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सत्ता की सीमाएँ: विश्व की बदलती व्यवस्था के विरुद्ध पाकिस्तान की नीति

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16/01/2017
जोहान चाको

फ़रवरी 2014 में आईबी के भूतपूर्व प्रमुख अजित दोवाल ने भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पदभार ग्रहण करने से कुछ समय पहले ही अपने लंबे सार्वजनिक बयान के माध्यम से एक बड़े नीतिगत परिवर्तन की घोषणा की थी. भारत में अलगाववादी और उग्रवादी गुटों को पाकिस्तान से मिलने वाली मदद को उन्होंने एक रणनीतिक चुनौती के रूप में घोषित किया था और उसका मुकाबले करने के लिए उससे कहीं बड़े ठोस प्रतिरोध की बात भी कही थी. इसी घोषणा में बलोचिस्तान को अलग करने की बात भी शामिल थी. हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने भी दावा किया था कि “विश्व एक स्वर से पाकिस्तान के संबंध में भारत की नीति का समर्थन करने लगा है” और भारत से यह माँग भी करने लगा है कि “भारत वैश्विक स्तर पर मात्र संतुलन करने वाली सत्ता न बनकर इस मामले में विश्व का नेतृत्व करे”. लेकिन जो नतीजे सामने आए हैं, वे इतने महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के अनुरूप नहीं हैं और यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि इन परिस्थितियों को बदलने के लिए रणनीतिक उपाय न किये जाएँ. नेतृत्व प्रदान करने के संबंध में चीन की बढ़ती ताकत को देखते हुए भारत को यह प्रयास करना होगा कि चीन के साथ मिलकर वह पाकिस्तान में और पूरे विश्व में भी रचनात्मक परिवर्तन लाए.

पहला मुद्दा तो यह है कि दोवाल की चेतावनी के बावजूद इसी अवधि में पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था में काफ़ी सुधार हुआ है और इसके परिणामस्वरूप सेना की लोकप्रियता बढ़ी है. नब्बे के दशक की तरह आशा के विपरीत पाकिस्तान कहीं अधिक सुसंगत और लचीला हो गया है. दूसरा मुद्दा है यह है कि बहुत कम देशों ने पाकिस्तान को लेकर भारत के पक्ष का समर्थन किया है और इस समय पाकिस्तान को अलग-थलग करने की गुंजाइश बहुत कम है. पाकिस्तान के विरुद्ध सैन्यबल का प्रयोग करके अन्य देशों का समर्थन जुटाना तो बिल्कुल भी संभव नहीं है. तीसरा मुद्दा यह है, जैसा कि डॉ. अविनाश पालिवाल (लैक्चरर, रक्षा अध्ययन, किंग्स कॉलेज लंदन) ने बताया है कि सितंबर, 2016 में पाकिस्तान के विरुद्ध किये गये “सर्जिकल स्ट्राइक” का भी पाकिस्तान के सैन्यबल और सैन्यहितों पर बहुत बुरा असर नहीं पड़ा है. ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के और अधिक हतोत्साहित होने का कोई संभावना नहीं है. साथ ही डोवाल सिद्धांत में परमाणु युद्ध की आशंका को भी स्वीकार किया गया है. यही कारण है कि भारत प्रत्यक्ष रूप में किसी सैनिक कार्रवाई के लिए भी कदम नहीं उठा सकता. 

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो पाकिस्तान को सबक सिखाने का भारत को बढ़िया अवसर तो 1971 के युद्ध के तुरंत बाद ही मिला था. उसके बाद ही पाकिस्तान परमाणु निवारक विकसित करने की अपनी हसरत को पूरा करने पर जुट गया था. किसी भी रूप में कमतर न रहने के अपने संकल्प के कारण ही पाकिस्तान बार-बार यह दिखाने का प्रयास करता रहा है कि भारत के विशाल आकार और भारी संसाधनों का जो बड़ा अंतराल उसके और भारत के बीच में है उसे पाटने के लिए वह किसी भी महाशक्ति के साथ गठबंधन कर सकता है. सोवियत संघ को रोकने की रणनीति के तहत शीत युद्ध के समय पाकिस्तान को दी जाने वाली पश्चिमी मदद भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष को टालने के लिए रोक दी गई थी. यद्यपि आइज़नहावर और निक्सन प्रशासन अपनी नीतियों को लेकर भारत के विरोध के प्रति आक्रोश का भाव तो रखते थे, लेकिन भारत को अपना शत्रुदेश कभी नहीं मानते थे. इसके विपरीत भारत को वे अक्सर अपना संभावित भागीदार ही मानते थे, जिसके कारण नई दिल्ली का पर्याप्त सम्मान भी करते थे.

इसके विपरीत सन् 1963 तक भारत के साथ निरंतर संघर्ष में उलझे रहने के कारण ही पाकिस्तान और चीन के संबंधों में काफ़ी सुधार हुआ. कई स्तरों पर वार्ताओं के दौर के बावजूद भी भारी सीमा विवाद लंबे समय तक खिंचते रहने के कारण भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ और कई बार झड़पें भी हुईं, लेकिन अलगाववादियों का समर्थन करने के कारण आधी सदी तक आपसी भय और आक्रोश बने रहना ही सबसे अधिक नुक्सानदायक सिद्ध हुआ. जैसे भारत सरकार बिना सोचे-समझे यह मानकर चलती है कि कश्मीर घाटी में असंतोष का मूल कारण है, पाकिस्तान और 1958 से बीजिंग भी आदतन यह मानकर चलता है कि तिब्बत के असंतोष का मूल कारण है दलाई लामा और भारत सरकार उसका समर्थन करती है. न तो तिब्बत और न ही कश्मीर (या बलोचिस्तान) को अलग किया जा सकता है. यही कारण है कि ऐसे जटिल अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों के समाधान की गुंजाइश बहुत कम है.

9/11 हमले के बाद के युग में अमरीका के साथ भारत के रणनीतिक संबंध नई ऊँचाइयों को छूने लगे थे, लेकिन इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ भी अमरीका के संबंध गहरे होते चले गए. तालिबान के विरुद्ध काबुल को समर्थन देने के लिए जिस तरह के सहयोग की अपेक्षा अमरीका पाकिस्तान से करता है उसके कारण और इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान की प्रबल भूमिका के कारण इस्लामाबाद / रावलपिंडी पर दबाव बहुत बढ़ गया है. उग्रवाद की वजह से आंतरिक विरोध बढ़ जाने का नतीजा यही हुआ कि जनरल हामिद गुल जैसे व्यक्तित्व की विचारधारा से जुड़कर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा की ज़्यादतियाँ इस हद तक बढ़ गईं कि पाकिस्तान को आज भारत के समकक्ष रखा जाने लगा, जिसे डोवल ने “रक्षात्मक आक्रामक” कहा है, लेकिन इस बीच चीनी निवेश इतना अधिक बढ़ गया कि उसके मुकाबले अमरीका की भूमिका भी कम होने लगी है और यही कारण है कि अब मौजूदा व्यवस्था को कायम रखना आसान नहीं है.

पाकिस्तान में बहुत-से लोग यह मानने लगे हैं कि चीन के साथ उनके भू-राजनैतिक संबंधों का आधार अब बदल गया है. पहले इसका आधार सुरक्षात्मक था, लेकिन अब यह विकासपरक हो गया है. यही कारण है कि बीजिंग ने चीनी-पाकिस्तानी आर्थिक कॉरिडोर के निर्माण के लिए $51.1 बिलियन डॉलर तक का निवेश किया है. यहाँ मुख्य मुद्दा निवेश किये गये धन की भारी मात्रा ही नहीं है, बल्कि पाकिस्तान को कहीं अधिक व्यापक चीन-केंद्रित व्यवस्था के अंतर्गत एक ऐसे महत्वाकांक्षी हब और धुरी के रूप में विकसित करना है, जिसकी अमरीका ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. बैल्ट ऐंड रोड इनिशियेटिव (BRI) का लक्ष्य है यूरेशिया के माध्यम से भूमिमार्ग द्वारा एशिया, अफ्रीका और योरोप को और हिंद महासागर तक फैले हुए समुद्री मार्ग से चीन के बाज़ारों को जोड़ना. इन दोनों मार्गों को जोड़ने में पाकिस्तान की भूमिका खास तौर पर महत्वपूर्ण हो सकती है. यह प्रयास माओ युग की “तृतीय-विश्व” की समजुटता के नैटवर्क से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. चीनी अर्थव्यवस्था के आकार से कहीं अधिक आगे बढ़कर बीजिंग बीआरआई की परियोजनाओं में टनों बिलियन निवेश करने के लिए इच्छुक है और अपनी इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लागू करने में उसकी आतुरता ही उसकी दृष्टि को संभावित भागीदारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण बना देती है.

इसमें दिलचस्पी लेने वाले देश हैं, रूसी संघ और ईरान का इस्लामी गणतंत्र. पाकिस्तान द्वारा सुन्नी जिहादियों के उपयोग का विरोध करने के लिए इन्हीं देशों पर भारत कई दशकों तक निर्भर रहा है. इस परियोजना में रूस की बढ़ती भागीदारी से यह स्पष्ट हो गया है कि बीआरआई के माध्यम से पाकिस्तान का कायाकल्प होने जा रहा है. अब यह दुनिया के लिए खतरा सिद्ध होने के बजाय एक बड़े अवसर के रूप में विकसित होने जा रहा है. हाल ही में आयोजित हार्ट ऑफ़ एशिया की शिखर-वार्ता के दौरान क्रैमलिन ने तालिबान और उसके जैसे आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान द्वारा दी जाने वाली सहायता के लिए पाकिस्तान की निंदा करने से इंकार कर दिया था. इसके बजाय रूस ने चीन और पाकिस्तान के सहयोग से अफ़गानिस्तान और मध्य एशिया में सुरक्षा व्यवस्था कायम करने की इच्छा भी प्रकट की है. इस प्रकार के त्रिपक्षीय समझौते की ठोस शुरुआत पहले ही की जा चुकी है; रूसी इंजन पाकिस्तान की एसेम्बली लाइन को रोल ऑफ़ करते हुए JF-17 चीनी लड़ाकू जहाज़ को शक्ति संपन्न कर रहे हैं और इस प्रकार रक्षा सहयोग बढ़ रहा है. सन् 2014 से पश्चिम के प्रतिबंध लागू होने के कारण रूस की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को चीन की मंडियों और पूँजी की दरकार थी और मास्को भी समझ गया था कि ऐटलांटिक गठबंधन के साथ संघर्ष के चलते उसे भी दीर्घकालीन मित्र की आवश्यकता है. इसी संदर्भ में अमरीकी नेतृत्व में भारत के बढ़ते निवेश से संबंधित सुरक्षा योजना को देखकर क्रैमलिन और अनेक सामान्य रूसी यह मानने लगे थे कि बुनियादी तौर पर भारत की चिंताओं का ख्याल करते रहने के कारण उनके निवेश कम होने लगे हैं. 

पिछले दशक में परमाणु सप्लायर्स ग्रुप (NSG) के साथ नई दिल्ली के अनुभवों में बदलते हुए विश्व की व्यवस्था की झलक मिलने लगी थी. बुश प्रशासन के साथ जुलाई 2005 में करार होने के बाद भारत को सन् 2008 में अप्रसारण संधि और व्यापक परीक्षण पर पाबंदी संबंधी संधि के बावजूद परमाणु सप्लायर्स ग्रुप (NSG) की पाबंदियों को समाप्त करने और अंतर्राष्ट्रीय असैन्य परमाणु व्यापार में सीमित भागीदारी करने का अपने ढंग का एक मौका मिल ही गया था. सन् 2016 में जब भारत ने परमाणु सप्लायर्स ग्रुप (NSG) के लिए पूर्णकालिक सदस्यता के लिए ज़ोर दिया, तब उसे इस तरह के अपवाद को एक बार फिर से दोहराने की छूट नहीं मिली. चीन ने कुछ अलग-थलग पड़े देशों का नेतृत्व करते हुए भारत को कोई विशेष हैसियत देने पर रोक लगा दी और इस प्रकार अमरीका और भारत की अवहेलना हो गई.

ज़ाहिर है कि पाकिस्तान पर और समग्र रूप में अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली पर भारत के प्रभाव को अधिकाधिक बढ़ाने में चीन की भूमिका आवश्यक रहेगी. भले ही अच्छे से अच्छे वक्त में भी यह संबंध बहुत जटिल रहेगा, लेकिन खास कोशिश यह रहनी चाहिए कि आपसी हितों को सामने और केंद्र में रखा जाए. विकास के बढ़ते पथ पर भारत और चीन दोनों ही क्षेत्रीय व्यापार की भूमिका को बहुत अहम मानते हैं और आंतरिक स्थिरता बनाये रखने के लिए भी विकास की ज़रूरत होती है. दोनों ही देश अलगाववाद और अपनी मुस्लिम आबादी पर इस्लामिक उग्रवाद के प्रभाव को लेकर भी आशंकित हैं. दोनों ही देश अपने विशाल ऊर्जा के भंडार के आयात को बेहद संवेदनशील मानते हैं और प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को लगातार स्वीकार करने लगे हैं. दोनों ही देश 20 वीं सदी के यूरो-अमरीकी ढाँचे के बजाय 21 वीं सदी की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थायी वैश्विक ढाँचा खड़ा करना चाहते हैं. 

इसके अलावा, निश्चय ही भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बहाल करना बहुत मुश्किल काम है, लेकिन ऐतिहासिक शत्रु होने पर भी दोनों में से किसी भी देश में सुहाने संबंधों की कल्पना अभी लुप्त नहीं हुई है. ज़ाहिर है कि हमें चीनी-भारतीय संबंधों के केंद्रबिंदु को संघर्ष प्रबंधन के बजाय भविष्य में भागीदारी पर केंद्रित करना चाहिए, जो अपने-आपमें बहुत ही कठिन काम है, लेकिन इसके फलस्वरूप एशिया का कायाकल्प भी सकता है. यह कल्पना करना सचमुच कठिन है कि भारत की विदेश नीति में बेहतर उपलब्धियों की प्रबल संभावना मौजूद है.

जोहान चाको स्वतंत्र सलाहकार हैं और लंदन विश्वविद्यालय के राजनीति व अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन विभाग(SOAS) में अंतिम वर्ष के पीएच.डी के छात्र हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919