Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

कोविड-19 और मृत्यु पंजीकरण में सुधार की ज़रूरत

Author Image
13/04/2020
आशीष गुप्ता

इस समय जब हम अपने हाथ और भी ज़्यादा अच्छे से धो रहे हैं, आपस में दूरी बना रहे हैं, और कोविड-19 से जूझ रहे हैं, हम खुदकों जनसांख्यिकी और रोग-विज्ञान के कई सवालों से घिरा पाते हैं। यह वाइरस कितना फैलेगा? इस की मृत्यु-दर क्या है? सबसे ज़्यादा खतरा किन लोगों को है? स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे ज़्यादा ज़रूरत कहाँ है? इन सवालों के जवाब स्वास्थ्य के आंकड़े तैयार करने वाली प्रणाली की विश्वसनीयता पर टिके हैं। स्वास्थ्य के सबसे अहम आंकड़े काफी आसानी से जुटाये जा सकते हैं: हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण अगर सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम में हो। थोड़ी और पेचीदा प्रणालियाँ बीमारियो, महामारी, और चिरकाली रोगों पर नज़र रखती हैं। कोविड-19 के चलते दुनिया भर में स्वास्थ्य-व्यवस्था के साथ-साथ स्वास्थ्य के आंकड़े जुटाने वाली प्रणालियों पर भी काफी दबाव है। भारत में यह चुनौतियाँ और भी बड़ी हैं क्योंकि कई लोगों की मृत्यु का कोई पंजीकरण नहीं होता और मृत्यु के आंकड़े काफी सालों बाद जारी किए जाते हैं।

कोविड-19 के प्रभाव का शुरुआती आकलन इस बीमारी से हुई मौतें, बीमारी के मामले, और उनके भाग से किया जा रहा है। अँग्रेजी में इस भाग को केस फेटेलिटी रेट या मामला घातक दर कहते हैं। इस समय यह सौ में से 0.58 (इसराईल में) से लेकर 12.3 प्रतिशत (इटली में) के बीच में है। इस दर में इतना अंतर कई वजहों से हो सकता है – जैसे कि कोई आबादी कितनी बूढ़ी है, उनका स्वस्थ्य पहले कैसा था, और वहाँ की स्वास्थ्य सेवाएँ इस बीमारी का किस हद तक सामना कर पायी। जैसे कि अब काफी लोग समझते हैं, कितने लोगों की इस बीमारी के लिए जांच हुई है, इस से भी मृत्यु दर में असर पड़ता है। एक और कारण है जो महत्वपूर्ण है: कब और किस हद तक कोविड-19 से हुई मृत्यु को पहचाना जाता है। जिन देशों में सभी मौतों का पंजीकरण होता है, उन देशों में भी कोविड-19 की मौतों के आंकड़े ज़्यादातर अस्पतालों से आ रहे हैं। घर पर हुई मौतों की जानकारी इन देशों में धीरे-धीरे आ रही है, मगर मौत के कारण में कुछ संदेह के साथ। फिर भी, इन देशों में सरकारें अस्पताल में हुई और घर पर हुई दोनों तरह की मौतों की जानकारी पर ध्यान दे रही हैं।

चित्र 1: भारत में मृत्यु के पंजीकरण का अधूरापन

भारत जैसे देशों में, जहां मृत्यु का पंजीकरण अधूरा है और ज़्यादातर मौतों की वजह नहीं पता चलती, कोविड-19 के प्रभाव की समझ बनाना बहुत मुश्किल है। हालाकि इस में सुधार आया है, 2017 में भारत में पाँच में से एक मृत्यु पंजीकृत नहीं हुई थी। जिन मौतों में मौत की कोई वजह पता चली थी वो और भी छोटा भाग हैं – पाँच में एक। देरी से इन आंकड़ों का संकलन करने से और दिक्कतें आती हैं: आखरी साल जिस के लिए यह आंकड़ो के आधार पर कोई रिपोर्ट बनाई गयी है वो 2017 है। इस से भी ज़्यादा कठिनाई इस बात से आती है कि एक अध्ययन के हिसाब से 38 प्रतिशत मौतों में उम्र की जानकारी नहीं थी, और 8 प्रतिशत में लिंग की जानकारी नहीं थी। आपातकालीन स्वास्थ्य संबंधी स्थिति से जूझ रहे संगठनो के लिए ऐसा आधा-अधूरा मृत्यु पंजीकरण का सिस्टम कोई काम का नहीं है।

किसी भरोसेमंद पंजीकरण प्रणाली के अभाव में, भारत सरकार का समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम (Integrated Disease Surveillance Program: IDSP) कोविड-19 के मामलो और मृत्यु की जानकारी अस्पतालों और जांच करने वाली प्रयोगशालाओं से इखट्टा कर रहा है। यह संस्था इस समय ज़रूरी काम कर रही है, और इस संस्था के कर्मचारियों को इस वक्त काफी मेहनत करनी पड रही होगी। वो हमारी प्रशंसा के हकदार हैं। मगर समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम की सबसे बड़ी खामी यह है कि अस्पताल से बाहर हुई मौतों की जानकारी पर उसका कोई ध्यान नहीं है।

समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम पर पूरी तरह निर्भर रहना हमारी कोविड-19 के हमारी मूहीम में काफी नुकसान पहुंचता है। सबसे पहले, यह निगरानी कार्यक्रम उन मौतों को नज़रअंदाज़ कर देता है जो कोविड-19 से तो हुईं मगर जिनमें बीमारी की जांच नहीं हुई थी। हम ऐसे बहुत सारे लोगों को नहीं गिन पाएंगे जिनकी पहले की बीमारी कोविड-19 के कारण और बिगड़ गयी और वो बिना कोविद-19 की जांच के मर गए। दूसरा, ऐसे कई लोग मर जाएंगे क्योंकि जो स्वस्थ्य सेवाएँ उनको बचा सकती थीं वो कोविड-19 के रोकथाम की तरफ लगा दी गयी। इन मौतों की भी गिनती नहीं होगी। तीसरा, कोविड-19 से बचाव के लिए जो लौकडाउन हुआ है उसका स्वास्थ्य पर प्रभाव पता लगाना भी काफी मुश्किल है। सी.बी. अमन, जी.एन. थेजेश और कनिका शर्मा ने मीडिया रिपोर्ट इकट्ठा  कर यह पता लगाया कि भूख, चलने में थकान, और पुलिस की बर्बरता के कारण कम से कम पचास लोग मर चुके हैं। असल संख्या इस से काफी ज़्यादा होगी। मृत्यु पंजीकरण अधूरा होने के कारण सरकार के पास हमारी कुपोषित और कमजोर आबादी पर लॉकडाउन का क्या प्रभाव पड़ा इस पर कोई जानकारी नहीं होगी। अगर यह सभी तरह की मौतों की निगरानी होती तो स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारी मदद कितनी और कहाँ पर जाए उस पर थोड़ा असर पड़ता।

सब कुछ मिला कर, इन प्रयोगशालाओं और अस्पतालों से मिले डाटा पर इसलिए नहीं निर्भर किया जा सकता क्योंकि कुछ ही लोग इन तक पहुँच पाते हैं। इसी वजह से एक मृत्यु पंजीकरण का पूरा होना और समय पर उसके नतीजे निकालना बहुत ज़रूरी है। मृत्यु पंजीकरण सिस्टेम में सभी मृत्यु की जानकारी जाती हैं, बस कुछ बीमारियों की नहीं। मौत के कारण की जानकारी जिस हद तक उपलब्ध है, वो इस सिस्टम में नोट की जा सकती है। जानकारी इकट्ठा करना और नोट करना आसन है – किसी प्रयोगशाला की तरह टेक्निकल जानकारी या उपकरण की ज़रूरत नहीं है। और यह सार्वजनिक होता है – किसी की भी मौत की जानकारी दी जा सकती है, बिना दिक्कत के। एक पूरा और भरोसेमंद मृत्यु पंजीकरण प्रणाली उन जगहों पर ध्यान, मदद, और संसाधन पहुंचाती है जहां उसकी ज़रूरत होती है, न केवल वहाँ

जहां अस्पताल और प्रयोगशालाएँ हैं।

बाएँ: एक महिला पंचायत-कार्यालय से मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए इंतज़ार कर रही है. दाएँ: पंचायत-कार्यालय की ओर से घोषणा की जाती है कि यह जन्म और मृत्यु का उप-पंजीयक कार्यालय भी है.

तो मृत्यु पंजीकरण में सुधार कैसे लाया जाए? सबसे पहले, भारत में ऐसे कई राज्य हैं जिनमें मृत्यु का पंजीकरण पूरा है। उन से सीखने की ज़रूरत है। तुरंत ही, सरकार यह कर सकती है कि जिस जानकारी को इतनी मेहनत से लोग देते हैं और जिसको मृत्यु पंजीकरण का सिस्टम रेकॉर्ड करता है उसका जल्दी से संकलन किया जाए। इसमें अभी काफी देरी है – आखरी बार के लाइफ एक्सपेकटंसी (यानि औसतन उम्र कितनी है किसी की आगर वो आज की मृत्यु दरों से गुजरे) के आंकड़े 2013-2017 के हैं। परिवारों से जानकारी लेने के आधार पर जो मृत्यु के कारण के आंकड़े हैं वो 2010-13 के हैं। समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम की आखरी साप्ताहिक रिपोर्ट भी 2020 के पहले महीने तक की ही है। अब जब लोगों को बांटने वाले राष्ट्रीय जनसंख्या रेजिस्टर में देरी हो गयी है, जनगणना विभाग के अफसरों का कीमती वक्त मृत्यु पंजीकरण के आंकड़े जोड़ने में लगाया जा सकता है। एक दिन की मृत्यु की रिपोर्ट जितनी जल्दी मिल जाए उतना अच्छा है। फोन पर मृत्यु की जानकारी लेना, उन लोगों के घर जाकर मृत्यु का कारण समझने की कोशिश करना जिनकी अस्पताल में मृत्यु नहीं हुई और उसे पंजीकरण सिस्टम में डालना, कोविड-19 की जांच के लिए एक बड़ा सेंपल सर्वे करना, और लॉकडाउन का प्रभाव फोन सर्वे से पता करना, ऐसे और भी प्रयास करे जा सकते हैं। यह भी याद रखना ज़रूरी है कि जिन लोगों को यह बीमारी हुई है उनको परेशान करना या उन्हे दोष देना इस बीमारी से लड़ाई में बाधा डालता है।

भारत स्वास्थ्य संबंधी विश्वसनीय डेटा को एकत्र करने में काफ़ी समय से अग्रणी रहा है. सन् 1954 में राष्ट्रीय सेंपल सर्वेक्षण (NSS) ने मृत्यु-दर पर एक सर्वेक्षण किया था. यह सर्वेक्षण विश्व में इस ढंग के पहले सर्वेक्षणों में से था. सत्तर के दशक में भारत ने सेंपल पंजीकरण प्रणाली (Sample Registration System: SRS) के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभायी थी. यह मृत्यु-दर पर राष्ट्रीय स्तर का प्रतिनिधि पैनल सर्वे है। सेंपल पंजीकरण प्रणाली (SRS) के पैनल पर मौतों के कारणों को सुनिश्चित करने के लिए इंटरव्यू विधि का इस्तेमाल करने में भी भारत अग्रणी रहा है। वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (Annual Health Survey: AHS), 2010-13 और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey: NFHS) 2015-16 विश्व के सबसे बड़े सर्वेक्षणों में गिने जाते हैं.

भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तत्काल करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य हैं। इन में से एक ज़रूरी काम स्वास्थ्य डेटा प्रणाली में सुधार लाना है. अगर हम भारत की पुरानी विरासत को ध्यान में रखते हुए मृत्यु के पंजीकरण को पूरा करें तो वह इस संकट के दौर में और उसके बाद स्वास्थ्य सुधारने में मदद करेगा।

आशीष गुप्ता पेंसिल्वानिया विश्वविद्यालय में जनसांख्यिकी और समाजशास्त्र में डॉक्टरेट के विद्यार्थी हैं. यह लेख पहले भारत में बदलाव प्रकाशन में छपा था, जिसे पेंसिल्वानिया विश्वविद्यालय का सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडि ऑफ इंडिया निकलता है।

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919