हाल ही में अंग्रेज़ी में प्रकाशित पुस्तक “हमारे अपने बारे में सचः मनु से मोदी तक भारत में सूचना की राजनीति ” में मैंने यह विमर्श प्रस्तुत किया है कि पिछली दो शताब्दियों में भारत के सामाजिक “सच” कैसे गढ़े गए, उनके आकार ग्रहण करने के कारणों की व्याख्या के साथ-साथ उनके राजनीतिक और सामाजिक दुष्परिणामों को भी वर्णित किया है. अपनी उक्त पुस्तक के विमर्श की रूपरेखा के मुख्य बिंदुओं को मैं सारांश रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.
आरंभिक प्रस्ताव तो यही है कि किसी भी समाज के बारे में “सच” की निर्मिति “सूचना” के आधारभूत खंडों के आधार पर की जाती है. सूचनाओं के संचय और संगठन से ही “सच” की निर्मिति होती है. यहाँ प्रमुख प्रश्न यही उठते हैं: सूचना क्या है ? कैसे इसकी निर्मिति होती है ? कौन-सी सूचना को सही मानकर स्वीकारा जाता है? कौन स्वीकार करता है और क्यों? यही भारी-भरकर सवाल ही सूचना की राजनीति का ढाँचा खड़ा करते हैं. इसके कारण ही सत्ता पर काबिज लोग अपने विकल्प का चुनाव करते हैं, किसको सूचना कहा जाए (और किसको नहीं), उन सूचनाओं को वर्गों के आधार पर सूचीबद्ध करना, उन वर्गों के अंतर्गत सूचनाओं की गणना करना और वर्गीकृत सूचनाओं को सूचीबद्ध लोगों को संप्रेषित करना. प्रत्येकविकल्पबहुतमहत्वपूर्ण होता है और उनका सूचीबद्ध वर्गीकरण सबसे अधिक परिणामकारी होता है. हर चरण का हर विकल्प हमें विभिन्न प्रकार की सामाजिक अवस्थाओं के विभिन्न मार्गों पर ले जाता है.
धर्म, जाति और जनजाति के आधार पर भारत की सामाजिक अस्मिता का मौजूदा वितरण, विकल्प का अधिकार रखने वाले सत्ता पर काबिज़ लोगों द्वारा किसी खास कालखंड में चुने गए विकल्पों की श्रृंखला की ही परिणति है. इस प्रकार से भारत में आगे बढ़ता हुआ सामाजिक सच कतई निरपेक्ष नहीं होता, बल्कि सापेक्ष ही होता है; इसका निर्माण जटिलता को सुलझाने के लिए किया जाता है और इससे उन लोगों के हितों का संवर्धन होता है, जिन्होंने ऐसे सच को गढ़ा होता है.
सूचना की राजनीति को आकार देने वाले तीन आधारभूत तत्व होते हैं: सत्ता, प्रौद्योगिकी और सरलीकरण.
पहला तत्वः सत्ता केंद्रबिंदु है.जिसके पास सत्ता होती है, वह अपनी पसंद के विकल्प को प्रभावी रूप में कैसे यथार्थ में प्रतिष्ठित कर देता है. विकल्प चुनने के पहले उसके पास क्या जानकारी होती है और उस समय उसकी क्या धारणा होती है. अपना विकल्प चुनकर वह क्या हासिल करना चाहता है, उसका अपना हित क्या है ? “ सूचना सत्ता है” , यही मूलभूत सत्य है, लेकिन असली सत्ता हैवह क्षमता जिसके आधार पर यह निर्णय किया जाता है कि सूचना क्या है और उसे सूचीबद्ध करके वर्गीकृत करते हुए अमुक नाम दिया जाता है. हर लेबल- जाति और वर्ण से लेकर राष्ट्रीयता तक, आपराधिकमनोवृत्ति से लेकर मानसिक क्षमता तक-सत्ता पर काबिज़ लोगों द्वारा लेबल किये गए लोगों पर नियंत्रण और प्रभुत्व कायम करने के लिए निर्धारित विकल्पों की ही परिणति होती है.
उदाहरण के लिए, हिंदू के रूप में निर्दिष्ट भारत की “ जनजातीय ” आबादी को सूचीबद्ध करने का काम स्वयं “जनजातीय ” लोगों ने नहीं किया, बल्कि सत्ता पर काबिज़ वर्गीकरण करने वाले लोगों ने किया और इसी वर्गीकरण के आधार पर ही उस विशिष्ट सामाजिक ढाँचे का निर्माण हुआ, जिसमें हम रहते हैं. ज़रा सोचें इसमें कितनी उलझने हैं. अगर जाति सर्वव्यापक है और हिंदू समाज का मूल आधार है ( और व्यापक रूप में यह माना भी जाता है) तो भारत के तथाकथित “जनजातीय ” आदिवासी हिंदू कैसे हो गए? जब भारत के “जनजातीय ” समाज को उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में “ हिंदू” शीर्षक के अंतर्गत सूचीबद्ध किया गया था तो उनमें न तो ब्राह्मण या क्षत्रिय थे और न ही कोई और “जाति बाह्य (outcastes) ” था. माना जाता है कि उस समय हिंदुत्व की संपर्क भाषा संस्कृत में इस प्रकार के समाज के अस्तित्व का कोई उल्लेख ही नहीं था. उनके उपास्य देवता अलग थे, विभिन्न लिंगों के बीच उनके संबंध अलग किस्म के थे और उनका आहार भी अलग था. तो उन्हें हिंदू किसने बनाया?
इस संदर्भ में इसका मतलब क्या है ? “जनजाति” या“ जाति?” या “ जातिबाह्य?” या“ उपजाति?” का कुछ अर्थ है? किसने ये वर्ग बनाये?किसने ये विकल्प बनाए और निर्णय लिए ? यह कब हुआ और क्यों हुआ ? इन विकल्पों को स्वीकार क्यों कर लिया गया ? ये पूरे देश में लागू कैसे होने लगे ? क्या इन वर्गीकृत लोगों से कभी पूछा गया कि क्या वे अपने साथ लगाये गए लेबल से सहमत हैं? इन विकल्पों और लेबल को स्वीकार करने के परिणाम क्या हो सकते हैं? कोई इनका विरोध कैसे करे?सत्ता, सूचना और वर्गीकरण से संबंधित कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सवाल हैं जिन्हें इस जाँच को आगे बढ़ाने के लिए पूछना ज़रूरी है.
दूसरा तत्वः सूचना प्रौद्योगिकी का स्तर भी सूचना के निर्माण, प्रबंधन और राजनीति के लिए महत्वपूर्ण है. सूचना का प्रत्येक विकल्प एक विशिष्ट प्रौद्योगिकीय क्षेत्र में ही घटता है, जिसके कारण कुछ घटित होता है और कुछ घटित नहीं होता. नई सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार दो रूपों में होता है, सूचना के परिमाण में और उसकी पहुँच के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या में. ये तत्व केंद्रीभूत सत्ता को क्षीण करने लगते हैं ( भले ही वे नई सामाजिक संरचनाओं और नई सामाजिक समस्याओं का निर्माण कर रहे हों).
भारत में जब सूचनाएँ केवल बहियों में ही निहित होती थीं ( जब ब्रिटिश लोगों ने उपमहाद्वीप की सत्ता अपने हाथ में ली तो यही स्थिति थी) तो कुछ सुलभ बहियाँ और उनके भाष्यकार सूचनाओं की निर्मिति की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण हो गए. मुझे लगता है कि “हिंदुत्व” भी को इसी तरह गढ़ा गया है, लेकिन बहियों के युग के बाद सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कम से कम दो क्रांतियाँ हुईं. पहली क्रांति तब हुई जब प्रिंटिंग प्रैस आया. इसके कारण अधिकाधिक लोगों और वर्गों की सूचनाओं तक पहुँच होने लगी और वे सूचनाओं का निर्माण भी करने लगे.उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य के बाद प्रिंटिंग प्रैस भारतीय विचारों और राजनीतिक संगठन के निर्माण और विकास का केंद्रबिंदु बन गया; इसी प्रैस ने दोनों प्रकार की प्रमुख विरोधी विचारधाराओं को प्रत्यक्ष रूप में आगे बढ़ाने में मदद कीः साम्राज्यवाद-विरोधी विचारधारा (तिलक, राय, गाँधी, बोस और नेहरू की विचारधारा) और हिंदुओं के एकीकरण की विचारधारा (सावरकर, गोलवलकर और उपाध्याय की विचारधारा).हाल ही में इस शताब्दी की अंतिम तिमाही के दौरान भारत और सारी दुनिया डिजिटल और मोबाइल प्रौद्योगिकी के माध्यम से एक नये प्रकार की सूचना क्रांति के दौर से गुज़रती रही है. भरपूर सूचनाओं और गलत सूचनाओं के इस दौर में, प्रौद्योगिकी- स्मार्ट फ़ोन से लेकर ट्वीट तक- अपने-आप में ही लोगों की जानकारी और धारणाओं का केंद्रबिंदु बन गई.
तीसरा तत्वः सूचनाओं की निर्मिति और प्रबंधन की प्रक्रिया मेरी धारणा के अनुसार सरल सूचनाओं के सिद्धांत पर आधारित है. इसका आधार है, स्वतः सिद्ध प्रमाण अर्थात् सभी लोग- मनुष्य, भारतीय, हरेक व्यक्ति, सभी जगहों पर जटिल ज्ञान के बजाय सरल सूचनाओं को पसंद करते हैं. सरल सूचना की यह वरीयता हमारे अपने मानव-मस्तिष्क की ही उपज है, जिसकी सहज प्रवृत्ति हैः "पुष्टि का पूर्वाग्रह," "संज्ञानपरक सुगमता," "चयनात्मक स्मरण," "विश्वास की दृढ़ता," और इसी तरह की अन्य बातें. इन सुप्रसिद्ध विचारों को व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक डेनियल कैनमन ने अपने लेखन में उदाहरणों के साथ स्पष्ट किया है.
सूचनाओं का सबसे सरल प्रारूप है, द्यंक (binary) ( भोजन या विष, दोस्त या दुश्मन, मेरे पक्ष में या मेरे विरुद्ध). ये सब कुछ उनके वर्गीकरण और कहानी-किस्सों पर आधारित होते हैं. इस प्रकार के वर्गीकरण और कहानी-किस्सों की तुलना में आँकड़ों या तथ्यों का अधिक महत्व नहीं होता. सरल सूचनाओं की वरीयता दोनों ही स्तरों पर होती है, वैयक्तिक स्तर पर (हम सब यही करते हैं) और संस्थागत रूप में ( सरकार भी यही करती है). यह स्थायी अवस्था है. कोई ऐसा सचेत क्षण नहीं होता जब हम सरल सूचनाओं का प्रयोग न करते हों.
इस प्राकृतिक दुनिया का सरलीकरण जैविक दृष्टि से भी लाभप्रद है, क्योंकि इसमें गति होती है और इसके माध्यम से बड़ी कुशलता से हमारे मस्तिष्क को निरंतर उद्वेलित करने वाली सूचनाओं के अनंत भंडार को निपटाया जा सकता है. यही सरलीकरण मानव संज्ञान और प्रजातियों के विकास का केंद्रबिंदु भी हो सकता है, लेकिन यही तर्क धर्म, जाति, नस्ल, जातीयता, लिंग और आयु से संबंधित विचारधाराओं, घिसी-पिटी सोच और पूर्वाग्रहों से जुड़ी सामाजिक दुनिया के सरलीकरण पर लागू नहीं हो सकता. इसी सरलीकरण के कारण दैनंदिन के जीवन में भेदभाव और असमानता का उदय होता है और निश्चय ही इसके कारण युद्ध व नरसंहार जैसी व्यापक हिंसा का औचित्य भी सिद्ध किया जा सकता है. यही घिसी-पिटी सोच और पूर्वाग्रह दैनंदिन के व्यवहार से जुड़े रहते हैं. व्यावहारिक तौर पर यही बातें अनेक प्रकार से सच होकर हमारे चारों ओर मंडराती रहती हैं.
सरल सूचनाओं के इस सिद्धांत को समझने के लिए यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने किस प्रकार से भारत के मौजूदा सामाजिक ढाँचे को अस्तित्व में लाने की परिकल्पना की होगी. यह समझना भी महत्वपूर्ण होगा कि भारत में हिंदू समरूपता और बहुलवाद के बीच के सच के दावे से जुड़े मूल विवाद को मौजूदा समय में किस प्रकार से उठाया जा रहा है. दोनों ही स्थितियों में सरल सूचना की ज़रूरत होती है, लेकिन इनके कारण परस्पर विरोधी होते हैं. साम्राज्यवाद के अंतर्गत एक बड़ी एकपक्षीय सत्ता निम्न स्तर की सूचना प्रौद्योगिकी और बहियों में उपलब्ध न्यूनतम सूचनाओं के साथ मिलकर भारतीय समाज का पूरी तरह सरलीकरण कर देती है. मौजूदा स्थिति में उन्नत सूचना प्रौद्योगिकी भारी परिणाम में सूचनाओं को निर्मित कर देती है, जिसके कारण वह सत्ता तो क्षीण हो जाती है, लेकिन साथ ही सरलीकरण की नई माँगों का निर्माण भी कर देती है.
सरल सूचनाओं का सिद्धांत एक ऐसा विचार है जो सत्ता की शक्तियों के बीच संतुलन स्थापित करता है (जिसके लिए हमेशा ही जटिल सूचनाओं और सूचना प्रौद्योगिकी (जो आम तौर पर सूचना की मात्रा और जटिलता को बढ़ाने की ओर उन्मुख रहती है) को सरल बनाने की आवश्यकता होती है). जटिलता और सरलीकरण के बीच का यह संतुलन ही भारत में सामाजिक अस्मिता के संघर्ष का केंद्रबिंदु है. यही कारण है कि लगभग पिछले दो सौ वर्षों से यह सिलसिला यहाँ चल रहा है.
संजय चक्रवर्ती टैम्पल विश्वविद्यालय में भूगोल और शहरी अध्ययन व वैश्विक अध्ययन के प्रोफ़ेसर हैं और CASI के अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर भी हैं. हाल ही में उनकी लिखित और प्रकाशित पुस्तकें हैं: The Politics of Information from Manu to Modi (2019), The Other One Percent: Indians in America (2017), The Promoter (his first novel, 2015), और The Price of Land: Acquisition, Conflict, Consequence (2013).
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : +91- 9910029919