भारत के किसानों से बहुत ही कम राजस्व की वसूली होती है. राजस्व की कमी का एक कारण तो यह है कि उनकी उपज ही नहीं होती और /या उन्हें अपनी उपज का बहुत कम दाम मिलता है. जहाँ एक ओर उत्पादकता का संबंध अधिकांशतः कृषि के तकनीकी पक्षों से होता है, वहीं मूल्य का निर्धारण कृषि की अर्थव्यवस्था के हालात पर निर्भर करता है और इसका निदान आर्थिक नीति में बदलाव लाकर ही किया जा सकता है. इस लेख में मैं मूल्य के दो आयामों पर चर्चा करना चाहूँगा —मूल्यों में अवरोध और बिखराव. और साथ ही मैं कुछ गलत आम धारणाओं पर भी प्रकाश डालना चाहूँगा.
क्याबिचौलिये बुरे होते हैं?
सन् 2002 में “विकास नीतियाँ और कृषि मंडियाँ ” विषय पर रमेश चंद द्वारा लिखित और इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित लेख के अनुसार मूल्यों और उपभोक्ताओं के बीच भारी अवरोध पैदा करने के लिए अक्सर बिचौलियों को ही दोषी ठहराया जाता है. उन पर आम तौर पर लगाये जाने वाले दो दोष तो यही हैं कि उपभोक्ताओं तक उपज पहुँचने से पहले ही बिचौलियेपन के कई स्तरों पर अवरोध बढ़ने लगते हैं और बिचौलिये कोई मूल्य लगने से पहले ही किराया कमाने लगते हैं. हालाँकि बिना गंभीर खोजबीन के यह तो माना ही जा सकता है कि इसमें कुछ हद तक तो सच हो ही सकता है, लेकिन इसे जानना बहुत मुश्किल है.
आर्थिक सिद्धांत के अनुसार बिचौलियेपन को अनावश्यक तौर पर अकुशलता बढ़ाने वाले तत्व के रूप में मानने के बजाय “अर्थव्यवस्था के चक्र को गति” देने वाले तत्व के रूप में देखा जाता है. हाल ही की अपनी कृति में मैथ्यू ग्रांट और स्टार्ट्ज़ ने बताया है कि सप्लाई की लंबी चेन में कुछ विशेष स्थितियों में कई बिचौलिये प्रतियोगिता को प्रोत्साहित करते हुए उपभोक्ताओं के कल्याणकारी कार्यों को बढ़ावा देते हैं. एक किसान के पास खेती और अन्य कार्यकलापों पर लगाने के लिए सीमित समय होता है. पंजाब और बिहार के खेतों पर जाकर मैंने पाया कि समय एक ऐसी कमी है, जिसके कारण किसान अपनी उपज को मंडियों तक नहीं ले जा पाता और इसके कारण बिचौलियों को बढ़ावा मिलता है.
इसके अलावा, ढुलाई और मार्केटिंग के लिए विशेष कौशल की आवश्यकता होती है और हो सकता है कि किसानों में यह कौशल ही न हो. भंडारण की कमी और उपज के खराब होने की आशंका के कारण एजेंट सप्लाई चेन को भी डाउनप्ले करने लगते हैं. साख की कमी वाली मंडियों का अर्थ है कि केवल किसान ही बिचौलियों से कर्ज़ नहीं लेते, बल्कि बिचौलिये भी आपस में एक-दूसरे से कर्ज़ लेते हैं. यही कारण है कि रिटेल-फ़ार्मगेट के अवरोध बढ़ने लगते हैं.
आम तौर पर कीमतों के अवरोधों में ढुलाई की लागत, प्रोसेसिंग की लागत और अकुशलता के कारण देय किराया भी शामिल रहता है. भारत के मौजूदा संदर्भ में यह स्पष्ट नहीं है कि चिह्नित अवरोधों के वे कौन-से तत्व हैं जो शुद्ध किराये हैं और जिसे जानने के लिए और भी शोध की आवश्यकता होगी. उचित लागत में से किराये को अलग करने के लिए मेरे अपने मौजूदा विषय सप्लाई चेन के साथ-साथ विभिन्न स्थलों के उच्च-आवृत्ति की कीमत वाले आँकड़े निकालना बहुत ज़रूरी है.
अगर हम श्रम-विभाजन के चश्मे से देखें तो पाएँगे कि बिचौलियों के कारण तो संभवतः कोई समस्या है ही नहीं. वे केवल अपनी सेवाओं और उनके द्वारा उठाये गये जोखिम के लिए मामूली-सी कीमत वसूल कर सकते हैं. इसलिए अगर हमने उन्हें कृषि क्षेत्र की सप्लाई चेन से उठा फेंका तो संभवतः हमारी कृषि सप्लाई चेन उसी तरह से चरमरा जाएगी, जैसा कि बंगला देश में हुआ था.
क्या देश के अलग-अलग क्षेत्रों के किसानों को एक ही कीमत मिलनी चाहिए ?
जहाँ अवरोधों की गणना वर्टिकल सप्लाई चेन के साथ की जाती है, वहीं अक्सर उद्धृत किये जाने वाले अन्य आँकड़ों में कीमतों के देशीय बिखराव से संबंधित आँकड़े भी शामिल रहते हैं. आम तौर पर यह एक गलत धारणा है कि अच्छी तरह से संचालित की जाने वाली मंडियों में एक ही उपज उगाने वाले देश-भर के किसानों को अपनी उपज का एक ही दाम मिलेगा.
अगर किसी उपज का दाम किसी क्षेत्र विशेष में बढ़ता है तो इसका मतलब यही है कि उस उपज की माँग ज़्यादा है. ऐसी स्थिति में सप्लायर उस क्षेत्र में ज़्यादा माल भेजना शुरू कर देंगे, जिसके कारण बढ़ी हुई कीमतें घटने लगेंगी, लेकिन माल की ढुलाई भी एक हद तक एक महँगा सौदा है और अच्छी तरह संचालित होने वाली मंडियों में भी आंचलिक दामों में ढुलाई की लागत को पूरा करने के लिए हमेशा ही कुछ फ़र्क तो रहता है. भारत में किसी भी वस्तु की अधिकतम कीमत भी न्यूनतम ही रहती है और यही मूल्यों के बिखराव का वह पैमाना है जिसका उल्लेख 2015-16 में भारत के आर्थिक सर्वेक्षण में किया गया था. अमरीका के पैमाने से यह लगभग तीन गुना अधिक पाया गया है. लेकिन अमरीका की कुशल मंडियों में भी यह अनुपात 1.5 के आसपास ही रहता है, पूरी तरह से 1 के बराबर नहीं होता.
भारतीय आँकड़ों की व्याख्या करते हुए हमें यह मानना होगा और आँकड़ों की गुणवत्ता के प्रति भी हमें सचेत रहना होगा, क्योंकि अखबारों में छपते समय अक्सर आँकड़ों की अनदेखी हो जाती है. अमेरिका के विपरीत भारतीय कीमतों के आँकड़ों में वस्तुओं की विविधता और गुणवत्ता की भिन्नता के बारे में बहुत कम जानकारी रहती है. इसके अलावा, अमेरिकी वस्तुओं की तुलना में भारतीय वस्तुओं में कहीं अधिक विविधता और गुणवत्ता में भी भिन्नता होती है.
कीमतों से संबंधित आँकड़ों की गहरी छानबीन से पता चलता है कि कई वस्तुओं से संबंधित अधिकांश आँकड़े तो “अन्य” वैरायटी के अंतर्गत ही जुड़े रहते हैं. उ.प्र. में चावल की “अन्य” वैरायटी पश्चिम बंगाल की वैरायटी से बिल्कुल अलग है. इसके अलावा कीट संक्रमण, नमी की मात्रा और अनाज की लंबाई और चमक के बारे में भी आँकड़ों में कोई जानकारी नहीं होती. इस घट-बढ़ के कारण को अक्सर मार्केटिंग और बिचौलियेपन की अकुशलता से भी गलत ढंग से जोड़ दिया जाता है.
हमें क्या जानकारी मिलती है?
इसका निष्कर्ष यही है कि या तो भारतीय मंडियों में ज़रा भी कुशलता नहीं है या फिर बिचौलिये कहीं भी किराया अर्जित नहीं करते. या फिर ये मुद्दे बेहद जटिल हैं और इन्हें समझने के लिए सावधानी से शोध करने और आँकड़े इकट्ठा करने की आवश्यकता है.
कीमतों में देशीय घट-बढ़ वास्तव में अनेक कारणों की ओर संकेत करती है, जैसे, ढुलाई की लागत, विनियमों के अवरोध और बिचौलियों या खुदरा व्यापारियों का स्थानीय मंडियों पर दबदबा – यही वे बाधाएँ हैं जिनकी वजह से माल की निर्बाध आवाजाही में रुकावट आती है. यही वे कारण हैं, जिनकी वजह से किसानों को ऊँचा दाम नहीं मिल पाता और उपभोक्ता कम दाम पर अनाज नहीं खरीद पाते. इस प्रकार कुल मिलाकर सबके कल्याण में कमी आ जाती है. चुनौती अब यही है कि मूल्यांकन इस तरह से हो कि यह पता लग सके कि किसानों को नुक्सान पहुँचाने वाले कारण आखिर कौन-से हैं.
देवेश कपूर जी के साथ सह-लेखक के रूप में “भारतीय कृषि की छह पहेलियाँ” विषय पर लिखे गए अपने लेख में हमने निम्नलिखित बिंदु उठाये हैं: पहला बिंदु यह है कि भारत के बाज़ारों में देशीय घट-बढ़ की दर न केवल बहुत ऊँची रहती है, बल्कि पिछले दशक में उसमें बहुत स्थिरता भी बनी रही है. इन दस वर्षों में नई सड़कों के निर्माण में भारी निवेश होने के कारण ढुलाई की लागत में भी बहुत कमी आ गई है. लोगों में मोबाइल की उपलब्धता बढ़ने के कारण किसानों के पास कीमत की अच्छी-खासी जानकारी भी रहने लगी है. कीमतों में बिखराव की दर अभी तक ऊँची बने रहने की वजह यही है कि ढुलाई की लागत का देशीय कीमतों के अंतर पर कम प्रभाव पड़ रहा है.
दूसरा बिंदु हमने यह पाया है कि कीमतों में 37 प्रतिशत समग्र घटबढ़ के कारण वे क्षेत्र-विशिष्ट तत्व हैं जो समय-निरपेक्ष हैं, जैसे, फसल की स्थानीय किस्म और फसलों की विविधता, स्थानीय मंडी का दबदबा और मिट्टी की गुणवत्ता. 20 प्रतिशत देशीय घट-बढ़ का कारण है, वैश्विक माँग में उतार-चढ़ाव जैसे सकल आघात और 4 प्रतिशत का कारण है बारिश में क्षेत्रीय अंतर. प्रत्येक सूक्ष्म-घटक के सापेक्ष योगदान को समझने के लिए और काम करने की ज़रूरत है.
मैंने अपने शोध-कार्य में भारत की मंडियों में व्याप्त देशीय विविधता को उजागर करने का प्रयास किया है. मैंने पाया है कि अधिक मंडियों वाले क्षेत्रों में किसानों को औसतन ज़्यादा मूल्य मिलता है. अधिक से अधिक मंडियाँ खेतों की उपज के भावी खरीदारों की सूची बना लेती हैं, जिसके कारण स्थानीय प्रतियोगिता में वृद्धि होती है और उसके कारण दाम भी बढ़ जाते हैं. मैंने यह भी पाया है कि बेहतर सड़कों के निर्माण से ढुलाई की लागत घट जाती है, लेकिन मात्र इसके कारण ही किसानों को उन क्षेत्रों में दाम अधिक नहीं मिलने लगते हैं, जहाँ बिचौलियों का मंडी पर दबदबा रहता है, जैसे, हरियाणा, ओडिशा और मध्य प्रदेश के कुछ भागों में. इसके बजाय सड़क निर्माण का लाभ बिचौलियों को ही मिलता है और फ़ार्म-गेट की कीमतों की देशीय घट-बढ़ में कोई बदलाव नहीं आता.
अवरोधों और क्षेत्रीय स्तर पर कीमतों में अंतर से जुड़े अंतर्निहित कारणों को समझकर ही वस्तुतः नीति-निर्माण किया जा सकता है. उन क्षेत्रों में जहाँ मंडियों पर बिचौलियों का अच्छा-खासा दबदबा है, सड़क-निर्माण से किसान को अधिक दाम का लाभ तभी मिल पाएगा जब उसके साथ प्रतियोगिता को बढ़ावा देने वाली नीतियों को भी लागू किया जाए. अन्य क्षेत्रों में बिचौलियों से कोई समस्या पैदा नहीं होगी और भंडारण की कमी और अकुशल मिलों जैसी बुनियादी ढाँचों की कमी के कारण मूल्यों में अवरोध और भी बढ़ सकता है.
भारत की कृषि मंडियों के अध्ययन में मूलभूत चुनौती यही है कि समान वैरायटी वाली किसी एक फसल से संबंधित मूल्यों के अच्छे स्तर के आँकड़े विभिन्न स्तरों पर और सप्लाई लाइन के साथ-साथ विभिन्न बिंदुओं पर उपलब्ध नहीं हैं. इस प्रकार हम अवरोधों और देशीय मूल्यों के अंतराल से जो अनुमान लगाते हैं, वह गड़बड़ा जाता है. अगले साल मार्शल बाउटन, देवेश कपूर, मेखला कृष्णमूर्ति और मैं पंजाब, बिहार और ओडिशा राज्यों के विभिन्न गाँवों से आँकड़े एकत्र करके एक डेटा सैट तैयार करने का काम शुरू करेंगे. इसका उद्देश्य यही होगा कि हम उन कारणों को बेहतर ढंग से चिह्नित करेंगे जिनके कारण भारतीय किसानों के दाम कम होते हैं या / कम नहीं होते.
शौमित्रो चटर्जीकासीकेअनिवासी स्कॉलरहैंऔर कैम्ब्रिज विवि, यू.के. के अर्थशास्त्र संकाय में INET-पोस्ट डॉक्टरेट रिसर्च एसोसिएट हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919