Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

मोदी के दूसरे कार्यकाल में जापान-भारत संबंध

Author Image
23/09/2019
रूपकज्योति बोरा

ओसाका में G20 शिखर वार्ता के आयोजन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने दूसरे कार्यकाल में पहली बार जापान के प्रधानमंत्री आबे से विचार-विमर्श करने का अवसर मिला है. इस वर्ष के आरंभ में हुए आम चुनाव में निर्णायक बहुमत से जीतकर सत्ता पर एक बार फिर काबिज होने के बाद मोदी को और उनकी सरकार को विदेशी मामलों में अधिक लचीलेपन से आगे बढ़ने का अवसर मिला है. इसके अलावा, डॉ. एस. जयशंकर को विदेश मंत्री बनाकर उन्होंने यह स्पष्ट संकेत भी दे दिया है कि उनकी सरकार विदेशी मामलों को कितना महत्व देती है. इससे पहले जयशंकर भारत के विदेश सचिव रहे हैं और उन्होंने अमरीका, चीन और जापान में विभिन्न पदों पर कैरियर डिप्लोमैट के तौर पर कार्य भी किया है.

अतीत में आबे और मोदी विभिन्न अवसरों पर एक-दूसरे से मिले हैं और जापान और भारत प्रधानमंत्री के स्तर पर वार्षिक द्विपक्षीय शिखर वार्ताएँ भी करते रहे हैं. एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ होते हुए संबंधों के संकेत के तौर पर भारत और जापान इस वर्ष के अंत में दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच होने वाली वार्षिक शिखर वार्ता से पहले उनकी अपनी 2+2 बैठक (उनके विदेशी और रक्षा मंत्री के बीच) होगी. 

जापान और भारत के बीच नज़दीकी संबंध होने के कारण
यह समझने की कोशिश होनी चाहिए कि शीत युद्ध के युग की समाप्ति के बाद दोनों देश कैसे एक-दूसरे के नज़दीक आने लगे हैं. पहला कारण तो यह है कि इन दोनों नेताओं के नेतृत्व में भारत और जापान के संबंधों में बहुत तेज़ी-से सुधार हुआ है. जब पिछले साल मोदी वार्षिक द्विपक्षीय शिखर वार्ता में भाग लेने के लिए जापान आए थे तो आबे ने एक अनूठे संकेत के तौर पर उन्हें टोक्यो के पास स्थित यमनाशी नाम के सुंदर चित्र की तरह दिखने वाले अवकाश गृह में आमंत्रित किया था. इससे दोनों नेताओं के गहरे दोस्ताना संबंधों का संकेत मिल गया था.

साथ ही दूसरा कारण यह था कि भारत-प्रशांत के क्षेत्रीय परिवेश के कारण भी दोनों देशों के संबंध और भी प्रगाढ़ हो गए थे. जापान और भारत के बढ़ते संबंधों का एक प्रमुख कारण चीन का उदय है जबकि भारत और जापान के गहराते संबंधों के पीछे अमरीका के साथ भारत की घनिष्ठता भी है, क्योंकि अमरीका और जापान के बीच पहले से ही घनिष्ठ संबंध हैं. साथ ही इन तीनों देशों की नौसेनाएँ मिलकर मलबार समुद्री अभ्यास करती रही हैं और अमरीका इस समय भारत को कई बिलियन डॉलर के हथियार बेच रहा है. अब नई दिल्ली अमरीका में निर्मित P-8s, C-130Js, C-17s, AH-64s, और CH-47s जैसे सैन्य हथियार खरीद रहा है. इसके कारण भारत, अमरीका और जापान के बीच सैन्य उपकरणों के परस्पर उपयोग की संभावनाएँ और भी बढ़ गई है.

इसका तीसरा कारण यह है कि भले ही आबे और राष्ट्रपति ट्रम्प के बीच गहरे निजी संबंध बन चुके हैं, लेकिन ट्रम्प की अविश्वसनीयता ने आबे के विकल्पों को और भी उलझा दिया है. जब ट्रम्प ने अमरीका को ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) से बाहर निकाल लिया, तो जापान अमरीका के बिना भी TPP में बना रहा, जिसके परिणामस्वरूप मार्च-2018 में ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (CPTPP) के व्यापक और प्रगतिशील समझौते पर उसने हस्ताक्षर भी किए. ट्रम्प ने अमरीका-जापान सुरक्षा संधि के औचित्य पर सवाल भी उठाये, क्योंकि यह संधि अमरीका को जापान और जापानी हितों की रक्षा से वचनबद्ध कर देती है, लेकिन जापानियों पर समान शुल्क थोपती नहीं है.

चौथा कारण यह है कि ट्रम्प की उत्तर कोरिया नीति कपटपूर्ण भी लगती है. उत्तर कोरिया द्वारा परमाणु या मिसाइल के मोर्चे पर कुछ भी न करने के बावजूद वॉशिंगटन ने प्योंगयांग से संपर्क साध लिया है. इसके कारण जापान पर खतरा मंडराने लगा है, क्योंकि उत्तर कोरिया ने कम और मध्यम दूरी की मिसाइलें दाग दी हैं. इससे अमरीका के लिए तो कोई खतरा नहीं है, लेकिन जापान निशाने की जद में आ गया है.

पाँचवाँ कारण यह है कि आबे अपनी योजना के अनुरूप भारत जैसे देशों से संपर्क साधने में जुटे रहे हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि जापान को भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में निवेश करने की अनुमति दे दी गई है, जबकि अन्य देशों को इस प्रकार की अनुमति अब तक नहीं मिली है. भारत और जापान अंडमान निकोबार द्वीपसमूह (जबकि किसी अन्य देश को वहाँ निवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है) में डीज़ल पावर प्लांट लगाने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं. इसके अलावा दोनों देश श्री लंका में श्री लंका पोर्ट अथॉरिटी (SLPA) के साथ मिलकर ईस्ट कंटेनर टर्मिनल के विकास में सहयोग करेंगे. यह मॉडल श्री लंका में हंबनटोटा पोर्ट के मुकाबले, जिसे चीन को पट्टे पर दिया गया है, अलग किस्म का निवेश मॉडल है. दूसरे विश्वयुद्ध के समय से ही टोक्यो का अपने पड़ोसी देशों, दक्षिण एशिया, उत्तर कोरिया, रूस और चीन के साथ विवाद चल रहा है. भारत के साथ उसके संबंधों की बुनियाद बिल्कुल अलग स्तर पर है. इन दोनों के बीच कभी-भी ऐतिहासिक विवाद नहीं रहा है.

छठा कारण यह रहा है कि भारत जापानी कंपनियों के लिए एक बड़ा व्यापार है. भारत के व्यस्त मुंबई-अहमदाबाद सेक्शन पर शिंकनसेन (जापानी बुलेट ट्रेन) दौड़ने जा रही है.   जापान अन्य देशों को बुलेट ट्रेन की अपनी प्रौद्योगिकी बेचने की कोशिश में जुटा है, लेकिन अभी तक उसे इसमें कामयाबी नहीं मिली है. इंडोनेशिया ने जकार्ता-बांडुंग हाई स्पीड रेल सैक्टर के लिए जापानी बोली (bid) के मुकाबले चीनी बोली (bid) को पसंद किया है. इसके अलावा, भारी आबादी और बढ़ते मध्यम वर्ग के कारण कोई भी जापानी कंपनी बहुत लंबे समय तक भारत की अनदेखी नहीं कर सकती.

अंततः नई दिल्ली बुनियादी ढाँचे के क्षेत्र में भारी निवेश की खोज में है और जापान एक बड़ा निवेशक है. विकासशील देश होने के नाते भारत के शहरों में प्रदूषण एक गंभीर समस्या है. जापान की हरित प्रौद्योगिकी इस चुनौती का सामना करने में भारत की मदद कर सकती है.

भावी बाधाएँ
इसके साथ-साथ कुछ ऐसे मुद्दे भी हैं, जिनके कारण भारत और जापान एक दूसरे के बहुत नज़दीक नहीं आ पाए हैं. चीन के साथ भारत के जो व्यापारिक संबंध हैं, उसकी तुलना में जापान के साथ उसके व्यापारिक संबंध बहुत विकसित नहीं रहे हैं. 2017-18 में नई दिल्ली और टोक्यो के बीच द्विपक्षीय व्यापार मात्र $15.71 बिलियन डॉलर था, जबकि भारत और चीन के बीच राजनैतिक तनाव के बावजूद सन् 2017 में चीनी-भारतीय द्विपक्षीय व्यापार $84.44 बिलियन डॉलर था.

दोनों पक्ष भारी संभावनाओं के बावजूद रक्षा क्षेत्र में सहयोग करने में विफल रहे हैं. भारत विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है, जबकि जापान आबे के कार्यकाल में हथियारों के निर्यात की जुगत में जुटा है, लेकिन जापान में इस मामले में लोगों की अलग-अलग राय है. साथ ही इस बात को लेकर भी लोगों में मतभेद हैं कि भारत किस हद तक अमरीका के करीब जाना चाहेगा. हालाँकि हाल के समय में नई दिल्ली के साथ अमरीका के संबंध बहुत नज़दीकी हुए हैं, साथ ही भारत ब्रिक्स का भी सदस्य है. ब्रिक्स के अन्य सदस्य हैं, ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका. इसके अलावा, यद्यपि नई दिल्ली चीनी नियंत्रण वाली बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (BRI) परियोजना में शामिल नहीं हुआ है, फिर भी वह AIIB (एशियन इनफ्रास्ट्रक्चर इनवैस्टमैंट बैंक) का सदस्य है.

भारत-प्रशांत क्षेत्र के मद्दे नज़र मंथन आरंभ
अगर नई दिल्ली के सामने कोई भी गंभीर बाहरी संकट आता है तो भारत-प्रशांत क्षेत्र में जापान उसका साथ देगा. यह उल्लेखनीय है कि भारत में सरकार को जापान के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने के लिए सभी दलों का समर्थन प्राप्त है. एक ऐसे युग में जहाँ चीन हमेशा ही हावी रहता है, भारत और जापान एक-दूसरे के साथ अधिकाधिक सहयोग करने के लिए तत्पर हैं. नई दिल्ली के वाशिंगटन के साथ बढ़ते संबंधों के अलावा भारत-प्रशांत क्षेत्र में समीकरण बदलने का भी यही प्रमुख कारण है. ट्रम्प प्रशासन ने दक्षिण चीन सागर और ताइवान स्ट्रेट में फ्रीडम ऑफ़ नेविगेशन ऑपरेशन्स (FONOP’s) की गतिविधियाँ बढ़ा दी हैं. जापान और भारत में हितों का कोई बड़ा टकराव नहीं है और टोक्यो की “मुक्त और खुली भारत-प्रशांत दृष्टि” नई दिल्ली की “पूर्वोन्मुखी कार्यनीति” के बिल्कुल अनुरूप है. आबे ने अगस्त 2007 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए “दो महासागरों के महामिलन” के अपने प्रसिद्ध भाषण में इसका उल्लेख करते हुए कहा था कि “प्रशांत महासागर और हिंद महासागर अब स्वाधीनता और समृद्धि के सागरों की तरह दोनों देशों के बीच सेतु का काम कर रहे हैं.” जैसे-जैसे नई दिल्ली और टोक्यो एक-दूसरे के नज़दीक आ रहे हैं, यह सिद्ध भी होता जा रहा है.

रूपकज्योति बोरा टोक्यो, जापान के रणनीतिक अध्ययन के लिए जापानी मंच में रिसर्च फ़ैलो हैं. इससे पहले वह भारत में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सहायक प्रोफ़ेसर और जापान अंतर्राष्ट्रीय कार्य संस्थान (JIIA), टोक्यो में विज़िटिंग रिसर्च फ़ैलो थे. ट्विटर : @rupakjand -मेल : rupakj@gmail.com

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919