम करने के लिए नियुक्त किया जा सकेगा. इसके कारण फ़र्म और कामगारों की रणनीतियों के बीच अल्पकालीन स्तर पर विचलन हो जाएगा.
सूक्ष्म स्तर पर, स्वचालन के कारण काम का अर्थ ही बदल जाएगा. काम-धंधों का अधिकाधिक वर्णन विशिष्ट “कार्यों” के रूप में किया जाएगा. स्वतंत्र कामगार विशिष्ट दर पर खास तरह के काम ही करेंगे. कार्यस्थल पर पर्यवेक्षण के पदक्रम के स्थान पर वितरित और सुदूर टीमों के साथ सहयोग करने वाले नैटवर्क होंगे. इसके कारण कामगारों की प्रेरणा और संवाद में भारी परिवर्तन होगा. इन परिवर्तनों के कारण नये काम-धंधों के अनुबंध का असर न्यूनतम वेतन संबंधी आकस्मिक नियोक्ता के दायित्व, सामाजिक लाभ और सामूहिक सौदेबाजी के कारण आई कमी पर भी पड़ेगा.
नीति संबंधी चुनौतियाँ
भारत सरकार किस तरह से लचीले काम-धंधों, अस्थायी मज़दूरी और वितरित जोखिम वाली “माँग-पर” चलने वाली इस अर्थव्यवस्था को नियमित करेगी? श्रम नीतियों से जुड़े तीन महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जिन पर आगामी वर्षों में ध्यान देने की आवश्यकता है, कामगारों को फिर से कुशल बनाना और अल्पकालीन स्तर पर सामाजिक नीति पर पुनर्विचार. साथ ही इस बात की भी आवश्यकता है कि दीर्घकालीन रूप में देखभाल की अर्थव्यवस्था जैसे नये क्षेत्रों में रोज़गार की क्षमता की फिर से छानबीन करना.
पहली बात तो यह है कि स्वचालन के लिए मौजूदा कामगारों को फिर से कुशल बनाने की आवश्यकता है और अन्य कामगारों को नये काम-धंधों पर लगाना होगा. साथ ही विश्वविद्यालय के स्तर पर छात्रों को सक्षम कामगार बनाने के लिए उन्हें नये उपकरणों से फिर से सुसज्जित करना होगा. एशिया प्रशांत क्षेत्र के लिए 2017 में किये गये IDC के संज्ञानपरक उपयोगकर्ता अभिग्रहण सर्वेक्षण से यह संकेत मिलता है कि 70 प्रतिशत भारतीय फ़र्में अपने कामगारों को कृत्रिम बुद्धि (AI) के ज्ञान से लाभान्वित करने के लिए अतिरिक्त निवेश करने की योजना बना रही हैं. इसके अलावा, “स्मार्ट” कार्य की संकल्पना और विशिष्ट कौशलों की माँग के कारण विश्वविद्यालयों को भी उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण के अपने पाठ्यक्रमों को फिर से डिज़ाइन करने और राज्य सरकारों को रोज़गार के बाज़ार में आए संक्रमण को सुगम बनाने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा.
दूसरी बात यह है कि काम करने की उम्र वाली आबादी, सेवानिवृत्ति और व्यक्तिगत जीवन की योजनाओं पर पुनर्विचार करने की तत्काल आवश्यकता है. सामाजिक नीति के अंतर्गत ही जीविका बीमा और सार्वभौमिक मूल आय जैसे भावी विचारों के लिए कराधान और उससे होने वाली अतिरिक्त आमदनी के वितरण के लिए सरकार को अपनी क्षमता को पहले से ही बढ़ाना होगा. 2017-19 की अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की वैश्विक सामाजिक संरक्षण रिपोर्ट यह दर्शाती है कि भारत में कम से कम एक सामाजिक सुरक्षा योजना से कवर होने वाले कामगारों का अंश केवल 19 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह 63 प्रतिशत है. इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) द्वारा गठित “काम के अधिकार” और “समुचित कार्य” जैसे श्रम के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को संशोधित करने और उस नई अर्थव्यवस्था तक विस्तारित करने की आवश्यकता है जहाँ कामगार “मानवीय क्लाउड प्लेटफ़ॉर्म से” काम लेकर उसे निष्पादित करते हैं. काम के अधिकार में श्रम के अधिकार के लिए सामूहिक सौदेबाजी और यूनियन बनाने का अधिकार भी शामिल है. उत्पादक कार्य के रूप में परिभाषित समुचित काम में स्वतंत्रता की शर्तें (मौजूदा अधिकार सुरक्षित), ईक्विटी (पर्याप्त पारिश्रमिक) और शालीनता (सामाजिक नीति का कवरेज) भी शामिल है.
तीसरी बात यह है कि विनिर्माण और उद्योग से परे हटकर ऐसे नये क्षेत्रों को खोजने की आवश्यकता है, जिनमें स्वचालन के इस युग में वेतन वाले काम को उत्पन्न करने की क्षमता हो. वर्ष 2018 में नई राष्ट्रीय औद्योगिक नीति को स्पष्ट करते हुए भारत के वाणिज्य व उद्योग मंत्री सुरेश प्रभु ने यही बात कही थी. देखभाल (केयर) वाली अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्र में भारी रोज़गार की संभावनाएँ हैं, जिसकी पुष्टि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की रिपोर्ट “समुचित काम के भविष्य के लिए देखभाल के काम और तत्संबंधी काम-धंधे” से होती है. इस रिपोर्ट में लगाये गए अनुमान के अनुसार बिना वेतन वाले काम के अंतर्गत हर रोज़ आठ घंटे काम करते हुए दो बिलियन के बराबर श्रमिक रोज़गार पाते हैं और साथ ही यह तर्क भी देते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक उद्यम के लिए बढ़ते निवेश के कारण 2013 तक 269 बिलियन रोज़गार के अवसर पैदा होंगे. इससे वे महिलाएँ लाभान्वित होंगी, जो विश्व-भर में मौजूदा वेतन-रहित देखभाल के दो-तिहाई से अधिक काम-धंधों में लगी हैं. इस प्रकार के दीर्घकालीन नीतिगत परिवर्तनों को सुगम बनाने के लिए राज्यों द्वारा केयर सैक्टर में निवेश किया जा रहा है. इसके लिए ज़रूरी है कि शिक्षाकर्मियों और स्वास्थ्य-कर्मियों की मज़दूरी के निम्न स्तरों की छानबीन की जाए.
भारतीय नीति-निर्माताओं के सामने कृत्रिम बुद्धि (AI) से संबंधित चुनौतियाँ हैं: ज्ञानमीमांसा संबंधी, तकनीकी और नैतिक. लेकिन प्रौद्योगिकीय संक्रमण के इस दौर में मानव-निर्णय की माँग यही है कि अल्पकालीन कठिनाइयों के निवारण के लिए पहले दीर्घकालीन उपाय किये जाएँ. इसके लिए हमें पारंपरिक, रैखिक और गैर-विघटनकारी सोच से दूर रहना होगा. कृत्रिम बुद्धि (AI) हमें एक नये आलोक में प्रौद्योगिकी के साथ-साथ सामाजिक संबंधों के बारे में सोचने के लिए भी प्रेरित करती है. सबसे ऊपर, भविष्य हमें समस्या की समझ साझा करने और चुनौती की संदर्भ-विशिष्ट प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है.
फ्रांसिसकुरियाकोज़कैम्ब्रिज विवि में कैम्ब्रिज विकास संबंधी पहल के सलाहकार हैं.
दीपाऐयरकैम्ब्रिजविकाससंबंधीपहलकीशोधनिर्देशकहैंऔरउन्होंने कैम्ब्रिज विविके विकास अध्ययन कार्यक्रम के अंतर्गत स्नातकऔरएमफ़िलकियाहै.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919