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भारत में चुनाव-पूर्व गठबंधन की राजनीति

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01/08/2016
ऐडम ज़िएगफ़ैल्ड

2015 के उत्तरार्ध में भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य बिहार में एक विचित्र बात हुई. राज्य के विधान सभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को किसी अन्य पार्टी के मुकाबले कहीं अधिक वोट मिले. इसके बावजूद भाजपा विधान सभा में तीसरी सबसे पार्टी के रूप में ही उभरकर सामने आई. भारत जैसे देश में, जहाँ प्रथम-पास्ट-द-पोस्ट चुनाव प्रणाली का लाभ आम तौर पर सबसे बड़ी पार्टी को ही मिलता है, तो फिर यह कैसे संभव हुआ कि सबसे अधिक वोट पाने वाली पार्टी चुनाव हार गई ?

इसका उत्तर चुनाव-पूर्व गठबंधन में निहित है, जब दो या अधिक राजनैतिक पार्टियाँ एक दूसरे के खिलाफ़ अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करतीं. गठबंधन की पार्टियाँ अपनी सीटों को इस तरह से विभाजित कर लेती हैं कि प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में गठबंधन का केवल एक उम्मीदवार ही खड़ा होता है. उस उम्मीदवार के पीछे गठबंधन की विभिन्न पार्टियाँ मिलकर मज़बूती से खड़ी रहती हैं, ताकि प्रत्येक सीट पर गठबंधन के उम्मीदवार की ही जीत हो.

चुनाव-पूर्व गठबंधन को अच्छी तरह से समझ लेने के बाद ही यह स्पष्ट हो पाता है कि 2015 के बिहार चुनाव में भाजपा को शिकस्त कैसे मिली. तीन प्रमुख विरोधी पार्टियों अर्थात् जनता दल (युनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मिलकर महा-गठबंधन बनाया और यह सुनिश्चित किया कि अधिकतर संघर्ष दो पार्टियों अर्थात् भाजपा (या गठबंधन के किसी छोटे भागीदार)  और महा-गठबंधन के उम्मीदवारों के बीच ही हो. महा-गठबंधन की पार्टियों ने मिलकर भाजपा को चुनावी दंगल में बुरी तरह से पछाड़ दिया. यही कारण है कि भाजपा के अधिकांश उम्मीदवार चुनाव हार गए. 2014 में सिर्फ़ अठारह महीने पहले ही भाजपा ने उसी वोट शेयर से जीत हासिल की थी, लेकिन उस चुनाव में जेडी(यू) और आरजेडी के बीच कोई गठबंधन नहीं था. गैर-भाजपा के विभाजित वोटों के बल पर ही भाजपा की अधिकांश सीटों पर जीत हुई थी. इस प्रकार, समान वोट शेयर के आधार पर भाजपा को एक चुनाव में जीत हासिल हुई और दूसरे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा.

भारत में 2015 में बिहार जैसा उदाहरण कोई अजूबा नहीं है. चुनाव-पूर्व गठबंधन होना आम बात है और उसके कारण अक्सर हार या जीत दोनों ही होती रहती है. 2004 से लेकर 2015 के पूर्वार्ध तक भारत के बड़े राज्यों में हुए चुनावों में 1 प्रतिशत के मार्जिन से अधिक वोट से जीतने वाली अधिकांश पार्टियों में से आधी पार्टियों के बीच चुनाव-पूर्व गठबंधन ही हुआ था. जैसा कि बिहार के उदाहरण से पता चलता है कि पार्टियाँ, भले ही गठबंधन करें या न करें, पहला वोट पड़ने पर ही जीत भी सकती हैं और हार भी सकती हैं.

अगर बिहार में महा-गठबंधन जैसे गठबंधन चुनाव में जीत की गारंटी हैं तो सभी पार्टियाँ ऐसे महा-गठबंधन करके चुनाव में क्यों नहीं उतरतीं? निश्चय ही जिन राज्यों में केवल दो ही प्रमुख पार्टियाँ हों, वहाँ ऐसे महा-गठबंधन की गुंजाइश बहुत कम होती है. अन्य राज्यों में इस प्रश्न पर विचार करते समय राजनीतिज्ञों के सामने दुविधा खड़ी हो जाती है. चुनाव पूर्व गठबंधन, पार्टी के नेताओं को अल्पकालिक लाभों की अदला-बदली के लिए मजबूर कर देता है और फिर लंबे समय तक उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है. 

महा-गठबंधन का यह लाभ तो होता ही है कि जल्द ही उनके सामने होने वाले चुनाव में उनके जीतने की संभावना बढ़ जाती है. एक बड़ी पार्टी महा-गठबंधन की मदद से अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी को हरा सकती है और अंततः चुनाव के बाद उसकी सरकार भी बन सकती है. आम तौर पर छोटी पार्टी के लिए बहुकोणीय चुनाव में जीतने की संभावना अक्सर कम ही होती है, लेकिन चुनाव पूर्व गठबंधन होने से किसी बड़ी पार्टी के समर्थन के बिना भी अधिक सीटों पर उनके जीतने की संभावना बढ़ जाती है.

दूसरी ओर, चुनाव पूर्व गठबंधन के कारण दीर्घकालीन जोखिम भी बढ़ जाते हैं. गठबंधन में भाग लेने वाली पार्टियाँ अक्सर आगामी चुनावों में भी उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ती हैं. वे उनसे भिन्न सीटों पर अक्सर अनुपस्थित रहती हैं, जहाँ वे अपने समर्थकों को किसी और पार्टी के लिए मतदान करने के लिए बराबर कहती रहती हैं. दीर्घकालीन आधार पर पार्टियाँ उन स्थानों पर अपना समर्थन खोने लगती हैं जहाँ वे कभी-कभार ही चुनाव लड़ती हैं अथवा अगर किसी पार्टी का किसी खास इलाके में बहुत कम समर्थन होता है तो वह आदतन उन इलाकों में चुनाव नहीं लड़ती. ऐसी स्थिति में गठबंधन में ही यह तय हो जाता है कि वह पार्टी उस इलाके में अपने जनाधार का विस्तार नहीं करेगी. यह जोखिम खास तौर पर तब और भी गहरा जाता है जब गठबंधन के अन्य भागीदार उन्हीं सामाजिक वर्गों और भौगोलिक क्षेत्रों से समर्थन प्राप्त करने लग जाते हैं. कोई मतदाता अपने सामाजिक वर्ग से समर्थन प्राप्त करने वाली एक ही पार्टी के प्रति आखिर क्यों वफ़ादार बना रहे जबकि वह बार-बार उसी सामाजिक वर्ग से समर्थन प्राप्त करने वाली किसी अन्य पार्टी के लिए वह -बार मतदान करता है?  एक उपाय तो यह है कि ये पार्टियाँ सामाजिक और भौगोलिक समर्थन की दृष्टि से भिन्न पार्टियों के साथ गठबंधन करके भी गठबंधन के कारण होने वाले जोखिम को कम कर सकती हैं. समर्थन के आधार की असमानता की यह रणनीति पार्टी के व्यवहार से संबंधित उस परंपरागत समझ की तुलना में कहीं अधिक भारी पड़ती है, जहाँ पार्टियों के गठबंधन की भविष्यवाणी केवल विचारधारा की दृष्टि से समान पार्टी के साथ ही की जाती है. उदाहरण के लिए पश्चिमी योरोप की अधिकांश बहुदलीय लोकतांत्रिक पार्टियों की उस राजनीति पर विचार करें, जहाँ चुनाव से पहले और चुनाव के बाद होने वाले गठबंधन केवल उन पार्टियों के साथ ही हो सकते हैं जिनमें विचारधारा की दृष्टि से समानता हो. उदाहरण के लिए स्वीडन की वर्तमान सरकार में दोनों उदार मध्य वामपंथी पार्टियाँ शामिल हैं, लेकिन अनेक मध्य दक्षिणपंथी पार्टियों और सुदूर वामपंथी पार्टियों की सत्ता में भागीदारी नहीं है. भारत जैसे देश के संदर्भ में, जहाँ पार्टी की नीतियों या शुद्ध विचारधारा के बजाय पार्टियाँ मतदाताओं से समर्थन इस आधार पर प्राप्त करती हैं कि वे काम कराने में सक्षम हैं, विचारधारा की दृष्टि से भिन्न पार्टियों के गठबंधन से उन्हें चुनाव में भारी खतरा उठाने की आशंका नहीं रहती. इस दौरान समर्थकों की दृष्टि से भिन्न पार्टियों के बीच गठबंधन होने से वे अपने जनाधार को बचाये रखने में भी सफल हो जाते हैं.

हाँ, भारत में ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं, जब विचारधारा की दृष्टि से समान पार्टियों के बीच गठबंधन हुआ हो. साम्यवादियों के नेतृत्व में समान विचारधारा वाली पार्टियों के बीच हुए गठबंधन इसके उदाहरण हैं, केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में ये गठबंधन बहुत समय से चले आ रहे हैं, लेकिन असमानता के तर्क की अपनी सीमाएँ हैं. भारी मुस्लिम समर्थन के आधार वाली अधिकांश पार्टियों के लिए भाजपा के साथ गठबंधन करना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि भाजपा का रुझान हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ है. 

लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि असमान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ गठबंधन करने के भी कुछ लाभ हैं और इससे भारत में होने वाले घटना चक्र से तालमेल भी बैठने लगता है. दक्षिण भारत में केरल का ही उदाहरण लें. यहाँ दो प्रमुख पार्टियाँ हैं: वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (LDF) और युनाइटेड लोकतांत्रिक मोर्चा (UDF) के साथ केरल एक ऐसा उदाहरण है जहाँ विचारधारा की दृष्टि से समान विचारधारा वाली पार्टियों के बीच ही गठबंधन होता है, लेकिन करीब से देखने पर कुछ ऐसी बातें सामने आती हैं, जो तर्क की दृष्टि से असंगत लगती हैं. उदाहरण के लिए, यूडीएफ़ ने अक्सर अपने गठबंधन में वामपंथी दलों को शामिल किया है. अगर हम यह मानते हैं कि समान विचारधारा वाले दलों का ही गठबंधन होता है तो इस तरह का गठबंधन ही कल्पना के बाहर है. निश्चय ही यह उदाहरण असमानता के तर्क पर आधारित है, जिसमें राज्य के विभिन्न भागों में केंद्रित बिल्कुल अलग-अलग तरह के सामाजिक वर्गों के लिए अपील की जाती हैः हिंदू (कांग्रेस), ईसाई (केरल कांग्रेस [मा.]) और मुसलमान (मुस्लिम लीग).  चूँकि ये पार्टियाँ बिल्कुल अलग-अलग सपोर्ट बेस वाले मतदाताओं से अपील करती हैं, इस बात की कम ही संभावना रहती है कि कोई भी पार्टी एक दूसरे के समर्थकों में सेंध लगा सके.

कुछ मामले तो ऐसे हैं, जिनमें समान विचारधारा के सपोर्ट बेस वाले मामलों को भी असमानता वाले मामलों के साथ रखा जा सकता है. कई वर्षों तक हिंदुत्ववादी एजेंडा के आधार पर महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के बीच गठबंधन बना रहा, लेकिन दोनों ही पार्टियों के विभिन्न मुद्दों पर मतभेद बने रहे और मुंबई शहर के मराठी इलाकों में दोनों के ही बिल्कुल अलग-अलग समर्थकों के गुट भी बने रहे. आम तौर पर शिवसेना मुख्यतः लंबे समय तक शहर के मराठी इलाकों में अपने उम्मीदवार खड़े करती रही और भाजपा शहर के गैर-मराठियों के प्रभुत्व वाले इलाकों से चुनाव लड़ते रही. यह असमानता का तत्व भी पार्टियों के गठबंधन को बनाये रखने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है.

पिछले बीस वर्षों से भारत की दलगत राजनीति में बिखराव दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है. अनेक बड़ी-बड़ी पार्टियाँ देश के अधिकांश भागों में सत्ता और वोट के लिए संघर्ष में जुटी हुई हैं. इस दौरान अधिकांश पर्यवेक्षक राष्ट्रीय स्तर पर और विभिन्न राज्यों में भी चुनाव के बाद ही बहुदलीय गठबंधन के लिए प्रयत्नशील रहे हैं, लेकिन बिखराव की इस राजनीति में, जहाँ भारत के कुछ राज्यों में दो दलों के बीच प्रतियोगिता दिखाई पड़ती है, ऐसा प्रतीत होता है कि चुनाव-पूर्व गठबंधन न केवल भविष्य में भी बना रहेगा, बल्कि उसके साथ-साथ विचित्र प्रकार के परस्पर सहयोग की राजनीति भी उभर कर सामने आएगी..

 

ऐडम ज़िएगफ़ैल्डवाशिंगटन डीसी में स्थित जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के अंतर्राष्ट्रीय परिषद के सहायक प्रोफ़ेसर हैं. उनका शोध-कार्य भारत में चुनावी और दलगत राजनीति पर केंद्रित है और वे Why Regional Parties? (कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रैस, 2016) के लेखक हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919