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टाइल साम्राज्यवाद

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05/06/2017
दीप्ता सतीश
IiT English Page: 

पश्चिमी घाट में “प्राकृतिक आवास-स्थलों” के रूप में खास तरह के भूखंड निर्मित हो गए हैं, जैसे, पहाड़ी और घाटी, चोटी और पठार, ढलान और मैदान. सन् 2012 में यूनेस्को द्वारा इस घाट को विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित करने के बाद इन विशेषताओं के कारण ही यह घाट विकास और पर्यावरण के झगड़े का केंद्र बन गया है और यह संघर्ष अब बढ़ता ही जा रहा है. भूखंडों की इस भाषा के प्रयोग का इतिहास साम्राज्यवादी दस्तावेज़ों में खोजा जा सकता है; लेकिन इन बिंबों के पीछे जो मूल कारण हैं, उन्हें अनावृत करना और भी कठिन है, क्योंकि ये बिंब भौगोलिक मानचित्रों के चित्रांकन और वस्तुगत आरेखों में निहित हैं.

मैंने दो ऐसी भिन्न-भिन्न कल्पनाओं को खोजा है जिनकी मदद से हम बिंब और भाषा के उस स्वरूप को देख सकते हैं जिनसे मैंगलोर पैटर्न रूफ़िंग टाइल की उस मूल कल्पना का पता चलता है जो लघुकारक थी और छप्पर की छत एक ऐसी कल्पना को जन्म दे सकती थी, जिसमें जटिलता हो. क्रियाओं की दृष्टि से  हरेक क्रिया एक-दूसरे से अलग है, लेकिन जब वे ज़मीन पर मिलते हैं तो यही भिन्नता भू-दृश्य में एक प्रकार के संघर्ष को जन्म दे देती है. आज बेट्टा एक ऐसा टैरेन है, जो इन दोनों कल्पनाओं के बीच से विदीर्ण होता है.

मुझे खुद इस टैरेन और रूफ़िंग तत्व का अनुभव तब हुआ जब मैं मणिपाल के आर्किटैक्चर स्कूल में गई, जो दक्षिण पश्चिमी घाट के ऊपर स्थित अगुम्बे और नीचे की ओर अरब सागर के बीच स्थित लैटरिटिक पठार के बीच में बसा हुआ है. मैंने इस भू-दृश्य में ढाँचे, उठान, कटाई और दृश्यों को आरेखित करते हुए मानवीय आवास-स्थलों को डिज़ाइन करना सीखा और कई परियोजनाओं में आम मैंगलोर टाइल का प्रयोग भी किया.

जल-निकासी की कल्पना

मैंगलोर टाइल, जिसे हमने अब तक कोई विशेष महत्व नहीं दिया था, वास्तव में बहुत ही असाधारण किस्म की टाइल है. इस टाइल को जर्मन टैक्नोलॉजी का प्रयोग करते हुए स्थानीय कारीगरों की मदद से नेत्रवती नदी के किनारे पायी जाने वाली मिट्टी से बनाया जाता है. इस टाइल में किये गये थोड़े-से परिवर्तन से ही एक नयी कल्पना का समावेश हो गया है और यह है, जल-निकासी की कल्पना.

सन् 1864 में इसे बेसल मिशन ने डिज़ाइन किया था और उसके बाद छप्पर से बनी छत के स्थान पर टाइल का प्रयोग किया जाने लगा. छत के रूप में प्रयुक्त यह टाइल साल में छह महीने होने वाली भारी बारिश से भी बचाव कर सकती है. टाइल से सतह का पानी बाहर निकल जाता है और इस प्रकार सूखे” से “गीलाअलग हो जाता है. ये स्थितियाँ दो रूपों अर्थात् बाइनरी रूप में जुड़ जाती हैं. आउटडोर-इनडोर, ऊपर-नीचे, उपजाऊ- बंजर. टाइल की जल-निकासी की विशेष क्रिया एक ऐसा लैन्स उपलब्ध कराती है, जिससे तीन पैमानों से रिहाइशी स्थल को देखा जा सकता है, इकहरा ऑब्जेक्ट, छत प्रणाली और जटिल टैरेन.

बारिश का पानी टाइल की प्राथमिक पहाड़ी से बहते हुए घाटियों में पहुँच जाता है. टाइल की बनावट ऐसी है कि यह ढलान वाली छत की तरह हो जाती है और इसका निर्माण इसकी अनूठी इंटरलॉकिंग प्रणाली (भारतीय मानक संस्थान, 1985) के कारण होता है और यह गौण पहाड़ियों और घाटियों की तरह बन जाती है. छत का ढाँचा अपने-आप में ही ढलान वाली ऐसी पहाड़ी की तरह होता है, जिसमें घाटियों और हिप्स (भारतीय मानक ब्यूरो, 1992) की तरह इसके किनारे पर भी जल-निकासी का पानी बह जाता है. इससे जल-निकासी की एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था बन जाती है. इसके ज़रिये भूदृश्य को देखा जा सकता है और उसे व्यवस्थित भी किया जा सकता है. आजकल घाटों को “एक ऐसे ढलान के रूप में वर्णित किया जाता है जो अरब सागर तट के समानांतर उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 1500 कि. मी. तक चली जाती है” (गाडगिल,2011). जल-निकासी को ढलान और ऊँचाई के ज़रिये मापा जाता है और यह समुद्र-तट की ओर उन्मुख होकर बहते प्रवाह की रैखिकता पर निर्भर करता है.

सन् 1871 की मद्रास प्रेसिडेंसी की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार मलाबार और दक्षिण कैनरा (स्टुअर्ट, 1893) में छप्पर से बनी छतों की संख्या बहुत अधिक थी. इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि जल-निकासी के लिए छप्पर की छत काफ़ी नहीं होती और यही कारण है कि उसकी जगह पर टाइल का प्रयोग होने लगा.

दहलीज़ की कल्पना

भारी वर्षा से आक्रांत इस टैरेन में 1900 के आरंभ तक ज़्यादातर छप्पर से बनी साधारण छतें ही हुआ करती थीं. छप्पर की यह घास लैटिरिक पठार में पायी जाती है. छप्पर की यह घास जटिल अरैखिक पथों में बारिश के पानी को रोक भी सकती है और उसकी निकासी भी कर सकती है और एक दहलीज़ की तरह पूरे मौसम में बारिश के पानी को एक ढलान प्रदान करती है. पूरी गहराई के साथ ठसाठस भरे हुए छप्पर में दिन और रात दोनों समय घटते-बढ़ते तापमान में हवा और नमी जैसी कई क्रियाएँ एक साथ संपन्न होती हैं. केशिका की क्रिया द्वारा ढाँचे के अंदर ही पानी रुका रहता है और संचार व संवहन से नमी निकलती रहती है. गर्मी के महीनों में छप्पर पर ओस जमा हो जाती है और पत्तियों से पानी निकलता रहता है. छप्पर की बुनाई हाथ से ही की जाती है और इसकी जानकारी बुनकर को ही होती है. मौसम बदलने के साथ ही इसमें पानी को रोककर रखने की क्षमता भी होती है, लेकिन बारिश के मौसम में छप्पर  के बावजूद भी टाइल का अपना महत्व है.

विवादग्रस्त टैरेन

भू-दृश्य में टाइल का एक पथ भूगर्भविज्ञान से भी जुड़ता है. यह एक ऐसा महत्वपूर्ण विषय है जो आज घाटों की सीमाओं को भी परिभाषित करता है. घाट के नीचे से टाइल की कच्ची मिट्टी निकालते समय यह पता चलता है कि इस मिट्टी की परतें भी दो-दो होती हैं, गीली-सूखी, निचली-ऊपरी, मिट्टी-कठोर मिट्टी (या लेटराइट) (बुचनन, 1807). ऊँची लेटराइट भूमि को स्थानीय भाषा में बेट्टा कहते हैं और यही दहलीज़ है. इसमें अलग-अलग मौसम में विभिन्न क्रियाओं के द्वारा पानी की निकासी होती है. बारिश के मौसम में यह जलसिक्त ज़मीन मछली पालन के लिए, मेंढकों के प्रजनन के लिए और लोगों की खेती-बाड़ी के लिए बहुत उपयुक्त होती है. जैसे-जैसे पानी निकलता जाता है, यह पशुओं का चरागाह बन जाती है और खिलती घास पर मँडराती तितलियों के लिए दावत हो जाती है. गर्मी के महीनों में इसकी चट्टानों की दरारें रेंगने वाले जीव-जंतुओं और कीड़े-मकौड़ों के घर बन जाती हैं, पक्षी खुले मैदान में ही घोंसले बना लेते हैं, घास की कटाई हो जाती है और ज़मीन के कुछ हिस्से को उपजाऊ बनाने के लिए, बीज की बुवाई के लिए और नमी को बनाये रखने के लिए जला दिया जाता है. जब छप्पर की जगह टाइल का इस्तेमाल होने लगा तो साम्राज्यवादी प्रशासकों ने बेट्टा की जाँच शुरू कर दी और यह पाया कि यह अनुत्पादक ज़मीन है, जो मुश्किल से एक ही फसल देती है. बेट्टा कोबंजर ज़मीन मान लिया गया और इसे राजस्व विभाग के कार्यक्षेत्र में डाल दिया गया ताकि वे इसका इस्तेमाल इमारतें बनाने के लिए और दूसरे मौसमी कामों के लिए कर सकें. संरक्षणवादी इसकी समृद्ध जैव-विविधता के कारण इस ज़मीन को “घासवाली ज़मीन” मानते हैं, लेकिन विकास-कार्यों के कारण यह ज़मीन अब घटती जा रही है. भले ही मानचित्र पर इसे बंजर ज़मीन या “घासवाली ज़मीन” के रूप में दिखाएँ, लेकिन एक ही समय में इसे कई कामों के लिए चिह्नित किया गया है. हालाँकि बेट्टा को मानचित्र पर दहलीज़ के रूप में उकेरा नहीं जा सकता. इसके लिए समय-समय पर, अलग-अलग मौसमों में, दिन-रात होने वाली गतिविधियों और प्रथाओं के क्षितिज को नये सिरे से रिकॉर्ड करने की ज़रूरत है ताकि इसे एक ऐसे सक्रिय और गतिशील टैरेन के रूप में दर्शाया जा सके जिसमें ग्रहण करने और निष्कासित करने की क्षमता हो.

परिवर्तन को उकेरना

स्थानीय निवासी इस क्षेत्र में बारिश के बाद सभी मौसमों में घूमते-फिरते थे. उनके पास ऐसा कौशल और परंपराएँ थीं, जिनकी मदद से वे लगातार भीगे मौसम के ढलान पर खेती करने, रीति-रिवाज़ संपन्न करने, घूमने-फिरने और घर बनाने में संलग्न रहते थे. और वे अपने परंपरागत ज्ञान के बल पर छप्पर से अपनी छत खुद ही बना लेते थे. छप्पर की तुलना टाइल से नहीं की जा सकती, क्योंकि इसे न तो ढाँचे के रूप में दर्शाया जा सकता है और न ही उठान या कटाव के रूप में. छप्पर को हाथ से ही बुना जाता है और उसे गहरा करने की कला भी कारीगर के हाथों में ही होती है. इसकी कारीगरी की तुलना किसी से नहीं की जा सकती और तदनुसार इसके लिए नयी शब्दावली गढ़ी जानी चाहिए.

यद्यपि साम्राज्यवादी यात्रियों, वनस्पति-विज्ञानवेत्ताओं और सर्वेक्षकों ने घाट के इस प्राकृतिक आवास-स्थल को पहाड़ी-घाटी के रूप में रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया है, लेकिन वस्तुतः यह टाइल ही है जिसने यहाँ के निवासियों की भाषा में जल-निकासी को स्थान दिलवाया है, जिसके कारण ये लोग सूखे और गीले में अंतर करने लगे हैं. नदियों के मुहाने पर लगायी गयी मिशन टाइल की फ़ैक्टरियों में न केवल उन निवासियों को काम पर लगाया गया जो हाल ही में पारंपरिक काम छोड़कर नये ढंग से काम करने के लिए प्रशिक्षित हुए थे, बल्कि नये लोगों को भी काम पर लगाया गया. फ़ैक्टरी में रोज़मर्रे की परिपाटियों को कम करके एक ही विचार के अंतर्गत श्रम और समय की नयी धारणा को मौसम के अनुरूप अपनाया गया. कामगार सूखी ढलवाँ छत के नीचे टाइलों का निर्माण करने लगे; मिट्टी को पीसने के लिए, टाइल को दबाने के लिए, उसे ईंट के भट्टे में पकाने के लिए और उसे अपने गीले हाथों की नमी से दूर रखने के लिए नयी टैक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाने लगा. बलमट्टा ( जो एक लैटिरिक पठार है) स्थित मिशन के यांत्रिक कारखाने में मशीनरी को ठीक करने और बनाने के साथ-साथ तकनीकी आरेख बनाने का भी प्रशिक्षण दिया गया (राघवैय्या, 1990). वे छप्पर की छत बनाने की कला भूलने लगे और उन्हें टाइल पर चित्र और आरेख बनाने, टाइल छापाखाने, चक्की और ईंट के भट्टे की कला के द्वारा जल-निकासी की भाषा में शिक्षित किया जाने लगा. कामगार पहाड़ियों और घाटियों, पहाड़ों के शिखरों और किनारों, ढलानों और ऊँचाइयों को उकेरने लगे और इस नज़रिये से पर्यावरण को देखने लगे.

पश्चिमी घाटों का विकास-पथ साम्राज्यवादी और स्वातंत्र्योत्तर विचारों की कहानी है. देश-काल को तय करने के लिए खींची गयी रेखाओं से नियंत्रित घाटों के प्राकृतिक आवास जल-निकासी के बिंबों और भाषा में ही निर्मित होते रहे हैं, जो अपने-आप में एक बाहरी व्यक्ति का नज़रिया है. इसी भाषा से ही वनवासियों व सरकार के बीच, उत्पादन व संरक्षण के बीच और ज़मीन व आजीविका के बीच संघर्ष पैदा हो गया. दहलीज़ से ज़मीन पर स्थानीय प्रयासों से विकसित उस स्थान की गतिशील समझ की संभावना पैदा होती है और साथ ही ऊपर से देखने के बजाय स्थानीय ढंग से इसे देखने का एक नज़रिया भी सामने आता है, जिस पर पहले कभी विचार नहीं किया गया. यह संभावना उस प्रयास से उत्पन्न होती है, जिसमें गतिविधियों, भौतिकता और सामयिक प्रकृति का समावेश है. इस नयी परिकल्पना से एक ऐसी आशा की किरण फूटती है, जिससे ज़मीन से ऊपर उठकर पर्यावरण के लिए कहीं अधिक संवेदनशील भविष्य का चित्र सामने उभरने लगता है और मौजूदा संघर्ष भी खत्म हो जाता है.

दीप्ता सतीश सृष्टि कला, डिज़ाइन व प्रौद्योगिकी संस्थान की डिज़ाइन+पर्यावरण+विधि प्रयोगशाला में निदेशक हैं. वह कैसी स्प्रिंग 2017 में विज़िटिंग स्कॉलर रही हैं.

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919