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2019 के भारतीय आम चुनाव तक पहुँचाने वाले चार महत्वपूर्ण निहितार्थ

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22/05/2017
ईश्वरन श्रीधरन

हाल ही में मार्च में उत्तर प्रदेश (यू.पी.), उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर की पाँच विधानसभाओं में हुए चुनावों, विभिन्न राज्यों में हुए दस विधान सभाओं के उपचुनावों और अप्रैल में हुए दिल्ली नगर पालिका के चुनावी परिणामों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को अच्छी सफलता मिली है. इस सफलता के अनेक निहितार्थ हैं.

इन चुनावों के अलावा, वित्त-विधेयक में पारित राजनैतिक वित्तीय प्रावधानों में परिवर्तन भी किये गये हैं. राजनैतिक पार्टियों द्वारा नकदी के रूप में स्वीकार की जाने वाली रकम को घटाकर 2,000 रु. कर दिया गया है, लेकिन दानकर्ताओं की पहचान की घोषणा और 20,000 रु. तक दान में दी गई रकम वही रहेगी. कंपनी द्वारा राजनैतिक पार्टियों को पिछले तीन साल से पहले के औसत शुद्ध लाभ के 7.5 प्रतिशत तक दिये गये दान की अधिकतम सीमा हटा दी गई है और कंपनियों को लाभ-हानि खातों में राजनैतिक दान को घोषित करने की भी आवश्यकता नहीं होगी. इसके अलावा, अब भावी दानकर्ता समयबद्ध चुनावी बॉन्ड को अनुसूचित बैंकों से राजनैतिक पार्टियों के लिए खरीद सकते हैं और दानकर्ता बिना पार्टी की पहचान बताए उसे किसी भी पार्टी को दान में दे सकते हैं (और पार्टियाँ भी बिना दानकर्ता की पहचान बताए बॉन्ड को नकदी में भुनवा सकती हैं).
2019 के आम चुनाव तक पहुँचाने वाले ये चार महत्वपूर्ण निहितार्थ विचारणीय हैं: राजनैतिक पार्टियों को मिलने वाली रकम; 2017 के मध्य में होने वाला राष्ट्रपति चुनाव; 2019 तक राज्यसभा की संरचना; और सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं, 2019 के आम चुनाव में भाजपा की जीत की संभावनाएँ.

चुनावों की मूलभूत आवश्यकता-स्वरूप राजनैतिक वित्तीय प्रावधानों पर नियमों में हाल ही में किये गये परिवर्तन का असली प्रभाव यही पड़ा है कि राजनैतिक पार्टियों को डिजिटल रूप में या चैक से दान मिलने का मार्ग प्रशस्त हो गया है और उन्हें दानकर्ता की पहचान बताने की भी आवश्यकता नहीं है. असल में वित्त मंत्री के अनुसार इसका आंशिक उद्देश्य भी यही था कि दानकर्ता की पहचान छिपी रहे; निश्चय ही बैंकों को तो पता होगा ही कि किसने चुनावी बॉन्ड खरीदे हैं, लेकिन यह नहीं पता होगा कि उसने किस पार्टी को बॉन्ड दान में दिये हैं. यह पारदर्शिता से बहुत दूर है और दाता की पहचान और मात्रा का खुलासा - जो कि सबसे विकसित लोकतंत्रों में मानक है-से परे है. और  अगले दो वर्षों में यह पार्टियों के (अपारदर्शी) निधि प्रवाह को बढ़ावा देगा, इसी लिए पार्टियाँ और दानकर्ता दोनों ही विचलित नहीं हैं और निश्चिंत हैं. उम्मीद की जा सकती है कि अगले दो वर्षों में पार्टियों में राजनैतिक चंदा जुटाने की होड़ लग जाएगी और निश्चय ही इसमें पलड़ा शासक पार्टी का भारी रहेगा.

राज्यों की विधानसभाओं में, विशेषकर यू.पी. के चुनाव में भाजपा की जीत ने भाजपा और एनडीए को 2017 के मध्य में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए बहुत मज़बूती प्रदान की है. अब एनडीए के पास सामान्य बहुमत के लिए केवल 20,000 मतों की कमी है, लेकिन तमिलनाडु की एआईडीएमके, ओड़िसा की बीजू जनता पार्टी और तेलंगाना की तेलंगाना राष्ट्रीय समिति जैसी संभावित दोस्ताना पार्टियों की मदद से वह अपनी पसंद के (या समझौता) उम्मीदवार को राष्ट्रपति चुन सकती है. 2019 में त्रिशंकु संसद बनने की स्थिति में इससे एनडीए की स्थिति मज़बूत होगी.

हाल ही की गतिविधियों (खास तौर पर यू.पी. में भाजपा की शानदार जीत) को देखते हुए राज्यसभा की संरचना भाजपा और एनडीए के पक्ष में हो जाएगी. यह स्थिति अभी तत्काल तो नहीं होगी और न ही इससे 2019 में एनडीए को साधारण बहुमत ही मिलेगा. धन संबंधी विधेयकों के अलावा अन्य सभी विधेयकों को पारित कराने के लिए राज्यसभा में साधारण बहुमत की ज़रूरत होती है. सन् 2018 में राज्यसभा में यू.पी. से 10 रिक्तियाँ होंगी और इससे भाजपा अपनी सूची में 7 उम्मीदवारों की वृद्धि करने में सफल हो जाएगी.   2018 और 2019 में विभिन्न राज्यों की रिक्तियों को मिलाकर और यह मानकर कि भाजपा इस बीच होने वाले विधानसभा के चुनावों में भारी जीत हासिल कर लेती है तो एनडीए की संख्या बढ़कर 95 (जिसमें कांग्रेस से छीनी हुई गोआ और मणिपुर की एक-एक सीट भी शामिल होगी) हो जाएगी और 2019 के आम चुनाव तक यूपीए की संख्या घटकर संभवतः 66 रह जाएगी. इसके बावजूद एनडीए के लिए राज्यसभा में बहुमत की कमी रहेगी. विधेयक पारित कराने के लिए उसे क्षेत्रीय पार्टियों से समझौते करने होंगे और विरोधी पक्ष के साथ व्यापक सहयोग के बिना वह संवैधानिक संशोधन करने की बात सोच भी नहीं पाएगी.

लेकिन हाल ही के विधानसभा के चुनावी परिणामों के सबसे अधिक रोचक और सबसे अधिक अनुमानित निहितार्थ तो 2019 के आम चुनाव के परिणामों के रूप में दिखाई देंगे. हाल ही के विधानसभा के चुनाव, विशेषकर यू.पी. में एनडीए को मिले 80 प्रतिशत प्रचंड बहुमत से और गोआ और मणिपुर में कांग्रेस से पिछड़ने के बावजूद भाजपा के नेतृत्व में सरकार का गठन होने से उसे भारी मनोवैज्ञानिक लाभ मिला है और पंजाब में कांग्रेस की भारी विजय के बावजूद नेतृत्व के मामले में असफल होने के कारण कांग्रेस हताशा के गर्त में डूब गई है. क्या इसका निष्कर्ष यही है कि 2019 में भाजपा को भारी बहुमत मिल जाएगा? जहाँ एक ओर इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता (खास तौर पर यदि भाजपा के अपने मौजूदा 31 प्रतिशत के वोट शेयर में और भी वृदधि होती है तो), वहीं 2014 में भाजपा की विजय की प्रकृति के कारण संसदीय चुनाव में स्थिति और भी जटिल हो सकती है.

यदि हम भाजपा की जीत का भौगोलिक आधार पर विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जीत मूलतः क्षेत्रीय स्तर पर उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में केंद्रित रही है. इस क्षेत्र में नौ हिंदीभाषी राज्य और दो संघशासित क्षेत्र और गुजरात, महाराष्ट्र, गोआ और पश्चिम भारत के दो संघशासित क्षेत्र शामिल हैं. इस क्षेत्र में भाजपा को हिंदी पट्टी (9 राज्य और दिल्ली और चंडीगढ़ के दो संघशासित क्षेत्र) में 226 में से 193 सीटें मिली हैं अर्थात् 85 प्रतिशत सीटें और पश्चिमी क्षेत्र (गुजरात, महाराष्ट्र, गोआ और दादर व नगर हवेली और दमन व दीव के दो संघशासित क्षेत्रों) में 78 में से 53 सीटें मिली हैं या अगर एनडीए के सहयोगियों को ,विशेषकर महाराष्ट्र और बिहार के सहयोगियों को भी इस गिनती में शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या 68 प्रतिशत और उससे भी अधिक हो जाएगी. इस प्रकार अगर सहयोगियों को इस गिनती में शामिल न किया जाए तो भी भाजपा को हिंदी पट्टी और पश्चिम भारत में 304 में से 246 सीटें अर्थात् 81 प्रतिशत वोट मिले हैं. यह इतनी बड़ी जीत है कि इसे दोहराना आसान नहीं होगा. गुजरात में भाजपा ने 26 सीटें जीतीं, राजस्थान में सभी 25 सीटें जीतीं, हिमाचल प्रदेश में सभी 4 सीटें जीतीं, उत्तराखंड में सभी 5 सीटें जीतीं, मध्य प्रदेश में 29 में से 27 सीटें जीतीं, छत्तीसगढ़ में 11 में से 10 सीटें जीतीं, झारखंड में 14 में से 12 सीटें जीतीं और यू.पी. में 80 में से 71 सीटें जीतीं. वोट शेयर के लिहाज से भाजपा के पास गुजरात, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड में साधारण बहुमत है, लेकिन 31 प्रतिशत वोट शेयर के आधार पर इस चुनावी जीत से भाजपा को 282 सीटों (इसका हाफ़वे मार्क है 272) का सीमित बहुमत मिला है. भारत के संसदीय चुनावों में यह न्यूनतम वोट शेयर है. इस शानदार जीत के कारण ही प्रत्येक 1 प्रतिशत वोट (अब तक के सबसे बड़े अनुपात) को 1.67 प्रतिशत सीटों में बदल कर पूर्ण बहुमत प्राप्त किया जा सका. इस क्षेत्र के बाहर दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में कर्नाटक और असम के मजबूत आधार वाले अपवाद को छोड़कर भाजपा ने कम वोट के शेयर से शुरू किया है और इसे सीटों में बदलने के लिए उसे वोटों में लंबी छलाँग लगानी होगी.

एक मज़बूत संगठन के तौर पर भाजपा 2019 में अपने पक्ष में मतदान कराने के लिए एक और लंबी छलाँग लगा सकती है, लेकिन अपने बल पर बहुमत लाने के लिए उसे न केवल अपनी संभावित शानदार जीत का परिमाण बढ़ाना होगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इसे यह जीत भौगोलिक रूप में सभी क्षेत्रों में मिले. अगर उसकी यह जीत उसके अपने मज़बूत गढ़ तक ही सीमित रहती है तो अतिरिक्त सीटों को जीतना संभव नहीं हो पाएगा, लेकिन बड़े मार्जिन से अगर उसे अपने गढ़ में जीत हासिल होती है, जहाँ पहले से ही उसकी स्थिति मज़बूत है और उसे भारी बहुमत प्राप्त है तो भी अपने मज़बूत गढ़ की संभावित कमियों की क्षतिपूर्ति के लिए दक्षिण और पूर्व में अधिक सीटें नहीं मिल पाएँगी. ऐसी हालत में अगर विरोधी पक्ष महा गठबंधन बनाने में सफल हो जाता है तो भाजपा के लिए अपनी शानदार जीत को दोहराना आसान नहीं होगा. हो सकता है कि भाजपा दक्षिण और पूर्व में, विशेषकर पश्चिम बंगाल में जहाँ वह इस समय बहुत सक्रिय है, अपने आधार के विस्तार के लिए प्रयास करे ताकि वह अपने वोट शेयर को बढ़ाकर 2019 में इन नये क्षेत्रों में भी अधिक से अधिक सीटों के लिए अपना गंभीर दावा पेश कर सके. हमें उम्मीद है कि जैसे-जैसे समय बीतेगा, इस दिशा में उसके प्रयासों में तेज़ी आती जाएगी.

ईश्वरन श्रीधरन भारत के उन्नत अध्ययन के पैन्सिल्वेनिया विवि संस्थान (UPIASI)में शैक्षणिक निदेशक और मुख्य कार्यपालक हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919