Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

नमामि गंगेः क्या नई नीति से निरंतर हो रही और अपवित्र गड़बड़ी को ठीक किया जा सकता है ?

Author Image
26/03/2018
शरीन जोशी

गंगा भारत की सबसे अधिक पवित्र नदी है, जिसे करोड़ों लोग देवी की तरह पूजते हैं. गंगा भारत की 47 प्रतिशत ज़मीन की सिंचाई करती है और 500 मिलियन लोगों का पेट भरती है. इतनी महत्वपूर्ण नदी होने के बावजूद यह दुनिया की सबसे अधिक प्रदूषित नदियों में से एक है. तेज़ी से आबादी बढ़ने, शहरीकरण और औद्योगिक विकास के कारण इसके पानी में घरेलू और औद्योगिक प्रदूषकों का स्तर बहुत बढ़ गया है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के जुलाई 2013 के अनुमान के अनुसार पहाड़ से नीचे आने के बाद गंगा नदी का जल पीने और नहाने के स्वीकार्य मानकों की सभी हदों को पार करके विष्ठा के कॉलिफ़ॉर्म स्तर, जैविक ऑक्सीजन की माँग, रासायनिक ऑक्सीजन की माँग और कैंसर पैदा करने वाले रसायनों की रेंज के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है.

ऐसा भी नहीं है कि गंगा के इस संकट की जानकारी किसी को नहीं है. सन् 2014 में प्रधान मंत्री मोदी ने वाराणसी शहर से अपना चुनावी अभियान चलाया था और गंगा नदी की सफ़ाई उनके चुनावी वायदों में सबसे प्रमुख था. प्रधानमंत्री का कार्यभार ग्रहण करने के तुरंत बाद ही  उन्होंने नमामि गंगे कार्यक्रम की शुरुआत की. गंगा के समन्वित संरक्षण के इस मिशन का बजट ₹20,000 रुपये करोड़ रखा गया, ताकि गंगा के प्रदूषण को प्रभावी रूप में कम किया जा सके, उसका संरक्षण किया जा सके और उसकी अविरल धारा को फिर से प्रवाहित किया जा सके. यह परियोजना आठ राज्यों में फैली हुई है और इसके माध्यम से 2022 तक गंगा के साथ-साथ लगने वाली सभी 1,632 ग्राम पंचायतों को जोड़ने का संकल्प किया गया.

भारत के नियंत्रक व महालेखा निरीक्षक (CAG) की नई रिपोर्ट के अनुसार गंगा को निर्मल बनाने के लिए शुरू की गई यह योजना भी बहुत कारगर सिद्ध नहीं हो रही है. इस लेखा निरीक्षक दल ने नमूने के तौर पर 87 परियोजनाओं को लिया है, जिनमें से 73 परियोजनाएँ चालू हैं, 13 परियोजनाएँ पूरी हो गई हैं और एक परियोजना को छोड़ दिया गया है. इन परियोजनाओं में सात परियोजनाएँ संस्थागत हैं, पाँच परियोजनाएँ वनीकरण और एक परियोजना जैव-विविधता से संबंधित है. 50 परियोजनाओं की मंजूरी 1 अप्रैल, 2014 को दी गई थी. लेखा-निरीक्षकों के नतीजे बेहद चौंकाने वाले हैं. सरकार ने अप्रैल, 2015 और मार्च, 2017 के बीच इस ध्वजांकित कार्यक्रम के लिए निर्धारित $1.05 बिलियन डॉलर में से केवल $260 मिलियन डॉलर की राशि का ही इस्तेमाल किया है. इन सभी परियोजनाओं के साथ समस्याओं की एक लंबी सूची जुड़ी हुई है: अप्रयुक्त निधि, दीर्घकालीन योजना का अभाव और ठोस कार्रवाई करने में हुआ विलंब.

यह पहली नीति नहीं है जो ऐसी दुरवस्था की शिकार हुई है और जिसमें प्राथमिकता तय नहीं की गई है. भारत में पर्यावरण के नियम बहुत कड़े हैं; जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974; जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) शुल्क अधिनियम,1977; और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986. इनको लागू करने के साधन भी बहुत विशाल हैं. जल की गुणवत्ता की निगरानी और नियमन का कार्य पर्यावरण व वन मंत्रालय (MoEF) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) और संबंधित राज्यों के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा किया जाता है और प्रदूषण को खत्म करने के लिए पर्याप्त निधि वाले अनेक कार्यक्रम भी बनाये जाते रहे हैं. सन् 1985 में मल-जल शोधन संयंत्रों को स्थापित करने और प्रदूषण को कम करने के लिए बड़े पैमाने की अन्य प्रौद्योगिकियों को लगाने के लिए आवश्यक निधि देने के उद्देश्य से गंगा कार्य योजना (GAP) शुरू की गई थी. इसी योजना को अंततः राष्ट्रीय नदी संरक्षण कार्यक्रम (NRCP) के माध्यम से भारत की अन्य नदियों पर भी लागू कर दिया गया था.

मौजूदा नीति की तरह अतीत में किया गया ऐसा कोई भी प्रयास खास तौर पर कारगर सिद्ध नहीं हुआ. मूल्यांकन का हर दौर नई सीएजी रिपोर्ट की तरह ही रहा, जिसमें मुद्दों की वही मानक सूची दिखाई पड़ती है: पुनरीक्षण परियोजनाओं में विलंब, एजेंसियों के बीच परस्पर सहयोग का अभाव,  परियोजनाओं में वित्तपोषण का असुंतलन और प्रदूषण के बढ़ते बोझ को सँभाल पाने में असमर्थता. इन सबका नतीजा यही हुआ कि पानी की गुणवत्ता में कोई प्रत्यक्ष सुधार नहीं हुआ. विडंबना यही है कि इस पूरी प्रक्रिया में अगर कहीं कोई कामयाबी मिली है तो वह है उच्चतम न्यायालय का वह आदेश, जिसने कुछ खास फ़र्मों को सचमुच झकझोर कर रख दिया है.

भारत की जल-नीति में आखिर कहाँ गलती हो रही है ? इस सवाल के जवाब के लिए हमें अलग-अलग मामलों के ब्यौरों में झाँकने की ज़रूरत नहीं है. इसके बजाय हमें उन तमाम राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक संदर्भों को गहराई से खँगालना होगा, जिनकी छाया में ये नीतियाँ बनाई जाती हैं.   

भारत के चुनावी लोकतंत्र में पर्यावरण की नीति के लिए बहुत कम गुंजाइश है. पर्यावरण शायद ही कभी चुनावी मुद्दा रहा हो. रोज़गार, आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन कहीं अधिक ज़रूरी मुद्दे हैं. निर्वाचित नेता, भले ही बड़े प्रदूषकों ( इनमें सरकार की अपनी कंपनियाँ और बिजली घर भी शामिल हैं) पर कार्रवाई करें या औद्योगिक संकुलों में फैली उन छोटी फ़र्मों पर, जिनका वोट बैंक भी होता है, उन्हें कोई खास प्रोत्साहन नहीं मिलता. इसके अलावा, नियमों के रूप में फैले हुए व्यापक जाल ने स्थानीय तौर पर किराये की माँग पर आधारित एक जटिल प्रणाली भी खड़ी कर दी है. यथास्थिति को चुनौती देने के बजाय ठेठ राजनीतिज्ञ “सफ़ेद हाथी ” के रूप में दिखाई देने वाली पर्यावरण की विशाल परियोजना बना लेते हैं और बहुपक्षीय संगठन के सहयोग से चुनाव से ठीक पहले उसका उद्घाटन भी कर देते हैं. उदाहरण के तौर पर औद्योगिक बस्तियों में ज़ोर इस बात पर रहता है कि गंदे पानी के सामान्य उपचार संयंत्र (CETPs) बना लिये जाएँ. “ऐंड-ऑफ़-पाइप” की इन प्रौद्योगिकियों की मदद से नदी में बहाने से पहले विभिन्न स्रोतों से बहकर आए गंदे पानी का उपचार करके प्रदूषण को कम करने का प्रयास किया जाता है. छोटी फ़र्मों से कानूनन यह अपेक्षा की जाती है कि वे पहले गंदे पानी का उपचार करें और फिर अभी भी विषैले बने हुए कचरे को गंदे पानी के सामान्य उपचार संयंत्रों (CETPs) के मार्ग से बहा दें. यह व्यवस्था हमेशा ही कारगर नहीं होती. गंदे पानी के सामान्य उपचार संयंत्रों (CETPs) में बड़े स्तर पर समन्वय की आवश्यकता होती है, उनके निर्माण और रख-रखाव पर बहुत खर्चा आता है, उनमें से बहुत मात्रा में विषैला कीचड़ निकलता है और इसे जलाने से वायु प्रदूषित होती है. मल-जल शोधन संयंत्रों (STPs) का निर्माण भी ऐसे ही होता है, फिर भी गंगा के किनारे रहने वाली अधिकांश आबादी के पास अभी-भी शौचालय या मल-जल प्रवाह की सुविधा नहीं है.    

दूसरा बड़ा मुद्दा यह है कि भारत की नदियों में पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है. उदाहरण के लिए गंगा का इतना अधिक पानी सिंचाई और पन बिजलीघर के लिए खर्च हो जाता है कि खास तौर पर गर्मी के दिनों में बूँद-बूँद पानी की पतली धार बनकर रह जाती है. पानी का उपयोग भी हमेशा सही ढंग से नहीं होता, भारत की सिंचाई व्यवस्था औसत दुनिया के मुकाबले भी अच्छी नहीं है. एक अनुमान के अनुसार सिंचाई के लिए प्रयुक्त भारत का पचहत्तर प्रतिशत पानी बर्बाद हो जाता है. बिजली के उन बाज़ारों में पानी की बर्बादी और भी बढ़ जाती है, जहाँ मुफ्त बिजली पाने वाले किसानों को पानी के संरक्षण के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता.  इसलिए उससे ऐसी नदी की सफ़ाई की बात करना भी फ़िज़ूल है जिसका लगभग सारा पानी सोख लिया जाता है और जिसमें कचरा वापस डाल दिया जाता है.

आखिरकार यही समय है जब हम गहराई से सोचें कि भारत के पर्यावरण संबंधी कार्यक्रमों को कैसे डिज़ाइन और कार्यान्वित किया जाता है. इस समय हमारी व्यवस्था पर ऊपर से बहुत बोझ आता है. बिल्कुल हाल ही में आई सीएजी रिपोर्ट में बताया गया है कि इन कार्यक्रमों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए आवश्यकता है एक शासी दल की, उच्चस्तरीय कार्यबल की, सशक्त कार्यबल की, शासी परिषद की, सशक्त स्थायी समिति की और कार्यकारिणी समिति की. सन् 2014 में जब उमा भारती को गंगा कायाकल्प का विभाग सौंपा गया था तो उन्होंने पहला कदम यही उठाया कि “गंगा मंथन” के लिए उच्चस्तरीय बैठक बुलाई, जिसमें समाज के सभी स्तरों के हितधारकों को बुलाकर उनसे गंगा की अविरल धारा को फिर से प्रवाहित करने के लिए सुझाव माँगे, लेकिन आगामी वर्षों में उस पर कोई अनुवर्ती कार्रवाई नहीं हुई. रिपोर्ट में शौचालयों के निर्माण के लिए ग्रामीण पंचायतों से भागीदारी करने का सुझाव दिया गया था, लेकिन उस रिपोर्ट में खास तौर पर कार्यसंचालन की निगरानी और उसे निरंतर चलाये रखने के लिए सिविल सोसायटी या नागरिकों की भागीदारी का कोई भी उल्लेख नहीं था. यह हैरानी की बात है कि विकास की कितनी ही और नीतियाँ हैं जिनमें भागीदारी और विकेंद्रीकरण का अधिकाधिक उल्लेख किया गया है. फिर भी उच्चतम न्यायालय द्वारा जनहित याचिका की प्रतिक्रिया में दिए गए आदेश से निश्चय ही अतीत में प्रदूषण को प्रभावी रूप में कम करने में मदद मिली है.

गंगा की सफ़ाई के काम को अगले साल होने वाले चुनाव से पहले सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए अब सड़क परिवहन, राजमार्ग, नौवहन, जल संसाधन और गंगा कायाकल्प मंत्री

नितिन गडकरी पर काफ़ी दबाव है, लेकिन अंततः इसका समाधान ग़डकरी के पास भी नहीं है. असली समाधान तो सरकार और जनता के बीच साझी ज़िम्मेदारी बढ़ाकर ही हो पाएगा. समय आ गया है जब हम नागरिकों की भागीदारी को प्राथमिकता दें. इस काम को प्रोत्साहित करने के लिए भारत के पास अधिक से अधिक डेटा सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध होना चाहिए और इस डेटा का अधिक से अधिक विश्लेषण स्थानीय स्तर पर ही होना चाहिए. साथ ही प्रदूषण से सेहत पर पड़ने वाले प्रभाव और प्रदूषण के कारणों के बारे में भी लोगों को शिक्षित और जागरूक भी किया जाना चाहिए. निश्चय ही आजकल जो स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है, उससे भी मदद मिलेगी, लेकिन ऐसे उपाय भी किये जाने चाहिए जिनकी मदद से गंगा में बहाने से पहले ही कृषि और औद्योगिक कचरे का निस्तारण कर लिया जाए. यही सही समय है जब हम सब्सिडी, बिजली की खपत, पावर के इस्तेमाल के पैटर्न, औद्योगिक विकास और शहरीकरण की योजनाओं से संबंधित नीतियों और उनके अंतःसंबंधों पर व्यापक दृष्टि से विचार करें. इन सबके लिए ज़रूरत है, रचनात्मकता, नवाचार, अनुशासन, पारदर्शिता और मज़बूत नेतृत्व की. लंदन में टेम्स नदी और योरोप से बहने वाली राइन नदी की सफ़ाई का उदाहरण हमारे सामने है और इसीसे उम्मीद बँधती है कि हम भी ऐसा कर सकते हैं. गंगा जल अंततः उन लाखों भारतीयों के कार्य-कलापों पर ही निर्भर है, जो पोषण, बिजली और आध्यात्मिक उन्नति के लिए गंगा पर ही निर्भर करते हैं.

शरीन जोशी जॉर्जटाउन विवि के ऐडमंड ए. वाल्श स्कूल ऑफ़ फ़ॉरेन सर्विस में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919