औद्योगिक नीति के इस विचार की अब वैश्विक स्तर पर चर्चा होने लगी है कि सरकार विभिन्न प्रयोजनों के लिए अर्थव्यवस्था के कुछ भागों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. संयुक्त राज्य अमरीका (USA) का मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम इसका प्रमुख उदाहरण है, जिसके अंतर्गत उन उद्योगों का समर्थन करने के लिए सरकारी सब्सिडी, करों में छूट, ऋण और अनुदान का उपयोग होने लगा है जिन्हें अमेरिका ने महत्वपूर्ण मान लिया है. भारत के लिए भी यह प्रवृत्ति कोई नई बात नहीं है. भारत ने 2020 में उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन की शुरुआत की, जिससे उन कंपनियों को वित्तीय बढ़ावा मिला, जिन्होंने देश के भीतर अपने विनिर्माण का विस्तार किया है. इसकी शुरुआत फार्मास्युटिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स और चिकित्सा उपकरणों से हुई और फिर कई और क्षेत्रों को कवर करने के लिए उनका विस्तार किया गया.
लेकिन ये घरेलू-केंद्रित नीतियाँ "वैश्विक मूल्य श्रृंखला" (GVC) और "विविधीकृत, लोकतांत्रिक" पुनः वैश्वीकरण, जिसका भारत ने आह्वान किया है, में एकीकृत करने के व्यापक प्रयासों में कैसे फ़िट बैठती हैं?
इसे समझने के लिए, हमें कोविड-19 महामारी और उस समय उभरी "वैश्विक मूल्य श्रृंखला" (GVC) के इर्द-गिर्द की चर्चा पर वापस जाना होगा. महामारी के कारण उत्पन्न व्यवधानों के प्रभाव के कारण वैश्वीकृत दुनिया की वे तमाम विशेषताएँ सामने आ गईं,जिनके कारण दुनिया "वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं" (GVCs) के माध्यम से उपभोग की कई वस्तुओं को प्राप्त करती है. इसके बाद इन श्रृंखलाओं से जुड़े जोखिमों और उनके लचीलेपन से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आ गया. अभी हाल तक ही ये देश मौजूदा "वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं" (GVCs)
को समन्वित करने में जुटे हुए थे. "वैश्विक मूल्य श्रृंखला" (GVC) में भागीदारी से आम तौर पर उत्पादकता बढ़ने के साथ-साथ निर्यात के अधिक परिष्कार और विविधीकरण के संदर्भ में आर्थिक लाभ होता है. इसके परिणामस्वरूप यह समझना आसान हो जाता है कि "वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं" (GVCs) में भागीदारी से नीति-निर्माण के संबंध में क्या निहितार्थ निकलते हैं. फिर भी मूल्य श्रृंखलाओं से अर्जित लाभ हर देश में अलग-अलग होता है.
आम तौर पर, वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) में एकीकरण को बैकवर्ड और फ़ॉरवर्ड के लिंकेज के माध्यम से हासिल किया जाता है. बैकवर्ड लिंकेज से यह आकलन किया जाता है कि कैसे कोई अर्थव्यवस्था अपने निर्यात के उत्पादन में इनपुट के रूप में मध्यवर्ती वस्तुओं या सेवाओं का आयात करती है, जबकि फ़ॉरवर्ड लिंकेज का संबंध उस प्रकार के इनपुट से होता है जिन्हें कोई एक देश दूसरे देश को प्रदान करता है और बदले में, उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करता है जिन्हें आगे तीसरे देशों में निर्यात किया जाता है.
हाल के दिनों में, कई देशों ने कुछ व्यापारिक भागीदारों पर अति निर्भरता को कम करने के लिए औद्योगिक नीति का सहारा लिया है. लेकिन हम भारत के संदर्भ में इन उत्पादन नेटवर्कों का उपयोग कैसे करें ?
वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) का समन्वय
वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) का नैटवर्क आम तौर पर अग्रणी फ़र्मों अर्थात् बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किया जाता है. ये कंपनियाँ इन मूल्य श्रृंखलाओं की निर्मिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. एक देश के दृष्टिकोण से, इन श्रृंखलाओं से संबंधित होने के कारण नेटवर्क और निर्यात को बढ़ावा मिलता है. वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) की भागीदारी किसी देश के आकार और स्थान, सकल घरेलू उत्पाद में इसकी विनिर्माण की भागीदारी और व्यापार एवं निवेश नीतियों सहित कई कारकों पर निर्भर करती है.
किसी देश की वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) का एकीकरण व्यापार की प्रकृति के कारण मायने रखता है, जो 1960 के दशक के मध्य से तेज़ी से मध्यवर्ती वस्तुओं में रहा है. यही वे इनपुट हैं जो उत्पादन प्रक्रिया में उपयोग में लाये जाते हैं और यही प्रक्रिया अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं की ओर ले जाती है.
परिवहन लागत कम करने, टैरिफ़ में ढील देने और मध्यवर्ती उपाय करने जैसे कुछ कारक जिनसे प्रत्येक बाद के चरण में मूल्य जोड़ा जाता है, विभिन्न देशों में स्थित कारखानों में लागू हैं. परिवहन में इस तकनीकी प्रगति के कारण व्यापार में वृद्धि हुई है, जिससे कुछ वस्तुओं के उत्पादन और विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों या देशों को बढ़ावा मिला है और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों को "फ़ैक्ट्री एशिया" का उपनाम दिया गया है. दूसरी ओर, इन श्रृंखलाओं से न जुड़ने का मतलब है कि इन देशों के लिए निर्यात बाज़ारों में प्रवेश करना मुश्किल है.
अग्रणी फ़र्में
इनके साथ-साथ अग्रणी फ़र्मों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. अग्रणी फ़र्में वे लघु, मध्यम और बड़ी फ़र्में हैं, जिनमें बड़ी संख्या में माइक्रो,लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) के साथ फ़ॉरवर्ड और बैकवर्ड लिंकेज मौजूद हैं. अग्रणी फ़र्म ही तमाम मूल्य श्रृंखला का संचालन करती है.
प्रमुख फर्मों का उद्भव और वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) की भागीदारी उन कारकों पर निर्भर करती है जो अनुकूल कारोबारी माहौल, विदेशी निवेश को आकर्षित करने और घरेलू फ़र्मों के अंतर्राष्ट्रीयकरण को जन्म देते हैं. घरेलू फर्मों का अंतर्राष्ट्रीयकरण तब किया जा सकता है जब वे घरेलू अंतिम उत्पादकों द्वारा मध्यवर्ती उत्पादों के आयात के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय खरीदारों को निर्यात करना शुरू करते हैं. विनिर्माण क्षेत्र में वैश्विक मूल्य श्रृंखलाएँ (GVCs) रोज़गार सृजन, कौशल उन्नयन और विनिर्माण-आधारित औद्योगीकरण से जुड़े अन्य लाभों में बेहतर योगदान दे सकती हैं.
इस पारिस्थितिकी तंत्र में, एक ऐसा वातावरण बनाने की इच्छा है जो स्थानीय निर्माताओं का समर्थन करे क्योंकि वे अपनी उत्पादक क्षमताओं को उन्नत करने और अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं.
हालाँकि, विकासशील देशों में कई घरेलू कंपनियाँ, विशेष रूप से सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSMEs)वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) में आसानी से एकीकृत नहीं होती हैं, और वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) की भागीदारी में चुनौतियों का सामना करती हैं. दक्षिण-दक्षिण व्यापार ने स्थानीय और क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखलाओं को विकासशील देशों के लिए अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है.
वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) से संबंधित साहित्य अपने आपूर्तिकर्ताओं को ज्ञान हस्तांतरित करके कम विकसित देशों में उत्पादकों से जुड़ी सीखने और नवाचार संबंधी गतिविधियों का समर्थन करने में वैश्विक खरीदार जैसी अग्रणी कंपनियों की भूमिका पर जोर देता है.
परंतु यह देखा गया है कि हालाँकि ये कंपनियाँ आम तौर पर जहाँ एक ओर "वस्तु जैसी" जो कम मूल्य जोड़ने वाली गतिविधियों को आउटसोर्स करती हैं, वहीं वे कम मूल्य-वर्धित गतिविधियों के विपरीत अमूर्त, उच्च मूल्य-वर्धित गतिविधियों पर सीधा नियंत्रण बनाए रखती हैं. इसप्रकार, ज्ञान का हस्तांतरण कुछ गतिविधियों या कार्यों और कुछ उद्योगों के माध्यम से अधिक होता है.
जहाँ एक ओर उच्च मूल्य वर्धित गतिविधियों में अपग्रेड करने से घरेलू श्रम उत्पादकता और कौशल में वृद्धि हो सकती है, वहीं विकासशील देश अक्सर कम मूल्य वर्धित गतिविधियों तक सीमित रहते हैं और बहुत कम या कोई प्रौद्योगिकी हस्तांतरण नहीं होता है.
उन्नयन को "उन रणनीतियों के रूप में परिभाषित किया गया है जिन्हें कंपनियाँ, देश या क्षेत्र उच्च मूल्य वर्धित गतिविधियों और बढ़े हुए मूल्य कैप्चर की ओर बढ़ने के लिए लागू करते हैं.” इस संदर्भ में अग्रणी फ़र्मों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है. नीति के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक मूल्य श्रृंखलाएँ (GVCs) अर्थव्यवस्था में कैसे समन्वित होती हैं, यही महत्वपूर्ण होता है और इस तरह अग्रणी फ़र्मों की भूमिका ज़रूरी हो जाती है.
साथ ही साथ औद्योगिक और अन्य नीतियों में वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) का समन्वय और उनके उन्नयन को प्रोत्साहित करना भी महत्वपूर्ण हो जाता है.
औद्योगिक नीति की दिशा क्या है?
औद्योगिक नीति, विकास संबंधी नीति का केंद्रबिंदु होती है और इसके प्रायः बहुत से नाम प्रचलित हो जाते हैं (जैसे, निर्यात सुविधा, विदेशी निवेश का प्रोत्साहन या मुक्त व्यापार क्षेत्र). यह मात्र विनिर्माण उद्योगों को दिये जाने वाले प्रोत्साहन से संबंधित नहीं होता, बल्कि सेवा या कृषि को भी इसके अंतर्गत प्रोत्साहन दिया जाता है.
सैद्धांतिक रूप में औद्योगिक नीति के तर्क का आधार बाज़ार की विफलता होता है. अर्थशास्त्री दानी रॉड्रिक मानते हैं कि औद्योगिक नीति की आवश्यकता सैद्धांतिक रूप से सुदृढ़ और सुस्पष्ट होती है. इसकी मदद से बाज़ार की विफलताओं को रोका जा सकता है, लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में कार्यान्वित करना कठिन होता है. जैसा कि वह बताते हैं कि औद्योगिक नीति का पारंपरिक स्वरूप ऋण, श्रम, उत्पाद या ज्ञान के बाज़ार में विफलता के कारण होता है.
रॉड्रिक के अनुसार व्यावहारिक रूप में औद्योगिक नीति में दो आपत्तियाँ होती हैं. एक है सूचना विषमता और दूसरा है भ्रष्टाचार और किराया वसूली. पहले मामले में, सरकारों के लिए उन फर्मों, क्षेत्रों या बाजारों में विजेताओं की पहचान करना असंभव है जो अपूर्ण बाजारों से प्रभावित हैं - फिर भी औद्योगिक नीति, कुछ मायनों में, उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करती है. दूसरे मामले में यह तर्क दिया जाता है कि औद्योगिक नीति अक्सर भ्रष्टाचार या किराया वसूली को बढ़ावा देती है. औद्योगिक नीति के अनुभवजन्य मूल्यांकन पर औद्योगिक नीति के समर्थकों और विरोधियों दोनों के अपने तर्क हैं.
समर्थकों का कहना है कि अक्सर प्रकरण-आधारित साक्ष्य के आधार पर कई मामलों में औद्योगिक नीति कारगर रहती है.
भारत का वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) से समन्वय और औद्योगिक नीति
भारत की विनिर्माण क्षमता के बावजूद, विशेष रूप से मध्यम तकनीकी उद्योगों में, वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) में इसकी भागीदारी सीमित है. इसके अलावा, वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVCs) में भारत की भागीदारी काफ़ी हद तक कुछ उद्योगों (जैसे ऑटोमोबाइल) तक ही सीमित है. श्रम-बहुल उत्पादों में खास तौर पर वस्त्र संबंधी उत्पादों के निर्यात में भारत का हिस्सा कम होता जा रहा है. इसके अलावा, भारत के मामले में, जहाँ उत्पादों में उन्नयन तो हुआ है (वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) के भीतर उच्च मूल्य वर्धित उत्पादों में आंदोलन के रूप में परिभाषित) और प्रक्रिया में भी उन्नयन हुआ है (जिसमें वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) के भीतर मौजूदा गतिविधियों में उत्पादकता में वृद्धि शामिल है), और कार्यात्मक उन्नयन (जिसमें अधिक तकनीकी रूप से परिष्कृत या उत्पादन प्रक्रिया के अधिक एकीकृत पहलुओं में आंदोलन शामिल है) और अंतर-क्षेत्रीय उन्नयन सीमित रहा है. वस्त्रों में भी यही हुआ है. अंतर-क्षेत्रीय या श्रृंखला उन्नयन के अंतर्गत उच्च मूल्य वर्धित आपूर्ति श्रृंखलाओं की ओर बढ़ना भी शामिल है.
विकासशील देश वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) में अपने एकीकरण को बेहतर ढंग से प्रोत्साहित कर सकते हैं और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए अपनी नीतियों को संबद्ध करके अपनी अर्थव्यवस्थाओं में बहु-राष्ट्रीय कंपनी गतिविधियों से विकास के लाभों को बढ़ा सकते हैं.
वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) की भागीदारी बढ़ाने में जिस तरह की औद्योगिक नीतियों की टाइपोलॉजी का अनुसरण देश कर सकते हैं, उनमें तीन तरह की नीतियाँ शामिल होती हैं. ये ऐसी क्षैतिज नीतियाँ हैं जो संपूर्ण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं (जैसे, वस्तु एवं सेवा कर (GST), ऊर्ध्वाधर औद्योगिक नीतियाँ जो विशेष क्षेत्रों या उद्योगों पर लक्षित होती हैं (जैसे, ऑटोमोबाइल उद्योग के लिए ऑटोमोटिव मिशन योजना 2016-26), और अंत में, वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) -उन्मुख नीतियाँ.
इस अंतिम प्रकार की नीति में मूल्य श्रृंखला के विभिन्न खंडों में लिंक के उन्नयन और सुधार की संभावना शामिल हो सकती है. भारत का नीतिगत दृष्टिकोण बड़े पैमाने पर लॉजिस्टिक और बुनियादी ढाँचे की बाधाओं को दूर करने का है और व्यापार करने में आसानी से सुधार कर रहा है, और इसे क्षैतिज या ऊर्ध्वाधर के संदर्भ में वर्गीकृत किया जा सकता है. लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC)-उन्मुख नीतियों से अधिकाधिक समन्वय किया जाए.
औद्योगिक नीति 2.0
हाल के दिनों में, औद्योगिक नीति का पुनरुत्थान हुआ है, जैसे संयुक्त राज्य अमरीका (USA) का मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम और, भारतीय संदर्भ में, हाल ही में शुरू की गई उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजनाएँ. ये नीतियाँ चौदह क्षेत्रों के लिए घोषित की गई हैं और भविष्य में इन्हें और क्षेत्रों में भी विस्तारित किया जा सकता है. पहले के “मेक इन इंडिया” कार्यक्रम के बाद भारत की नवीनतम औद्योगिक नीतियों की श्रृंखला में ये सबसे नई नीतियाँ हैं. इन योजनाओं के माध्यम से भारत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) आकर्षित करने और “चैम्पियन फ़र्म” बनाने का प्रयास कर रहा है.
इस वर्ष के आरंभ में घोषित विदेश व्यापार नीति के अंतर्गत वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) के साथ समन्वय और भारत को निर्यात हब बनाने के उद्देश्य का उल्लेख भी किया गया है. इसी संदर्भ में ज़रूरत बात की है कि हम उन तमाम उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं को देखें जिनका उद्देश्य है फ़र्मों की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता को बढ़ावा देना और भारतीय उद्योगों के स्थानीकरण को प्रोत्साहित करना. उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं को भारत की वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) के साथ एकीकरण को बढ़ाने के उद्देश्य से वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC)-उन्मुख नीतियों के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए. चैंपियन फ़र्म बनाने की कोशिश करके, ये नीतियाँ "विजेताओं" को चुनने की कोशिश कर रही हैं और यह औद्योगिक नीति के उद्देश्यों के अनुरूप है. लेकिन अब भी यह देखना बाकी है कि ये फ़र्में कब तक अग्रणी फ़र्में बन जाती हैं. नीतिगत घोषणाओं के अनुरूप, स्वदेशी विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए आयातित इनपुट पर टैरिफ़ बढ़ा दिया गया है. हालाँकि ये लंबे समय तक काम कर सकते हैं,फिर भी जिन क्षेत्रों में कोई क्षमता नहीं है (जैसे सौर पैनल, ईवी बैटरी),वहाँ अल्पावधि में ही उत्पादन की लागत बढ़ जाती है. भारत उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं और आयात शुल्कों के संयोजन के माध्यम से देश के भीतर भारी संख्या में उत्पादन श्रृंखला बनाने की कोशिश कर रहा है. सफल होने पर, भारत निर्यात करने में भी सक्षम एक सफल स्वदेशी विनिर्माण आधार तैयार कर लेगा.
दूसरी ओर, यदि टैरिफ़ संरक्षण के बावजूद इनपुट का विनिर्माण विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी नहीं बन पाता है, तो भारत डाउनस्ट्रीम उद्योग को भी "फ़ैक्टरी एशिया" की मूल्य श्रृंखला में एकीकृत करने का मौका खो देगा.
औद्योगिक नीति और आयात प्रतिस्थापन के बीच के अंतर को समझने की ज़रूरत है. आयात प्रतिस्थापन से घरेलू स्तर पर उत्पादित मध्यवर्ती उत्पादों पर अधिक निर्भरता हो सकती है - जिससे स्वदेशी विनिर्माण को बढ़ावा मिलेगा - लेकिन अधिक वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) के एकीकरण की आवश्यकता नहीं होगी. इसलिए, उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं के माध्यम से वैश्विक मूल्य श्रृंखला (GVC) के साथ अधिक एकीकरण का उद्देश्य अनिश्चित है. यह देखना अभी बाकी है कि क्या ये नीतियाँ भारत के विनिर्माण क्षेत्र को आगे बढ़ाएँगी और "रोज़गार विहीन विकास" पर काबू पाने में मदद करेंगी.
साओन रे उद्योग और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की विशेषज्ञ होने के साथ-साथ लेखिका और अर्थशास्त्री भी हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India
<malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365