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नदीतट पर कटावः असम की पहचान की भूमि और राजनीति

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28/02/2022
अंकुर तमुली फुकन

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार द्वारा सितंबर 2021 में असम के दरांग जिले के धौलपुर चार इलाके में चलाए गए बेदखली अभियान का अंत पुलिस द्वारा दो लोगों की हत्या के साथ हुआ. तत्कालीन पूर्वी बंगाल मूल की मुस्लिम आबादी के तथाकथित मियाँओं द्वारा इन ज़मीनों पर कथित रूप से अवैध कब्जा असम के विभिन्न हिस्सों में बेदखली के अभियान को जारी रखने के लिए सही बचाव के रूप में सामने आता है. धौलपुर चार क्षेत्र के मामले में, प्रशासन ने दावा किया कि भूमि पर अतिक्रमण को व्यावसायिक चरागाह रिज़र्व  (PGR) और ग्राम चरागाह रिज़र्व (VGR) के रूप में वर्गीकृत किया गया था, और इसलिए ये "अवैध" कब्जे वाले लोग मूल निवासियों को आजीविका के अवसरों से वंचित कर रहे थे. हालाँकि, सरकार का दावा, अपने आप में, भ्रामक है, क्योंकि चार या ब्रह्मपुत्र नदी के द्वीप, अर्ध या अपेक्षाकृत स्थायी संरचनाएँ हैं. ये चार ब्रह्मपुत्र में जमा गाद से पैदा होते हैं जो आम तौर पर आठ से दस वर्षों के भीतर विकसित होते हैं और एक या दो पीढ़ियों द्वारा पहले ही नदी द्वारा इनका उपयोग कर लिया जाता है. असम की कुल आबादी का 4.5 प्रतिशत इन्हीं चारों में रहता है.

1950 में असम में आए भूकंप ने ब्रह्मपुत्र नदी और उसकी सहायक नदियों की दिशा बदल दी है. भूकंप के कारण नदी का तल ऊपर उठ गया, जिससे बाढ़ आने का खतरा पैदा हो गया और नदी के तट का कटाव हो गया. सड़कों, पुलों और नदी के किनारे के तटबंधों जैसी उत्तर-औपनिवेशिक विकास परियोजनाओं ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया क्योंकि इनके कारण धाराओं की दिशा बदल गई जिससे नदी के किनारे कई जगह कटाव शुरू हो गया. जैसे-जैसे बाढ़ और नदी तट के कटाव के कारण लोग बेघर होने लगे और उनकी आजीविका खत्म होने लगी, आंतरिक प्रवासन की समस्या भी जटिल होने लगी.

इस जलवायु और विकास से प्रेरित पारिस्थितिकी की घटना ने राज्य में पहले से मौजूद जातीय संघर्षों और पहचान के विमर्श को गहरा कर दिया है. भाजपा का हाल ही का बेदखली का अभियान उसी पहचान विमर्श का हिस्सा है क्योंकि यह राज्य की तथाकथित स्वदेशी आबादी के लिए भूमिहीनता और आजीविका के अवसरों की कमी की समस्या के रूप में मियाँओं के "भूमि जिहाद" के एक ब्लैंकेट संस्करण को सफलतापूर्वक रेखांकित करता है.

असम सरकार की 2018 की एक रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि 1950 के बाद से, नदीतट के कटाव के कारण 427,000 हेक्टेयर भूमि नष्ट हो गई है; जो राज्य के कुल भूमि क्षेत्र का 7.4 प्रतिशत है. यहाँ बहुत कम लोगों की भूमि सुरक्षित है. पुराने व्यावसायिक चरागाह रिज़र्व (PGR) और ग्राम चरागाह रिज़र्व (VGR) सीमांकन रिकॉर्ड को भूमि कार्यालयों में सुरक्षित रखा जाता है, जबकि नदी वास्तविक भूभाग को आकार देना और बार-बार आकार देना जारी रखती है. इसलिए, बड़े पैमाने पर कटाव-प्रेरित विस्थापन की वास्तविकता के साथ, इन चारों के निवासी या तो ज़मीन की तलाश में चले गए हैं या कृषि स्वामित्व के जुड़े सभी संबंधों को तोड़कर उन्हें दिहाड़ी मजदूर बनना पड़ा है. जब ये बेदखल लोग काम की तलाश में ऊपरी असम ( जिसे राज्य के स्थानीय लोगों का गढ़ माना जाता है) की यात्रा करते हैं, तो उन्हें अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों के रूप में देखा जाता है. यह एक ऐसा विचार है जो असम राजनीतिक विमर्श में गहराई से अंतर्निहित है. लचित सेना, जातिवादी युवा छात्र परिषद और अखिल असम छात्र संघ जैसे असम की मुख्यधारा के राष्ट्रवादी संगठन उन्हें अपमानित करते हैं, जैसे कि वे उनकी भूमि पर अतिक्रमण करने आए हों.

दूसरी ओर, बिना किसी सरकारी तंत्र की मदद के, विस्थापित लोग इधर-उधर घूमते रहेंगे और अंततः नए चार या आरक्षित वनों या वन्यजीव अभयारण्यों के अंदरूनी हिस्सों में बसने के लिए कोई ठिकाना ढूँढ लेंगे. जब बेदखली का अभियान चलता है, तो ये लोग दूसरे क्षेत्र में चले जाते हैं. निचले और ऊपरी असम क्षेत्रों से स्वदेशी और गैर-स्वदेशी लोगों का बड़े पैमाने पर आंतरिक प्रवासन पिछले तीस वर्षों में समकालीन असम की घिनौनी वास्तविकता बन गई है. स्वदेशी विस्थापित किसान अभी भी खुद को संगठित कर सकते हैं और भूमि पर स्थायी पट्टे की सुरक्षा के लिए सरकार के साथ बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकते हैं. हालाँकि पूर्वी बंगाल से आने वाले किसानों के लिए यह बोझ दुगुना होने के कारण बहुत मुश्किल हो गया है.  

 इसलिए, उनका आंदोलन आवधिक चक्रों में जारी रहता है, कभी-कभी नदी द्वारा और कभी-कभी मौजूदा सरकार द्वारा इन्हें आंदोलन चलाने के लिए मजबूर किया जाता है. इसी प्रक्रिया में, आक्रामक "भूमि जिहाद" के लिए तैयार रहने वाले और जातीय संघर्षों को भड़काने वाले लोग ज़मीन के भूखे खानाबदोश समुदाय के रूप में उन्हें कलंकित करते हुए राजनीतिक लामबंदी के लिए अपनी ज़मीन तैयार कर लेते हैं. असम में नागरिकता के राष्ट्रीय रजिस्टर की हाल ही में की गई गणना, जिसमें 1.9 मिलियन से अधिक लोगों को भारतीय नागरिकता से बाहर रखा गया है, का कार्य आंशिक रूप से इन्हीं वास्तविकता के कारण उत्पन्न माँगों के कारण ही शुरू किया गया है.

इस संदर्भ में, कृषि के साथ बाजार के गहराते संबंधों ने भूमि की बढ़ती माँग के नये चरण की भूमिका तैयार कर दी है और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जातीय दावों और संघर्षों का दौर शुरू हो गया है. आम या सामुदायिक भूमि, जो आम तौर पर आर्थिक और प्राकृतिक आपदाओं की माँगों को कम करने के लिए उपयोग की जाती है, क्षरण के कारण तेजी से कम होती जा रही है. वैसे भी, औपनिवेशिक काल से चाय बागानों और तेल कंपनियों की विशाल भूमि की जोत ने जोड़-तोड़ के लिए जगह को काफी कम कर दिया है. परंतु, 1970 के दशक से, विशेष रूप से ऊपरी असम में, छोटे चाय बागान वालों के आंदोलन के कारण विस्थापित और वंचित आबादी के लिए इन आम लोगों का भाग्य सील हो गया है. चाय उगाने के लिए छोटे उद्यमियों द्वारा इन आम लोगों का उपयोग करने से इस क्षेत्र में भूमि की कमी की एक नई वास्तविकता सामने आ गई है. हालाँकि, निचले असम में चार निवासियों की वक्ररेखा और बाजार के साथ उनका संबंध अलग किस्म का है. जब ये चार निवासी अपने स्थानीय जिलों से दूर के चार में पहुँचे, तो उन्होंने स्थानीय समुदाय से खरीदकर ज़मीन ले ली और कृषि के लिए अपने हिस्से की ज़मीन का विकास किया. चार के बाढ़ग्रस्त होने से पहले चार से पाँच महीने की सीमित अवधि में, वे गर्मियों की शुरुआत में कुछ मात्रा में धान के साथ सरसों या पटसन को नकदी फसल के रूप में उगाते थे. हालाँकि, 1980 के दशक के बाद से, वे अब व्यावसायिक रूप में खेती योग्य सब्जियों को उगाने लगे हैं, खेती और बाजार के साथ के संबंध का कहीं अधिक निश्चित पैटर्न बना रहे हैं: विभिन्न सागों के साथ,गोभी, फूलगोभी, मिर्च, और बैंगन, उनके खेती पैटर्न पर हावी हो गए हैं.

हाल ही में, मक्का (भारतीय मक्का) ने नकदी फसल के रूप में प्रमुखता प्राप्त की है क्योंकि इसमें कम श्रम लगता है और दुगुना लाभ होता है. उनके जीवित रहने की स्थिति की अनिश्चितता और ज़मीन एवं उसकी जोत की अस्थिरता के बावजूद, बाजार में इससे कुछ लाभ कमाया जा सकता है और अंततः किसान समृद्ध हो सकता है. हालाँकि, इसके कारण उन मूल निवासियों के साथ भी विरोध पैदा हो जाता है जिनसे नए बसने वाले लोगों ने चार ज़मीनें खरीदी थीं. चूँकि स्व-उपभोग पैटर्न के अनुसार खेती करने पर शायद ही कोई लाभ और समृद्धि प्राप्त हो,फिर भी ये असमिया भाषा बोलने वाले मूल निवासी भारत के महानगरों में अधिकाधिक प्रवास करने लगे हैं. चार के लोग इनका अनुसरण करने लगे हैं या फिर असमिया भाषी मूल निवासी चार के लोगों का अनुसरण करने लगे हैं और प्रवासन के इस नैटवर्क से खेती में निवेश के लिए घर में कुछ नकदी आने लगी है. नकदी फसल के मौजूदा उत्पादन पैटर्न से इस प्रकार के निवेश की रकम का उपयोग मुख्यभूमि की तुलना में चार इलाकों में कहीं अधिक होने लगा है.

भारत में कोविड-19 की तालाबंदी के दौरान हाल ही में लौटे प्रवासियों के पलायन के बाद, "भूमि जिहाद" की चिंता तेजी से लोकप्रिय विमर्श में अपना स्थान बनाने लगी है. 2021 के असम विधान सभा के चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने स्थानीय आबादी के लिए अनुमानित उद्यमशीलता के लक्ष्य के रूप में “आत्मनिर्भरता” के मुद्दे पर ही वोट हासिल किये थे. धौलपुर में जिन जमीनों से लोगों को बेदखल किया गया था, उन्हें बाज़ार में नकदी फसलों की खेती के लिए उसी क्षेत्र में सरकार द्वारा संचालित कृषि परियोजना को दे दिया गया. जलवायु के नए खतरों के साथ असम की बदलती ग्रामीण राजनीतिक अर्थव्यवस्था, नये प्रकार के जातीय संघर्षों और रक्तपात की नींव रख रही है.

अंकुर तमुली फुकन कोलकता स्थित महानिर्बाण कोलकता रिसर्च ग्रुप में प्रोग्राम एवं रिसर्च एसोसिएट हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India

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