हम वैश्विक व्यवस्था के परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं.मौजूदा व्यवस्था, पिछली दो शताब्दियों की पश्चिम-केंद्रित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था है. पश्चिम और शेष दुनिया के बीच विशाल शक्ति विषमताओं के साथ-साथ शेष विश्व के पश्चिम की ओर उन्मुखीकरण को देखते हुए एक कोर-परिधीय दुनिया बन गई है. हालाँकि, एशिया का समकालीन उदय एक नई विश्व व्यवस्था का संकेत दे रहा है. यद्यपि उभरती विश्व व्यवस्था का स्वरूप विद्वानों और नीतिगत हलकों में एक बहुचर्चित मुद्दा है, तथापि चीन का उदय इस परिवर्तन में अग्रणी है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई विद्वान् और नीति निर्माता यह समझने के लिए चीन और एशिया के अतीत की ओर मुड़े हैं कि क्या इनसे हमें विश्व को व्यवस्थित करने की अन्य संभावित संरचनाओं के बारे में कुछ पता लग सकता है.
दिलचस्प और निराशाजनक बात यह है कि विद्वानों और नीतिगत हलकों में प्रचलित दृष्टिकोण भी चीन और एशिया के अतीत के मामले में कोर-पेरिफेरी विन्यास की ओर संकेत करता है. यह दृष्टिकोण पिछली दो शताब्दियों की पश्चिम-केंद्रित कोर-परिधीय व्यवस्था के विपरीत चीन-केंद्रित व्यवस्था को स्थापित करता है. अक्सर "ट्रिब्यूट सिस्टम" कहे जाने वाले इस चीन-केंद्रित विश्व में वस्तुतः चीन को ट्रिब्यूट देने वाले अधीनस्थों से घिरे विश्व व्यवस्था के केंद्र में रखा गया है. यह ट्रिब्यूट सिस्टम भविष्य की चीन-केंद्रित विश्व व्यवस्था का भी टैम्पलेट माना जाता है. जिम मैटिस के अनुसार, जब वह 2018 में अमेरिकी रक्षा सचिव थे, तो समकालीन चीन, मिंग राजवंश (1368-1644) को अपने "मॉडल के रूप में देख रहा था, हालाँकि अधिक सशक्त तरीके से, यह माँग करते हुए कि अन्य राष्ट्र बीजिंग के सामने झुकने वाले ट्रिब्यूट स्टेट बन जाएँ.
जबकि हाल के विद्वानों ने सही ढंग से इस बात पर ज़ोर दिया है कि यह चीन-केंद्रित परिप्रेक्ष्य, सर्वोत्तम रूप से, विश्व व्यवस्था के "तथ्यात्मक विवरण" के विपरीत, चीन-केंद्रित अभिजात वर्ग का वैश्विक दृष्टिकोण था, इसे गलत तरीके से - और व्यापक रूप से - वास्तविक के रूप में व्याख्यायित किया गया है. वास्तव में, यह भी माना जाता है कि यह चीन-केंद्रित व्यवस्था हाल की शताब्दियों में पश्चिम के उदय से पहले दो सहस्राब्दियों तक चलती रही थी. आंशिक रूप से, यह ग़लत व्याख्या समकालीन विश्व क्षेत्रों जैसे कि पूर्वी एशिया - जिसके केंद्र में चीन है - को सदियों पहले पूर्ण विकसित और आत्मनिर्भर "क्षेत्रीय विश्व" के रूप में मानने से उपजी है, जो एक दूसरे से शानदार अलगाव में रहते थे. यह "बंद" क्षेत्रीय विश्व विन्यास, चीनकेंद्रित विद्वत्ता के मूल में है. अकादमिक जगत् में इस चीन-केंद्रित विश्व व्यवस्था से जुड़े इतिहासकार स्वर्गीय जॉन फेयरबैंक के अनुसार, “भूगोल” ने पूर्वी एशिया को “पश्चिम और दक्षिण एशिया से अलग रखा और इसे सभी महान् संस्कृति क्षेत्रों में सबसे विशिष्ट बना दिया.”
हालाँकि, पूर्वी एशिया जैसे समकालीन विश्व क्षेत्र अतीत में कभी भी व्यापक एशियाई दुनिया से पूरी तरह से अलग नहीं थे. ये क्षेत्र “खुले” और एक-दूसरे से ओवरलैप्ड थे, क्योंकि ऐतिहासिक एशिया स्थलीय और समुद्री नेटवर्क के माध्यम से गहराई से जुड़ा हुआ था. हालाँकि इन अंतःसंबंधों की प्रकृति निश्चित रूप से सदियों से बदलती रही है, लेकिन इनसे स्पष्ट होता है कि दो सहस्राब्दी लंबी चीन-केंद्रित प्रणाली इतिहास में वास्तविकता के “तथ्यात्मक विवरण” के रूप में मौजूद नहीं थी. उदाहरण के लिए, यदि मध्य एशिया को मिंग काल (~1400 ई.) के आरंभिक काल में पूर्वी एशिया के साथ एक परस्पर संबद्ध ढाँचे में देखा जाए, तो यह स्पष्ट है कि साम्राज्यवादी चीन ने मध्य एशिया के तिमुरिड्स के साथ “राजनीतिक समानता” की माँग की, जबकि “विश्व वर्चस्व [केवल] चीन में” होने का दावा किया. इसी प्रकार, 15वीं शताब्दी में मिंग दक्षिण-पूर्वशिया की समुद्री दुनिया के केंद्र में नहीं था, जहाँ मलक्का जैसी बंदरगाह-राजनीति राजनीतिक और व्यावसायिक रूप से हिंद महासागर और फारसी-इस्लामी संस्कृति की ओर उन्मुख थी, जबकि वे चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों को महत्व देते थे.
दूसरे शब्दों में, विश्लेषणात्मक आदेश द्वारा पूर्वी एशिया को "बंद" और अलग-थलग करने के बजाय, एशियाई इतिहास का परस्पर संबद्ध परिप्रेक्ष्य, चीन को विश्व व्यवस्था के केंद्र से अलग कर देता है, भले ही चीन-केंद्रित अभिजात वर्ग की बयानबाजी कुछ भी हो. उल्लेखनीय रूप से, प्रथम सहस्राब्दी में चीन और भारत के बीच बौद्ध संबंधों ने एक विकेंद्रित एशियाई व्यवस्था को बढ़ावा दिया, तथा इसका चीन-केंद्रित वैश्विक दृष्टिकोण पर भी गहरा प्रभाव पड़ा. सुई-तांग काल (589-907 ई.) के दौरान, चीन को बौद्ध भारत के संबंध में "सीमावर्ती जटिलता" का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह भारत की पवित्र बौद्ध भूमि की परिधि पर था. गौर करने वाली बात यह है कि उस समय चीन के लोग चीन के लिए झोंगगुओ या “मध्य साम्राज्य” शब्द का इस्तेमाल नहीं करते थे. इसके बजाय, उस शब्द का इस्तेमाल भारत के लिए किया जाता था. चीन के वैश्विक दृष्टिकोण में यह अव्यवस्था तीव्र और गहन थी, क्योंकि उस काल का भारत एक एकीकृत साम्राज्य न होकर अनेक राज्यों में बँटा हुआ था. फिर भी, झोंगगुओ शब्द के (चीनी) केंद्रवाद से जुड़ाव को देखते हुए, यह भी तर्क दिया गया है कि सुई-तांग के दौरान चीन जानता था कि वह “दुनिया का केंद्र नहीं” था. अमिताव आचार्य के अनुसार, तथाकथित रेशम मार्ग (या यूरेशिया में लंबी दूरी के वाणिज्यिक अंतःसंबंध) और बौद्ध धर्म ने सामान्य युग की प्रारंभिक शताब्दियों से ही "चीन को अनेक केंद्रों वाले विश्व का विचार दिया" और इस प्रकार दो सहस्राब्दियों से चली आ रही चीन-केंद्रित विश्व व्यवस्था के पारंपरिक और प्रमुख विमर्श को पूरी तरह से उलट दिया.
इस प्रकार, एशिया का अतीत हमें अनेक केंद्रों वाली एक विकेंद्रित दुनिया की ओर संकेत करते हुए विश्व व्यवस्था का एक बिल्कुल अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. इन केन्द्रों के बीच राजनीतिक, सैन्य, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक - जैसे असंख्य अंतःसंबंध थे, तथा इनका भू-राजनीतिक विन्यास और कर्ताओं की पहचान पर गहरा प्रभाव पड़ा. इससे भी अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि इन अंतःसंबंधों को विकसित करने में एशिया की छोटी शक्तियों की महत्वपूर्ण और रचनात्मक भूमिका रही है. चीन और भारत के बीच समुद्री मार्गों पर, दक्षिण-पूर्व एशियाई जहाज मालिकों और व्यापारियों ने ही इन संपर्कों का बीड़ा उठाया था, और वे सदियों से दक्षिण-पूर्व एशिया में निर्मित जहाजों के माध्यम से एशिया को आपस में जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे, जो दक्षिण-पूर्व एशियाई तकनीकों का उपयोग करके चलते थे. दूसरे शब्दों में, दक्षिण-पूर्वेशिया किसी भी चीनी या भारतीय केंद्र की परिधि नहीं था, तथा दक्षिण-पूर्वेशियाई एजेंसी एशियाई विश्व व्यवस्था का अभिन्न अंग थी. यद्यपि एशिया के अतीत में शक्ति विषमताएँ अवश्य विद्यमान थीं, तथापि एशियाई विश्व व्यवस्था का निर्माण और रखरखाव इसके विभिन्न घटकों द्वारा सामूहिक रूप से किया गया था.
अनेक केन्द्रों का यह परस्पर संबद्ध एशियाई अतीत, जिसने सामूहिक रूप से दीर्घकालिक विश्व व्यवस्था का निर्माण किया, जो केन्द्र-विकेंद्रित (कोर-परिधि नहीं) थी और जिसमें किसी भी एक शक्ति ने वैश्विक (या एशिया-व्यापी) आधिपत्य का प्रयोग नहीं किया, हमारे भविष्य के लिए विश्व व्यवस्था का एक वैकल्पिक और यकीनन अधिक आकर्षक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. ऐसे विश्व को साकार करने की कुंजी, जहाँ बड़ी और छोटी शक्तियाँ सामूहिक रूप से अपनी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का निर्माण करें, गहन बहुलवाद को अपनाने में है. हालाँकि ऐसी बहुलतावादी और "मल्टीप्लेक्स" दुनियाओं में भौतिक शक्ति संबंधी विषमताएँ जारी रह सकती हैं, लेकिन वे एक ऐसी व्यवस्था की ओर इशारा करती हैं जहाँ सांस्कृतिक और वाणिज्यिक गतिशीलता के बीच सह-अस्तित्व और स्थिरता संभव है, भले ही अभिनेताओं की विचारधाराएँ कुछ भी हों, चाहे वे कन्फ्यूशियस, बौद्ध, फारसी-इस्लामी या कुछ और हों.
मनजीत एस. परदेसी (manjeet.pardesi@vuw.ac.nz) विक्टोरिया युनिवर्सिटी ऑफ वेलिंगटन में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. यह टिप्पणी लेखक के हाल ही के लेख: “Interconnected Asian History and ‘Open’ World Orders,” Oxford Research Encyclopedias, Politics, April 17, 2024 से ली गई है.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.