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तमिल मतदाता: समझदार या स्टार प्रेमी?

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08/07/2024
राधा कुमार

सन् 1977 में जब तमिल सिनेमा के मेगास्टार एम. जी. रामचंद्रन ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी तो वे उस प्रतिष्ठित पद पर आसीन होने वाले पहले भारतीय अभिनेता बने. अगले कुछ दशकों तक, M.G.R.और फिल्म जगत् से गहरे संबंध रखने वाले अन्य लोग राज्य के शीर्ष निर्वाचित पद पर बने रहे.  उल्लेखनीय नामों में एम. करुणानिधि, पाँच बार मुख्यमंत्री और पटकथा लेखक, और जे. जयललिता, छह बार मुख्यमंत्री रहीं, जिन्होंने M.G.R. के साथ अभिनय करके फिल्म जगत् में प्रसिद्धि प्राप्त की, जिनके साथ उनके घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध भी थे. जयललिता के पहले कार्यकाल (1991-96) के दौरान, तमिलनाडु का शहरी परिदृश्य विभिन्न कल्पनाशील रूपों में उनके बड़े-बड़े कटआउट से भरा पड़ा रहता था. चेन्नई में पले-बढ़े होने के कारण, उनके निवास से एक किलोमीटर दूर और उनकी पार्टी, अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK) के मुख्यालय से 300 मीटर की दूरी पर, मैंने मुख्यमंत्री की सैकड़ों तस्वीरें देखीं, जिनमें वे अपने समर्थकों से घिरी हुई थीं, हिंदू देवी दुर्गा के रूप में शेर पर सवार थीं, बच्चे के साथ मैडोना के रूप में थीं, आदि...आदि. लगभग इसी समय, तमिल अभिनेत्री खुशबू सुंदर के प्रशंसकों ने उनके लिए एक मंदिर बनवाया - जिसकी पूरे देश में काफी आलोचना हुई - जिससे तमिल फिल्म दर्शकों की छवि अत्यधिक स्टार-प्रेमी के रूप में स्थापित हो गई.  खुशबू के सक्रिय राजनीतिक जीवन से इस धारणा को और बल मिला है कि तमिल मतदाता फिल्मी हस्तियों की प्रशंसा से आसानी से प्रभावित हो जाता है.  खुशबू AIADMK की क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) से प्रमुख राष्ट्रीय दलों, कांग्रेस और हाल ही में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुईं. आज यह लगभग एक कहावत-सी बन चुकी है कि तमिलनाडु की राजनीति में सफलता का मार्ग सिनेमा है. इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि तमिल मतदाता राजनीतिक रूप से अनभिज्ञ है और उसे आसानी से बहकाया जा सकता है.

परंतु कमल हासन और रजनीकांत के असफल राजनीतिक कैरियर पर विचार करें, जो यकीनन M.G.R. के बाद के वर्षों में तमिल सिनेमा के दो सबसे बड़े सितारे थे. साठ के दशक में एक बाल कलाकार के रूप में उद्योग में आने के बाद से, हासन ने विभिन्न शैलियों और भाषाओं में दो सौ से अधिक फिल्मों में अभिनय किया है, हालाँकि सबसे ज़्यादा फ़िल्में तमिल में ही रही हैं. उनकी फिल्मों ने आलोचकों से पुरस्कार जीते हैं और बॉक्स ऑफिस पर सफलता प्राप्त की है. 2018 में उन्होंने अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी मक्कल नीधि मैयम (MNM) लॉन्च की. फिर भी, उनके स्टारडम के बावजूद, पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों और 2021 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में हर सीट पर हार गई. हार की सूची में स्वयं हासन भी शामिल हैं, जो दक्षिण कोयम्बटूर निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के हाथों हार गए, जो उस समय और अब भी तमिलनाडु के राजनीतिक परिदृश्य में अपेक्षाकृत महत्वहीन खिलाड़ी हैं. MNM ने अंततः 2024 के संसदीय चुनावों में भाजपा के खिलाफ एकजुट विपक्ष पेश करने के लिए प्रमुख DMK के साथ गठबंधन किया; DMK गठबंधन ने चुनावों में जीत हासिल की.

इस बीच, रजनीकांत, जो संभवतः अधिक स्टार पावर वाले लेकिन काफी अलग राजनीतिक विचारधारा वाले अभिनेता हैं, ने भी पिछले कुछ दशकों में राजनीतिक निराशा का अनुभव किया है. "सुपरस्टार" के रूप में मशहूर और तमिलनाडु से बाहर (विशेष रूप से जापान तक) जिनके प्रशंसक में फैले हुए हैं,ऐसे रजनीकांत 1990 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री, जो उनके पड़ोसी थे, के साथ अक्सर होने वाले झगड़ों के कारण सुर्खियों में रहे. वास्तव में, जयललिता द्वारा इस स्टार की खुलेआम की गई निंदा ने 1996 के विधानसभा चुनावों में DMK की सत्ता में वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अगले दो दशकों तक रजनीकांत ने हालात का जायजा लिया, लेकिन कभी राजनीति में नहीं उतरे. जब उन्होंने अंततः 2018 में रजनी मक्कल मनरम का गठन किया, तो यह प्रयोग उल्लेखनीय रूप से अल्पकालिक साबित हुआ. पार्टी ने कोई चुनाव नहीं लड़ा और 2021 में अपना कामकाज भी बंद कर दिया. फिल्म स्टार के रूप में हासन और रजनीकांत की लोकप्रियता, उनकी पार्टियों की विचारधाराओं में स्पष्टता की कमी और पेशेवर राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी अनुभवहीनता को दूर नहीं कर पाई है.

यहाँ मेरा मकसद यह बताना नहीं है कि रजनीकांत और हासन राजनीति में सफल क्यों नहीं हुए, बल्कि मेरा मकसद तमिल राजनीति की जटिलता पर जोर देना है. निश्चित रूप से, तमिल सिनेमा और राजनीति के बीच संबंध हैं और लंबे समय से रहे हैं (थियोडोर भास्करन, रॉबर्ट हार्डग्रेव जूनियर, के. सिवाथम्बी, एम.एस.एस. पांडियन, सारा डिकी, सेल्वराज वेलायुथम, प्रेमिंदा जैकब और कई अन्य लोगों द्वारा इसका अध्ययन किया गया है), लेकिन इसे इन व्यक्तियों की सिनेमाई सफलता या तथाकथित जनता द्वारा उनकी प्रशंसा तक सीमित नहीं किया जा सकता है. ऐसा करना तमिल मतदाताओं की राजनीतिक समझदारी और तमिलनाडु की प्रमुख पार्टियों की राजनीतिक सूझबूझ को कमजोर करना है. हकीकत में, तमिलनाडु के मतदाताओं ने फिल्मी हस्तियों के समर्थन में काफी विवेक दिखाया है और उन्होंने रजनीकांत और हासन को राजनीतिक नेताओं के रूप में तो खारिज कर दिया है, लेकिन अभिनेताओं के रूप में नहीं.  

यह सच है कि कुछ समकालीन अभिनेताओं ने अपने राजनीतिक कैरियर में कुछ हद कर सफलता हासिल की है, जिनमें विजयकांत, सरथकुमार और राधिका सरथकुमार शामिल हैं. इन्होंने चुनाव जीते और अपनी खुद की राजनीतिक पार्टियाँ बनाईं. लेकिन उनकी सफलताएँ भी काफी सीमित रही हैं, निश्चित रूप से M.G.R.जैसे अभिनेता राजनीतिज्ञों के आँकड़ों की तुलना में. विजयकांत की पार्टी ने केवल कुछ विधानसभा सीटें जीतीं, जबकि सरथकुमार की पार्टी का हाल ही में भाजपा में विलय हुआ.  खुशबू विभिन्न पार्टियों की सदस्य रही हैं, लेकिन उन्होंने कभी चुनाव नहीं जीता. विजय ने हाल ही में चुनावी मैदान में प्रवेश किया है, और कई मौजूदा सितारे - अजीत कुमार, सूर्या, ज्योतिका, कार्थी, नयनतारा, त्रिशा कृष्णन और धनुष - राजनीति से दूर रहे हैं.

उनमें से कई लोग मानवीय लक्ष्यों की ओर मुड़ गए हैं, जो स्टार पावर और सार्वजनिक भागीदारी के बीच बदलते संबंधों को दर्शाता है.  तमिलनाडु में फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक सत्ता तक पहुँचना आसान है, यह कहावत वास्तव में राजनेताओं की पिछली पीढ़ी से संबंधित प्रतीत होती है, विशेष रूप से एम. करुणानिधि, और जयललिता की पीढ़ी. उनमें से दो का कैरियर विशेष रूप से लंबा था, जो इक्कीसवीं सदी तक चला, शायद यही बात इस कहावत को सार्थक बनाती है. लेकिन इन राजनेताओं की सफलताओं को न तो कम किया जा सकता है और न ही उसे उनके फिल्मी कैरियर से अलग किया जा सकता है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि इन शुरुआती नेताओं के कैरियर का पता ई.वी. रामास्वामी पेरियार के आत्म-सम्मान आंदोलन से लगाया जा सकता है, जिसने हिंदू धर्म की जाति और लिंग पदानुक्रम को मौलिक रूप से चुनौती दी और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हिंदी भाषी उत्तर भारत से तमिल (या द्रविड़) नाडु की सांस्कृतिक स्वायत्तता पर जोर दिया. जब भारत में लोकतंत्र स्थापित हुआ, तो इस आंदोलन के अग्रणी सदस्यों में से एक सी.एन. अन्नादुरई ने DMK की स्थापना एक राजनीतिक दल के रूप में की, ताकि वे चुनावी राजनीति में भाग ले सकें. तमिलनाडु की दूसरी प्रमुख पार्टी AIADMK का गठन 1970 के दशक के प्रारंभ में M.G.R. के नेतृत्व में DMK से अलग हुए एक समूह द्वारा किया गया था.

दूसरे शब्दों में कहें तो, तमिलनाडु की राजनीति के दो प्रमुख खिलाड़ियों ने अपनी राजनीतिक विचारधारा और पद्धति एक ही स्रोत से ली है. उनके प्रचार-प्रसार का तरीका सिनेमा पर केन्द्रित था, जो 50 और 60 के दशक में तेजी से बढ़ता हुआ मीडियम था, जो ग्रामीण क्षेत्रों और अशिक्षित दर्शकों तक पहुँच सकता था, तथा चुनावी राजनीति के लिए बहुत प्रभावी था. इस युग में, DMK ने जानबूझकर फिल्मों का उपयोग अपनी विचारधारा को फैलाने के लिए किया, धार्मिक अंधविश्वास और जाति/वर्ग पदानुक्रम की आलोचना की और यहाँ तक ​​कि उनमें अपना प्रतीक (लाल और काले रंग में उगता हुआ सूरज) भी डाल दिया.  इसके अलावा, M.G.R., शिवाजी गणेशन और जयललिता जैसे व्यक्तिगत सितारों के लिए फैन क्लबों के गठन से पार्टी कैडर को संगठित करने में मदद मिली. स्थानीय स्तर पर संगठित क्लब के सदस्य पार्टियों के लिए प्रचार करते थे और अक्सर स्वयं भी राजनीति में भाग लेते थे.    

हमें उन व्यक्तियों के कैरियर पर भी विचार करना चाहिए जिन्होंने दोनों क्षेत्रों में काम किया. उदाहरण के लिए, सिनेमा की दुनिया में, एम. करुणानिधि ने 1952 में एक बेहतरीन फ़िल्म पराशक्ति  में सामाजिक बुराइयों पर कटाक्ष करते हुए एक ज्वलंत पटकथा लिखी थी. उन वर्षों में, त्रिची के विधायक के रूप में, उन्होंने भूमिहीन कृषि मजदूरों के अधिकारों के लिए आंदोलन किया. एक क्षेत्र में उनकी गतिविधियों को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता: दोनों ने समान राजनीति का समर्थन किया, जो DMK में उनकी हैसियत से ही पैदा हुई थी. इस प्रकार, इन दशकों में फिल्मी हस्तियों की राजनीतिक सफलता सिनेमा और DMK राजनीति के बीच गहरे संस्थागत संबंधों से उपजी थी, न कि केवल अशिक्षित मतदाताओं द्वारा उनकी प्रशंसा से. यह सच है कि 60 के दशक तक M.G.R.के फिल्मी कैरियर में DMK की विचारधारा कमजोर पड़ने लगी थी और पार्टी सिद्धांत के बजाय व्यक्ति पर केंद्रित हो गई थी. लेकिन उनकी फिल्में अभी भी पार्टी के संदेशों और प्रतीकों से निकटता से जुड़ी हुई थीं. फिल्मों में अपनी भूमिका के अलावा, M.G.R. सक्रिय रूप से राजनीतिक कार्यों से जुड़े रहे और चैरिटी परियोजनाओं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में  भी भाग लेते रहे. राजनेताओं की इस प्रारंभिक पीढ़ी ने सिनेमा का राजनीतिक प्रचार के लिए व्यवस्थित रूप से उपयोग किया, उसके बाद से तमिलनाडु में फिल्म और राजनीति में कोई भी व्यक्ति असाधारण सफलता प्राप्त नहीं कर पाया.

अंत में, फिल्म और राजनीति के बीच संबंध केवल तमिलनाडु और उसके पड़ोसियों तक ही सीमित नहीं हैं (अनुभवी अभिनेता एन. टी. रामा राव ने तेलुगु देशम पार्टी की स्थापना की थी और 80 और 90 के दशक में वह पड़ोसी आंध्र प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे, जिससे "दक्षिण भारत" के बारे में लोकप्रिय धारणा बनी कि ये लोग स्टार अपील के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं). देश के अन्य भागों में भी पार्टी लाइन से ऊपर उठकर दल बदलने वालों की सूची काफी लंबी है. सुनील दत्त, धर्मेंद्र, जया बच्चन, उर्मिला मातोंडकर और कंगना रनौत जैसे कुछ लोगों के राजनीतिक कैरियर से पता चलता है कि स्टार पावर विंध्य के उत्तर की राजनीति को भी प्रभावित करती है.

अधिक व्यापक रूप में, फिल्म और राजनीति की दुनिया के बीच के अंतःसंबंधों को किसी एक क्षेत्र की सांस्कृतिक विशिष्टता (या पिछड़ेपन) से नहीं, बल्कि आधुनिक विश्व में जनसंचार माध्यमों, समाज और राजनीति के बीच वैचारिक संबंधों से समझाया जा सकता है. ये संबंध बीसवीं सदी के आरंभ से लेकर वर्तमान तक विद्यमान रहे हैं; ये संबंध वैश्विक दक्षिण और उत्तर, तानाशाही और लोकतंत्र तक फैले हुए हैं. इस प्रकार, एक अध्ययन में तर्क दिया गया है कि अल्जीरियाई सिनेमा ने देश के 50 के दशक के फ्रांस से स्वतंत्रता के युद्ध में और आज इसे जिस तरह से याद किया जाता है, उसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जबकि एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि सिनेमा समकालीन संयुक्त राज्य अमेरिका में रूढ़िवादी और उदार राजनीतिक ताकतों के बीच प्रतिद्वंद्विता के स्थल के रूप में कार्य करता है. फिल्मों ने जर्मनी और इटली में फासीवादी शासन को सहायता प्रदान की, लेकिन उन्होंने कोरिया और पैराग्वे में सत्तावादी शासन का विरोध करने में भी मदद की. सिनेमा और राजनीति के बीच संबंध जटिल हैं और इन्हें स्टार-पूजा या सांस्कृतिक विशिष्टता तक सीमित नहीं किया जा सकता. भारतीय मतदाताओं ने बार-बार पंडितों को सिखाया है कि वे उन्हें कमतर न आँकें, सबसे हाल ही में 2024 के राष्ट्रीय चुनावों में, जब चुनावी पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए, भाजपा काफी कम ताकत के साथ सत्ता में वापस आ गई. यह समझने का समय आ गया है कि पिछले दो दशकों में तमिलनाडु की राजनीति बदल गई है, सिनेमा और राजनीतिक संगठन के बीच सीधा संबंध, जो स्वतंत्रता के बाद के युग की विशेषता थी, अब नहीं रहा और तमिल मतदाता कोई मोहरा नहीं है.

राधा कुमार सिरक्यूज़ विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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