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भारत में वुहान की शिखर-वार्ता के बाद के विकल्प

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10/09/2018
रूपकज्योति बोरा
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भारत और चीन के बीच हुई वुहान शिखर-वार्ता को भारत-प्रशांत क्षेत्र के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. यह बात बेहद महत्वपूर्ण है कि नई दिल्ली और बीजिंग अपने मतभेदों को सुलझाने में सक्षम हैं, क्योंकि दोनों देशों को अपना ध्यान आर्थिक विकास पर केंद्रित रखने की आवश्यकता है. नई दिल्ली के लिए यह उचित ही होगा यदि वह सीमा पर चौकसी में किसी भी प्रकार की ढिलाई न करते हुए बीजिंग के साथ अभिसरण (कर्वजेंस) के क्षेत्र में सहयोग करे.जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चीनी समकक्ष राष्ट्रपति शी जिनपिंग से 27-28 अप्रैल, 2018 को चीनी शहर वुहान में अनौपचारिक शिखर वार्ता के लिए बिना किसी निर्धारित कार्यसूची के मिले तो दोनों देशों के साथ-साथ दुनिया-भर के प्रेक्षक भी भौंचक्के रह गए. शिखर सम्मेलन के रन-अप में दोनों पड़ोसी अनेक द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मोर्चों पर कई प्रकार की झड़पों में उलझ गए थे.

चीनी-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के मामले में जम्मू-कश्मीर के सीमांत राज्य की प्रभुसत्ता के उल्लंघन से जुड़ी चिंता के कारण नई दिल्ली ने चीन के नेतृत्व में की गई वन बैल्ट वन रोड (OBOR) पहल में भाग नहीं लिया. $46 बिलियन डॉलर के चीनी-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) का उद्देश्य पश्चिमी चीन के झिंजियांग प्रांत के काशगर को पाकिस्तान के अरब सागर तट पर स्थित ग्वादर से जोड़ना है. भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा जारी किये गये रिलीज़ में वन बैल्ट वन रोड (OBOR) के बारे में कहा गया है कि “हमारा यह पक्का विश्वास है कि कनेक्टिविटी की यह पहल सार्वभौमिक रूप में मान्यता प्राप्त मानदंडों, सुशासन, विधिसम्मत शासन, खुलेपन, पारदर्शिता और समानता पर आधारित होनी चाहिए और इसका अनुसरण प्रभुसत्ता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान के साथ किया जाना चाहिए.”

वन बैल्ट वन रोड (OBOR) कई रूपों में प्राचीन चीनी सिल्क रोड का ही नया रूपांतरण है, जो चीन से योरोप तक जाता था और जिसकी शाखाएँ भारत सहित विभिन्न देशों में फैली हुई थीं. "समुद्री सिल्क रोड" के अलावा, "वन बेल्ट वन रोड" का अन्य तत्व "सिल्क रोड आर्थिक बेल्ट" है, जिसके माध्यम से चीन मध्य एशियाई देशों के माध्यम से योरोप में ज़मीनी कनेक्टिविटी बनाने की कोशिश कर रहा है. बीजिंग द्वारा वन बैल्ट वन रोड (OBOR) को आगे बढ़ाने के पीछे के मुख्य कारणों में से एक कारण है, ऊर्जा के लिए उसकी भारी भूख. यही कारण है कि वह दुनिया के विभिन्न भागों से ऊर्जा के संसाधनों को प्राप्त करने में जुटा रहता है. बीजिंग धीरे-धीरे और स्थिरता के साथ हिंद महासागर में और उसके पार अपनी उपस्थिति को सुदृढ़ करने की कोशिश में जुटा हुआ है.

चीन ने भूटान के डोकलाम क्षेत्र (जिस पर चीन अपना दावा करता रहा है) में सड़क बनाना शुरू किया था तो भारत ने उस पर आपत्ति की थी. सौभाग्यवश, दोनों पक्षों ने सितंबर 2017 की शुरुआत में ज़ियामेन शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए चीन की यात्रा से ठीक पहले अपने सैनिकों को वापस लौटा लिया. हालाँकि डोकलाम संकट का अब समाधान हो गया है, फिर भी बीजिंग भारत की रक्षा-तैयारियों की टोह लेने और उसके संकल्प की परीक्षा लेने से बाज नहीं आता. यही कारण है कि चीनी-भारतीय सीमा पर चीनी सैनिकों की भारी उपस्थिति को या फिर उन्हें गश्त लगाते हुए देखा जा सकता है. डोकलाम की घटना के बाद चीनी सैनिकों द्वारा सीमा के उल्लंघन की कुछ वारदातें भी हुईं. इसके अलावा, चीन ने भूटान को लुभाने की भी आक्रामक कोशिशें कीं. चीन के उप विदेश मंत्री कांग जुआन्यौ ने इस वर्ष की शुरुआत में भूटान का दौरा किया और उनके साथ भारत में चीनी राजदूत भी थे.

एक बार फिर (अतीत की तरह) ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका ने चतुर्भुज पहल (जिसे क्वैड भी कहा जाता है) को पुनर्जीवित किया है, जिसे 2007 में बीजिंग में विरोध प्रदर्शन के कारण रद्द कर दिया गया था. अमरीका के एकमात्र अपवाद को छोड़कर भारत हमेशा ही हिंद महासागर के क्षेत्र में आवासी ताकत रहा है. इसकी नौसेना के पास हार्मोज़ के जलडमरूमध्य और मलक्का के जलडमरूमध्य के बीच के क्षेत्र में कमांडिंग उपस्थिति रही है, जबकि अंडमान व निकोबार द्वीप श्रृंखला मलक्का के जलडमरूमध्य के प्रवेश द्वार पर स्थित है. अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह में भारत द्वारा त्रि-सेवा कमान की स्थापना इस क्षेत्र में उसे एक बेजोड़ हैसियत प्रदान करती है.

परंतु, जैसा कि चीन द्वारा जिबूती में बेस स्थापित करने पर देखा गया था, ऐसा लगता है कि भारत हिंद महासागर को पूरी तरह से छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं है. बीजिंग भी खाड़ी क्षेत्र में और अफ्रीका में अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है. खाड़ी का क्षेत्र विशाल पैमाने पर प्रवासी भारतीयों का बसेरा है और नई दिल्ली का इस क्षेत्र में हमेशा ही काफ़ी दबदबा रहा है. लेकिन भारत अनजाने में ही अमरीका और ईरान के बीच पिस रहा है, जबकि चीन ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अमरीका के कहने से ईरान के तेल आयात पर रोक लगाने के लिए तैयार नहीं है. नई दिल्ली बीजिंग की तथाकथित “मोतियों की माला अर्थात् स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स” की रणनीति को लेकर भी बहुत चिंतित है, जिसके अंतर्गत उसने पाकिस्तान के ग्वादर में, श्रीलंका के हम्बंतोटा में, बांग्लादेश के चटगांव में और म्यांमार के क्यौकप्यू में बंदरगाहों के निर्माण में मदद की है.
जहाँ तक चीन के साथ भारत के द्विपक्षीय व्यापार का संबंध है, भारत बहुत बड़े व्यापार- घाटे से गुज़र रहा है और इस घाटे में किसी तरह की कमी आने का भी संकेत नहीं मिल रहा है. 2017 में जहाँ एक ओर भारत और चीन के बीच कुल व्यापार $84.44 बिलियन डॉलर की ऐतिहासिक ऊँचाई तक पहुँच गया था, वहीं व्यापारिक घाटा भी बढ़कर $51.75 बिलियन डॉलर (चीन के पक्ष में) हो गया था.

भारत के विकल्प भी आगे बढ़ रहे हैं

भारत के मंत्रालय द्वारा वुहान की शिखर-वार्ता के संबंध में जारी किये गये एक बयान में कहा गया था कि दोनों नेताओं ने “अपनी सेनाओं को सीमाओं के प्रबंधन के मामले में विश्वास और आपसी समझ बढ़ाने के साथ-साथ पूर्वानुमान और प्रभावशीलता को बढ़ावा देने के लिए संचार व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए अपनी सेनाओं को रणनीतिक निर्देश दिये हैं.”
वुहान की शिखर वार्ता के बाद बीजिंग ने भी भारत से आने वाली कैंसर की दवाओं के साथ-साथ 28 दवाओं पर शुल्क में कटौती की घोषणा कर दी. हालाँकि भारत की भेषजीय कंपनियों की प्रतिक्रिया उदासीन रही, क्योंकि चीनी बाज़ार में प्रवेश करने के लिए लंबे समय तक भारतीय कंपनियों को लंबे फ़ील्ड परीक्षण और अनुमोदन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है.

हालाँकि यह उम्मीद करना जल्दबाज़ी होगी कि वुहान शिखर सम्मेलन के बाद भारत-चीन के संबंध नाटकीय रूप से सुधर जाएँगे. अभी भी ऐसे बहुत-से मुद्दे हैं, जिनमें दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ आँखें मिलाने के लिए भी तैयार नहीं हैं. इसी वर्ष जून के अंत में सिंगापुर में आयोजित शांगरी-ला वार्ता के दौरान अपने मुख्य भाषण में मोदी ने इस क्षेत्र में बीजिंग की बढ़ती भूमिका का परोक्ष ढंग से उल्लेख करते हुए कहा था कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत समुद्र और वायु की खुली जगहों के प्रयोग पर हम सबकी पहुँच समान रूप में होनी चाहिए और हमें नेविगेशन, बिना किसी रोक-टोक के व्यापार करने और अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत विवादों के शांतिपूर्ण निपटारे की आज़ादी होनी चाहिए.”

इसके अतिरिक्त पाकिस्तान के साथ चीन की “बारहमासी दोस्ती” भारत के लिए चिंता का सबब है. उस हालत में यह चिंता खास तौर पर और भी बढ़ जाती है जब बीजिंग पर यह आरोप भी है कि वह पाकिस्तान को कथित तौर पर परमाणु और मिसाइल की तकनीकी जानकारी मुहैय्या करा रहा है. परमाणु सप्लायर्स ग्रुप (NSG) की सदस्यता के लिए भारत के प्रवेश में भी बीजिंग बार-बार रोड़े अटकाता रहा है और ऐसा लगता है कि वह अपने इस प्रयास में ज़रा भी ढील देने को तैयार नहीं है.

ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में, चीन और भारत के संबंधों में प्रतिस्पर्धा और सहयोग का मिला-जुला स्वरूप होगा. परंतु उसी शांगरी-ला वार्ता के दौरान मोदी ने अपने मुख्य भाषण में कहा था कि "प्रतिस्पर्धा (एशिया में) एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.”

इसलिए अच्छा तो यही होगा कि नई दिल्ली राजनीति को अर्थव्यवस्था से अलग रखे. जहाँ एक ओर भारत को आर्थिक मंच पर चीन के साथ अपने व्यापार-घाटे को कम करना होगा, वहीं ढाँचागत क्षेत्र में चीनी निवेश का स्वागत भी करना होगा, क्योंकि इससे भारत को सचमुच लाभ होगा. फिर भी नज़दीकी पड़ोस में चीन की बढ़ती उपस्थिति को देखते हुए सुसंगत नीति बनाने की ज़रूरत है. जब चीन के साथ संबंधों में तनाव बढ़ जाए तो ब्रिक्स और एआईबीबी (जहाँ दोनों सदस्य हैं) जैसे बहुपक्षीय मंचों का उपयोग लीवरेज के रूप में किया जाना चाहिए. अगली बार जब चीनी सैनिक सीमा का उल्लंघन करें तो नई दिल्ली को एक मानक ऑपरेटिंग प्रक्रिया (SOP) अपनानी चाहिए. इसीलिए कहा जाता है कि हमेशा सतर्क बने रहना ही शांति बनाये रखने का मूल्य है.

डॉ. रूपज्योति बोरा सिंगापुर के राष्ट्रीय विवि में दक्षिण एशिया संस्थान से संबद्ध हैं.वह भारत में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर रहे हैं और कैंम्ब्रिज विवि (यूके) में,अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जापान संस्थान में और ऑस्ट्रेलिया राष्ट्रीय विवि (कैनबरा) में विज़िटिंग फ़ैलो रहे हैं. ये विचार उनके अपने हैं. ईमेलः E-mail: rupakj@gmail.com; ट्विटरः‘Twitter @rupakj

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919