पिछले माह भारत के राजकीय दौरे के समय सैशल्स के राष्ट्रपति डैनी फ़ॉरे का भव्य स्वागत किया गया था. हिंद महासागर के अपने छोटे-से द्वीप के लिए वह अपने साथ रक्षा सामग्री के रूप में बहुत बड़ी सौगात लेकर गए थेः सेकंड डोर्नियर एयरक्राफ़्ट, सागर सुरक्षा सहयोग के लिए $100 मिलियन डॉलर का लाइन ऑफ़ क्रेडिट और व्हाइट शिपिंग की सूचना साझा करने के लिए एक करार. परंतु दोनों देशों के साझा हितों से संबंधित सतर्क राजनयिक कथन के बावजूद सेशल्स सैनिक अड्डा बनाने की भारत की माँग को अस्वीकार करने के अपने रुख से पीछे नहीं हटा. राष्ट्रपति फ़ॉरे ने पिछले महीने के आरंभ में ही यह घोषणा कर दी थी कि सैशल्स के धारणा द्वीप के जन रक्षा बलों के लिए हवाई, समुद्री और संचार सुविधाओं के लिए भारत द्वारा वित्तपोषण किये जाने से संबंधित जनवरी में हस्ताक्षरित संशोधित करार पर विधायी विरोध के कारण आगे कार्रवाई नहीं की जाएगी.
इस प्रसंग से हिंद महासागर में सुरक्षा के तेज़ी से बदलते परिदृश्य में किस नये घटना-चक्र की जानकारी मिलती है? सबसे पहले तो क्षेत्रीय सैन्य मामलों में बढ़ते कदम को इस तरह पीछे हटाने की इस घटना से एशिया के सत्ताधारियों द्वारा पहली बार विदेशी अड्डा बनाने के प्रयास से अफ्रीका का महत्व बढ़ गया है. जापान और चीन दोनों ने बाबू एल मंडेब स्ट्रेट चोकपॉइंट के साथ जिबूती में अड्डे स्थापित किए हैं. भारत भी मोज़ाम्बिक चैनल चोकपॉइंट की एप्रोच पर और मॉरीशस के एगालेगा द्वीपों के पूर्व में सेशल्स के धारणा द्वीप में विदेशी अड्डे की तलाश के खेल में शामिल हो गया है.
दूसरी बात यह है कि इस प्रसंग से हिंद महासागर के सैन्यीकरण के कारण हिंद महासागर के छोटे देश असहज अनुभव करने लगे हैं. एक उभरती महाशक्ति के रूप में भारत और उसके नौसेना के योजनाकार निश्चय ही हिंद महासागर में जन मुक्ति सेना (PLA) की नौसेना की बढ़ती तैनाती से चिंतित हैं. लेकिन कुछ छोटे देश, जो अपनी सीमित क्षमता के कारण अपनी विदेश नीति में तटस्थ बने रहना चाहते हैं, इस क्षेत्र में भारत-चीन की होड़ में फँसने से डरते हैं. जहाँ एक ओर जिबूती एक छोटा एकतांत्रिक देश है जो अपने अड्डे के लिए एक पट्टे के माध्यम से अपनी संप्रभुता बनाये रखता है, वहीं सेशेल्स की राजधानी में लोकतांत्रिक विरोध के कारण और राष्ट्रीय असेंबली में बहुमत वाले विरोधी दल के कारण राष्ट्रपति फ़ॉरे उक्त करार के अनुसमर्थन के लिए इसे असेंबली के पटल पर रखने में असमर्थ रहे.
विधि-निर्माताओं और जनता में सेशल्स के इस कदम को लेकर चिंता लगातार बढ़ती चली गई, क्योंकि सेशल्स ऐतिहासिक रूप में गुट-निरपेक्ष और छोटे द्वीप वाला विकासशील देश है. उसकी चिंता यही है कि उनके देश में सैन्य सुविधा की स्थापना की जा रही है, जिसका वित्तपोषण और प्रबंधन पूरी तरह से भारतीय सेना के साथ मिलकर संयुक्त रूप में किया जाएगा. यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थल, एल्डब्रा एटोल से धारणा द्वीप (Assumption Island) की निकटता के कारण पर्यावरण संबंधी चिंताएँ भी उठाई जा रही हैं, क्योंकि सेशल्स इस बात पर गर्व करता रहा है कि समुद्री अर्थव्यवस्था के सतत विकास की नीली अर्थव्यवस्था की अवधारणा का वह अग्रणी देश रहा है.
मॉरीशस के कम आबादी वाले एग्लेगा द्वीपों में इस क्षेत्र के सैन्यीकरण को लेकर विरोध की एक लहर चल रही है. विरोध की यह लहर प्रासंगिक होते हुए भी बहु-चर्चित नहीं है, फिर भी इस क्षेत्र में सैन्यीकरण के प्रति असंतोष का एक उदाहरण है. शांति के लिए आइलैंडर्स गठबंधन (Koalision Zilwa Pou Lape) इन द्वीपों में सैन्य सुविधा के निर्माण के भारतीय प्रस्ताव के खिलाफ़ लोगों को लामबंद करने की कोशिश में जुटा है और उसने धारणा द्वीप (Assumption Island) पर सेशेल्स में विरोध प्रदर्शन के साथ अपनी एकजुटता प्रकट की है. इसके अलावा, श्रीलंका के प्रधान मंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने हिंद महासागर में चलने वाले सैन्य जहाज़ों के लिए आचरण संहिता लागू करने की आवश्यकता पर भी बल दिया है. राष्ट्रपति मैत्रिपला सिरीसेना ने इसी तरह हिंद महासागर रिम एसोसिएशन को इस क्षेत्र में "एक स्थिर कानूनी व्यवस्था" विकसित करने के लिए कहा है ताकि न केवल नशीली दवाओं की तस्करी जैसे अंतर्राष्ट्रीय अपराधों का सामना किया जा सके, बल्कि नौवहन की स्वतंत्रता को भी सुरक्षित रखा जा सके. इन अवधारणाओं के आधार पर निर्मित, श्रीलंका की पाथफ़ाइंडर फ़ाउंडेशन ने चर्चा के लिए "हिंद महासागर के लिए आचरण संहिता" का मसौदा तैयार किया है. हिंद महासागर में महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के कारण उपजी ऐसी चिंताओं का अपना एक इतिहास रहा है. हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाने की अवधारणा पर साठ और सत्तर के दशकों में एशियाई और अफ्रीकी हितधारकों के बीच चर्चा हुई, जिसकी परिणति संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा के प्रस्ताव सं.1971 के रूप में हुई. उस समय संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता का यह सबसे अधिक भयावह दौर था. मौजूदा समय में, छोटे देशों के निवासी प्रशांत महासागर में महाशक्तियों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा को देखते हुए अब हिंद महासागर में इसे रोकना चाहते हैं.
तीसरी बात यह है कि सेशल्स में हाल ही में भारत को जो झटका लगा है, सुदूर भविष्य में रणनीतिक दृष्टि से उसके लिए लाभप्रद सिद्ध हो सकता है. अन्य छोटे देशों की तरह सेशल्स की विदेश नीति का आधार भी “सबका दोस्त और किसी का दुश्मन नहीं” ही है. अगर भारत धारणा द्वीप (Assumption Island) में अड्डा बनाता है, तो सेशल्स के नेता यह छूट चीन जैसे अन्य देशों को भी देने के लिए विवश हो जाएँगे ताकि किसी को यह न लगे कि केवल भारत के साथ ही उसने विशेष सुरक्षा संबंध बनाये हैं. तटस्थता बनाये रखने के लिए कुछ और रास्ते भी हैं, जैसे भारत द्वारा निर्मित सुविधाओं को सागर में विचरण करने वाली अन्य समुद्री सेनाओं (जैसे चीन की पीएलए जलसेना) के साथ साझा करना या किसी अन्य द्वीप पर चीन को अपना अड्डा बनाने की अनुमति देना. सेशल्स के प्रेक्षक सन् 2011 में उस निमंत्रण को याद करेंगे जब अनधिकृत गतिविधियों को रोकने के लिए चीन को एक अड्डा बनाने के लिए निमंत्रित किया गया था. साथ ही साथ शीत युद्ध के दौरान सोवियत जहाजों को विक्टोरिया बंदरगाह तक पहुँचने के लिए अनुमति दी गई थी और उस समय संयुक्त राज्य अमेरिका के उपग्रह ट्रैकिंग स्टेशन का संचालन कर रहे थे. सेशल्स में अड्डे के निर्माण के फलस्वरूप हिंद महासागर की व्यवस्था में कैसा तूफ़ान आ सकता था, इसकी कल्पना कठिन नहीं है. जब सन् 2011 में जापान ने जिबूती में अपने सैन्य अड्डे का उद्घाटन किया था तो उस समय वहाँ केवल जापान और अमरीका के ही अड्डे थे.
हालाँकि टोक्यो की यह पहल अपने देश के शांति संविधान में सुधार लाने के व्यापक प्रयास का ही एक भाग था, लेकिन यह भी हो सकता था कि असावधानी वश जापान अन्य पूर्वोत्तर एशियाई देशों के लिए एक ऐसी नज़ीर स्थापित कर देता और वे भी अफ्रीका में विदेशी सैन्य अड्डा बनाने की होड़ में शामिल हो जाते. जिबूती की तरह यह भी हो सकता था कि धारणा द्वीप में भारत द्वारा अड्डा स्थापित करने के दृष्टांत से नज़ीर लेकर चीन भी सेशल्स में अपना अड्डा बनाने का प्रयास करता. हालाँकि इस प्रश्न का उत्तर अभी-भी अनुत्तरित है.
विदेशी अड्डों के बिना भी भारतीय सेना ने पूरे हिंद महासागर के बंदरगाहों में कहीं भी आने-जाने की व्यापक व्यवस्था कर रखी है. अंततः भारत को धारणा द्वीप में आने-जाने की सुविधा मिल ही जाएगी, क्योंकि इस समय सेशल्स अपने स्तर पर अड्डा बनाने पर विचार कर रहा है. इसलिए ज़्यादा ज़रूरी तो यही होगा कि भारत अपनी समुद्री शक्ति के आर्थिक आयाम का विकास करे. प्रेक्षकों की नज़र इस बात पर है कि चीन की बीआरआई पहल के विकल्प के रूप में भारत-जापान सहयोग के अंतर्गत विकसित होने वाले एशिया-अफ्रीका विकास कॉरीडोर का स्वरूप कैसा उभरता है. हिंद महासागर के वे तमाम छोटे देश, जो चीन की ढाँचागत परियोजना और व्यापार प्रणाली को बहुत बड़ी बाधा के रूप में देखते हैं, इस निवेश का स्वागत कर रहे हैं. छोटे देश चाहते हैं कि चीन के अलावा किसी और देश के मूल ढाँचे का विकल्प भी उनके सामने हो, क्योंकि वे यह महसूस करते हैं कि क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर के व्यापारिक नैटवर्क में उनके पास व्यापक आंतरिक और बाहरी कनैक्टिविटी भी होनी चाहिए. चीन की विस्तारवादी नीति को लेकर महाशक्तियाँ कितनी चिंतित हैं, इस बात का पता इसी बात से लग जाता है कि अपनी तुलनात्मक शक्तियों पर बल देते हुए अमरीका, जापान, फ्रांस और भारत, हिंद महासागर क्षेत्र के उन तमाम छोटे देशों के साथ अपने रणनीतिक संबंध मज़बूत करना चाहते हैं. जो ऐसे संबंध बनाने के लिए उत्सुक हैं.
नीलंती समरनायके वाशिंगटन डीसी क्षेत्र में स्थित एक अलाभकारी शोध संगठन सीएनए में रणनीतिक अध्ययन की विश्लेषक हैं. उनका शोधकार्य हिंद महासागर की सुरक्षा और दक्षिण एशिया के छोटे देशों पर केंद्रित है.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919