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सामाजिक पदक्रम में हैसियत, गर्भवती महिलाओं का स्वास्थ्य और देश का विकास

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05/10/2015
डियाने कॉफ़े

स्वस्थ माताएँ स्वस्थ बच्चों को जन्म देती हैं और ये बच्चे ही बड़े होकर उपयोगी काम करते हैं| इसके विपरीत जो महिलाएँ गर्भावस्था की शुरुआत में ही बहुत दुबली-पतली रहती हैं और गर्भावस्था के दौरान भी जिनका वजन जितना बढ़ना चाहिए उतना नहीं बढ़ता, उनके नवजात बच्चों का वजन भी कम रहने की सम्भावना बनी रहती है|

जन्म के समय बच्चों का कम वजन का होना नवजात बच्चों की मृत्यु, जो कि जन्म के एक महीने के अन्दर होती है, की एक मुख्या वजह है| नवजात शिशु मृत्यु-दर भारत में कुल शिशु मृत्यु दर का 70 प्रतिशत हिस्सा है- और यह संख्या भारत की सकल घरेलू आय के हिसाब से काफी ज़्यादा है| भारत में नवजात बच्चों की मृत्यु-दर ज़्यादा होना गर्भवती महिलाओं में हो रहे कुपोषण का परिणाम है|

महिलाओं के गर्भ धारण करने से पहले और गर्भ के दौरान बढ़ने वाले वज़न से जुड़े मातृत्व पोषण के सूचकों के आधार पर भारत का प्रदर्शन कैसा है? हाल ही में किये गये मेरे शोध से पता चला है कि 42.2 प्रतिशत भारतीय महिलाएं गर्भावस्था की शुरुआत में कम वज़न की होती है| इसका मतलब है कि उनका शारीरिक भार सूचकांक (BMI) 18.5 से कम रहता है जो, जीर्ण ऊर्जा की कमी (CED) के लिए, खाद्य व कृषि संगठन (FAO) द्वारा बताई गई न्यूनतम सीमा है| कम वजन वाली गर्भवती महिलाओं में यह दर दुनिया के गरीब और कम विकसित क्षेत्रों की तुलना में भी बहुत ज़्यादा है; सब-सहारा अफ्रीका के गरीब देशों में गर्भावस्था की शुरुआत में केवल 16 प्रतिशत महिलाएँ ही कम वजन की होती हैं|

भारतीय महिलाएँ न केवल गर्भावस्था के शुरात में बहुत दुबली-पतली होती हैं, बल्कि गर्भावस्था के दौरान भी उनका वज़न कम बढ़ता है| गर्भावस्था के दौरान भारतीय महिलाओं का वजन औसतन केवल सात किलोग्राम (पंद्रह पाउंड) ही बढ़ता है| वज़न का इतना कम बढ़ाना एक स्वस्थ बच्चे को पैदा करने के लिए काफी नहीं है; यह अमरीकी महिलाओं के लिए अमरीकी चिकित्सा संस्थान द्वारा बताए गए वजन की तुलना में लगभग आधा ही है| दुर्भाग्यवश इस विषय पर भारतीय शोधकर्ताओं और भारत सरकार ने बहुत कम अध्ययन किया है; गर्भावस्था के दौरान वजन बढ़ाने के लिए किसी तरह के राष्ट्रीय दिशा-निर्देश जारी नहीं किये गये हैं|

गर्भवती महिलाओं के कुपोषण का गंभीर असर भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और मानव संसाधन पर पड़ रहा है| इसके कारण जन्म के समय नवजात बच्चों का वजन बहुत कम होता है और इस वजह से भी भारतीय लोग छोटे कद के होते हैं| भारतीय बच्चों और वयस्कों का छोटा कद इस बात का संकेत है कि उनका मानसिक विकास भी पूरी तरह नहीं हो पाया है| शोधकर्ता अब यह समझने लगे हैं कि जीवन के शुरूआती दिनों से जुडी स्वास्थ्य संबंधी चीज़ें जो बच्चों के कद को बढ़ने से रोक देती है, उसका असर उनके दिमाग के विकास पर भी पड़ता है| जिन बच्चों का कद कम होता है, वे पढ़ने में भी कमज़ोर होते हैं और बड़े होने के बाद लंबे लोगों की तुलना में कम पैसे कमा पाते हैं| इसलिए गर्भवती महिलाओं का पोषण, जन्म के समय कम वजन का होना और छोटा कद होना केवल स्वास्थ्य की समस्या ही नहीं है, बल्कि एक आर्थिक समस्या भी है| 

क्या कारण है कि भारत में गर्भवती महिलाओं को पर्याप्त पोषण नहीं मिलता? इसकी एक महत्वपूर्ण वजह यह है कि ये युवतियाँ पितृ-सत्तात्मक या पुरुष-प्रधान समाज में रहती हैं और अपने घर में इनकी हैसियत कम होती है| भारत में जहाँ 40 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ कम वजन की हैं, वहीं मझौली आयु के बहुत कम पुरुष – लगभग 25 प्रतिशत- ही कम वजन के हैं| अगर परिवार के सदस्यों के बीच में भोजन और काम का बँटवारा समान रूप से होता तो इन विभिन्न जनसांख्यिकीय समूहों, जैसे पुरुष और महिलाओं में, कम वजन वाले लोगों का अनुपात भी समान ही रहता| लेकिन पहले किये गये कई अध्ययनों से पता चलता है कि आम तौर पर नव-विवाहिता महिलाओं के साथ परिवार के लोग अच्छा व्यवहार नहीं करते और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वो परिवार के लिए त्याग करें, कड़ी मेहनत करें और कम खाना खाएं|

रीतिका खेड़ा और डीन स्पियर्स के साथ “ग्रामीण भारत में संयुक्त परिवार” पर किये गये मेरे शोधकार्य में पोषण के लिए आंतर पारिवारिक हैसियत के महत्व की एक बार फिर से पुष्टि हुई है| इस शोध में पता चलता है कि किसी संयुक्त परिवार की छोटी बहू, बड़ी बहू की तुलना में ज़्यादा दुबली-पतली रहती है| इसका कारण यही है कि संयुक्त परिवार में छोटी बहू की तुलना में बड़ी बहू की हैसियत भी ज़्यादा होती है| यह शोधकार्य गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य पर सामाजिक हैसियत से पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाता है और इस प्रभाव का कोई दूसरा कारण होने की संभावना काफी कम है| इस शोध में यह भी पता चलता है कि गर्भावस्था के दौरान कुपोषण के लिए महिलाओं की सामाजिक हैसियत की कमी एक कारण है| इससे अगली पीढ़ी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है|

गर्भवती महिलाओं के कुपोषण का संबंध भारतीय परिवारों में महिलाओं की कम हैसियत से जुड़ा हुआ है और इस वजह से सरकार के लिए इस समस्या का समाधान करना सचमुच कठिन हो जाता है| अपनी पत्नियों के साथ पति कैसा बर्ताव करते हैं, सासें अपनी बहुओं के साथ कैसा बर्ताव करती हैं और क्या औरतें अपनी और अपने बच्चों के स्वास्थ्य से जुडी बातों पर आवाज़ उठेंगी- जैसी चीज़ों को रातों-रात नहीं बदला जा सकता है| लेकिन गर्भावस्था के दौरान कुपोषण पर ध्यान न देना भी तो ठीक नहीं है, क्योंकि इसकी अनदेखी के कारण भारत को इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ रही है| 

गर्भवती माताओं के कुपोषण की समस्या से निपटने का एक महत्वपूर्ण उपाय पहले इसका आँकलन करना है| दस साल से भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) ही नहीं किया गया है| संतोष की बात यही है कि अब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया जा रहा है, लेकिन ये सर्वेक्षण तभी उपयोगी होंगे जब इन्हें नियमित रूप कराया जाएगा| उदाहरण के लिए बंगला देश में ऐसा स्वास्थ्य सर्वेक्षण हर तीन साल में एक बार कराया जाता है| भारत को चाहिए कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण नियमित रूप से कराने के अलावा कुछ गर्भवती महिलाओं की उनकी गर्भावस्था और प्रसव के दौरान निगरानी भी करे| इससे महिलाओं के गर्भ और प्रसव से जुडी ज़्यादा जानकारी उपलब्ध हो सकेगी और इससे जुडी समस्याओं की बेहतर समझ भी बढ़ेगी| ऐसी प्रणालियाँ दूसरे देशों में अच्छा काम कर रही हैं और इन पर खर्च भी कोई ज़्यादा नहीं आता|

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत गर्भवती महिलाओं को प्रसव अधिकार के रूप में 6,000 रुपये पाने का अधिकार है| दुर्भाग्यवश, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) को पारित हुए दो साल से अधिक समय हो गया है, लेकिन गर्भवती महिलाओं को प्रसव-अधिकार मिलना अभी तक शुरू भी नहीं हुआ है| भारत में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की दुर्दशा को रोकने के लिए हमने अभी तक इस अवसर का लाभ उठाना भी शुरू नहीं किया है|हालाँकि एसा नहीं है कि प्रसव-अधिकार महिलाओं में गर्भ-पूर्व वजन की कमी को कम कर सकता है पर गर्भावस्था के दौरान वजन बढ़ाने के लिए एक व्यवस्थित प्रसव अधिकार कार्यक्रम शायद मदद करेगा|

गर्भवती महिलाओं को प्रसव अधिकार का पैसा देने के साथ-साथ सरकार को लोगों को गर्भावस्था के दौरान वजन बढ़ाने के महत्व के बारे में जागरुक करना होगा और उनपर इस बात के लिए दबाव डालना होगा कि वे गर्भवती महिलाओं का अधिक से अधिक ध्यान रख्खें| साथ ही गर्भावस्था के दौरान जितनी जल्दी गर्भवती महिला की पहचान हो सके, उन्हें बिना किसी शर्त के एकमुश्त पैसा भी दिया जाए| प्रयास होना चाहिए कि यह पैसा गर्भवती महिलाओं को ऐसे समय तक उपलब्ध करा दिया जाए जब वो उसका इस्तेमाल बेहतर पौष्टिक खाना लेने में कर सकें|

इस तरह का कार्यक्रम लागू करने में सरल होगा और साथ ही लाभ पाने वाली महिलाओं और उनके परिवार के लोगों को गर्भावस्था के दौरान वजन बढ़ाने के महत्व की तरफ भी इशारा कर सकेगा|

डियाने कॉफी प्रिंसटन विवि के वुडरो विल्सन स्कूल और दिल्ली स्थित भारतीय सांख्यिकीय संस्थान के साथ संबद्ध एक शोधकर्ता हैं और अनुकंपा-आधारित अर्थशास्त्र  (r.i.c.e) संबंधी शोध संस्थान की कार्यपालक निदेशक हैं|

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail|com> / मोबाइल: 91+9910029919|