Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

भारत के शहरी मध्यम वर्ग में जाति और विवाह

Author Image
18/07/2016
अमित आहुजा

आँकड़ों के अनुसार केवल 5 प्रतिशत भारतीय ही अंतर्जातीय विवाह करते हैं. इससे अक्सर मोटे तौर पर यही निष्कर्ष निकाल लिया जाता है कि वैवाहिक संबंधों का आधार जातिगत है. परंपरागत रूप में जाति से बाहर की जाने वाली शादी को अब तक सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है. यही कारण है कि ऑनर किलिंग अर्थात् अपने सम्मान की खातिर हत्याओं का दौर आज भी देश-भर में जारी है, लेकिन भारत के शहरी मध्यम वर्ग में युवा लोग शादी के लिए अपने जीवन साथी की तलाश अपनी जाति तक ही सीमित नहीं रखते.

सदियों से विवाह एक ऐसी महत्वपूर्ण संस्था रही है, जिसके ज़रिये पदानुक्रम पर आधारित जाति व्यवस्था अपने-आपको पुनर्जीवित करती रही है. व्यक्ति का जन्म जाति में होता है और वह आम तौर पर अपने ही समूह के किसी सदस्य से विवाह करता है और फिर उसके बच्चे होते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह क्रम चलता रहता है.   अंतर्जातीय विवाह में छूट देने का मतलब है जातिगत बंधनों को कमज़ोर करना.

नतीजे भ्रामक होते हैं

सामाजिक नतीजे लोगों की वास्तविक प्राथमिकता को अनिवार्यतः प्रतिबिंबित नहीं करते और उनसे सामाजिक नज़रिये का सही संकेत भी नहीं मिलता, जैसा कि अमरीका में काले और गोरों की शादी से संकेत मिलता है.    आज अमरीका में होने वाली कुल शादियों की एक प्रतिशत शादियाँ ही काले-गोरों के बीच होती हैं, लेकिन इनकी सामाजिक स्वीकृति में नाटकीय रूप में वृद्धि हुई है.

सन् 1958 में गैलप ने एक सर्वेक्षण में लोगों से पूछा कि क्या वे काले और गोरों के अंतर्जातीय विवाह को स्वीकार करते हैं तो केवल 4 प्रतिशत लोगों ने ही हामी भरी. सन् 1978 में यह संख्या बढ़कर 33 प्रतिशत हो गई थी और 2013 में यह आँकड़ा और आगे बढ़कर 87 प्रतिशत तक पहुँच गया. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अंतर्जातीय विवाहों की कम संख्या का मतलब यह नहीं है कि इसमें लोगों की दिलचस्पी नहीं है या उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं है.

अंतर्जातीय विवाह में दिलचस्पी

निरंतर बढ़ते साक्ष्य से पता चलता है कि वास्तविक आँकड़ों की तुलना में अंतर्जातीय विवाह में दिलचस्पी लेने वाले जोड़ों की संख्या कही अधिक है. विकासशील समाज के अध्ययन केंद्र द्वारा किये गये 2004 के भारतीय राष्ट्रीय चुनाव संबंधी अध्ययन में 27,000 उत्तरदाताओं से नमूने के तौर पर पूछा गया था कि क्या वे अंतर्जातीय विवाह पर पाबंदी लगाने के पक्ष में हैं. 60 प्रतिशत ने इस प्रस्ताव पर हामी भरी थी. शहरी लोग इसको लेकर बहुत कम उत्साहित थे. केवल 47 प्रतिशत लोग ही इस पर पाबंदी लगाने के पक्ष में थे. 1970 और 2010 के बीच बड़े-बड़े राष्ट्रीय दैनिक पत्रों में प्रकाशित 10,000 से अधिक वैवाहिक विज्ञापनों के अध्ययन से पता चलता है कि जाति-बिरादरी के अंदर किये जाने वाले विवाहों की माँग में भारी कमी आई है. 1970-80 के दशक में जहाँ इसका प्रतिशत 30 था और 2000-10 के दशक में यह प्रतिशत घटकर 19 प्रतिशत रह गया.   

अंतर्जातीय विवाह में दिलचस्पी के प्रेरक कारण क्या हैं ?

अंतर्जातीय विवाह में दिलचस्पी के प्रेरक कारणों को समझने के लिए डॉ. सूज़न ऑस्टरमैन के साथ मैंने भारत के तीन बड़े राज्यों, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में विवाह की मंडियों का अध्ययन किया. विशेष से हमने शहरी मध्यम वर्ग से आने वाली दलित (हरिजन) और उच्च वर्ग की महिलाओं की पसंद का अध्ययन किया. हमारा अध्ययन मुख्यतः महिलाओं के व्यवहार पर केंद्रित रहा, क्योंकि अंतर्जातीय विवाह के विरुद्ध वर्जनाएँ पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ही ज़्यादा रहती हैं. अंतर्जातीय विवाह महिलाओं के लिए अधिक परिणामकारी रहते हैं, क्योंकि वे अपने पति की जाति अपना लेती हैं.

अन्य अनेक प्रस्तावों के अलावा इन सभी महिलाओं को ऊँची आमदनी और उच्च स्तर वाले तीन संभावित ऐसे वरों के प्रस्ताव मिले, जिनका कद, उम्र, त्वचा का रंग और शैक्षिक हैसियत समान थी. बस इनमें एक ही अंतर था कि प्रत्येक वर की जाति अलग थी- सवर्ण जाति, पिछड़ी जाति और दलित.

हमने इससे क्या जाना?

हमने जिन 1,070 महिलाओं की पसंद का अध्ययन किया, उनमें से 65 प्रतिशत महिलाएँ उपयुक्त वर पाने लिए अपनी जाति से बाहर जाने के लिए भी तैयार थीं. 71 प्रतिशत दलित महिलाएँ अंतर्जातीय वर पाने को तैयार थीं. सवर्ण महिलाओं में से केवल 54 महिलाओं ने ही अंतर्जातीय विवाह की इच्छा प्रकट की.       

अपनी आर्थिक या जातिगत हैसियत को बढ़ाने के लिए ही महिलाओं ने विवाह की मंडी से संपर्क किया, लेकिन अन्य मंडियों की तरह विवाह की मंडी भी विनिमय के सिद्धांत पर ही काम करती है; कुछ पाने के लिए आपको वापसी में कुछ देने की स्थिति में भी होना चाहिए.

एक मध्यम वर्गीय सवर्ण महिला अपनी आर्थिक हैसियत को सुधारने के लिए अपने से अधिक समृद्ध निम्न जाति के पुरुष के साथ विवाह करने पर विचार कर सकती है. हमने पाया कि सवर्ण जाति की महिलाओं में समृद्ध वर्ग से आने वाली महिलाओं के मुकाबले, निम्न-मध्यम और मध्यम वर्गीय महिलाओं की अंतर्जातीय विवाह में ज़्यादा रुचि थी.

इसी प्रकार, समृद्ध परिवार से जुड़ी एक निम्न जाति की महिला अपनी आर्थिक हैसियत का लाभ उठाते हुए उच्च जाति की हैसियत पाने के लिए इच्छुक हो सकती है. हमने पाया कि दलित समाज से आने वाली महिलाओं में निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग की महिलाओं के मुकाबले, समृद्ध वर्ग से आने वाली महिलाओं की अंतर्जातीय विवाह में अधिक रुचि थी.

हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है कि जाति के संदर्भ में अंतर्जातीय वर के साथ विवाह की इच्छा विवाह में ही परिणत हो. एक ऐसे समाज में जहाँ अंतर्जातीय विवाह को स्वीकृति नहीं मिलती, वहाँ ऐसे विवाह में रुचि दिखाना ही बहुत बड़ी बात है. समाज में आगे बढ़ने की इच्छा से प्रेरित होकर कितने ही लोग जाति-बिरादरी की सीमाएँ लाँघकर विवाह की मंडी में पहुँचते हैं, लेकिन ‘दलित’ का जो ठप्पा उन पर लगा है, उसे मिटाना आसान नहीं होता. दलितों के प्रति भेदभाव आज भी बना हुआ है. हमने पाया कि सवर्ण महिलाओं में से 52.1 प्रतिशत महिलाओं ने पिछड़े वर्ग के वर के साथ विवाह करने की इच्छा जताई, लेकिन सवर्ण जाति की महिलाओं में केवल 28.7 प्रतिशत ने दलित जाति के वर से विवाह में रुचि दिखाई. 

भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है ?

शहरीकरण से ही जातिप्रथा को मिटाया जा सकता है. किसी भी व्यक्ति की पहचान स्पष्ट न होने के कारण शहर में न तो बँधे-बँधाये नियमों का पालन कराना आसान होता है और न ही सार्वजनिक क्षेत्र में उनकी अवहेलना पर कड़ी नज़र रखी जा सकती है. बहुत कम गतिविधियाँ ऐसी होती हैं जिनमें जातिगत पहचान आवश्यक होती है. शहरीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2030 तक 40 प्रतिशत भारत के लोग शहरी इलाकों में रहने लगेंगे.

शहरी मध्यम वर्ग, जहाँ शुरू से ही सवर्ण जाति की संख्या अधिक रही है, आज धीरे-धीरे बदल रहा है. पिछड़ी जाति और दलित समाज की संख्या इस वर्ग में बढ़ रही है. विवाह की मंडी में इस बदलाव की झलक दिखाई देने लगी है. सूज़न और मैंने पाया कि सन् 1970 में जहाँ पिछड़ी जाति और दलितों के केवल 1.5 प्रतिशत विज्ञापन ही राष्ट्रीय स्तर के अखबारों में प्रकाशित होते थे, वहीं सन् 2010 में यह संख्या बढ़कर 10 प्रतिशत हो गई.

गाँवों की तुलना में शहरों में वर-वधू की खोज की प्रक्रिया अलग होती है. मध्यम वर्ग के लोग परिवार और जातिगत नैटवर्क के बजाय मित्रों और व्यावसायिक नेटवर्क में बदल जाते हैं और टैक्नोलॉजी पर निर्भर होने लगते हैं. इस समय 25 करोड़ भारतीयों के पास स्मार्ट फ़ोन हैं. आज ऑन लाइन वैवाहिक वैबसाइटें जातिगत सूचनाओं को व्यक्तिगत प्रोफ़ाइल के साथ जोड़ देती हैं और नई डेटिंग ऐप्स में तो इस प्रकार की सूचनाएँ भी नहीं होतीं.

इस प्रकार के साधनों की मदद से और ऊँचे वर्ग में प्रवेश पाने की प्रबल इच्छा के कारण शहरी मध्यम वर्ग में अंतर्जातीय विवाह की दर बढ़ती जा रही है, लेकिन सबसे बड़ी बाधाएँ अभी भी बनी हुई हैं. उनके परिवार अभी-भी उनके पीछे पड़े रहते हैं और उन्हें अपमानित करने, उनका सामाजिक बहिष्कार करने और कुछ मामलों में तो पारिवारिक सम्मान के नाम पर हत्या की वारदातों से भी बाज नहीं आते. जाति-बिरादरी की सीमाएँ कमज़ोर होने के कारण जाति पर आधारित संगठन और राजनीतिक दल भी अपना प्रभाव खोने लगे हैं और यही कारण है कि वे अंतर्जातीय विवाह का विरोध करते हैं. लेकिन इस लड़ाई में उनकी हार निश्चित है.

इस प्रकार की वारदातों के खिलाफ़ भारत सरकार को डटकर खड़ा होना होगा और विवाह करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी. यही कारण है कि अब राज्य सरकारें भी अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने के लिए अंतर्जातीय वर-वधुओं को नकद पुरस्कार देने लगी हैं. इन प्रोत्साहनों के अलावा अंतर्जातीय वर-वधुओं को सरकारी कार्यक्रमों में वरीयता भी दी जानी चाहिए.

ऑनर किलिंग की धमकियों और उनको भड़काने वाले लोगों के खिलाफ़ तुरंत कार्रवाई करके ही इन वारदातों को रोका जा सकता है. अंतर्जातीय विवाहों के पक्ष में सार्वजनिक अभियान चलाकर इन बाधाओं को कम किया जा सकता है. डॉ. बी. आर. अम्बेडकर  ने जातिप्रथा और उसकी बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया था. सन् 1936 में जातिगत भेदभाव और विवाह के संबंध में उन्होंने कहा था, “ मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूँ कि जातिगत भेदभाव को मिटाने का अचूक उपाय एक ही है, अंतर्जातीय विवाह. ऱक्त का मिश्रण ही आपसी रिश्तेदारी की भावना को जन्म दे सकता है और जब तक आपसी रिश्ते की डोर मज़बूत नहीं होती, तब तक यह संबंध स्थायी नहीं हो सकता. जाति का भाव हमें एक-दूसरे से अलग कर देता है और हममें अलगाव की भावना पैदा करता है. इसलिए अंतर्जातीय विवाह ही एक मूलमंत्र है, जिससे जातिगत भेदभाव को मिटाया जा सकता है. जहाँ समाज पहले से ही रिश्तों की डोर से बँधा है, वहाँ विवाह एक सामान्य घटना हो सकती है, लेकिन जब समाज बँटा हुआ हो, तब विवाह ही एक सूत्र है, जिससे समाज जुड़ा रह सकता है, इसलिए यह आज की तात्कालिक आवश्यकता है. जाति प्रथा को तोड़ने का एकमात्र उपाय है, अंतर्जातीय विवाह. जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए कोई और उपाय कारगर नहीं हो सकता.” डॉ. अम्बेडकर के विश्लेषण में एक सीधा-सादा सा संदेश छिपा है: जाति और विवाह के नियम समाज द्वारा निर्मित हैं. इसलिए समाज जिसे बना सकता है, उसे मिटा भी सकता है. वास्तव में आनुवंशिक अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय उप महाद्वीप में 1900 वर्ष पहले तक अंतर्जातीय विवाह एक सामान्य प्रथा हुआ करती थी. बस उसके बाद इस प्रथा का लोप हो गया.

जाति प्रथा का अंत निकट भविष्य में होने वाला नहीं है. सामाजिक और राजनीतिक जीवन में जातिगत बंधन बहुत मज़बूत हैं, लेकिन जातिगत संबंधों की नींव पत्थर में गड़ी नहीं है. उसमें बदलाव आ रहा है. समय के साथ सार्वजनिक जीवन में जातिगत बंधन ढीले पड़ने लगे हैं. अंतर्जातीय विवाह में छूट के कारण सामाजिक नज़रिये में भी मौन क्रांति का सूत्रपात हो गया है. और यह केवल सार्वजनिक क्षेत्र तक सीमित न रहकर भारत के शहरी मध्यम वर्ग के निजी क्षेत्र में भी प्रवेश करने लगा है.

अमित आहुजा सांता बार्बरा स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919