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भारत-जापान संबंधों की 70वीं वर्षगांठ पर सुरक्षा संबंधों को मज़बूत करना

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09/05/2022
विंदु माई छोटानी

इस वर्ष भारत और जापान के बीच राजनयिक संबंधों की 70वीं वर्षगाँठ है. इन वर्षों में, यह द्विपक्षीय भागीदारी लगातार आगे बढ़ी है, नई दिल्ली और टोक्यो 2015 में "विशेष रणनीतिक और वैश्विक" भागीदार बन गए हैं. परंतु, अमरीका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के साथ, इस क्षेत्र को तेज़ी से बदलते शक्ति-संतुलन की गतिशीलता के कारण क्षीण होने का जोखिम सताने लगा है. यदि भारत और जापान को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता लाने का प्रयास करना है तो उन्हें इस संदर्भ में मुख्य भूमिका निभानी होगी और इसके लिए ज़रूरी है कि वे अपने सुरक्षा संबंधों को मज़बूत बनाएँ.

सबसे पहले तो आवश्यकता इस बात की है कि दोनों देश चीन और उसके उदय के बारे में धारणा और कार्रवाई दोनों ही स्तरों पर महत्वपूर्ण अंतर को मिटाने और पाटने के लिए सहयोगात्मक और सुसंगत तरीके खोजें. दूसरा, उन्हें तय कर लेना चाहिए कि उनकी रक्षा से संबंधित पहली बिक्री क्या होगी. यदि ये "स्वाभाविक भागीदार" या थोड़ा अतिरंजित "अर्ध-सहयोगी" ऐसा करते हैं, तो यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की आक्रामक कार्रवाई के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत के रूप में काम करेगा.

उदीयमान चीनः धारणा और कार्रवाई में अंतर
चीन से जुड़े नई दिल्ली और टोक्यो के संबंधित इतिहास ने इस बात को लेकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है कि उन्होंने इसके मौजूदा उदय के बारे में कैसे धारणा बनाई है. उदाहरण के लिए,सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत को जिस हार का सामना करना पड़ा, उसके कारण उत्पन्न दीर्घकालिक संघर्ष ही भारत-चीन संबंधों का स्पष्ट आधार है. इसके विपरीत जापान के साथ भागीदारी का आधार है, सदियों पुराने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध (तीस के दशक में चीन के विलय सहित).

 इसके अलावा, सत्तर के दशक से, आर्थिक संबंधों का विस्तार करने के लिए जापान में एक मज़बूत चीनी लॉबी कृतसंकल्प रही है और जापान की सत्तारूढ़ उदार लोकतांत्रिक पार्टी (LDP) में उसका अपना स्थान रहा है.

इसलिए, एक प्रमुख व्यापारिक और आर्थिक भागीदारी की समानता के साथ-साथ चीन के आक्रामक रुख से उत्पन्न खतरे के बावजूद टोक्यो और नई दिल्ली ने अपनी प्रतिक्रियाओं को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत करने का अपना तरीका तय कर लिया है.

एक ओर, टोक्यो चीन से मुठभेड़ के लिए बहुत इच्छुक नहीं रहा है और इसप्रकार वह राजनीति को अर्थनीति से अलग रखने की सेकेई बुनरी की अपनी नीति को आगे बढ़ाना चाहता है, जबकि भारतीय प्रतिष्ठान इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि जापान के साथ सुरक्षा सहयोग "किसी तीसरे देश की कीमत पर, कम से कम चीन की कीमत पर" नहीं होना चाहिए, मौजूदा लद्दाख संकट के कारण चीन के साथ भारत का तनाव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है और इस समय प्रयास यही है कि मौजूदा स्थिति में लगातार बढ़ते तनाव पर ध्यान केंद्रित रखने के साथ-साथ चीन की आक्रामकता को संतुलित किया जाए.

इस पृष्ठभूमि में, धारणा और कार्रवाई के इस अंतर को मिटाने का पहला प्रभावी तरीका यह है कि पहले से किये जा रहे क्रमिक कार्यों को आगे बढ़ाते हुए सुरक्षा संबंधों को और मज़बूत किया जाए. दोनों देश एक दूसरे के साथ लघु या बहुपक्षीय समूहों में बहुत सहज अनुभव करते है. यकीनन ये ढाँचे युद्ध के बाद जापान की बहुपक्षवाद की प्रवृत्ति और औपचारिक गठबंधनों के प्रति भारत की विमुखता के अनुरूप हैं.

उदाहरण के लिए, क्वाड-भारत, जापान, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया के संयुक्त बयानों के विश्लेषण के आधार पर 2017 के बाद की महत्वपूर्ण प्रगति देखी जा सकती है. भले ही इसमें चीन का कोई सीधा उल्लेख नहीं है, फिर भी हिंद-प्रशांत में "साझा सुरक्षा और समृद्धि" के संदर्भों के अंतर्गत बहुत कुछ कह दिया गया है. इसके अलावा, त्रिपक्षीय-भारत, जापान और अमरीका; भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया; और हाल ही में लॉन्च किए गए भारत, जापान और इटली के संदर्भ में भी स्थिर प्रगति देखी गई है.

इसी क्रम में भारत, जापान और फ्रांस को त्रिपक्षीय रूप में यकीकन आगे बढ़ना चाहिए. सन् 2018 में फ्रांस द्वारा हिंद-प्रशांत शब्द को अपनी विदेश नीति में एक अवधारणा बनाने के अलावा, इस क्षेत्र में इसकी महत्वपूर्ण सैन्य उपस्थिति और भारत और जापान दोनों के साथ समुद्री हितों को जोड़ने से यह सुनिश्चित होता है कि फ्रांस ने हिंद-प्रशांत सुरक्षा ढाँचे में एक प्रमुख भागीदार और योगदानकर्ता के रूप में अपनी जगह अच्छी तरह से बना ली है.

दूसरा तरीका उनकी तट रक्षक भागीदारी को बढ़ाना है क्योंकि जापान की संवैधानिक सीमाएँ उसके समुद्री आत्म-रक्षा बल (JMSDF) को पारंपरिक नौसेना की भूमिका से बाधित करती हैं. हालाँकि, यह एक अक्सर अनदेखा किया जाने वाला तथ्य है कि जापान के पास एक बहुत ही शक्तिशाली जापानी तट रक्षक गार्ड (JCG) है, जिसका 2000 के दशक की शुरुआत में यह कहते हुए रूपांतरण किया गया था कि  "शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से यह सबसे महत्वपूर्ण और कम से कम घोषित जापानी सैन्य घटना" है. तब से लेकर अब कर इसी जापानी तट रक्षक गार्ड (JCG) ने चीनी "ग्रे ज़ोन" गतिविधियों का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और अन्य विभिन्न सैन्य कार्रवाइयों में भी भाग लिया है.

सन् 2021 में, चीन ने एक समस्याग्रस्त नया तट रक्षक कानून पारित किया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि चीनी तट रक्षक बल का उपयोग कब किया जाना चाहिए और इसके अंतर्गत बीजिंग को विवादित द्वीपों पर अपने दावों को मज़बूत करने की अनुमति भी दी गई है. जहाँ एक ओर जापान ने इसका विरोध किया,वहीं इससे यह प्रबल संकेत भी मिलता है कि तट रक्षक संबंधों को मज़बूत करना लाभप्रद होगा. हालाँकि जापानी तटरक्षक गार्ड (JCG) और भारतीय तटरक्षक बल समुद्री डकैती को रोकने और खोज-और-बचाव के लिए संयुक्त अभ्यास करते हैं, फिर भी सन् 2006 से दोनों देशों ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक सहयोग तंत्र का विस्तार करने के लिए सहयोग के एक महत्वपूर्ण ज्ञापन पर हस्ताक्षर भी किये हैं.

उदाहरण के लिए, एलडीपी ने प्रस्ताव किया है कि जापान को चाहिए कि वह एसडीएफ़ और तट रक्षक क्षमताओं को मजबूत करे और साथ ही यह आग्रह भी किया कि एसडीएफ और अमरीकी सेना के संयुक्त अभ्यास में जापानी तटरक्षक गार्ड (JCG) को भी शामिल होना चाहिए. हिंद महासागर में चीनी नौसेना के प्रवेश को लेकर भारत हमेशा ही चिंतित रहा है,इसलिए भारत जापानी तटरक्षक गार्ड (JCG) के साथ अधिक निकटता से काम करके लाभान्वित हो सकता है. एक संभावना यह हो सकती है कि भारत, जापान और अमरीका के बीच होने वाले वार्षिक मालाबार नौसैनिक अभ्यास में जापानी तटरक्षक गार्ड (JCG) को भी शामिल कर लिया जाए.

तीसरा तरीका यह हो सकता है कि चीन के साथ संवेदनशील क्षेत्रीय मुद्दों के संबंध में अपनी-अपनी स्थिति की समीक्षा करते समय मज़बूत समर्थन की आवाज उठायी जाए. अगस्त 2017 में चीन-भारत के बीच हुए डोकलाम गतिरोध के दौरान, जापान ने इस दिशा में कदम आगे बढ़ाये हैं. भारत में स्थित जापान के राजदूत ने एक बयान जारी करके यह स्पष्ट कर दिया है कि “किसी को भी बलपूर्वक यथास्थिति को बदलने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए.” जापान की विदेश नीति में यह बदलाव का महत्वपूर्ण संकेत है,क्योंकि आम तौर पर जापान अन्य देशों के क्षेत्रीय विवादों की यथास्थिति के संबंध में राजनीतिक बयान जारी करने से अब तक बचता रहा है.

इसलिए भारत के लिए यह उचित होगा कि वह सेंकतु द्वीपों से जुड़े जापान और चीन के क्षेत्रीय विवाद के संबंध में अपनी स्थिति का पुनर्मूल्यांकन करे. अब तक भारत उन तमाम द्वीपों के संबंध में बयान देने से जानबूझकर बचता रहा है, जिन पर जापान “अपना क्षेत्र” होने का दावा करता है. जहाँ अमेरिका ऐसा करने वाला एकमात्र देश है, वहीं नई दिल्ली भी इस क्षेत्र में अधिक से अधिक एजेंसी हासिल करना चाहता है, इसलिए उसे अंततः अपनी स्थिति तय की आवश्यकता हो सकती है.

रक्षा संबंधी बिक्री
युद्ध के बाद अपनाई गई शांतिवाद की नीति के अंतर्गत जापान ने सन् 1967 में हथियारों की बिक्री के निर्यात पर जो प्रभावी रोक लगा रखी थी, उसे सन् 2014 में हटा लिया. तब से जापान अक्सर भारत को हथियार बेचने की इच्छा ज़ाहिर करता रहा है. यूएस -2 शिनमायावा खोज और बचाव विमान की बिक्री पर लंबे समय से चली आ रही सौदे से संबंधित वार्ताएँ अंतिम चरण पर होने के बावजूद फ़िलहाल ठप्प हो गई है और अभी के लिए, यह सौदा बंद होता दिख रहा है. सन् 2017 में एक और मौका चूक गया जब भारतीय नौसेना ने अपनी परियोजना 75(I) पहल के लिए छह उन्नत पनडुब्बियों के निर्माण के लिए सूचना के लिए अनुरोध (RFI) जारी किया था. हालाँकि, जापान के मित्सुबिशी हैवी इंडस्ट्रीज़ और कावासाकी हैवी इंडस्ट्रीज़, जिन्हें प्रमुख दावेदार माना जाता था, ने RFI का जवाब नहीं दिया क्योंकि इस बात का संकेत था कि टोक्यो इस परियोजना के लिए सरकार से सरकार के सौदे के लिए उत्सुक था.

इसके अलावा, अब तक सौदे में कामयाबी न मिलने के प्रमुख उद्धृत कारण थे,जापान की ओर से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण संबंधी संवेदनशीलता और भारतीय पक्ष की ओर से मूल्य निर्धारण संबंधी चिंताएँ. फिर भी, जापान के लिए, भारतीय हथियार बाज़ार काफ़ी आकर्षक हो सकता है, क्योंकि सऊदी अरब के बाद भारत हथियारों के दूसरे सबसे बड़े आयातक देश के रूप में उभर रहा है. जैसा कि नई दिल्ली उदीयमान शक्ति के रूप में उभर रहा है, हथियारों की खपत की उसकी भूख बढ़ती ही रहेगी और दोनों देशों के बीच आपूर्ति और माँग की इन प्रबल संभावनाओं के कारण उन्हें अपनी चिंताओं और बाधाओं को दूर करने के लिए प्रयास करना चाहिए.

इसके अलावा, यह दोनों देशों के लिए ही लाभप्रद होगा अगर दोनों देश भारत की मेक-इन-इंडिया की पहल पर विचार करके यह देखें कि वे जापान की प्रौद्योगिकी हंस्तातरण की नीति के अंतर्गत रक्षा संबंधी बिक्री और/ उत्पादन को कैसे शामिल कर सकते हैं. भारत, और यूके, अमरीका, फ्रांस और इज़राइल में पहले से ही विदेशी निवेशकों के लिए स्पष्ट निवेश के अवसरों के साथ, यह दोनों देशों के लिए अवसरों की एक और पहल है. जापान में उसके रक्षा उद्योग की स्थिति "स्थिर नहीं है, क्योंकि कई कंपनियाँ उत्पादन के बारे में आश्वस्त नहीं हैं." इससे यह स्पष्ट है कि इस क्षेत्र के लिए तत्काल कुछ न कुछ करने की आवश्यकता है.

भले ही बड़ी वस्तुओं का लक्ष्य अधिक अर्थक्षम होना चाहिए,लेकिन उसकी शुरुआत छोटी वस्तुओं के निर्यात से हो सकती है. भारत को निगरानी रखने वाले जापानी रडार,संचार साधनों और इलैक्ट्रॉनिक युद्ध प्रौद्योगिकी पर विचार करना चाहिए. इसके अलावा, भारत उसी रणनीति का उपयोग कर सकता है जिसे टोक्यो ने दक्षिण पूर्व एशिया में नियोजित किया है, जहाँ टोक्यो के हथियारों का निर्यात व्यावसायिक सौदों की तुलना में विदेशी विकास सहायता (ODA) हस्तांतरण के माध्यम से अधिक सफल रहा है. परंपरागत रूप में जापान की विदेशी विकास सहायता (ODA)का उपयोग आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और विकासशील देशों की कल्याणकारी योजनाओं के लिए किया जाता है.  लेकिन सन् 2014 में तत्कालीन प्रधानमंत्री आबे ने विकास सहयोग चार्टर की शुरुआत की,जिसके अंतर्गत विदेशी विकास सहायता (ODA) को "रणनीतिक धार" प्रदान की गई, जो अब इसे हथियार प्रणालियों के हस्तांतरण को शामिल करने की अनुमति देता है. इसका उपयोग JICA द्वारा वित्तपोषित दस 40-मीटर मल्टी-रोल रिस्पॉन्स वैसल्स (MRRVs) जैसे हथियार के निर्माण के लिए किया गया. सन् 2003 में चीन को पछाड़ कर भारत - जापान की विदेशी विकास सहायता (ODA) का सबसे बड़ा प्राप्तकर्ता बन सकता  है, इस पर विचार किया जा सकता है.

खास तौर पर चीन से निबटने के लिए कोविड-19 की महामारी से उत्पन्न तात्कालिकता की भावना के कारण उन बंधपत्रों और दृष्टिपत्रों का नवीयन किया जाना चाहिए जिसे आबे और मोदी ने पिछले एक दशक में साझा किया था और आगे बढ़ाया था. अगर भारत-जापान भागीदारी के आधार पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सचमुच क्षेत्रीय सुरक्षा और समृद्धि को बढ़ाना है तो यह समय सबसे अधिक उपयुक्त है.अन्यथा, वे एक ऐसी भागीदारी का जोखिम उठाते हैं, जो शायद निकट भविष्य में एक ऐसी भागीदारी होगी जिसमें गतिरोध आ सकता है या, बहुत हद तक काम चलता रह सकता है.

विंदु माई छोटानी मीजी विश्वविद्यालय और रित्सुमीकन एशिया प्रशांत विश्वविद्यालय में सहायक लैक्चरर हैं. वह 2022 के पतझड़ (Fall) सत्र में सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में अंतर्राष्ट्रीय क्रिश्चियन विश्वविद्यालय में कार्यभार ग्रहण करेंगी.

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Former Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India <malhotravk@gmail.com>   Mobile : 91+991002991/ WhatsApp:+91 83680 68365