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ऊर्जा स्थलों और जलवायु परिवर्तन के कार्यस्थलों के रूप में भारतीय शहर

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24/04/2017
राधिका खोसला

आजकल शहरों को स्वच्छ ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन के लिए रणनीतिक कार्यस्थलों के रूप में देखा जाता है. संयुक्त राष्ट्र के 2015 के स्थायी विकास के लक्ष्यों में पहली बार स्पष्ट रूप में शहरी लक्ष्य को भी शामिल किया गया है और 2015 के पेरिस जलवायु के करार में राष्ट्रीय विकास के संदर्भों में जलवायु के अनुकूल परिणामों के लिए नई गुंजाइश रखी गई है. शहरों में ऊर्जा-जलवायु संबंधों पर ध्यान देना भारत के लिए खास तौर पर सामयिक है. इसे सन् 2040 तक वैश्विक ऊर्जा के बढ़ते उपयोग के एक चौथाई अंश के रूप में प्रक्षेपित किया गया है. बहुत हद तक इस वृद्धि का श्रेय देश के मौजूदा आर्थिक और सामाजिक संक्रमणों को दिया जा सकता है. भारतीय शहरों को सन् 2030 तक 300 मिलियन अधिक लोगों के लिए अपने-आपको तैयार करना होगा. अधिकांशतः इसकी शुरुआत विकास के निचले बेस से होगी, जो आधुनिक ईंधन, उपकरणों, एयर कंडीशनरों और जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए अपेक्षित साधनों की माँग करेंगे. जनसांख्यिकीय दृष्टि से उम्मीद है कि कम से कम 10 मिलियन लोग हर साल अगले दो दशकों में भारतीय रोज़गार के बाज़ारों में प्रवेश करेंगे और अगले पंद्रह वर्षों में शहरों के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 75 प्रतिशत की वृद्धि होगी. इसके अलावा, 2030 तक अस्तित्व में रहने वाली दो-तिहाई इमारतें भारत में निर्माण के लिए शेष होंगी. इन शहरी संक्रमणों का प्रबंधन अपने-आप में ही बहुत बड़ी चुनौती होगी और भारी मात्रा में उनकी ऊर्जा और जलवायु संबंधी आवश्यकताओं की माँग को पूरा करने का काम इस प्रक्रिया को और भी जटिल बना देगा. इसके बावजूद इन जटिल माँगों के लिए शहर ही महत्वपूर्ण स्थल रहेंगे, क्योंकि उनकी पसंद के अनुसार उनके विकास मार्गों को आकार देने का काम अभी शेष है.

कदाचित् अंतर्विरोधी होते हुए भी शहरों का यह विशिष्ट पक्ष भारत के संदर्भ में लाभकारी हो सकता है, क्योंकि शहरी स्वरूप या इमारतों, परिवहन और सड़कों के ढाँचागत नैटवर्क, अर्थव्यवस्था के कुछ ऐसे तत्व हैं, जो सबसे लंबे होने के साथ-साथ स्थायी भी हैं. सड़क और परिवहन का नैटवर्क इमारतों के साथ ही विकसित होता है और इससे एक ऐसा देशीय पैटर्न उभरता है जो दशकों तक टिका रहता है. इस देशीय पैटर्न से ही लगभग उतने ही समयमान की ऊर्जा की खपत का तदनुरूपी पैटर्न भी उभरता है. जिस तरह से भारतीय शहरों का आज निर्माण होता है, उसी तरह से यह तय होगा कि अधिकांश भारतीय किस प्रकार से इस सदी के अंत तक रहेंगे. इसमें कई तत्वों की अपनी भूमिका रहेगी, किस प्रकार की इमारतों में वे रहते हैं, किस तरह वे गर्मी के प्रकोप से बचने के लिए वातावरण को ठंडा करने के लिए ऊर्जा की खपत करते हैं, कितनी दूर तक यात्रा करते हैं और परिवहन के किस साधन से वे यात्रा करते हैं. उनके द्वारा अपनाये गये साधनों का हवा, पानी, भीड़-भाड़, ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन पर वास्तविक प्रभाव पड़ेगा.

अपने समरूप संस्थागत ढाँचे के साथ-साथ स्थायी ढाँचागत सुविधाओं और प्रौद्योगिकी और उनके परिणामस्वरूप व्यवहारगत प्रतिमानों को “लॉक-इन” कहा जाता है. चूँकि शहरी अंतराल अपनी पसंद और प्रथाओं को आकार देते हुए भौतिक सैटिंग उपलब्ध कराते हैं, इसलिए लॉक-इन प्रभावों को आसानी से बदला नहीं जा सकता. इसके अलावा, एक बार शहर की ढाँचागत सुविधाओं पर बड़े पैमाने पर पूँजीगत निवेश करने के बाद नई ढाँचागत सुविधाओं (कारोबारी लागत और बाधाओं) में परिवर्तन की लागत बहुत अधिक हो सकती है. इस प्रकार अपने शहरी स्वरूप को निर्धारित करने की भारतीय शहरों की मौजूदा क्षमता ही अपने-आपमें एक विशिष्ट अवसर है, जिसकी मदद से ऐसे वैकल्पिक विकास मार्गों का चयन किया जा सकता है, जिनमें शहरी आवश्यकताओं के साथ समझौता करने की गुंजाइश न हो और कम से कम ऊर्जा की खपत की दर हो. लेकिन यह अवसर तभी उपयोगी होगा जब शहर इस संबंध में यथाशीघ्र निर्णय लेने में सक्षम होंगे.

हम अभी-भी यह नहीं समझ पाये हैं कि शहर किस तरह से ढाँचागत सुविधाओं के संक्रमण और आय-स्तरों को अपने अनुरूप ढाल पाएँगे. हम दूसरे स्तर के और तेज़ी से बढ़ते गुजरात के राजकोट शहर के दो उदाहरणों पर विचार करते हैं. पहला उदाहरण यह है कि जहाँ ऊर्जा-निर्माण के अधिकांश कार्यक्रमों में विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा (उपकरण की क्षमता और नवीकरणीय ऊर्जा) पर ध्यान दिया जा रहा है, वहीं राजकोट शैल के निर्माण की भूमिका पर भी ध्यान दे रहा है. निर्माण के समय ही शैल की विशिष्टियों और सामग्री का चुनाव ऊर्जा के उपयोग में कमी लाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. शहर के अधिकारी, खिड़कियों की शेडिंग, आर-पार हवा के आने-जाने की सुविधा अर्थात् वेंटिलेशन, छत के इन्सुलेशन और वाष्पीकरण के लायक कूलिंग में सुधार लाने के काम में जुटे हैं और इन सभी सुविधाओं से ऊर्जा की आवश्यकता में बिना बढ़ोतरी किये ही शहरवासियों को अधिक आराम मिल सकता है. यदि ये सभी निर्माण-कार्य समझदारी से किये जाएँ तो निर्माण-कार्य पूरा होने के बाद शैल के निर्माण से नाटकीय रूप में अतिरिक्त कूलिंग प्रौद्योगिकी की ज़रूरतों में न केवल कमी आ जाएगी, बल्कि संभावित परेशानियों से भी बचा जा सकेगा.

दूसरा उदाहरण यह है कि राजकोट एक ऐसा विश्लेषणपरक इनपुट लगाने जा रहा है, जिसकी मदद से इसके मोटरीकरण की भावी प्रवृत्तियों की जानकारी मिल सकेगी. एक और बात विचाराधीन है कि एक ऐसे सार्वजनिक पारगमन कॉरिडोर का निर्माण किया जाए, जिसमें बस रैपिड ट्राज़िट की सुविधा हो और यह नये किफ़ायती हाउसिंग कार्यों के नज़दीक स्थित हो. इस सुविधा से शहरवासियों को आवागमन का विकल्प मिलेगा और यह बात भी महत्वपूर्ण है कि अपना निजी वाहन खरीदने से पहले ही उन्हें यह सुविधा मिल जाएगी और वे सार्वजनिक वाहन की आदत के कारण अपना निजी वाहन खरीदना नहीं चाहेंगे. वैकल्पिक रूप में, यदि शहर की परिवहन- योजना में वाहनों की ईंधन-क्षमता बढ़ाने पर ही केवल ज़ोर दिया जाए तो वाहनों की खरीद में भारी कमी लायी जा सकेगी. सड़कों का जाल ऐसे फैलाया जाएगा कि बाद में ऊर्जा के उपयोग और कार्बन के उत्सर्जन में परिवर्तन करना आसान नहीं होगा.

शोध कार्यों में भी खास तौर पर भारत में शहर में ऊर्जा के भावी उपयोग को कम करने के लिए शहरी स्वरूप को उसके अनुरूप बनाने पर ज़ोर दिया गया है. ग्लोबल बिल्डिंग्स पर्फ़ोमेंस नैटवर्क द्वारा किये गये अध्ययन से पता चलता है कि 2050 तक भारत में इमारतों (स्पेस हीटिंग और कूलिंग के लिए) में ऊर्जा के अंतिम उपयोग का लॉक-इन जोखिम 414 प्रतिशत होगा, जबकि चीन में इसकी तुलना में यह जोखिम 63 प्रतिशत होगा. एक और अध्ययन से पता चलता है कि एशिया में शहरी योजना में ऊर्जा की खपत में आई कमी का कारण यह है कि हर सैक्टर में अलग-अलग विकल्प चुनने के बजाय बुनियादी ढाँचागत सुविधाओं, परिवहन और इमारतों के बीच परस्पर-निर्भरता की व्यवस्था का चुनाव किया जाता है. इसी से ऊर्जा की खपत को और वैश्विक ग्रीन हाउस से निकलने वाली गैस के उत्सर्जन को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है.

मौजूदा और आर्थिक दृष्टि से प्रायः अनुकूल ऊर्जा-गहन ढाँचागत सुविधाओं के निर्माण से संबंधित समस्याओं से निपटने के लिए शहरी प्रक्षेप-पथों को फिर से आकार देना कोई छोटा काम नहीं है. इसके साथ कुछ ऐसी बातें भी जुड़ी हैं, जिनके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है. साथ ही कुछ अज्ञात वित्तीय और राजनैतिक जोखिम भी इसमें शामिल हैं. इसके लिए ऐसे संस्थागत ढाँचे की भी आवश्यकता होगी जो सैक्टरों के बीच परस्पर संवाद की व्यवस्था करे, जबकि अपेक्षाकृत परंपरागत और अलग-अलग टुकड़ों में बिखरी हुई सैक्टर-विशिष्ट परियोजनाओं में इसकी गुंजाइश नहीं होती. ऐसी व्यवस्थित प्रणाली को अपनाकर ही अनुकूल परिणाम सामने आ सकते हैं, अन्यथा इसका कोई लाभ नहीं होगा. आवश्यकता इस बात की है कि सार्वजनिक परिवहन के स्थलों और आवासीय स्थलों में तालमेल स्थापित किया जाए. और यह भी महत्वपूर्ण है कि इससे मौजूदा नवीकरणीय और ऊर्जा दक्षता से संबंधित नीतियों को भी बल मिलेगा.

यह उल्लेखनीय है कि हाल ही में शुरू की गई नगर स्तर की योजनाएँ इसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं. पारवहन उन्मुख विकास नीति, हरित शहरी सचल योजना, स्मार्ट सिटी और शहरों के जीवन-योग्य सूचकांक जैसे कई राष्ट्रीय कार्यक्रम हैं, जिनकी मदद से निजी क्षेत्र और सिविल सोसायटी के साथ समन्वय और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए कोशिशें की जा रही हैं. बहुत कुछ दाँव पर लगा है और इनके परिणामस्वरूप विकास के साथ-साथ लॉक-इन को किस हद तक रोका जा सकता है, यह देखना अभी बाकी है. यदि ये योजनाएँ सफल होती हैं तो शहरों के ढाँचे ऐसे बनाये जाएँगे जिनसे खपत की प्राथमिकताओं और प्रथाओं को भी (पहले से ही) आकार दिया जा सकेगा और देश में ऊर्जा की बढ़ती माँग का भी अच्छी तरह से प्रबंधन किया जा सकेगा. भारत में शहरीकरण के अपेक्षाकृत आरंभिक चरण में स्पष्ट अवसर पहले से ही मौजूद हैं- क्या शहर इसके अनुरूप आगे बढ़ेंगे ?

राधिका खोसला नई दिल्ली स्थित नीतिगत अनुसंधान केंद्र में फ़ैलो हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919