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क्या जाति-आधारित गणना से भारत जातिगत समाज बन जाएगा?

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02/08/2010
के सत्यनारायण

भारत के संभ्रांत वर्ग में- खास तौर पर उच्च वर्ग के बुद्धिजीवियों में- भारत की जनगणना 2011 में जाति-आधारित गणना के सवाल पर इतना विरोध और चिंता क्यों है? मेरा उत्तर बहुत सरल-सा है: भारत कानूनी तौर पर एक जातिगत समाज बन जाएगा. अब तक जाति को संवैधानिक मान्यता अशक्तता (जैसे, छुआछूत,अत्याचार और सामाजिक पिछड़ेपन) के आकलन के लिए ही मिली हुई है.इस गणना से जाति को राष्ट्रीय वर्ग के रूप में औपचारिक मान्यता मिल जाएगी. इसका अर्थ यह होगा कि यह मान्यता संवैधानिक मान्यता से भी आगे बढ़ जाएगी. भारत का संविधान जाति को अशक्तता या भेदभाव के स्रोत के रूप में देखता है और असमानता की इस रूढ़ि को जड़ से मिटाने के लिए संविधान में कुछ व्यवस्थाएँ भी की गई हैं.   यह परिकल्पना की गई है कि भारत के सामाजिक जीवन में जाति व्यवस्था एक अपवाद है, जो धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी.दूसरे शब्दों में, संविधान भारतीय नागरिक को एक जाति-विहीन नागरिक के रूप में स्वीकार करता है और किसी भी प्रकार के जातिसूचक संबंधों को स्वीकार नहीं करता. यद्यपि संविधान में जाति के आधार पर असमानता को मिटाने का संकल्प स्पष्ट है,लेकिन भारत के सामाजिक जीवन में जातिगत समूहों की हैसियत के बारे में संविधान में स्थिति स्पष्ट नहीं है. परंतु जाति के आधार पर गणना के निर्णय से जातिगत समूहों –विशेषकर अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) जैसे निम्न वर्गों को- कानूनी मान्यता मिल जाएगी और इससे कानूनी तौर पर जातिगत आधार पर राजनैतिक गतिविधियों को बल मिलेगा. इसका अर्थ यह होगा कि भारत कानूनी तौर पर एक जातिगत समाज बन जाएगा. भारत का संभ्रांत वर्ग इस निहितार्थ से सकते में है और इसके परिणामस्वरूप होने वाले व्यापक सामाजिक कायाकल्प और उससे कानूनी तौर पर मिलने वाली जातिगत समाज की सामाजिक स्वीकृति से बेहद आशंकित है.   


यह दृष्टि भी नई नहीं है कि भारतीय समाज एक जातिगत समाज है. दलित और अन्य जाति-विरोधी सामाजिक आंदोलनों की यह मान्यता रही है कि भारतीय समाज के मूल में जातिगत व्यवस्था है. ब्रिटिश काल में फुले और अम्बेडकर ने मुखर रूप में यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि भारतीय समाज में जाति के आधार पर ही हैसियत,सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का निर्धारण होता है. आपात् काल के बाद नई पीढ़ी के दलित लेखकों, आलोचकों, विद्वानों और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने न केवल इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत एक जातिमूलक समाज है, बल्कि जाति की नई अवधारणा भी की थी. उन्होंने समाज में विभाजन करने वाली संभ्रांत वर्ग की एक इकाई वाली जातिमूलक अवधारणा की न केवल आलोचना की, बल्कि उसे सिरे से नकार भी दिया और हिंसा के दैनंदिन के अनुभवों के स्रोत और गतिशीलता की पहचान के लिए जाति की नई अवधारणा को जन्म दिया.
वस्तुतः जाति को राष्ट्रीय वर्ग के रूप में मान्यता दिलाने के लिए जबर्दस्त दबाव की शुरूआत उस समय हुई जब 1970 और 1980 के दशकों में दलितों के सामूहिक नरसंहार के संदर्भ में समकालीन दलित आंदोलन का उदय हुआ.  दलितों पर होने वाले अत्याचारों के संदर्भ में ही कॉन्ग्रेस सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम,1989 बनाए. इन अधिनियमों से जाति के कानूनी दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ. जहाँ एक ओर अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 ने अस्पृश्यताको जातिमूलक न मानकर अशक्तता का एक कारण माना, वहीं अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम,1989 ने जाति को अत्याचार और जाति संबंधी अत्याचार का मूल कारण मानते हुए राष्ट्रीय अपराध माना. 1991 से 1993 के दौरान मंडल आंदोलन के समय जनता के दबाव में आकर उच्चतम न्यायालय ने भी जाति को राष्ट्रीय इकाई (इंद्रा साहनी बनाम भारतीय संघ, 1992) के रूप में कानूनी मंजूरी दे दी. इसलिए जनगणना 2011 में जाति-आधारित गणना की माँग दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) ने की है. ये वर्ग समकालीन समाज में सामाजिक समूह के रूप में उभरकर संगठित हो गए हैं और अब एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में काम कर रहे हैं.

भारत का संभ्रांत वर्ग भारत को एक समरसता पूर्ण और तटस्थ इकाई के रूप में देखने का आग्रह बनाए रखना चाहता है जिसमें किसी प्रकार का वर्गभेद न हो. भारतीय नागरिकों (मेरी जाति हिंदुस्तानी) का यह विशेष वर्ग है. यह वर्ग अंग्रेज़ी में शिक्षित शहरी लोगों का एक छोटा-सा वर्ग है, जिसमें मुख्यतः ऊँची जाति के बुद्धिजीवी और कुछ राजनीतिज्ञ शामिल हैं. यह वर्ग जाति को विभाजक तत्व और एक बुराई के रूप में देखता है.इस वर्ग में कुछ उदार विचारधारा के बुद्धिजीवियों के साथ-साथ वामपंथी बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जो यह मानते हैं कि जाति के आधार पर जनगणना से भारत के सार्थक और पूर्ण लोकतांत्रिक समाज के रूप में विकसित होने में अवरोध उत्पन्न होगा. वे यह मानते हैं कि जाति व्यवस्था पर की जाने वाली बहस अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के आरक्षण या अन्य नीतिगत मामलों तक ही सीमित है.ये दोनों संभ्रांत वर्ग अपने-आपको जातिविहीन (अर्थात् सच्चे भारतीय) और दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लोगों को जातिपरक लोग ही मानते हैं. वे यह नहीं मानते कि विभिन्न जातियों की मान्यता और देश में विभिन्न सामाजिक वर्गों का अस्तित्व अपने-आप में ही एक महत्वपूर्ण निर्णय है.
हमें जाति की महत्वपूर्ण अवधारणाओं के संबंध में दलितों की आलोचना पर ध्यान देना चाहिए.  दलितों के साहित्यिक लेखक,कार्यकर्ता और अकादमीय विद्वान् रोज़मर्रे के भेदभाव, हिंसा के विभिन्न प्रकार के क्रूर रूपों और अमानवीयता और असमानता को जाति व्यवस्था का मूल स्रोत मानते हैं. 

 

साथ ही ये लेखक अपने अनुभव के आधार पर जाति की भूमिका को उजागर करते हुए कहते हैं कि हैसियत,जातिगत अहंकार,सामाजिक मान-सम्मान और सत्ता का मूल आधार जाति ही है और इस धारणा को निरस्त कर देते हैं कि धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के नागरिक जातिविहीन हैं. वे जाति के इस ऐकांतिक और प्रभावी दृष्टिकोण को भी चुनौती देते हैं कि सामाजिक विभाजन का एकमात्र साधन जाति ही है और नीची जाति के लोगों की पहचान केवल जाति से ही है. अकादमीय पंडित इस बात पर हैरत में पड़ जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन में और चुनावी मैदान में जाति की पहचान को ज़ोर देकर रेखांकित किया जाता है. जाति के रेखांकन के इन नए तरीकों से यह सवाल उठता है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए कदाचित् जाति की अवधारणा ही एकमात्र महत्वपूर्ण साधन है और साथ ही मूल बिंदु भी है. 


भारत की जनगणना भारत की पहचान को दर्शाने का मूलभूत साधन है.केंद्र सरकार का यह दावा है कि भारत की जनगणना से व्यापक जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक आँकड़े प्राप्त होते हैं और यह गाँव, कस्बे और वार्ड के स्तर पर प्राथमिक आँकड़े प्राप्त करने का एकमात्र स्रोत है. ये आंकड़े संसद, विधानसभा,पंचायत और अन्य स्थानीय निकायों के स्तर पर चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन / आरक्षण के आधार हैं. परंतु1931 के बाद से इन महत्वपूर्ण आँकड़ों में जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. जनगणना के वर्गों में  केवल धार्मिक समुदायों,भाषिक समूहों,अनुसूचित जाति औरअनुसूचित जनजाति की आबादी और पुरुष-स्त्री अनुपात का ही समावेश है. अपवाद के रूप में जाति का रिकॉर्ड अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान के लिए रखा जाता है. जनता के अन्य वर्गों के संदर्भ में जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. इस प्रकार भारतीय जनगणना सच्चे अर्थों में भारतीय ही रहती है.


राष्ट्रीय जनगणना के प्रतीकात्मक और राजनैतिक महत्व को देखते हुए और राष्ट्रीय जनगणना में जाति के आँकड़ों के अभाव को देखते हुए सन् 2001 में जाति के समावेश की माँग उठाई गई. तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया. इस बार दलित समाज के लोग भारतीय जनगणना के समरसता पूर्ण और एकपक्षीय दृष्टिकोण को चुनौती देने के लिए कटिबद्ध हैं और यह तर्क देते हैं कि भारत में विविध सामाजिक वर्गों के अस्तित्व को मान्यता दी जाए.जनगणना में राष्ट्रीय वर्गों को समग्र रूप में दर्शाया गया है और भारत को एक जातिगत समाज के रूप में फिर से परिभाषित करना राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. दलित और अन्य कुचले हुए जातिगत समूह भारत जैसे आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र की संस्थाओं से जुड़ने का महत्व अब समझने लगे हैं. इसलिए जाति के आधार पर जनगणना की माँग का उनके लिए रणनीतिक महत्व है.वे निश्चय ही भूमि वितरण कार्यक्रम के रूप में या फिर जनगणना की नई रूपावली के रूप में क्रांति के लिए भी सन्नद्ध हैं. लेकिन वे न तो अब व्यापक सामाजिक कायाकल्प की परियोजनाओं की प्रतीक्षा कर सकते हैं और न ही ठीक अभी संपूर्ण जनगणना प्रक्रिया को पूरी तरह से पुनर्निर्मित करने में सक्षम हैं.


जनगणना में न केवल अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की बल्कि हर परिवार के प्रत्येक सदस्य की जाति की गणना से भारत जातिगत समाज बन जाएगा और इससे अनेक नए सवाल उठेंगे.जनगणना से कुछ जातिगत समूहों की विशेषाधिकार की हैसियत और उनकी संख्या का भी साफ़-साफ़ पता चल जाएगा. व्यापक जातिगत आँकड़ों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के प्रत्येक वर्ग के लिए आरक्षण के प्रतिशत की माँग भी बढ़ सकती है और आरक्षण की वर्तमान 50 प्रतिशत की सीमा को भी चुनौती दी जा सकती है.

नए जातिगत समूह आरक्षण और कल्याण योजनाओं से कहीं अधिक की माँग कर सकते हैं और भूमि, संपत्ति और सत्ता  के पुनर्वितरण की नई माँग कर सकते हैं. कई मायावतियाँ हो सकती हैं जो संख्या के खेल में निपुण हैं और राष्ट्रीय चुनाव के दृश्य को पूरी तरह से बदलने में सक्षम हैं. जाति के आधार पर गणना से एक ऐसी सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू होगी जिससे अकादमीय क्षेत्र से अलग सार्थक जन-संवाद के माध्यम से जाति का गैर-अनिवार्यीकरण और राजनीतिकरण मथकर ऊपर आ जाएगा. इस प्रक्रिया से जातिगत तनाव भी बढ़ सकता है और नए शासक वर्ग (अन्य पिछड़े वर्गों को मिलाकर) का उदय हो सकता है और भारत के संभ्रांत वर्ग से जुड़े वर्तमान शासक वर्ग का पूरी तरह खात्मा हो सकता है. लोकतंत्रीकरण की इस प्रक्रिया में बहुत-से अंतर्विरोध और विस्मयपूर्ण बातें होंगी और भारत का संभ्रांत वर्ग अभी इस कायाकल्प के लिए तैयार नहीं है.

 

के सत्यनारायण अंग्रेज़ी व विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान ग्रीष्म 2010 में विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा),रेल मंत्रालय, भारत सरकार

 

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