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जैसे-जैसे कृषि-आधारित कारोबार बढ़ता है, तो भारत में कृषि की स्थिरता पर चर्चा कौन कर रहा है?

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20/12/2021
निखित कुमार अग्रवाल

26 नवंबर,2020 से दिल्ली के बॉर्डर पर विरोध प्रदर्शन करने वाले किसानों ने हाल ही में कृषि कानूनों के खिलाफ़ अपना आंदोलन वापस ले लिया. यह विरोध मोदी सरकार के उन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ़ शुरू किया गया था, जिसके बारे में दावा किया गया था कि इनसे भारत के कृषि क्षेत्र में सुधार आएगा. कृषि उत्पादों की खरीद, बिक्री और स्टॉकिंग से संबंधित नियमों में ढील देने और भारत में खेती-बाड़ी को लिखित करार पर आधारित करने के लिए इन तीनों कानूनों को संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में रद्द कर दिया गया. इन तीन कानूनों का अंतर्निहित आधार, जैसा कि कृषि से जुड़े निजी व्यवसायियों ने स्वयं तर्क दिया है, कृषि-खाद्य सप्लाई चेन में निजी क्षेत्र की भागीदारी को सुनिश्चित करना और निवेश को इस आशा के साथ सुलभ बनाना था कि कार्य-कुशलता का लाभ किसानों की आय में परिलक्षित होगा. जहाँ एक ओर इन कानूनों को रद्द कर दिया गया है, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार द्वारा प्रदर्शनकारियों के खिलाफ़ आपराधिक मामलों को वापस लेने जैसी उनकी कुछ माँगों को स्वीकार करने और उनकी अन्य माँगों के लिए उनके साथ बातचीत करने के लिए सहमत होने के बाद, प्रदर्शनकारी किसानों ने अपना विरोध प्रदर्शन वापस ले लिया है. उनमें से सबसे विवादास्पद माँग थी,उनके कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSPs) की गारंटी देने वाले कानून की माँग. ये मूल्य केंद्र सरकार द्वारा चुनिंदा कृषि उत्पादों के लिए घोषित न्यूनतम मूल्य हैं, जिस पर लेनदेन को किसानों के लिए लाभकारी माना जाता है.

हालाँकि इन विवादास्पद कृषि कानूनों के पक्ष-विपक्ष में बहुत लिखा जा चुका है, लेकिन भारतीय कृषि को किसानों के लिए पारिस्थितिकी की दृष्टि से और आर्थिक रूप से लाभप्रद बनाने और उसमें स्थायित्व लाने के लिए जिस दिशा में जाने की ज़रूरत है, उसके बारे में चर्चा बहुत कम हुई है. यह चर्चा केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे भारत की कृषि को सही आकार मिलेगा,बल्कि इससे कृषि के क्षेत्र में कृषि-आधारित कारोबार को स्पष्ट दिशा भी मिलेगी और शुरुआती कुछ वर्षों में इन कानूनों के लागू होने से पहले ही इसकी जड़ें मज़बूत होने लगी थीं. मौजूदा बदलाव में तेज़ी लाना ही इन तीन कानूनों का एकमात्र उद्देश्य था.

खेती-बाड़ी के क्षेत्र में कृषि-कारोबार के विकास को भारत के तकनीकी-उद्मीय विकास में आए निरंतर परिवर्तन में भी देखा जा सकता है. यह प्रक्रिया पिछले दशक में ही शुरू हुई और यह स्टार्ट-अप्स की बढ़ती तादाद में भी प्रतिबिंबित होती है. मुख्यतः 2018 और 2020 के बीच कृषि-तकनीकी स्टार्ट-अप्स में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए बनाये गए ThinkAg नामक प्लेटफ़ॉर्म के अनुसार भारत की प्रौद्योगिकी-आधारित कृषि संबंधी फ़र्मों को लगभग $1.5 बिलियन डॉलर का रिकॉर्ड पूँजीगत इनफ़्लो प्राप्त हुआ और यह इनफ़्लो अधिकाशतः अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों से ही प्राप्त हुआ. इस समय देश-भर में 600 से अधिक कृषि-तकनीकी स्टार्ट-अप्स लगभग 14 मिलियन किसानों से जुड़े हुए हैं. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के द्वारा कोविड-19 के कारण घर पर ही रहने के कारण किसानों के आवागमन में बहुत कमी आ गई है और ऐसे हालात में उनकी निर्भरता कृषि-तकनीकी फ़र्मों की गतिविधियों पर अधिकाधिक बढ़ती चली गई. फ़ार्म गेटों से सीधे वसूली होने लगी और खेतीबाड़ी से संबंधित इनपुट की डिलीवरी भी फ़ार्मों को होने लगी. नए बाज़ारों में इनकी वृद्धि और मात्रा को बढ़ाने के लिए ये फ़र्म इन गतिविधियों का खर्च भी उठाती हैं.

सवाल यही उठता है कि कृषि-कारोबार से संबंधित विकास का यह मॉडल क्या भारत की कृषि-व्यवस्था और किसानों को लिए फ़ायदेमंद है? दशकों तक औद्योगिक कृषि के अध्ययन से यह तर्क सामने आया है कि कृषि से संबंधित भविष्य की किसी भी अवधारणा को पारिस्थितिकीय स्थायित्व पर केंद्रित करने की आवश्यकता है, जिसे खेती के अर्थशास्त्र के साथ-साथ प्राकृतिक ईको-सिस्टम के स्थायी उपयोग के रूप में समझा जा सकता है. क्या कृषि के कारोबार पर आधारित विकास के मॉडल से खेती-बाड़ी के पारिस्थितिकीय स्थायित्व को बढ़ावा मिल रहा है?

2021 में कृषि-तकनीकी उद्यमियों और निवेशकों से जुड़े अपने फ़ील्डवर्क के दौरान मैंने भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से अलग एक क्षेत्र के रूप में कृषि से संबंधित अलग-अलग लोगों से बात की. यह बातचीत केवल इसकी ग्रामीण स्थिति के बारे में नहीं थी, जिसका बुनियादी ढाँचा (खराब इंटरनेट कनेक्टिविटी सहित कम लागत वाले डेटा में हाल ही में आई क्रांति के बावजूद) अपेक्षाकृत कम विकसित है और इससे भी महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इसके पारिस्थितिकीय आधार के कारण उनके उत्पादों और सेवाओं के मुद्रीकरण के लिए अवसरों की कमी है.  उदाहरण के लिए, फसलों में बुवाई से लेकर कटाई तक का एक अस्थायी चक्र होता है, अधिकांश कृषि उत्पादों में लंबी दूरी तक ढुलाई के लिए एक सीमित शेल्फ जीवन ही होता है और देश में खेती के पारिस्थितिकीय स्थायित्व को सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है. फिर भी, अधिकांश कृषि-तकनीकी फ़र्मों ने दिन-प्रतिदिन के फसल संचालन और खेती के स्थायित्व को सुनिश्चित करने के बजाय किसानों को कृषि रसायनों की होम-डिलीवरी करने और कृषि उत्पादों के बाज़ार लिंकेज को सुनिश्चित के लिए कृषि सप्लाई चेन पर ध्यान केंद्रित किया है. भले ही वे कृषि संबंधी स्थायित्व की बात तो करते हैं,लेकिन वे इसे प्रत्यक्ष प्रभाव के बजाय हस्तक्षेपों के गौण उत्पाद के रूप में ही देखते हैं. अपने फ़ील्डवर्क के दौरान एक कृषि-तकनीकी निवेशक ने मुझे बतायाः“ वास्तव में इस क्षेत्र में हम देखते हैं कि स्थायित्व नवाचार का ही परिणाम है. लेकिन मैं इसे लक्षित परिणाम के बजाय बोनस के रूप में अधिक देखता हूँ...निश्चय ही उद्यमी इसे निरंतर बढ़ने वाले कारोबार के रूप में विकसित करना चाहते हैं और निवेशक अपने निवेश पर लाभ कमाना चाहते हैं, लेकिन मैं साफ़गोई से कहना चाहूँगा कि कोई भी निवेशक इस क्षेत्र में मात्र स्थायित्व की दृष्टि से निवेश नहीं करता है. मुझे लगता है कि इसके लिए बिल्कुल अलग किस्म की पूँजी की ज़रूरत होती है. यह उद्यम पूँजी (VC) या निजी पूँजी नहीं हो सकती,क्योंकि इसमें सात वर्षों में 30 प्रतिशत आंतरिक प्रतिफल दर (IRR) के लाभ पर नज़र रहती है. अगर इससे स्थायित्व आता है, तो बढ़िया. अगर ऐसा नहीं होता है, तो भी ठीक है."

इसके अलावा, कहीं और (जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका) से तकनीकी-उद्यमी हस्तक्षेपों के परिणामस्वरूप कृषि के डिजिटलीकरण में हाल की गतिविधियों से यह तर्क सामने आया है कि कृषि में हाल ही में हुए प्रौद्योगिकीय और पद्धतिगत परिवर्तन पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने के बजाय उन्हें “बढ़ावा दे सकते हैं” और ये जमीन हड़पने के अलावा "डेटा हड़पने" के कारण भी बन सकते हैं. इसके बावजूद भारत सरकार कृषि में तकनीकी-उद्यमीय विकास को सक्रिय तौर पर प्रोत्साहन दे रही है. उदाहरण के लिए कृषि मंत्रालय ने भारत में कृषि के डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने के लिए भारत डिजिटल कृषि ईकोसिस्टम (IDEA) नाम से एक ड्राफ़्ट फ्रेमवर्क जारी किया है. प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है ?

इसका पहला कारण तो यह है कि तकनीकी-उद्यमितावाद के समर्थक प्रौद्योगिकीय भविष्यवाद और नवउदारवाद की विचारधाराओं से प्रेरित हैं. अपने फील्डवर्क के दौरान, मैंने लगातार 1990 के दशक के दौरान शुरू हुई भारतीय कृषि के उदारीकरण की अधूरी प्रक्रिया के बारे में नीति निर्माताओं और प्रभावशाली कृषि अर्थशास्त्रियों के बीच स्पष्ट निराशा की भावना देखी. नीति आयोग के कृषि अर्थशास्त्री रमेश चंद ने दिसंबर 2919 में यह तर्क सामने रखा कि कृषि के लिए, जिसे 1991 के सुधार के एजेंडा में पीछे छोड़ दिया गया था, किसानों की आर्थिक बेहतरी के लिए "प्रतिमान बदलाव" की आवश्यकता है. चंद के अनुसार आवश्यकता इस बात की है कि विज्ञान प्रेरित प्रौद्योगिकी को विकसित किया जाए, फसल काटने से पहले और बाद के चरणों में निजी क्षेत्र की भूमिका को बढ़ाया जाए,उत्पादन की मंडियों को उदार बनाया जाए, ज़मीन के पट्टे से जुड़े बाज़ार को सक्रिय किया जाए और कार्य-कुशलता पर ज़ोर दिया जाए. IDEA के दस्तावेज़ में यह दावा भी किया गया है कि भारतीय कृषि को “कार्य-कुशलता और उत्पादकता के उच्च स्तरों ” तक पहुँचाने के लिए डिजिटलीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका है.” इन बयानों का अंतर्निहित आधार यह है कि भारतीय कृषि में कार्य-कुशलता की कमी है. इसकी कार्य-कुशलता बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने,निर्यातोन्मुख वृद्धि करने और डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग की आवश्यकता है. लेकिन वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि मुक्त बाज़ार कई कारणों से कृषि के क्षेत्र में कारगर नहीं हो पाते. इनमें से एक कारण तो यही है कि वैश्विक उत्तर के विकासशील देशों में कृषि के क्षेत्र में भारी सब्सिडी के कारण वैश्विक कृषि बाज़ार बहुत विषम हैं. साथ ही वे यह नहीं समझ पाते कि अतीत में प्रौद्योगिकी-प्रेरित विकास के कारण भारतीय कृषि के क्षेत्र में अनेक भारी समस्याएँ पैदा हो गई थीं और भारतीय कृषि आज भी इन समस्याओं से जूझ रही है,जैसे मिट्टी का क्षरण, भूजल का ह्रास और कीटों के हमलों की बढ़ती आवृत्ति.

दूसरा कारण यह है कि दूरसंचार और अंतरिक्ष जैसे अन्य क्षेत्रों में विकास के क्रम में कृषि विकास को समझने की कोशिश हो रही है. यह मान लिया गया है कि डिजिटलीकरण के कारण अन्य क्षेत्रों की तरह कृषि में भी कायाकल्प हो सकता है. हालाँकि, भले ही कृषि-तकनीकी लोग कृषि के पारिस्थितिकीय आधार को तेज़ी से पहचानने लगे हैं, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, कृषि के प्रति पुरुषवादी तकनीकी-वैज्ञानिक दृष्टिकोण अभी भी वैसे ही बना हुआ है; वे यह नहीं समझ पाते कि इन समाधानों में भौतिक दुनिया को अकल्पनीय तरीकों से बदलने की अपनी शक्ति का अभाव है और इसके अनपेक्षित परिणाम भी हो सकते हैं, जैसा कि औद्योगिक कृषि के इतिहास ने दुनिया भर में बार-बार इसे सिद्ध भी किया है.

अंत में, प्रमुख औद्योगिक सामाजिक-तकनीकी व्यवस्था, सुधारों की वैकल्पिक समझ (जैसे "प्राकृतिक खेती") की दिशा में किसी भी कदम का कड़ा विरोध करती है, जैसा कि आंध्र प्रदेश के एक हाल ही अध्ययन से पता चला है. हाल ही में, आंध्र प्रदेश में कृषि के स्थायी रूपों में संक्रमण के लिए किये गये दुनिया के सबसे बड़े प्रयासों में से एक प्रयास की "राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी और औद्योगिक इनपुट (बीज, उर्वरक, कीटनाशकों) के सप्लायरों द्वारा यह कहते हुए भारी आलोचना की गई कि यह एक "प्रतिगामी मार्ग" है,जो देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल देगा. आवश्यकता इस बात की है कि प्रौद्योगिकी और प्रगति पर निर्भरता से उत्पन्न भावात्मक संरचनाओं का मुकाबला प्राकृतिक खेती जैसे विकल्पों से किया जाए.ये विकल्प कृषि नौकरशाही से जुड़े कुछ लोगों को विज्ञान और प्रगति के विपरीत लग सकते हैं, लेकिन यह सवाल अभी भी वैसे ही रह जाता है कि जब तक कृषि के स्थायी भविष्य पर चिंतन-मनन करने वाले वैकल्पिक उपायों पर निवेश नहीं किया जाता,तब तक यह कैसे हो पाएगा. जैसा कि हमने भारतीय कृषि पर हाल ही में एक सह-लेखकीय रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि किसानों के लिए देश की कृषि प्रणाली में सार्थक परिवर्तन लाने के लिए एक संभावित तरीका यह है कि इन वैकल्पिक कृषि वायदा कारोबार के साथ न्यूनतम कीमतों की अपनी माँगों का सामंजस्य स्थापित किया जाए.

निखिल कुमार अग्रवाल UCLA में नृवंशविज्ञान (anthropology) में डॉक्टरल प्रत्याशी हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.