प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेपाल के नव-निर्वाचित प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा को एक बेहद अहम काम करना है. दोनों प्रधानमंत्रियों को भारत-नेपाल संबंधों (पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल द्वारा पुनर्जीवित संबंधों) की निरंतरता को बनाये रखना है और दहल के पूर्ववर्ती खड्ग प्रसाद शर्मा ओली के कार्यकाल के दौरान उपजी कटुता को भी कम करना है. हालाँकि ओली के कार्यकाल के दौरान भारत-नेपाल संबंधों में अचानक से आई गिरावट के कई कारण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन नेपाल के खिलाफ़ भारत द्वारा लगायी गयी आर्थिक नाकेबंदी के आरोप पर चर्चा करना सचमुच ज़रूरी है.
ओली ने भारत पर यह दोषारोपण किया था कि उसने महत्वपूर्ण सीमा बिंदुओं पर “नाकेबंदी” की थी. वह मानते थे कि “21 वीं सदी में यह कल्पना करना भी कठिन है कि नेपाल इस प्रकार की नाकेबंदी” का सामना कर पाएगा. जहाँ कई लोग यह मानते हैं कि इस सड़कबंदी की शुरुआत मधेसी नामक एक जातीय समूह द्वारा की गयी थी, वहीं बहुत-से लोग यह भी समझते थे कि इसके पीछे नई दिल्ली का हाथ था. इसके माध्यम से भारत ने नेपाल पर “अनाधिकारिक नाकेबंदी” लगा दी थी. हालाँकि नई दिल्ली ने इस मामले में अपनी किसी भी भूमिका से इंकार किया है, फिर भी इस आरोप पर लोगों को कोई अचरज नहीं हुआ; क्योंकि मधेसियों के सरोकारों के प्रति मोदी जी की हमदर्दी रही है और वह बराबर नेपाल सरकार से मधेसियों की समस्याओं को हल करने के लिए कहते रहे हैं. साथ ही इस बात की भी संभावना नहीं लगती कि इतने बड़े परिमाण में और इतने लंबे अरसे तक चलने वाली सड़कबंदी भारत के समर्थन के बिना संभव हो सकती थी. अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत भले ही पश्चिमी देशों द्वारा की जाने वाली आर्थिक नाकेबंदी की निंदा करता रहा है, लेकिन नई दिल्ली खुद भी राजनैतिक उद्देश्यों के लिए आर्थिक शक्ति का उपयोग करता रहा है. कदाचित् नेपाल की नाकेबंदी इस बात का प्रमाण भी हो सकती है कि भारत अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आर्थिक दबाव की रणनीति अपनाता रहा है.
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भारतीय प्रांतों के साथ नेपाली मधेसियों की जातीय और सांस्कृतिक निकटता को देखते हुए नई दिल्ली की भूमिका न तो अनपेक्षित हो सकती है और न ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आधिकारिक स्तर पर आर्थिक नीति का उपयोग अकल्पनीय हो सकता है. व्यापारिक प्रतिबंध, आर्थिक नाकेबंदी और वित्तीय प्रतिबंध जैसे आर्थिक उपायों का उपयोग भारत पहले भी अपने हितों के संवर्धन के लिए और अपने नीतिगत मुद्दों के समर्थन के लिए विदेशों में भी करता रहा है. लेकिन पश्चिमी देशों की तुलना में भारत ने बहुत कम अवसरों पर ही आर्थिक नाकेबंदी से संबंधित अपनी नीतियों की चर्चा की है. अंतर्राष्ट्रीय निंदा की सीमित आशंका से और घरेलू तुष्टीकरण की व्यापक संभावना से बचने के लिए ही भारत ने इसे स्वीकार किया है. इस संबंध में नेपाल, दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान के महत्वपूर्ण उदाहरण हमारे सामने हैं.
अंतर्राष्ट्रीय निंदा और घरेलू तुष्टीकरण
नेपाल के मामले में, भारत ने बिना किसी औपचारिक घोषणा के मधेसियों को अपना समर्थन दिया. आर्थिक नाकेबंदी के कारण ही नेपाल में आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई में कमी आयी. यदि भारत इस बात को स्वीकार कर लेता कि विशेषकर नेपाली लोगों के साथ अपने विशेष संबंधों के कारण आर्थिक नाकेबंदी में उसकी भी भूमिका है तो निश्चय ही विदेशों में उसकी छवि खराब हो जाती. इस बीच नेपाल ने अक्तूबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र में भारत की “व्यापारिक नाकेबंदी” का मुद्दा उठाया. ऐसे समय में अंतर्राष्ट्रीय निंदा का खतरा भारत पर मँडराता रहा. और यह विडंबना ही है कि ऐसे मौकों पर कूटनीतिक मामलों में नैतिक आचरण की बात की जाती है. ऐसे अवसर पर भारत यदि नाकेबंदी के मामले में पहल करने या उसमें मदद देने की बात भी कबूल करता तो भारत की स्थिति शोचनीय हो जाती.
परंतु ऐसे भी अवसर आये हैं जब भारत ने खुलकर आर्थिक नाकेबंदी का न केवल समर्थन किया है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीयस्तर पर आर्थिक नाकेबंदी के लिए समर्थन जुटाने का भी प्रयास किया है. भारत सरकार ने जब यह पाया कि दक्षिण अफ्रीका की सरकार वहाँ रहने वाले प्रवासी भारतीयों के साथ भेदभाव करती है और उसकी कार्रवाई भी इन लोगों के हितों के विरुद्ध है तो उसने सन् 1946 से लेकर 1993 तक उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये. जो उपाय आज़ादी से पहले लागू किये गये थे, उन्हें और अधिक दृढ़ता के साथ आज़ादी के बाद भी ज़ारी रखा गया. दक्षिण अफ्रीका में स्थित भारतीय उच्चायुक्त ने अपनी वैबसाइट पर लिखा था, भारत “पहला देश था, जिसने रंगभेदी सरकार के साथ (सन् 1946) में व्यापारिक संबंध तोड़ लिये थे” और बाद में दक्षिण अफ्रीका पर पूरी तरह से नाकेबंदी लागू कर दी. आज़ादी के कुछ समय पहले, वायसराय लॉर्ड वेवल ने घरेलू दबाव की बात को स्वीकार करते हुए लिखा था, “मैं नहीं मानता कि इन उपायों की प्रतिक्रिया में और कोई उपाय लागू किये जा सकते हैं, लेकिन भारत का जनमत ऐसे उपाय उठाने के लिए कृतसंकल्प है.”
दिसंबर, 2001 में भारत ने पाकिस्तान पर ऐसी पाबंदियाँ लगायीं. जिनके कारण उस पर आर्थिक दुष्प्रभाव पड़ा. जब तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने स्पष्ट तौर पर पाबंदियाँ लगाते समय कहा था, “भारत सरकार के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है” तो निश्चय ही उनके मन में घरेलू मज़बूरियाँ ही रही होंगी. भारतीय संसद पर आत्मघाती हमले के बाद भारत ने जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए- तैयबा नाम से दो आतंकवादी संगठनों के बारे में पता लगाया कि उनके सूत्र पाकिस्तान में हैं और वे पाकिस्तान के बाहर भी सक्रिय हैं. इसलिए सिंह के बयान का मकसद न केवल पाकिस्तान को अपने दृढ़ संकल्प से अवगत कराना था, बल्कि अपने देशवासियों को संदेश देना भी था.
भारत का रवैय्या
जब पश्चिमी देशों के अनेक नेता (और ब्राज़ील व ईरान जैसी उदीयमान ताकतें भी) आर्थिक पाबंदियों लगाने का मन बना लेते हैं तो भारत सरकार अक्सर अपने पैर पीछे खींच लेती है. विदेश नीति विभाग में आम तौर पर यह धारणा बनी हुई है कि भारत ने ऐसे कदम केवल तभी उठाये हैं, जब उसके नीतिगत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये उपाय उठाना ज़रूरी था. बहुत कम ऐसे अवसर आये हैं जब भारतीय विदेश नीति विभाग ने खुलकर आर्थिक नाकेबंदी का हवाला दिया हो या इस पर हामी भरी हो. यह बहुत ही असाधारण और जटिल कदम रहा है. सन् 2012 में स्पष्टवादिता के साथ एक इंटरव्यू में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने चीन द्वारा विएतनाम पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने से संबंधित एक प्रश्न का उत्तर देते हुए इशारे ही इशारे में कहा था “क्या हम सब आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन नहीं करते?”
बहरहाल भारत के अधिकारियों और नेताओं ने पश्चिमी देशों द्वारा लगाये गये आर्थिक प्रतिबंधों के बारे में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए ही अक्सर इस मुद्दे पर चर्चा की है. पिछले कुछ वर्षों में भारत ने अपने स्तर पर और ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, ईरान, चीन और दक्षिण अफ्रीका) जैसे बहुपक्षीय मंच की ओर से रूस और ईरान पर लगाये गये एकपक्षीय आर्थिक प्रतिबंधों के खिलाफ़ कठोर रख अपनाया है. नई दिल्ली ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों का समर्थन तो किया, लेकिन यह भी ज़ोर देकर कहा कि इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को नुक्सान पहुँचता है. पश्चिमी देशों द्वारा आर्थिक प्रतिबंधों के उपयोग के स्पष्ट विरोध के बावजूद अतीत में और हाल में भी भारत द्वारा की गयी कार्रवाइयों को देखते हुए भारत सामान्यतः आर्थिक नाकेबंदी जैसे उपायों के पक्ष में ही खड़ा दिखायी पड़ता है.
चीन की तरह भारत ने भी आर्थिक नाकेबंदी से संबंधित उपायों को स्पष्ट कानून, नियम बनाकर या बयान देकर वैसा औपचारिक रूप प्रदान नहीं किया है, जैसा कि अमरीका और योरोपीय संघ ने किया है. पिछले वर्ष नई दिल्ली में बोलते हुए राजदूत रॉबर्ट डी. ब्लैकविल ने कहा था कि आवश्यकता इस बात की है कि “भारत और अमरीका के नीति-निर्माता आर्थिक कूटनीति संबंधी उपायों को मज़बूत करें.” जहाँ एक ओर भारत इस सलाह पर अमल करते हुए मानवीय सरोकारों को ध्यान में रखते हुए सावधानी बरतना चाहता है और यह भी समझता है कि पश्चिम के आर्थिक नाकेबंदी के उपाय बहुत सफल नहीं रहे हैं. आर्थिक नाकेबंदी लागू करते हुए भारत रणनीतिक रूप में और तीन बातों के मद्देनज़र इस पर विचार करना चाहता है. सबसे पहले तो भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि आर्थिक दबाव लागू करते समय आनुषंगिक नुक्सान कम से कम हो. नई दिल्ली को अन्य किसी देश पर दबाव डालने से पहले अपनी आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन करते समय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि शासक दल के बौद्धिक वर्ग की राय क्या है.
दूसरी बात यह है कि इसके प्रभावशाली उपयोग के लिए भारत को संबंधित देश के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की जटिलता का भी ख्याल रखना चाहिए. ईरान पर प्रतिबंध लगाने से पहले अमरीका ने इस बारे में दी गयी चेतावनियों को भी अच्छी तरह से समझ लिया था और प्रतिबंधों को बहुत सूक्ष्मता से इस तरह लागू किया था कि प्राथमिक प्रतिबंध तो ईरान पर लागू रहें और गौण प्रतिबंधों का दंड उन देशों या संस्थाओं को मिले, जो ईरान के साथ लेन-देन करते हों. इसी तरह जहाँ तक भारत और नेपाल के मामले का संबंध है, नई दिल्ली की नाकेबंदी यह असर भी हो सकता था कि नेपाल चीन का समर्थन लेने का प्रयास करता. यह बात निराधार नहीं है. अंततः भारत को इस पर लगने वाली लागत पर भी सोचना चाहिए. आर्थिक लागत के अलावा यह भी आशंका होती है कि जो देश आर्थिक नाकेबंदी लागू करता है उसकी प्रतिष्ठा नाकेबंदी के शिकार देश में घट जाती है. जैसे भारत और नेपाल की स्थिति है. नेपाल में नाकेबंदी लागू होते ही ओली ने भारत-विरोधी बयान देने शुरू कर दिये, जिसके कारण भारतीय अधिकारी चिंतित हो गये. प्रतिष्ठा पर आने वाली आँच सार्वजनिक कूटनीति से कम नहीं होती. कम से कम निकट-भविष्य में तो उसका दंश रहता ही है.
फिर भी देउबा के पिछले कार्यकाल के दौरान भारत-नेपाल के संबंध बहुत लाभकारी रहे, इसलिए नई दिल्ली को नेपाल संबंधी नीति को बहुत सोच-समझकर बनाना चाहिए. इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत को अपने पड़ोसी देशों के मामले में आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन करते समय रणनीतिक आधार पर विचार करना चाहिए.
ऋषिका चौहान चीन के चाइना वैस्ट नॉर्मल विवि के भारतीय अध्ययन केंद्र में विज़िटिंग स्कॉलर हैं. उनका संपर्क सूत्र है...rishikachauhan19@gmail.com
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.