अमरीका के साथ भारत के सुरक्षा संबंध भारत के परंपरागत विदेशी मामलों के व्यापक संदर्भ में रूपायित होते हैं. यद्यपि भारत और अमरीका संबंधी सुरक्षा सहयोग पिछले दो दशकों में मात्रा और गुणात्मक दोनों ही दृष्टियों से परिपक्व हुए हैं, लेकिन बीच में कुछ ऐसे भी पल आए जब टीकाकारों को लगने लगा कि भारत- अमरीका संबंधों में सुस्ती आने लगी है और ये संबंध लगभग समाप्त होने वाले हैं. एक ओर "रिश्तों में बेहद गर्मजोशी" और दूसरी ओर " बेहद ठंडापन"- इसके बीच डोलते संबंधों के कारण वास्तविक दुनिया की जटिलताओं या उसमें अंतर्निहित तत्वों को समझ पाना मुश्किल हो जाता है. समकालीन भारत और अमरीका के बेहतर होते सुरक्षा संबंधों को सही मायने में समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के भूमिका-सिद्धांत: अर्थात् सुरक्षा भूमिका की अवधारणाओं में अनुकूलता और सम्मिलन-विचलन की गतिशीलता की दो अवधारणाओं की समवेत अंतःक्रिया को समझना आवश्यक है.
भारत और अमरीकी भूमिकाओं में अनुकूलता
भूमिका अवधारणाओं (RCs) का मतलब है नीतिनिर्माताओं की अपने देश बनाम अन्य देशों के बारे में संबंधित देश से बाहरी देशों की अपेक्षाओं (भूमिका निर्धारण) के साथ व्यापक अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के अंतर्गत धारणा (अपनी अवधारणा). संक्षेप में यही वह अंतः-क्रिया है जो किसी देश की अपनी धारणा और बाहरी अपेक्षाओं को दर्शाती है. हर देश की विदेश नीति की अपनी रेंज होती है और सुरक्षा संबंधी भूमिका अवधारणाएँ (RCs) वे होती हैं जो उसकी विदेश नीति के आचरण और विकल्पों को निर्धारित करती हैं. अपनी धारणाओं के आधार पर सभी देश अन्य देशों से अपेक्षाएँ रखते हैं. जब किसी देश की अपनी धारणा और अन्य बाहरी देश की अपेक्षा के बीच अनुकूलता होती है, तो इसे दोनों पक्षों के बीच भूमिका अनुकूलता के रूप में वर्णित किया जा सकता है.
यह अवधारणा भारत-अमरीकी सामरिक संबंधों की गति को समझाने में मदद करती है. इस सदी के आरंभ से ही नई दिल्ली अपने-आपको हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में एक महाशक्ति, प्रथम उत्तरदाता और सुरक्षा पर नज़र रखने वाले देश के रूप में देखने लगा है. इन अवधारणाओं से ही उसके वैश्विक और क्षेत्रीय सुरक्षा व्यवहार को आकार मिलता है. साथ ही वाशिंगटन भी इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए भारत को विकसित करने के लिए प्रयत्नशील है. यही कारण है कि वाशिंगटन अपने हितों को भारत के हितों से जोड़ने के लिए एक खिड़की खोलने में जुटा है. भारत के प्रति अमरीका की अपेक्षाएँ अनेक कारकों से प्रभावित हैं: चीन की सैन्य आक्रामकता में वृद्धि, विदेशों में और स्वदेश में उसकी अपनी बढ़ती सैन्य प्रतिबद्धताएँ और एशियन सुरक्षा खिलाड़ी के रूप में भारत की क्षमता. हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में भारत की सुरक्षा क्षमता अमरीका की समान विचारधारा वाले उन तमाम साझेदारों की खोज के साथ बिल्कुल अनुकूल बैठती है जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा की जिम्मेदारियों को साझा कर सकते हैं.
इस घटना चक्र में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी. इसकी परिणति प्राकृतिक आपदा के दुष्परिणामों से निपटने के लिए अमरीका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच एक तदर्थ साझेदारी के रूप में हुई. इन देशों के बीच संसाधनों और प्रयासों के सफल सहयोग के माध्यम से ही क्वाड के बीज बोये गए. यह माना जाने लगा कि क्षेत्रीय चुनौतियों से निपटने के लिए खास तौर पर चीन के पक्ष को देखते हुए इन चार लोकतंत्रों में एक साथ आने की क्षमता मौजूद है.
नई दिल्ली की सुरक्षा संबंधी अवधारणाओं और अमरीकी भूमिका के निर्धारण और भारत के बीच अनुकूलता बढ़ रही थी. वाशिंगटन ने भी जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे अपने मित्र राष्ट्रों के साथ भारत के रिश्ते सुधारने में मदद की. 2007 में क्वाड के जन्म के समय ही मेलजोल की यह भावना प्रकट होने लगी थी, लेकिन नई दिल्ली और कैनबरा में इस चिंता के कारण स्पष्ट अनिच्छा थी कि इस तरह की साझेदारी बीजिंग को उकसाएगी और उभरते द्विपक्षीय तनाव को बढ़ा देगी. ऑस्ट्रेलिया के क्वाड से हटने के तुरंत बाद यह समूह कमज़ोर हो गया.
परंतु अगले दशक में अमरीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंध सुधरने लगे. जैसे-जैसे चीन की सैन्य शक्ति विशेष रूप से 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद तेज़ी से आक्रामक होती गई, चीन के उदय के कारण उत्पन्न क्षेत्रीय चुनौतियों के आकार और गंभीरता के अनुरूप नई दिल्ली, वाशिंगटन, कैनबरा और टोक्यो में अधिकाधिक रणनीतिक साझीदारी भी बढ़ती चली गई. क्वाड के नेतृत्व को भी यह पता चल गया कि कोई भी अकेला देश अपने दम पर चीन की चुनौती का सामना नहीं कर सकता.
2017 के भारत-चीन के डोकलाम गतिरोध के बाद क्वाड के ढंग की व्यवस्था के प्रति नई दिल्ली की अरुचि कम होने लगी. एक ओर, भारत का क्वाड के प्रति रुझान बढ़ने लगा जिसके कारण 2017 में क्वाड का पुनरुत्थान होने लगा और यह समूह मज़बूत होता चला गया. 2017 में अवर सचिव स्तर पर बातचीत होती थी और 2019 में मंत्री स्तर पर वार्ताएँ होने लगीं. दूसरी ओर, नई दिल्ली ने अपने संबंधों में कुछ हद तक स्थिरता लाने के लिए बीजिंग के साथ बातचीत जारी रखी. इसे स्पष्ट रूप से भारत-चीन के संबंधों को फिर से बहाल करने और राष्ट्राध्यक्षों के बीच संवाद में देखा जा सकता है.
2020 की खूनी सीमा झड़पों के कारण दोनों संबंधों में दरार आ गई और भारत का चीन के प्रति रवैया सख्त होने लगा. अब भारत ने 2020 के उत्तरार्ध में न केवल ऑस्ट्रेलिया को मलाबार समुद्री अभ्यास (पहले इस अभ्यास में केवल अमरीका, जापान और भारत ही भागीदार थे) में शामिल कर लिया, बल्कि शिखर स्तर की बैठक में सर्वोच्च नेतृत्व शामिल होने लगा. पहली बार, 2021 में क्वाड की बैठक के बाद एक संयुक्त बयान जारी किया गया और इसका दायरा बढ़ाकर उसमें वैक्सीन कूटनीति, बुनियादी ढाँचा विकास, समुद्री सुरक्षा और महत्वपूर्ण टैक्नोलॉजी जैसी अधिक महत्वाकांक्षी योजनाओं को शामिल कर लिया गया.
भूमिका की अनुकूलता के भीतर विचलन: The Qua(n)dry
यहाँ तक कि जैसे-जैसे क्वाड 2.0 विकसित होने लगा, तो इसकी तुलना अक्सर AUKUS गठबंधन से की जाने लगी. इस गठबंधन में ऑस्ट्रेलिया, यू.के. और अमरीका शामिल हैं, लेकिन पर्यवेक्षक उसकी तुलना में क्वाड को कम प्रभावी मानते हैं. तीन औपचारिक मित्र राष्ट्र वाले इस समूह में एकमात्र गैर- मित्र राष्ट्र है भारत. और मजबूत सुरक्षा भूमिका के मामले में भारत अनिच्छुक ही रहा है. यही कारण है कि क्वाड की ब्रांडिंग कुछ क्षेत्रों में "सबसे कमजोर कड़ी" साबित हुई है और इसका बाहरी आचरण अंतर्विरोधी माना जाता है. 2022 में युक्रेन पर रूसी आक्रमण को लेकर नई दिल्ली द्वारा मुखर होकर आलोचना न करने से पश्चिम में कुछ निराशा हुई. यही कारण है कि सुरक्षा भागीदार के रूप में भारत की विश्वसनीयता पर सवाल उठे. भूमिका की अनुकूलता के व्यापक समीकरण के भीतर विचलन के ये मामले द्विपक्षीय और लघुपक्षीय साझेदारी में वास्तविक दुनिया की जटिलताओं को दर्शाते हैं.
भूमिका की अनुकूलता के व्यापक छत्र के अंदर कुछ देशों या सक्रिय अभिनेताओं के बीच एक साथ होने वाले कुछ मामले ऐसे भी हैं जहाँ उनके हित तो साझा हैं, लेकिन उनके दृष्टिकोण/प्राथमिकताएँ अलग-अलग हैं. इसी जटिल और अद्भुत घटना को सम्मिलन-विचलन की गतिशीलता कहा जाता है. साझेदारों (और यहाँ तक कि मित्रराष्ट्रों) के बीच कुछ मामलों में समान और कुछ मामलों में भिन्न हित होना स्वाभाविक है और दोनों के बीच यही अनुपात किसी नियत समय में इनके बीच संबंधों की ताकत या कमज़ोरी को दर्शाता है.
यहाँ तक कि हिंद-प्रशांत में भारत-अमरीका के सामरिक हितों के समान होने के बावजूद, वाशिंगटन और नई दिल्ली के इस क्षेत्र के प्रति दृष्टिकोण और वहाँ की चुनौतियों का समाधान करने के तरीकों में अंतर है. पहली बात तो यह है कि अमरीका हिंद-प्रशांत को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में देखता है जहाँ नियम-आधारित उदार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को चीन के आक्रामक रुख और यहाँ तक कि रूसी खतरे के मुकाबले भी संरक्षित करने की आवश्यकता है. इसके विपरीत, भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र को किसी देश (जैसे चीन) के विरुद्ध सक्रिय देशों के एक विशेष समूह के रूप में नहीं देखता है. नई दिल्ली इसे एक "समावेशी" क्षेत्र मानता है और कई बार तो उसने हिंद-प्रशांत की अपनी परिभाषा में चीन और रूस को शामिल करने का संकेत भी दिया है. यह दर्शाता है कि क्यों भारत स्पष्ट रूप से कहता है कि क्वाड किसी एक देश के खिलाफ़ निर्देशित नहीं है, क्योंकि यह इसे चीन विरोधी समूह के रूप में पेश करने में सावधानी बरतता है.
दूसरी बात यह है कि अमरीका खुलकर यह मानता है कि चीन इस क्षेत्र के लिए खतरा है और जरूरत पड़ने पर उसे रोकने और यहाँ तक कि इसके लिए वह लड़ने के लिए भी तैयार है. दूसरी ओर, भारत सीधे तौर पर चीन को संतुलित करने में सावधानी बरतता है और चीन के साथ अपने संबंधों में प्रतिस्पर्धा-सहयोग मॉडल को बनाए रखना पसंद करता है. क्वाड के साथ अपने संबंधों को मज़बूत या नरम करने के लिए नई दिल्ली की पसंद इस बात से जुड़ी है कि भारत एक नियत समय पर चीन से कैसे निपटना चाहता है. यह कार्रवाई स्थिर समीकरण को तलाशने से लेकर एक विशेष तरीके से उसके खिलाफ़ उस पर दबाव बनाने तक हो सकती है. चीन के रू-बरू आवधिक लागत-लाभ विश्लेषण में लिप्त होने की प्रवृत्ति क्वाड या अमरीका के साथ अन्य संयुक्त गतिविधियों के साथ भारत की सुरक्षा भागीदारी को निर्धारित करती है.
तीसरी बात यह है कि हालाँकि पिछले दो दशकों से नई दिल्ली का रुझान पश्चिम की ओर है, फिर भी इसने कई साझेदारों को संतुलित करना जारी रखा है और कभी-कभी तो ऐसे देशों के साथ भी, जिनके साथ उनके संबंध अच्छे नहीं रहे. यह बात इससे ही स्पष्ट हो जाती है कि चीन और रूस के साथ संबंध बनाए रखते हुए भी भारत ने क्वाड और अन्य व्यवस्थाओं पर अमरीका और उसके मित्र-देशों के साथ सहयोग करने का निर्णय किया. (यही है यूक्रेन में रूस की कार्रवाइयों पर भारत के मुखर न रहने का कारण). विभिन्न पक्षों के साथ एक साथ संबंध बनाये रखते हुए भी "रणनीतिक स्वायत्तता" के प्रति भारत के जुनून और प्रतिस्पर्धी देशों या कुछ देशों के किसी समूह पर निर्भर न होना भारत की अपनी विरासत है. अब तक, भारत प्रभावी रूप से दुश्मन सहयोगियों के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने में कामयाब रहा है, लेकिन खासकर अगर चीन कोई खतरा पैदा करता है तो लंबे समय तक यह स्थिति बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं है.
चौथी बात यह है कि भारत के हित हिंद महासागर के उसके परंपरागत क्षेत्र से जुड़े हैं, जबकि अमरीका के हित प्रशांत क्षेत्र से जुड़े रहे हैं. हाल ही में उनके क्षेत्रों और हितों के मुद्दों के बीच बढ़े हुए ओवरलैप के बावजूद, नई दिल्ली संभवतः उन क्षेत्रों में चीनी कार्रवाइयों से निपटने में उतना उत्साहित नहीं होगा, जो सीधे तौर पर इसके सुरक्षा हितों (जैसा कि ताइवान या यहाँ तक कि युक्रेन के मामले में मौजूदा दौर में दिखाई देता है) को प्रभावित नहीं करते हैं. यह स्वाभाविक रूप से परंपरागत सुरक्षा मुद्दों पर क्वाड के जुड़ाव की गति को प्रभावित करेगा.
साझेदारी के भीतर मौजूदा मतभेद रहना कोई विसंगति नहीं है और यह हमेशा सक्रिय साझेदारियों के बीच किसी गंभीर संघर्ष को नहीं दर्शाता है. इसके बजाय अगर भूमिका की अनुकूलता निरंतर बनी रहती है तो नीतिनिर्माता/ राजनयिक, समस्याओं के बावजूद प्रभावी ढंग से काम करने के लिए कोई तंत्र विकसित कर लेंगे और समय-समय पर विशिष्ट मुद्दों को सुलझाने के लिए सामाजिक संबंध बना लेंगे. इसका एक उदाहरण तो यही है कि भारत और अमरीका के “नौवहन व्यवस्था” और “नौवहन की स्वतंत्रता” के संबंध में परस्पर विरोधी विचार हैं, लेकिन भारत ने समुद्र के कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCLOS) की पुष्टि की है, जबकि अमरीका ने यह पुष्टि नहीं की है और दोनों देशों ने इस कानून का निर्वचन अपने ढंग से किया है. (भारत का निर्वचन चीन द्वारा की गई इस कानून की व्याख्या से मिलता-जुलता है.) जहाँ एक ओर भारतीय कानून, अपने आर्थिक क्षेत्र में नौवहन के संचालन की स्वतंत्रता के विरुद्ध है, फिर भी इन मतभेदों को राजनयिक स्तर पर सुलझा लिया गया और इसके कारण नौवहन सहयोग में कोई रुकावट नहीं आई. इससे पता चलता है कि बादल कितने भी अँधरे हों, उनमें उजली किरण की गुंजाइश हमेशा रहती है.
कुल मिलाकर, भारत-अमरीका के रणनीतिक और सुरक्षा संबंध परिपूर्ण नहीं हैं और आने वाले भविष्य में भी ऐसा होने की संभावना नहीं है. भिन्नताओं की काली छाया भूमिका की अनुकूलता के भीतर मौजूद रहेगी, जिसका आनंद दोनों देश उठाते हैं. यह सुरक्षा की दृष्टि से क्वाड के दिशा-निर्धारण की दिशा को भी प्रभावित कर सकता है. लेकिन, मतभेदों के बावजूद इस बात की संभावना नहीं है कि उनके द्विपक्षीय संबंधों की प्रगति में कोई रुकावट आए या क्वाड व्यवस्था में जुड़ाव को बाधित करने की आशंका भी नहीं है, खास तौर पर तब जब चीन उन्हें साथ जोड़े रखता है. संक्षेप में, भारत और अमरीका के संबंध और उनका जुड़ाव काला-सफेद (black and white) नहीं है, बल्कि उसका शेड ग्रे है.