2021 के वसंत के आरंभ में जब उत्तरी विश्व के कई देश कोविड-19 से उबर रहे थे, उस समय भारत कोविड-19 का घातक प्रहार झेल रहा था. लगभग 20 मिलियन नये मामले सामने आ गए थे और 250,000 लोगों की मौत हो गई थी. अधिकांश भारतीयों के लिए महामारी की भयावहता अप्रत्याशित थी. दिसंबर, 2020 में B.1.617.2 या डेल्टा के बेहद संक्रामक वेरिएंट के संबंध में विशेषज्ञों द्वारा जताई गई चिंता के बावजूद देश भर के नागरिक, सरकारी अधिकारी और राजनेता उदासीन बने रहे और जन-स्वास्थ्य उपायों की अवहेलना करते रहे. मई, 2021 तक देश में प्रतिदिन 400,000 मामले सामने आने लगे. छह दिन के अंदर दिन-भर के आधे आँकड़े वैश्विक आँकड़ों के बराबर हो गए. उसके बाद मामलों में जो तेज़ी आई, उससे अधिकांश भारतीय भयभीत हो गए.
स्वास्थ्य संबंधी देखभाल प्रणाली लगभग ठप्प हो गई. इसके कारण चिकित्साकर्मियों की कमी हो गई और अस्पतालों में बिस्तरों और उपकरणों की कमी रहने लगी. दवाओं की कालाबाज़ारी होने लगी और उनके लाभ की भी कोई गारंटी नहीं रही. श्लेष्मा रोग फैलने लगा. इस समय भारत में हर रोज़ होने वाली मौत का आँकड़ा लगभग 441,000 से ऊपर पहुँच गया है. यह आँकड़ा भी अनुमानित आँकड़े से लगभग दस गुना कम माना जाता है. खास तौर पर अंदरूनी ग्रामीण इलाकों में नाटकीय तौर पर बहुत कम मामले प्रकाश में आए. यही कारण है कि भारत में कोविड-19 का वास्तविक संकट सामने नहीं आया. दिसंबर, 2020 में B.1.617.2 या डेल्टा के बेहद संक्रामक वेरिएंट के संबंध में विशेषज्ञों द्वारा जताई गई चिंता के बावजूद देश भर के नागरिक, सरकारी अधिकारी और राजनेता उदासीन बने रहे और जन-स्वास्थ्य उपायों की अवहेलना करते रहे.
परीक्षण करने और पता लगाने में चल रही असमानताएँ
जहाँ एक ओर देश दूसरी लहर से दृढ़ता से उबर रहा है, वहीं विशेषज्ञ अगली लहर के संकेत देखकर निरंतर चिंतित हैं. हाल ही के सीरो सर्वेक्षण से पता चला है कि बिना टीके वाले 62 प्रतिशत से अधिक लोगों में SARS-CoV-2 के विरुद्ध ऐंटीबॉडीज़ हैं. वैज्ञानिकों ने सरकार को सचेत किया है कि पहले से ही यह न मान ले कि खतरा टल गया है और देश “हर्ड इम्युनिटी” हासिल कर चुका है. इस तरह की धारणा के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं क्योंकि अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि संक्रमण से प्रतिरक्षा कितने समय तक टिकी रहती है. वायरस का फैलाव मुख्यतः असमान ही रहा है. यह माना जा सकता है कि अगली लहर का केंद्र देश के वे भाग होंगे, जहाँ टीकाकरण, परीक्षण और निगरानी के प्रयासों की गति धीमी रही है.
दूसरी लहर के आने के बाद से भारत में परीक्षण की गति दुगुनी से भी अधिक रही है. अब प्रति हज़ार पर दैनिक परीक्षण का प्रतिशत 1.4 है. परंतु वाणिज्यिक रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (RT-PCR) परीक्षण की सुविधा केवल कुछ चुनी हुई प्रयोगशालाओं तक ही सीमित है और देश के ग्रामीण इलाकों की 60 प्रतिशत आबादी इस तरह के परीक्षणों से वंचित है. परीक्षणों में मौजूदा वृद्धि मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में निर्देशित रैपिड-ऐंटीजन परीक्षणों (RATs) और प्रवासन की निगरानी के लिए पूल किये गए परीक्षणों के कारण है. RT-PCR और RATs के लिए स्थानीय स्तर पर नमूने एकत्र करने के लिए व्यापक स्तर पर सस्ते पूल परीक्षण की सुविधाओं, लार-परीक्षण और गरारा परीक्षण के विकल्पों के साथ मोबाइल प्रयोगशालाएँ स्थापित करने पर ज़ोर देते हुए संसाधनों की कमी वाले क्षेत्रों में मौजूदा प्रयासों में तेज़ी लाई जा सकती है. इस समय देश के कुल नये संक्रमणों में से आधे से अधिक संक्रमण केरल में हैं. राज्य के परीक्षणों में पॉज़िटिविटी की दर में क्रमिक वृद्धि चिंताजनक है, फिर भी नीतिबद्ध रूप में लक्ष्य बनाकर परीक्षण करने से राज्य को लाभ हुआ है. इस प्रक्रिया में प्रतिबंधात्मक और उपचारपरक सेवाओं पर ज़ोर देते हुए बहु-स्तरीय स्वास्थ्य संबंधी देखभाल प्रणाली पर ध्यान दिया गया है. इससे हर दो संक्रमणों में से एक संक्रमण का पता लगाया जा सकता है, जबकि देश के अन्य भागों में तीस में से एक का ही पता लगाया जा सकता है. इस प्रकार यह शेष राज्यों के लिए मॉडल बन सकता है. परंतु केरल में लगातार रहने वाली उच्च पॉज़िटिविटी दर से नये वेरिएंट के आने का स्पष्ट आभास होता है.
नये, अधिक संक्रामक या इम्यून-इवेसिव वेरिएंट पर नज़र रखने के लिए आवश्यक है कि नियमित रूप में जेनोमिक निगरानी की जाए. भारत में दिसंबर से अब तक मुश्किल से एक प्रतिशत से भी कम पॉज़िटिव नमूनों का विश्लेषण किया गया है, जबकि कम से कम 5 प्रतिशत अनुशंसित सीमा पर विश्लेषण किया जाना चाहिए. सीमित जेनोमिक निगरानी से गुमशुदा अलग-अलग तरह के स्ट्रेन्स के जोखिम का अंदेशा हो सकता है. ये मैट्रिक्स वैक्सीन को नियोजित करने, उसकी गतिविधियों को निर्धारित करने और वायरल पैथोजेनेसिस को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं. इन प्रयासों में संलग्न केंद्रीय निकाय, INSACOG ने सरकारी प्रयोगशालाओं में नमूनों की उचित छँटाई करने, क्षेत्रीय प्रयोगशाला अनुक्रमण क्षमता में सुधार लाने और इस कार्य को करने के लिए शिपिंग के उपायों जैसी बुनियादी बातों पर ज़ोर दिया है.
टीकाकरण में वृद्धि लेकिन सप्लाई में आई अड़चनों और झिझक के कारण भारत के सामने अभी भी जोखिम है.
यह ठीक है कि दूसरी लहर की शुरुआत से ही भारत के टीकाकरण के अभियान में तेज़ी आ गई थी. 28 अगस्त को सात दिन के रोलिंग टीकाकरण के औसत में लगभग 7 मिलियन दैनिक डोज़ की वृद्धि हुई थी, जबकि 1 मई को यह औसत 2 मिलियन डोज़ था. उस समय 18 से अधिक आयु के सभी लोग टीकाकरण के पात्र थे. 600 मिलियन लोगों को कोविड-19 की कम से कम एक डोज़ मिल चुकी है. शीर्ष न्यायालय के निर्देशानुसार टीकों के घरेलू निर्माण में आई तेज़ी और आबंटन एवं लॉजिस्टिक्स के केंद्रीकरण के कारण सप्लाई चेन और वितरण के मामले कुछ हद तक सुलझ गए हैं.
हाल ही में भारत ने किशोरों के लिए विश्व की पहली डीएनए वैक्सीन की अनुमति देकर वैक्सीन के अपने जखीरे को बढ़ा लिया है. देश में कुल मिलाकर छह प्रकार की अलग-अलग वैक्सीन का अनुमोदन दे दिया गया है. पात्रता के मौजूदा मानदंड में गर्भवती महिलाओं को भी पात्रता के दायरे में लाया गया है. निश्चय ही ये कदम स्वागत योग्य हैं, लेकिन भारत की बहुत बड़ी आबादी को कवर करने के लिए टीकाकरण की रफ़्तार को और तेज़ करना होगा. विशेषज्ञों के अनुसार, एक और विनाशकारी लहर से बचने के लिए और सामुदायिक प्रतिरक्षा (हर्ड इम्यूनिटी) के प्रस्तावित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कम से कम 10 मिलियन लोगों का हर रोज़ टीकाकरण करना होगा, जैसा कि 27 अगस्त, 2021 को शुक्रवार के दिन किया गया था.
भारत के सफल टीकाकरण कार्यक्रम का प्रभाव निम्न और मध्यम आयवर्ग वाले देशों पर भी पड़ा है. वैश्विक वैक्सीन के निर्माण का हब होने के कारण और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के कोवैक्स कार्यक्रम का मुख्य सप्लायर होने के कारण भारत में व्यापक टीकाकरण कवरेज से वैक्सीन की वैश्विक सप्लाई भी सुगम हो जाएगी.
सप्लाई की अड़चनों के अलावा, वैक्सीन के प्रति झिझक के कारण भी देश के कुछ इलाकों में कोविड-19 के टीकाकरण अभियान में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न होने लगी है. जहाँ एक ओर वैक्सीन के प्रति झिझक का कोई सरकारी आँकड़ा उपलब्ध नहीं है, वहीं चिकित्सा प्रदाताओं के बीच किये गए हाल ही के अध्ययन से कुछ ऐसे कारण उजागर हुए हैं जिनसे सुरक्षा और कुशलता के प्रति विश्वास की कमी का पता चलता है. टीकाकरण अभियान शुरू करने से पहले किये गए परीक्षणों की जल्दबाजी और सरकारी एजेंसियों के प्रति अविश्वास भी इनमें से कुछ कारण हैं. निश्चय ही खास तौर पर सबसे अधिक गरीब आबादी में वैक्सीन के प्रति विश्वास की भावना को बढ़ाने के लिए अगली पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मियों के व्यापक नैटवर्क पर, अन्य विशाल टीकाकरण कार्यक्रमों के मौजूदा विशेषज्ञों पर और ज़मीनी स्तर के अनेक संगठनों पर भारत को भरोसा करना होगा.
आर्थिक बर्बादी के कारण बढ़ता भूख का संकट
इलाज के भारी खर्च और बार-बार के लॉक डाउन के कारण बढ़ती बेरोज़गारी, घटती बचत, खाने-पीने की बढ़ती असुरक्षा और गहरी होती मौजूदा सामाजिक-आर्थिक खाई से जूझते परिवारों पर बोझ बढ़ता जा रहा है. 2020 में कोविड-19 के कारण आई मंदी ने भारत में और 75 मिलियन से अधिक लोगों को गरीबी की ओर ढकेल दिया है और इसप्रकार वैश्विक गरीबी की दर में लगभग 60 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है. दूसरी लहर के कारण बेरोज़गारी में और वृद्धि हो गई है और इसी कारण 7 मिलियन से अधिक नौकरियाँ चली गई हैं. ग्रामीण आबादी पर महामारी के कारण भारी आर्थिक प्रभाव पड़ा है. खास तौर पर इसका असर उन महिलाओं पर पड़ा है, जो अनौपचारिक और ग्रामीण सैक्टर में काम करती रही हैं. संयुक्त राष्ट्र की महिलाओं से संबंधित रिपोर्ट के अनुसार चूँकि लैंगिक आधार पर अलग-अलग आँकड़े उपलब्ध नहीं है, इसलिए प्रतीत होता है कि महामारी के कारण महिलाएँ बहुत बड़ी तादाद में गरीबी के कुएँ में धकेल दी जाएँगी और उन्हें दुबारा रोज़गार मिलने की संभावना भी बहुत कम होगी. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम इस समस्या के समाधान के लिए लिंग-सापेक्ष उपाय और समाधान खोजने का प्रयास करें.
भारत के विस्तारित और अनियोजित लॉक डाउन के कारण श्रमिकों की चुनौतियाँ पैदा हुईं और कृषि क्षेत्र के अंदर ही सप्लाई चेन बिखर गई. इसके परिणामस्वरूप काम-धंधों और आमदनी की हानि हुई और मौजूदा पोषण संकट और भी गहरा गया. महामारी से पहले, कम से कम 16 राज्यों में पाँच साल से कम उम्र के कम वजन वाले और गंभीर रूप से कमज़ोर बच्चों की संख्या में वृद्धि देखी गई थी. कोविड-19 और लॉक डाउन दोनों के कारण ही वयस्क आबादी के लिए पारिवारिक भोजन-सामग्री की असुरक्षा और बढ़ गई. अचानक ही सरकारी स्कूलों और आँगनवाड़ी केंद्रों के बंद हो जाने के कारण दोपहर के भोजन और पौष्टिक खाद्य-सामग्री की व्यवस्था चौपट हो गई. इसी व्यवस्था पर देश-भर के लाखों लोगों का जीवन आधारित था.
केंद्र सरकार ने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के अंतर्गत रोज़गार के अवसर प्रदान करके, बैंक अंतरण और निःशुल्क खाद्यान्न की मात्रा बढ़ाकर आर्थिक और खाद्य संकट को कम करने के लिए कुछ हद तक प्रयास भी किया है. लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के डिजिटलीकरण के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता के साथ-साथ रोज़गार के अवसरों की कमी,मज़दूरों की अधिकता और नौकरशाही की अड़चनों के कारण योजनाओं की पहुँच सीमित हो गई है, जिसके कारण सबसे अधिक वंचित वर्ग पर बहुत बुरा असर पड़ने लगा है. वंचित वर्ग के लोग ऐसे तमाम कार्यक्रमों से काफ़ी लाभान्वित हो सकते हैं,जिनसे अधिक मात्रा में खाने-पीने की सामग्री के स्टॉक का कुशलता से उपयोग किया जा सकता हो और जिनसे इस वर्ग के लोगों को खाद्य सुरक्षा की गारंटी भी मिल जाए. सरकार केवल दस्तावेज़ों और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों पर पूरी तरह निर्भर न रहकर मनरेगा को सशक्त बनाकर, राष्ट्रीय शहरी रोज़गार कार्यक्रमों को लागू करके और लचीले सामाजिक नैट को कार्यान्वित करके सुरक्षा आजीविका की बहाली को प्राथमिकता दे सकती है.
कोविड-19 के आगे की चुनौतियाँ
जहाँ एक ओर हम कोविड-19 की एक और लहर की संभावना या भयावहता की भविष्यवाणी नहीं कर सकते, वहीं हमें अन्य फैली हुई बीमारियों से भी सावधान रहना चाहिए, जिनके कारण एक अनुमान के अनुसार विशेष रूप से अनेक वंचित लोगों की जानें चली गई हैं. महामारी के प्रबंधन प्रोटोकॉल में कोविड-19 के समान लक्षणों वाले अन्य संक्रमणों को शामिल नहीं किया गया था. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में डेंगु, मलेरिया, चिकनगुनिया और इनफ़्लुएज़ा के मामले भी बढ़ते देखे गए हैं. बारिश के मौसम में बाढ़ का प्रकोप होने पर मच्छरों से होने वाली बीमारियों और दस्त की बीमारी बढ़ने का भी खतरा होता है. लगभग इन सभी बीमारियों में बुखार, बदन दर्द, सिरदर्द, दस्त और खाँसी जैसे लक्षण मौजूद हो सकते हैं. चूँकि इन बीमारियों के उपचार के तौर-तरीके भी एक जैसे हैं, इसलिए पूरे देश में तीव्र ज्वर संबंधी रोगों के निदान के लिए एकीकृत दृष्टिकोण ही अपनाना चाहिए.
नए रोगियों में फेफड़े या पेट के तपेदिक (टीबी) के लक्षणों को देखकर आसानी से कोविड-19 का भ्रम हो सकता है. इसके अलावा, महामारी के दौरान, लॉकडाउन, सप्लाई चेन से संबंधित मामलों और कर्मचारियों और नैदानिक संसाधनों के स्थानांतरण के कारण तपेदिक (टीबी) के निदान पर विपरीत प्रभाव पड़ा है. इसके परिणामस्वरूप भारत जिधर टीबी का प्रकोप सबसे अधिक है, 2025 तक टीबी को नियंत्रित करने का अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाएगा.
अंत में, यह मिथक भी तोड़ा जाना चाहिए कि हृदय रोग और मधुमेह जैसे गैर-संचारी रोग शहरी और मोटे लोगों के ही रोग हैं. असल में ये रोग कोविड-19 के लिए काफ़ी गंभीर माने जाते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में दुबले-पतले व्यक्तियों में हृदय रोगों और मधुमेह के उच्च प्रसार को कम करके आँका गया है. सरकार को सिकल सैल एनीमिया और क्रॉनिक किडनी रोग जैसे गंभीर कोविड-19 के जोखिम कारकों की निगरानी और नियंत्रण के प्रयासों में तेज़ी लानी चाहिए. मास्क लगाने, हाथ धोने, हवादार कमरों में रहने, प्रासंगिक और जनसांख्यिकीय रूप से संवेदनशील संचार व्यवस्था, लक्षित और प्रासंगिक परीक्षण और टीकाकरण पर निरंतर ज़ोर देकर ही इस विनाशकारी महामारी से बचा जा सकता है.
लक्ष्मी गोपालकृष्णन् कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में MPH-Ph.D की प्रत्याशी हैं.
शिप्रा ग्रोवर न्यूयॉर्क स्थित वैल कॉर्नेल मैडिसिन में रिसर्च ऐसोसिएट हैं.
अनुजा जानी ऑन्टेरियो स्थित वैस्टर्न ऑन्टेरियो विश्वविद्यालय, लंदन में MPH की प्रत्याशी हैं.
वसुंधरा रंगस्वामी भारत में प्राथमिक देखभाल चिकित्सक, ग्रामीण हैल्थ फ़ैलो और सूक्ष्मजीव विज्ञानी (माइक्रोबायोलॉजिस्ट) हैं.
INDIA COVID SOS वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, नीति-निर्माताओं और समुदाय आयोजकों का एक अंतर्राष्ट्रीय अलाभकारी स्वयंसेवी दल है. ये सभी लेखक INDIA COVID SOS के ग्रामीण प्रतिक्रिया दल के सदस्य हैं. इस दल ने कम साधनों वाले इलाकों में बसे कोविड-19 के कम आघात वाले रोगियों की घर पर ही देखभाल करने के लिए सूचनाओं के सचित्र इंफ़ोग्राफ़िक को एकत्र कर लिया है. यह इंफ़ोग्राफ़िक दस से अधिक भाषाओं में उपलब्ध है.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919