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भारत में मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर पुनर्विचार

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19/12/2022
हिलाल अहमद

जब तक मुस्लिम प्रतिनिधित्व के दो लोकप्रिय, लेकिन विवादग्रस्त अर्थों पर विचार नहीं किया जाता, तब तक समकालीन भारत में मुस्लिम राजनीति पर बहस पूरी तरह से निरर्थक ही रहने वाली है. सामान्य अर्थ में, मुस्लिम प्रतिनिधित्व को एक मानक आदर्श के रूप में विकसित किया गया है. यह तर्क दिया जाता है कि विधायी निकायों में मुस्लिम सांसदों और विधायकों की पर्याप्त उपस्थिति से ही लोकतंत्र की राजनीति, सुचारू और प्रभावी ढंग से सुनिश्चित होती है. यह तर्क संसद और राज्यों की विधानसभाओं में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व और/या कम प्रतिनिधित्व का मूल्यांकन करने के लिए एक राजनीतिक मानदंड के रूप में भारतीय संविधान के समतावादी मूल्यों पर बहुत अधिक निर्भर करता है.

यह मानक व्याख्या मुसलमानों की राजनीतिक उपस्थिति को निर्धारित करने के लिए एक बेहद सरलीकृत पद्धति का उपयोग करती है. यह मान लिया गया है कि मुसलमानों के निर्वाचित प्रतिनिधियों और आम मुसलमानों के बीच सीधा और पारस्परिक संबंध है. इसप्रकार, अगर भारत की कुल मुस्लिम आबादी को निर्वाचित मुस्लिम सांसदों और विधायकों की संख्या से विभाजित कर दिया जाए तो मुस्लिम प्रतिनिधित्व का सही स्तर पता किया जा सकता है. मुस्लिम प्रतिनिधित्व की इस यांत्रिक व्याख्या का उपयोग सामाजिक रूप में हाशिये पर रहने वाले मुसलमानों के पिछड़ेपन को स्पष्ट करने के लिए भी किया जाता है. राजनीतिक व्याख्याकारों का एक वर्ग यह मानता है कि मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन एक प्रमुख कारण मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व भी है. सच्चर आयोग की रिपोर्ट (2006) के निष्कर्षों पर प्रकाश डालते हुए, यह जोर देकर कहा गया है कि मुस्लिम राजनीतिक प्रतिनिधित्व नैतिक रूप से आवश्यक और लोकतांत्रिक रूप से वांछनीय है.

समकालीन हिंदुत्व की राजनीति से हमारे सामने मुस्लिम प्रतिनिधित्व का एक और अर्थ खुल जाता है. भाजपा नेता अक्सर तर्क देते हैं कि भारतीय संविधान सकारात्मक कार्रवाई के लिए धर्म को एक मानदंड के रूप में मान्यता नहीं देता है, इसलिए प्रतिनिधित्व की बात की जाती है. इसलिए, मुस्लिम राजनीतिक प्रतिनिधित्व का विचार कानूनी तौर पर टिक नहीं सकता और यही कारण है कि यह राजनीतिक रूप से विभाजनकारी है. इस तर्क के अनुसार, सबका साथ सबका विकास का लोकप्रिय नारा मुसलमानों की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है.  

ये दोनों व्याख्याएँ हमारे सार्वजनिक जीवन पर हावी रहती हैं. यहाँ तक कि मुस्लिम राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर होने वाली शैक्षणिक चर्चाओं पर भी ऐसी सार्वजनिक बहस का गहरा असर रहता है. इस विषय पर अनेक लेख, निबंध और किताबें लिखी गई हैं और ऐसे लोकप्रिय दावों की जटिलताओं, जिनके आधार पर साम्राज्यवाद के उत्तर काल में मुसलमानों की राजनीतिक पहचान विकसित हुई थी, पर ध्यान दिये बिना ही उन्हें उद्धृत कर दिया जाता है. वस्तुतः ऐसी चर्चाओं में प्रतिस्पर्धी चुनावी राजनीति और चुनावी प्रतिनिधित्व की बदलती हुई गतिशीलता के स्वरूप की पूरी तरह से अनदेखी कर दी जाती है.

यह उल्लेखनीय है कि मुसलमान एक बंद- सजातीय धार्मिक समुदाय के तौर पर राजनीति में भाग नहीं लेते. CSDS -लोकनीति के सर्वेक्षण के अनुसार शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य-सेवा जैसे मुद्दे ही विभिन्न संदर्भों में मतदान में उनकी पसंद का निर्धारण करते हैं. निश्चय ही समुदाय पर आधारित प्रतिनिधित्व के महत्व को राजनीतिक नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में मान्यता दी जाती है; फिर भी राजनीतिक जीवन से जुड़े मुस्लिम नेताओं के ही चुनाव को हमेशा प्राथमिकता नहीं दी जाती.    

मुस्लिम नेताओं के प्रति मुस्लिम उदासीनता बनाम राजनीति में मुस्लिम उपस्थिति को लेकर मुसलमानों की चिंता- जैसे जटिल नतीजे हमें मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर होने वाली लोकप्रिय रूढ़िवादी बहस से परे ले जाते हैं. ठीक यही कारण है कि हमें मुस्लिम प्रतिनिधित्व से संबंधित तीन महत्वपूर्ण पक्षों के संबंध में अध्ययन करने की आवश्यकता है: मुसलमानों की पहचान का राजनीतिक स्वरूप और उसके विभिन्न रूप, संस्थागत ढाँचे का तर्क और मुस्लिम नेतृत्व का स्वरूप.

मुस्लिम राजनीतिक पहचान और प्रतिनिधित्व
मुस्लिम राजनीतिक पहचान का जटिल इतिहास रहा है. औपनिवेशिक भारत में मुस्लिम लीग की स्थापना और उसकी बेहद सांप्रदायिक राजनीति -अलग मतदाता संघ, उन्हें प्राथमिकता देने वाली प्रणाली और अंततः भारत-पाक के बँटवारे से संबंधित दो-देशों के सिद्धांत पर आधारित पाकिस्तान के निर्माण की माँग- आज़ादी के बाद मुसलमानों के राजनीतिक अनुभवों से संबंधित मज़बूत और विवादग्रस्त ऐतिहासिक संदर्भ प्रदान करती है. इस प्रकार का न्यूनतावाद (reductionism) भी बहुत बड़ी समस्या पैदा कर देता है. हमें यह याद रखना होगा कि साम्राज्यवादी मुस्लिम राजनीति अलग प्रकार के प्रतिनिधित्व के तर्क पर आधारित थी. कुलीन वर्ग और प्रभावशाली मुसलमानों को मतदान का अधिकार था. दावा किया जाता है कि ये मुस्लिम नेता ही मुसलमानों के राजनीतिक संरक्षक थे. 1951 के बाद का परिदृश्य बिल्कुल ही अलग था. भारत का संविधान प्रतिनिधित्व के आनुपातिक / सांप्रदायिक स्वरूप पर आधारित नहीं था.

उसी समय, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की शुरूआत हुई थी और पहली प्राथमिकता वाली मतदान प्रणाली (first-past-the-post system of voting) के कारण राजनीतिक प्रतिनिधित्व का एक नया ढंग सामने आया था. निर्वाचित सांसदों और विधायकों को भौगोलिक रूप में निर्धारित राजनीतिक चुनाव क्षेत्र में रहने वाले मतदाता-समुदायों का ही प्रतिनिधित्व करना होता था. उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे प्रतिबद्ध मैसेंजरों की तरह ऐसे धर्मनिरपेक्ष समुदाय की आकांक्षाओं और माँग का प्रतिनिधित्व करेंगे. इसका मतलब यह नहीं था कि संविधान सामूहिक अधिकारों के प्रति उदासीन था; संविधान में सामूहिक अधिकारों को इस तरह से मान्यता दी गई थी कि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के साथ समझौता न किया जा सके. इसके फलस्वरूप समूहों के आधार पर सामूहिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कुछ प्रशासनिक वर्गों का गठन किया गया. जैसे, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अल्पसंख्यक. इस ढाँचे में परंपरागत मुस्लिम राजनीति के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी. देश के चुनाव-आधारित राजनीतिक जीवन से जुड़ने के लिए मुस्लिम नेताओं को प्रतिनिधित्व का नया अर्थ विकसित करना पड़ा. ऐसे अप्रत्याशित रूप में बदलते संदर्भ में, राजनीतिक हितधारक के रूप में मुस्लिम समुदाय को फिर से परिभाषित किया गया.

यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समकालीन मुस्लिम राजनीतिक पहचान को चिह्नित करने के लिए बहुत उपयोगी है. दूसरी ओर, कुछ ऐसे सांस्कृतिक रूप में विविधता रखने वाले इस्लामिक समुदाय भी थे, जो अपने-आपको मुस्लिम के रूप में परिभाषित करते थे. ये मुस्लिम समुदाय जाति, वर्ग, क्षेत्र और धार्मिक आधार पर बँटे हुए हैं. स्पष्टतः ऐसे समजातीय मुस्लिम समुदाय अनेक प्रकार से चुनावी प्रणाली में भाग लेकर वास्तविक मुस्लिम भावना को विकसित कर लेते हैं. चुनाव क्षेत्र के स्तर पर चुनावों में मुसलमानों की भागीदारी इस मुद्दे को दर्शाने के लिए शायद सबसे अच्छा उदाहरण है.

इसका मतलब यह नहीं है कि बेहद विविधता से भरे मुस्लिम समुदाय पूरी तरह से बँटे हुए हैं और न ही यह मतलब है कि वे अपने-आपको सामूहिक रूप में “भारतीय मुसलमान” ही मानते हैं. सामूहिक मुस्लिम पहचान दो संबद्ध तरीकों से बनती है. राजनीतिक वर्ग धार्मिक अल्पसंख्यक के तौर पर अपने संवैधानिक दर्जे को कानूनी स्वरूप प्रदान करने के लिए समजातीय समूह के रूप में या तो अपने-आपको मुस्लिम कहता है या फिर उन्हें देश-विरोधी अलगाववादियों के रूप में खारिज कर दिया जाता है. ऐसी एकता मुस्लिम समुदायों की अपनी धारणा को भी बेहद प्रभावित करती है. वे अपने-आपको अखिल भारतीय समुदाय का सदस्य मानने लगते हैं. इस प्रक्रिया से मुस्लिम भावना का एक विमर्श पैदा होता है, जो मुसलमानों के अधिकारों, विशेषाधिकारों, कर्तव्यों, कार्यों और सामूहिक तकलीफ़ों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है.

वास्तविक मुस्लिम-भावना (विविधता के संदर्भ में) और मुस्लिम-भावना का विमर्श वस्तुतः (समजातीय स्वरूप के संदर्भ में) राजनीतिक प्रतिनिधित्व को महत्वपूर्ण तरीके से निर्धारित करते हैं. उदाहरण के लिए, असदुद्दीन ओवैसी ने मीडिया के वर्चस्व वाले विमर्श में एक मुस्लिम नेता के रूप में अपनी जगह बना ली है. मुसलमान बहुत बड़ी तादाद में देश-भर में आयोजित उनकी रैलियों और सार्वजनिक बैठकों में भाग लेते हैं, लेकिन भारी जनसमर्थन के बावजूद ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) चुनावी लाभ के लिए अभी तक मुसलमानों के बीच भारी जोश पैदा नहीं कर सकी है. मुसलमान ऑल इंडिया इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) को चुनाव क्षेत्र के स्तर पर खारिज कर देते हैं, क्योंकि इसकी धार्मिक अपील हमेशा संबंधित चुनाव क्षेत्र के स्तर पर उसके जटिल सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने के अनुरूप नहीं होती. दूसरे शब्दों में, ओवैसी सभी मुसलमानों का प्रतिनिधि तभी बन पाता है, जब वह मुस्लिम-भावना के विमर्श को ऑपरेट करता है. लेकिन वह हैदराबाद के बाहर के चुनाव क्षेत्रों में (या उस मामले में जहाँ उनकी पार्टी का मतदाताओं के साथ कोई जैविक रिश्ता नहीं होता) एक गौण कारक ही बना रहता है. इसका मतलब है कि वास्तविक मुस्लिम-भावना प्रतिनिधित्व के एक ऐसे तर्क को जन्म देती है, जो अलग तरह के प्रतिनिधित्व का एक संदर्भ विशिष्ट तर्क होता है. 

प्रतिनिधित्व और संस्थागत ढाँचा
मुस्लिम प्रतिनिधित्व की राजनीति उन संस्थागत ढाँचों से जटिल रूप में जुड़ी होती है जो प्रतिस्पर्धी चुनावी राजनीति के संचालन के पहलुओं को नियंत्रित करती है. लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित सीधे चुनाव ने वास्तव में राजनीतिक पार्टियों को मतदाताओं के विजयी स्वरूप का गठन करने के लिए प्रोत्साहित किया है. मोदी-पूर्व गुजरात में KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) मॉडल और बाबरी मस्जिद के बाद के परिदृश्य में उ.प्र. और बिहार में MY (मुस्लिम-यादव) मॉडल मतदाता समुदायों के ऐसे राजनीतिक गठबंधनों के अच्छे उदाहरण हैं. पिछले आठ वर्षों में प्रमुख खिलाड़ी के रूप में भाजपा के उभरने के कारण ये कॉन्फ़िगरेशन जबर्दस्त ढंग से टूटने लगे हैं. भाजपा मतदाताओं का एक ऐसा कॉन्फ़िगरेशन बनाना चाहती है, जिसमें मुसलमानों की कोई जगह नहीं होगी. विजयी होने वाले कॉन्फ़िगरेशन से मुसलमानों को अलग रखना ही समकालीन चुनावी राजनीति के सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक पहलू है.

यह उल्लेखनीय है कि राज्यसभा और राज्य की विधान परिषदों के सदस्यों का सीधे चुनाव नहीं होता है. ये विधायी निकाय राजनीतिक दलों को अपनी पसंद का मुस्लिम नेता संसद और विधान परिषदों में लाने का एक अवसर प्रदान करते हैं. इस प्रकार के परोक्ष चुनाव का उपयोग राजनीतिक वर्ग द्वारा व्यापक समावेश की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए किया जाता है. 2015 के मेरे "राज्यसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व: स्वरूप और वक्ररेखा (Trajectories) " विषयक अध्ययन में दर्शाया गया है कि लोकसभा के विपरीत राज्यसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व हमेशा ही अच्छा (9-10 प्रतिशत) रहा है. यह एक महत्वपूर्ण नतीजा है जिससे पता चलता है कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व, यहाँ तक कि सांसदों और विधायकों की संख्या के मामले में भी, विधायी निकायों के वास्तविक संस्थागत ढाँचे पर निर्भर करता है.

प्रतिनिधित्व और नेतृत्व
किसी भी रूप में मुस्लिम प्रतिनिधित्व नेतृत्व के लिए ही होता है. 2017-19 के CSDS लोकनीति -APU के तीन राउंड के सर्वेक्षण पर आधारित “चुनावों के बीच राजनीति और समाज” के अध्ययन में 48,000 से अधिक राष्ट्रीय स्तर के प्रतिनिधि नमूनों के साथ 24 राज्यों को शामिल किया गया है.

एक खास सवाल बेहद महत्वपूर्ण है: मान लो कि एक ही राजनीतिक पार्टी के दो नेता हैं और वे दोनों ही आपका काम करवाने में समान रूप में सक्षम हैं. यदि इनमें से एक नेता आपके धर्म का है और दूसरा किसी और धर्म का. आप किस नेता से पहले संपर्क करना चाहेंगे?

सारणी 1 : मुस्लिम और मुस्लिम नेता

(स्रोतः CSDS-APU अध्ययन). % में आँकड़े. 2016-2019 के तीनों राउंड पर आधारित सम्मिलित आँकड़े * इसमें अन्य धर्म भी शामिल हैं.

सारणी 1 में इस सवाल पर मिश्रित प्रतिक्रिया दर्शाई गई है. ऐसा लगता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि धार्मिक समूह अपने संबंधित समुदायों के नेताओं पर भरोसा करते हों. मुस्लिम धारणाओं से भी इसी सामान्य पैटर्न की ही पुष्टि होती है. 46 प्रतिशत मुस्लिम उत्तरदाताओं ने दावा किया है कि ज़रूरत पड़ने पर मुस्लिम नेता से ही संपर्क करना पसंद करेंगे. लेकिन लगभग इतने ही मुस्लिम (41 प्रतिशत) उनकी इस राय से इत्तेफ़ाक नहीं रखते. उनके लिए नेता का धर्म कोई खास मायने नहीं रखता.

इन नतीज़ों से दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. यह ज़ाहिर है कि मुस्लिम समुदाय विभिन्न संदर्भों से संबंधित रोज़मर्रा के प्रशासनिक मामलों से निबटने के लिए निर्वाचित मुस्लिम नेताओं को महत्व देते हैं. दूसरी बात यह है कि मुस्लिम नेता हमेशा उनके प्रतिनिधि नहीं माने जाते. इसके बजाय वे ऐसे पेशेवर राजनेता होते हैं, जो अपने निहित हितों की अधिकाधिक पूर्ति के लिए राजनीति में भाग लेते हैं.

इन प्रवृत्तियों के गहन विश्लेषण से पता चलता है कि मुस्लिम नेतृत्व अपने-आप में विविधता से भरपूर फ़िनोमनॉन है. स्पष्ट रूप में तीन प्रकार के नेता हैं, जो विभिन्न संदर्भों में बेहद विशिष्ट कार्यों को अंजाम देते हैं: पेशेवर मुस्लिम राजनेता,मुस्लिम कुलीन लोग और प्रभावशाली मुस्लिम. पेशेवर मुस्लिम राजनेता पार्टियों और उस खास मुस्लिम समुदाय, जिसका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं, के बीच महत्वपूर्ण लिंक के रूप में काम करते हैं. दूसरी ओर, मुस्लिम कुलीन वर्ग के लोग व्यवस्थापक के रूप में या तो सत्ता के अंदरूनी ढाँचे को अपने पक्ष में बनाये रखने का काम करते हैं या फिर उसे विधिसंगत बनाने के लिए उसे चुनौती देते हैं. प्रभावशाली वर्ग के लोग मीडिया-संचालित विमर्श में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास करते हैं. ये तीनों प्रकार के नेता विभिन्न राजनीतिक संदर्भों में अपनी खास भूमिका को अंजाम देते हैं और मुस्लिम प्रतिनिधित्व को रोज़मर्रा के दिनों में ठोस अर्थ प्रदान करते हैं. उनकी यह भूमिका लोकप्रिय धारणाओं और मीडिया की बहस से बिल्कुल अलग तरह की होती है.

हिलाल अहमद नई दिल्ली, भारत में स्थित विकासशील समाज के अध्ययन केंद्र (CSDS) में ऐसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365