आज से चार साल पहले नरेंद्र मोदी के चुनाव के कारण भारत की अर्थव्यवस्था के अनेक प्रेक्षकों में जबर्दस्त आशा का संचार हुआ था. अंततः लोगों को लगा था कि एक ऐसा शख़्स जिसने गुजरात में आर्थिक चमत्कार करके दिखाये थे, भारत की बागडोर सँभालने के बाद उसी अनुशासन से घरेलू और विदेशी निवेश में चार चाँद लगा देगा और बाज़ार की पूरी क्षमता का उपयोग करते हुए भारत में आर्थिक कायाकल्प ले आएगा, लेकिन चार साल के बाद मोदी सरकार के सुधार-कार्यक्रम ठप्प-से पड़ गए हैं. विमुद्रीकरण और व्यापक नये बिक्री-कर से संबंधित उनकी बहुत स्पष्ट सुधार-नीतियाँ भी कोई ठोस परिवर्तन लाने के बजाय मात्र प्रतीकात्मक बनकर रह गई हैं. इतना ही नहीं, इनके कारण वृद्धि-दर में कमी भी आ सकती है.
मोदी द्वारा भारी प्रतिष्ठा अर्जित करने और कठोर परिश्रमी लोक-सेवक होने के बावजूद और संसद और विधानसभाओं में भारी बहुमत के बावजूद इस बात को सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं है कि भारत सरकार उनके नेतृत्व में अर्थव्यवस्था के संचालन में प्रभावी भूमिका निभाने में सफल सिद्ध हो रही है. द इकॉनॉमिस्ट के अनुसार मोदी “सुधारवादी नेता कम और प्रखर राष्ट्रवादी नेता अधिक” बन गए हैं. राज्यों की विधान सभाओं और 2019 के आगामी चुनावी अभियान में भाजपा आर्थिक क्रांति का वायदा करने के बजाय जातीय राष्ट्रीय अपील पर अधिक ज़ोर देने लगी है.
लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था में सुधारों के द्वारा क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में मोदी की अक्षमता को उनकी व्यक्तिगत विफलता नहीं माना जा सकता. नब्बे के दशक में उदारीकरण के लिए जो भी उपाय अपनाये गए थे, उसी ढंग से मोदी सरकार भी अर्थव्यवस्था में अधिक व्यापक संरचनात्मक परिवर्तन लाने का प्रयास करती रही है. मोदी की विफलता का यही कारण है. इन परिवर्तनों के स्वरूप को समझने के लिए और साथ ही यह जानने के लिए कि समकालीन भारत में संस्थागत सुधारों के ज़रिये आर्थिक परिवर्तन लाना एक असंभव-सा काम ही है, हमें भारत की अर्थव्यवस्था के उस दौर की आर्थिक शासन-व्यवस्था का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए जब नेहरू युग में राज्य अर्थव्यवस्था पर अधिक हावी हुआ करता था.
सन् 1947 में स्वाधीनता के समय भारत एक गरीब देश था और हमारा समाज मुख्यतः कृषिप्रधान समाज था. राष्ट्रीय नेता यह मानकर चलते थे कि हमारी नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए जिनसे औद्योगिक विकास को गति मिले, हम पूँजी और श्रम-शक्ति के बल पर ऐसी आर्थिक गतिविधियों का संचालन करें जिनसे उत्पादकता की दर अधिक तेज़ी से बढ़े, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठे और हम स्वाधीनता के लक्ष्य को हासिल कर सकें. जहाँ एक ओर इन नीतियों की परिणति अनेक तरीकों से “लाइसेंस-परमिट कोटा राज” के रूप में हुई, वहीं भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था को नियमित करके बाज़ार की ताकतों को नियंत्रित भी किया. गुपचुप तरीके से सरकारी दखल का असर दिखाई देने लगा और भारत के उद्योग में वृद्धि होने लगी. व्यापार और विदेशी मुद्रा नीति के कारण हाल ही में शुरू हुए उद्योगों को संरक्षण मिलने लगा और भारतीय कंपनियाँ पूँजीगत मशीनरी और कच्चे माल को आयात करने लगीं ताकि उन तमाम चीज़ों को स्वदेश में ही बनाया जा सके, जिन्हें अब तक आयात किया जाता रहा है. सरकारी संस्थान औद्योगिक संबंधों का प्रबंधन करने लगे और कांग्रेस पार्टी नियोजकों और संगठित श्रमिकों के हितों के लिए उनके बीच मध्यस्थता करने लगी. कदाचित् सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि सरकार द्वारा प्रवर्तित विकास वित्त संस्थाएँ सरकारी और निजी दोनों ही क्षेत्रों के औद्योगिक उद्यमों को दीर्घकालीन पूँजी उपलब्ध कराने के लिए मार्गदर्शन देती थीं ताकि दीर्घकालीन उत्पादक गतिविधियों में निवेश किया जा सके. कारों की टाटा इंजीनियरिंग और लोकोमोटिव कंपनी (जिसे आज टाटा मोटर्स कहते हैं) से लेकर सिपला जैसी फ़र्मास्युटिकल कंपनियों को भारत सरकार से महत्वपूर्ण वित्तीय और संस्थागत सपोर्ट मिलने लगी. इस सपोर्ट के ठोस परिणाम सामने आने लगे; इस तथ्य को कम ही स्वीकार किया जाता है कि पचास के दशक के मध्य से लेकर साठ के दशक के मध्य तक केंद्रीय नियंत्रण के अंतर्गत विकास के अच्छे दिनों में वार्षिक औद्योगिक वृद्धि की औसत दर 6.9 प्रतिशत रही थी.
भारत में राज्य द्वारा प्रवर्तित विकास के युग में भी समस्याएँ कम नहीं रहीं. अतुल कोहली और विवेक छिब्बर की रिपोर्ट के अनुसार अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए भारत सरकार द्वारा किये गये प्रयास पूर्वेशिया के देशों की तरह सफल नहीं रहे. और सत्तर और अस्सी के दशक में बहुत-सी केंद्रीय नियंत्रण वाली संस्थाओं में ऊर्जा की बढ़ती कीमतों, श्रमिक आंदोलनों और उद्योगों को बढ़ावा मिलने के कारण किसानों की नाराज़गी से उपजे दलों को राजनैतिक प्रभुत्व मिलने के कारण गिरावट आने लगी. उन दशकों में भी भारत की राजनीति अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाली बहुदलीय प्रणाली में बँट गई थी, जिसके कारण उन संसाधनों की माँग भी उठने लगी थी, जिन्हें पहले औद्योगीकरण के लिए आरक्षित किया जा सकता था.
दो दशकों तक स्क्लेरोटिक प्रणाली में धीमी गति से और रुक-रुक कर सुधार लाने के बाद सन् 1991 में उदारवाद लागू किया गया, जिसके कारण अर्थव्यवस्था को नई दिशा मिली और यही कारण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के अधिकांश समीक्षकों ने इसका स्वागत किया. ये सुधारवादी नीतियाँ आर्थिक विकास के अनुकूल ही थीं, जिसके कारण कई समीक्षक यह मानने लगे थे कि अनिश्चय की स्थिति के कारण ही पिछली अर्थव्यवस्था, जो सरकारी नियमों के बंधनों से जकड़ी हुई थी, नई अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गई, लेकिन समीक्षक कदाचित् यह भूल जाते हैं कि आज राज्य के पास इतने साधन नहीं हैं कि वे औद्योगिक विकास को प्रभावी ढंग से सपोर्ट देने के लिए आवश्यक संसाधन और राजनैतिक निर्देशन प्रदान कर सकें. अब हमारे सामने ऐसी अत्यंत सक्षम अर्थव्यवस्था है, जो स्थानीय स्तर पर अनेक सफलताएँ भी हासिल कर चुकी है, लेकिन औद्योगिक नीति में समग्र तौर पर समन्वय का अभाव है.
इस कमी को दुरुस्त करने के लिए ही अंशतः मोदी को चुना गया था, लेकिन संस्थागत सुधार की इसी कठिनाई के कारण यही परिवर्तनकारी परिणाम सामने आया है कि पिछले दशकों की तुलना में सरकार के पास दाम की कमी तो है ही, दंड की भी बेहद कमी है, जिनकी मदद से दीर्घकालीन उत्पादन के लिए अर्थव्यवस्था को तैयार किया जा सकता है.
सर्वाधिक स्थायी रिटर्न पाने पर ध्यान केंद्रित रखने वाले भारतीय वित्तीय निगम उपादेय वस्तुओं, उपभोक्ताओं को उधार देने या रीयल एस्टेट पर ही पूँजी लगाते हैं. भारत के बड़े औद्योगिक घरानों का कारोबार अब विनिर्माण की मूलभूत गतिविधि से आगे बढ़कर किराने के सामान, बैंकिंग और प्रौद्योगिकी की सेवाओं तक फैल गया है. विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) अब भारत को विनिर्माण और नवाचार के बेस के रूप में देखने के बजाय मध्यम वर्गीय उपभोक्ता वस्तुओं के बढ़ते बाज़ार और खनिज संपदा के स्रोत के रूप में देखने लगा है.
अधिक व्यापक तौर पर सरकार और कारोबार के बीच का संबंध रैंट सीकिंग से बँधा होता है, जिसके अंतर्गत खास राजनीतिज्ञ अक्सर या तो चंदे के रूप में या कोई अन्य उपहार लेकर किसी खास कारोबार के लिए लाइसेंस दिलाने या नियम आदि में छूट दिलवाकर मदद करते हैं. सच तो यही है कि जब विशिष्ट सरकारें और उसके सदस्य विशिष्ट कारोबारों की मदद कर सकते हैं तो समग्र तौर पर उद्योग की मदद करने की गुंजाइश सरकार के पास कहाँ बचती है. कोहली इसकी परिभाषा में संशोधन करते हुए इसे कुछ विस्तार देकर अपने तरीके से भारत सरकार को “बाज़ार-समर्थक” कहने के बजाय “कारोबार-समर्थक” कहते हैं : भारत सरकार या कुछ राजनीतिज्ञ व्यक्तिगत स्तर पर विशेष रूप से अधिक रॉयल्टी कमाने वाले कुछ कारोबारों को सपोर्ट प्रदान करते हैं, लेकिन ऊँचे मूल्य-वर्धित विनिर्माण जैसे अन्य कारोबारों की कोई मदद नहीं करते.
कई उदारवादी और रूढ़िवादी समीक्षकों की तरह हम भी “सुधार” के मंत्रों पर बहुत ध्यान देकर भारी गलती करते हैं: सही नियमों को अच्छी तरह से अपनाकर हम स्वाभाविक रूप में ही भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता का पूरा दोहन कर सकते हैं, लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या है, भ्रष्टाचार और अकुशलता. इसके बजाय औद्योगिक विकास की चुनौतियाँ हैं, संसाधनों के वितरण के मुद्दे, हम उन्हें कैसे निर्देशित करें और किसको लाभ होगा, जैसे सवाल. दूसरे शब्दों में राजनीति से जुड़े सवाल औद्योगिक विकास की बहुत बड़ी चुनौतियाँ हैं. ये राजनैतिक सवाल एकदम से ही विकास की राजनीति के केंद्र में हैं और “संस्थाओं को सही सिद्ध करने में ” हम अक्सर इनकी अनदेखी कर देते हैं.
सार्वजनिक कार्रवाई के लिए आवाहन के रूप में इसकी व्याख्या की जानी चाहिए. भारत सरकार को चाहिए कि वह अपनी पुरानी क्षमता को फिर से प्राप्त करे या उसे नया स्वरूप प्रदान करे ताकि सभी संबद्ध संस्थाओं को समन्वित किया जा सके और अर्थव्यवस्था को ऐसे कार्यकलापों की ओर निर्देशित किया जा सके जहाँ दीर्घकालीन उत्पादकता के लिए बहुत गुंजाइश हो. इसके लिए सार्वजनिक लक्ष्य और निवेश के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिए, समावेशी और गतिशील भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए नई दृष्टि होनी चाहिए और यह दृष्टि सभी भाषाओं, वर्गों, जातियों और काम-धंधों में संलग्न भारतीयों के लिए समान होनी चाहिए.
अदनान नसीमुल्लाह युद्ध अध्ययन विभाग में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और लंदन स्थित किंग्स कॉलेज के भारत संस्थान में लैक्चरर हैं और Development After Statism: Industrial Firms and the Political Economy of South Asia (Cambridge University Press, 2017) के लेखक हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919