भारत संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है लेकिन सभी भारतीय समृद्ध नहीं हो पा रहे हैं. देश की विकास-गाथा में असमानता का बढ़ना तथा सरकार द्वारा अपने नागरिकों को गरीबी और बच्चों में कुपोषण जैसी अन्य प्रकार की आर्थिक दुर्दशा से बाहर निकालने में विफलता देखी गई है. यद्यपि स्वतंत्र भारत के इतिहास में गरीबी उन्मूलन के कल्याणकारी कार्यक्रम किसी न किसी रूप में मौजूद रहे हैं, लेकिन उनका प्रभाव सीमित ही रहा है. समावेशी विकास के लिए पुनर्वितरण का महत्व पिछले दो दशकों में ही सामाजिक नीति एजेंडे में शीर्ष पर आ गया है. 2000 के दशक के प्रारंभ में, राज्य सरकारों द्वारा की गई विभिन्न स्वतंत्र पहलों के अनुरूप, “अधिकार-आधारित” विधायी सुधारों - भोजन, काम और शिक्षा का अधिकार - ने देश में सार्वजनिक नीति विमर्श के लिए सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को केंद्रीय बना दिया. सामाजिक पेंशन, मातृत्व लाभ, आवास और रसोई गैस सब्सिडी के विस्तार के साथ-साथ किसानों को बिना शर्त नकद सहायता ने सामाजिक कल्याण के लाभों की श्रृंखला को और बढ़ा दिया है, साथ ही चुनावी नतीजों के लिए भी इनका महत्व बढ़ गया है. हाल ही में प्रभु पिंगली के साथ मिलकर लिखी गई अपनी पुस्तक The Future of India’s Social Safety Nets: Focus, Form, and Scope में हमने विभिन्न सामाजिक सुरक्षा तंत्रों के माध्यम से सामाजिक सहायता प्रदान करने में भारत के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया है, पिछले 75 वर्षों के स्वतंत्र इतिहास में उन्हें कैसे शुरू किया गया, कैसे निरस्त किया गया और कैसे पुनः शुरू किया गया. ऐसा करते समय, हम सामाजिक नीति के डिज़ाइन के लिए भावी चुनौतियों का भी अनुमान लगाते हैं.
हमारे तर्क का मूल आधार यह है कि सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को किसी व्यक्ति के जीवन चक्र में सहायता की एक “प्रणाली” के रूप में सोचा जाना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करता है कि वे बिना किसी गलती के अपनी विकासात्मक क्षमताओं से नीचे न गिरें. सामाजिक कल्याण की नीतियों को उनके फोकस (लक्षित लाभार्थियों), स्वरूप (कल्याणकारी साधन जैसे नकदी, खाद्यान्न आदि) और कार्यक्षेत्र (विकासात्मक लक्ष्य) के संदर्भ में सावधानीपूर्वक तैयार किया जाना चाहिए, जिसमें अर्थव्यवस्था की बदलती आर्थिक संरचना और सामने मौजूद विकासात्मक चुनौतियों पर उचित विचार किया जाना चाहिए (तालिका 1 देखें). इसलिए, कल्याणकारी नीतियों को सहायता के एक मेनू के इर्द-गिर्द तैयार किया जाना चाहिए, ताकि मानव दुर्दशा की मौजूदा और प्रत्याशित संभावना, दोनों को संबोधित करके एक “सामाजिक न्यूनतम” सुनिश्चित किया जा सके. परंपरागत रूप से, भारत की गरीबी पर बहस कैलोरी-केंद्रित धन-मीट्रिक मूल्यांकन पर केंद्रित रही है, जो मानव समृद्धि के दायरे के माप को सीमित कर रही है. हमारा तर्क है कि जोखिमों और असहायता के विरुद्ध यह सुरक्षा की एक प्रणाली के रूप में तथा सामाजिक सशक्तीकरण के माध्यम से सामाजिक सुरक्षा जाल, व्यक्तियों को मौजूदा और संभावित अभावों से मुक्त कर सकता है, और इस प्रकार देश में गरीबी उन्मूलन के दायरे को व्यापक बना सकता है.
तालिका 1: भारत में प्रमुख सामाजिक कल्याण संबंधी कार्यक्रम
स्वरूप, फ़ोकस और दायरा
इस पुस्तक में हमने तर्क दिया है कि सामाजिक कल्याणकारी नीतियों का फोकस, स्वरूप और दायरा ऐतिहासिक रूप से मानवीय अभाव के कारणों को दूर करने के उद्देश्य से की गई ठोस कार्रवाई के बजाय, आकस्मिकताओं (अकाल, हरित क्रांति से प्रेरित अधिशेष खाद्यान्न, राजकोषीय प्रतिबद्धताओं या सिविल सोसायटी के दबाव) से उत्पन्न हुआ है.
चित्र 1 में, हमने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान शहरों के लिए खाद्यान्न राशन की शुरूआत से लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से केंद्र द्वारा प्रायोजित सामाजिक कल्याणकारी कार्यक्रमों की ऐतिहासिक समयरेखा का खाका खींचा है. इसी समय, देश के कई भागों में बार-बार पड़ने वाले सूखे के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए 1973 में महाराष्ट्र रोज़गार गारंटी योजना (EGS) शुरू की गई थी. रोज़गार गारंटी योजना (EGS), (जो महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS), 2004 पर आधारित है) ने 1970 के दशक के अंत में देश में खाद्यान्न उत्पादन के अधिशेष के दौरान धीरे-धीरे अपना महत्व खो दिया. धीरे-धीरे, 1980 और 1990 के दशकों के दौरान मूल्य श्रृंखला में अत्यधिक भ्रष्टाचार और रिसाव के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के प्रदर्शन में भी गिरावट आई और 1997 में इसे गरीब-समर्थक लक्षित कार्यक्रम के रूप में पुनः डिजाइन किया गया.
भारतीय बच्चों में कुपोषण के उच्च स्तर के बावजूद, पोषण में सुधार 1970 के दशक के मध्य तक नीतिगत एजेंडे में नहीं दिखाई दिया. एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS), पोषण की समस्या से निपटने के लिए बनाया गया एकमात्र कार्यक्रम है, जिसे 1975 में देश के कुछ ही ब्लॉकों में पायलट आधार पर शुरू किया गया था, लेकिन खराब क्रियान्वयन के कारण इसकी प्रभावशीलता सीमित रही. 2000 के दशक में जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ी, बच्चों के पोषण के लगातार उच्च स्तर पर पहुँच रहे खराब परिणामों ने महत्वपूर्ण राजनीतिक ध्यान आकर्षित करना शुरू कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS) में विस्तार और सुधार हुआ. इसी प्रकार, 1995 में प्राथमिक शिक्षा के लिए पोषण सहायता का राष्ट्रीय कार्यक्रम (NP-NSPE) शुरू होने तक कक्षा में भूख पर ध्यान नहीं दिया गया था - जिसे बाद में मध्याह्न भोजन योजना (MDMS) नाम दिया गया - लेकिन सार्वजनिक स्कूलों में अनिवार्य भोजन पर अदालत के निर्देश से मध्याह्न भोजन योजना (MDMS) में सुधार सामने आया.
चित्र 1: भारत में सामाजिक सुरक्षा जाल का उदय -स्वरूप,फ़ोकस और दायरा
1990 के दशक तक, सामाजिक कल्याणकारी नीति खाद्य सुरक्षा के इर्द-गिर्द केंद्रित थी. यहाँ तक कि गरीबी रेखा भी "न्यूनतम कैलोरी आवश्यकताओं" में ही निहित थी. ग्रामीण क्षेत्रों पर नीतिगत फोकस और खाद्य सुरक्षा के विकासात्मक दायरे को सीमित करना - जो मुख्य रूप से भारत के अकाल के इतिहास (औपनिवेशिक काल से) से प्रेरित है - कुपोषण, आजीविका की असुरक्षा और स्वास्थ्य परिणामों पर ध्यान दिए बिना, आर्थिक नियोजन में एक बड़ी चूक थी. शहरी गरीबी के कारण की अनदेखी करने से सामाजिक नीतियों का दायरा सीमित हो गया.
1990 के दशक के आर्थिक सुधारों ने भारतीय नागरिकों को प्राप्त सीमित सामाजिक सुरक्षा को और भी सीमित कर दिया. राजकोषीय विवेक के विचार से प्रेरित होकर, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) को गरीबों पर केन्द्रित एक लक्षित कार्यक्रम (TPDS) के रूप में पुनः डिज़ाइन करना पड़ा. परिणामस्वरूप, 1997 में पहली बार परिवारों को गरीबी रेखा से नीचे (BPL) और गरीबी रेखा से ऊपर (APL) के रूप में वर्गीकृत किया गया और राशन कार्डों के माध्यम से इन दोनों श्रेणियों की पहचान की गई. तब से APL/BPL भेद नीतिगत फोकस के एक चिह्न के रूप में जारी रहा है - कुछ राज्यों को छोड़कर - राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013 ने PDS कवरेज को "अग्रता" और "गैर- अग्रता " परिवारों तक विस्तारित किया है.
यह भी आश्चर्यजनक है कि स्वतंत्र भारत के प्रथम पाँच दशकों के दौरान, सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों वाले थोड़े-से अल्पसंख्यकों को छोड़कर, अधिकांश भारतीयों के लिए वृद्धावस्था पेंशन का कोई प्रावधान नहीं था. 1995 में, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (NSAP) ने बुजुर्गों, विधवाओं और विकलांगों के लिए गैर-अंशदायी सामाजिक पेंशन के विचार के साथ कल्याणकारी योजनाओं के स्वरूप और दायरे का विस्तार किया. परंतु, TPDS की तरह NSAP भी एक लक्षित कार्यक्रम बना रहा (जिसमें BPL परिवारों पर ध्यान केंद्रित किया गया), इसका क्रियान्वयन खराब तरीके से किया गया, तथा इसमें कल्याण हस्तांतरण की अल्प राशि शामिल थी - मात्र 200 रुपये मासिक राशि. हालाँकि कुछ राज्यों ने हाल ही में पेंशन राशि में संशोधन किया है, लेकिन देश के अधिकांश भागों में गरीब श्रमिकों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद (या स्वयं सेवानिवृत्ति के बाद) सम्मानजनक जीवन जीना अभी भी दूर की कौड़ी है.
देश के एक हिस्से में भयंकर सूखे के कारण हुई भुखमरी से हुई मौतों के बाद, 2001 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (0PUCL)) द्वारा भारत सरकार के खिलाफ़ दायर एक रिट याचिका ने सुधारों की एक नई लहर की शुरुआत की, जिसमें भारत के उच्चतम न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाई और MDMS और ICDS की स्थिति में सुधार के माध्यम से बाल पोषण के मुद्दे पर तत्काल ध्यान देने की माँग की. NFSA ने इन कार्यक्रमों को, अन्य मातृ लाभों के साथ, “भोजन के अधिकार” के रूप में और अधिक सुदृढ़ किया. NFSA ने 2005 में ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम ((NREGA) की विरासत का अनुसरण किया था, जिसमें कानूनी गारंटी के रूप में “काम करने का अधिकार” सुनिश्चित किया गया था.
2008 में, भारत सरकार ने BPL परिवारों को सब्सिडीयुक्त स्वास्थ्य बीमा कवरेज प्रदान करने के लिए एक नई कल्याणकारी योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (RSBY) शुरू की. इसका उद्देश्य श्रम शक्ति में अनौपचारिक श्रमिकों की बढ़ती हिस्सेदारी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना था. 2018 में, अधिक लाभार्थियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए RSBY का नाम बदलकर प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PM-JAY) कर दिया गया. 2018 में पीएम-किसान योजना की शुरुआत, किसानों को बिना शर्त नकद हस्तांतरण, देश की सामाजिक नीति में एक और मील का पत्थर साबित हुई. लगभग इसी समय, कल्याण हस्तांतरण (जिसे नया कल्याणवाद भी कहा जाता है) में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, जिसमें रसोई गैस, बिजली, आवास आदि के लिए सब्सिडी जैसी निजी वस्तुओं के सार्वजनिक प्रावधान के लिए प्रौद्योगिकी-संचालित प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) की व्यवस्था की गई.
इस ऐतिहासिक अवलोकन से सामाजिक कल्याणकारी नीति के उभरते फोकस (BPL परिवारों और गरीबी को एक मात्र कल्याण उद्देश्य के रूप में देखने से आगे बढ़ना), स्वरूप (खाद्य या आजीविका आधारित सामाजिक सहायता से नकद हस्तांतरण की ओर) और दायरे (खाद्य सुरक्षा या पोषण और आजीविका सहायता जैसे गरीबी के लक्षणों से लेकर भयावह स्वास्थ्य आघात जैसे गरीबी के कारणों की ओर) को समझने का अवसर मिलता है. कई राज्य सरकारों ने ऐतिहासिक रूप से नवाचार करते हुए अपनी विशिष्ट कल्याणकारी रणनीतियों को तैयार करने के लिए फोकस, स्वरूप और दायरे का विस्तार किया है. इसके लिए राष्ट्रीय नीतियों को भी आधार बनाया गया है.
“योजनाओं” से “प्रणालियों” तक
भारत ने अपने अधिकांश नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए सफलतापूर्वक एक ढाँचा तो तैयार कर लिया है, लेकिन इसकी कुछ कल्याणकारी योजनाएँ देश की बहुआयामी विकासात्मक चुनौतियों का केवल एक हल्का-सा समाधान मात्र हैं, फिर भी हमने कल्याणकारी ढाँचे का निर्माण तो किया ही है. सामाजिक लोकतंत्र केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है जब नागरिकों को राज्य द्वारा सुरक्षा का आश्वासन दिया जाए और सार्वजनिक प्रणालियाँ गरीब नागरिकों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करें. इसलिए, सामाजिक संरक्षण की वास्तविक क्षमता का लाभ तभी उठाया जा सकता है जब सामाजिक कल्याणकारी कार्यक्रमों को नागरिक-केंद्रित सार्वजनिक प्रणालियों, बेहतर कल्याण कार्यक्रम डिजाइन और आर्थिक विकास द्वारा इसकी क्षतिपूर्ति की जाए. जहाँ एक ओर स्वतंत्र योजनाएँ जीवन चक्र में संभावित कठिनाइयों के खिलाफ़ अल्पकालिक सहायता प्रदान कर सकती हैं, वहीं बेहतर अवसरों और सक्षम संस्थानों तक पहुँच के माध्यम से घरेलू लचीलेपन को बढ़ाया जा सकता है (चित्र 2 देखें).
चित्र 2: मौजूदा कल्याणकारी “योजनाओं” से एक लचीली आर्थिक सुरक्षा “प्रणाली” का निर्माण
यह ध्यान रखना चाहिए कि सामाजिक कल्याण प्रणाली की सफलता ऐसे लोगों की संख्या में क्रमिक कमी से परिलक्षित होती है जिन्हें ऐसे सुरक्षा तंत्र की आवश्यकता होती है. भविष्य की ओर देखें तो भारत की अर्थव्यवस्था के बढ़ने के साथ-साथ उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. खाद्य असुरक्षा का निर्धारण आय की असुरक्षा से होगा. शहरी आबादी (और गरीब) अपने ग्रामीण समकक्षों से आगे निकल जाएगी. इसलिए, MGNREGS जैसी पारंपरिक योजनाएँ कम प्रासंगिक होंगी, जबकि शहरी आजीविका कार्यक्रम और स्वास्थ्य बीमा को प्रमुखता मिलने की संभावना है. 2050 तक, भारत की आबादी का पाँचवाँ हिस्सा 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र का होगा, जिसके लिए अधिक सामाजिक पेंशन की आवश्यकता होगी.
इसी प्रकार, जल और शौचालयों से संबंधित सरकार के प्रमुख कार्यक्रम के विस्तार के बावजूद, पोषण से वंचित आबादी की संख्या को कम करने की दिशा में प्रगति इस बात पर निर्भर करेगी कि लिंग और जाति से संबंधित सामाजिक मानदंड कितने "अडिग" हैं, और क्या वे सार्वजनिक जीवन से समाप्त हो रहे हैं. इसलिए, आर्थिक और सामाजिक संरचना में परिवर्तन के लिए, नागरिकों (गरीब और गैर-गरीब) में आसन्न प्रतिकूलता के प्रति लचीलापन पैदा करने के लिए आर्थिक सुरक्षा प्रणाली के फोकस, स्वरूप और दायरे में निरंतर संशोधन की आवश्यकता होगी.
पूर्व-निवारक नीतिगत परिवर्तनों से अतीत की अनेक गलतियों से बचा जा सकेगा.
अंदलीब रहमान कॉर्नेल विश्वविद्यालय के टाटा-कॉर्नेल इंस्टीट्यूट (TCI) में रिसर्च एसोसिएट हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India
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