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भारत में खुफ़िया तंत्र और विदेश-नीति निर्माण की प्रक्रिया

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28/08/2017
अविनाश पालीवाल

भारतीय नौसेना के सेवानिवृत्त अधिकारी (नई दिल्ली के अनुसार) कमांडर कुलभूषण जाधव मार्च, 2016 से पाकिस्तानी जेल में हैं और उनके मुकदमे को लेकर जनता में खासी चर्चा हो रही है. पाकिस्तान ने उन पर भारत की प्रमुख खुफ़िया एजेंसी रॉ के लिए काम करने का आरोप लगाया है और अप्रैल, 2017 में उनका कोर्ट मार्शल किया गया और पाकिस्तान में “आतंकवादी” गतिविधियों में कथित तौर पर लिप्त पाये जाने पर उन्हें मृत्युदंड की सज़ा दी गयी. भारत ने इस दावे का खंडन किया है और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (इंटरनैशनल कोर्ट्स ऑफ़ जस्टिस) की मदद से इस सज़ा को स्थगित करवा लिया है. इसी तरह का एक और मामला है, जिसकी कम ही चर्चा हुई है. यह मामला सेवानिवृत्त पाकिस्तानी अधिकारी लेफ़्टिनेंट कर्नल मुहम्मद हबीब ज़हीर का है, जो नेपाल के लुंबिनी से रहस्यमय ढंग से गायब हो गया था. जाधव को सज़ा मिलने से कुछ ही समय पहले वह कथित तौर पर “अपहरण” से पहले भारतीय क़ैद में था. भारतीय मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार ये दोनों मामले आपस में जुड़े हुए हैं. भारत-पाकिस्तान के संबंधों में इस तरह की घटनाओं पर किसी प्रकार की हैरानी नहीं होनी चाहिए, लेकिन हैरानी इस बात की है कि भारत में इतने बड़े पैमाने पर इस मामले पर चर्चा होती रही.

जहाँ सन् 1999 में कारगिल संघर्ष के समय और 2008 में मुंबई हमलों के दौरान भारत के खुफ़िया तंत्र के मकसद और कुशलता को लेकर सवाल खड़े किये गये थे, वहाँ इस समय सारी चर्चा इस मामले के कूटनीतिक, कानूनी और राजनैतिक पहलुओं पर केंद्रित रही. भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल (भूतपूर्व खुफ़िया अधिकारी) और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पाकिस्तान के आंतरिक मसलों के संबंध में आक्रामक बयान देने के बावजूद गहन और परोक्ष रूप में यह छद्म युद्ध का नया चरण था. हालाँकि भारतीय नेता भारत-विरोधी आतंकवादियों को मिलने वाले पाकिस्तानी समर्थन को लेकर इस प्रकार दिये गये बयानों का औचित्य सिद्ध करते रहे हैं, लेकिन इन बयानों से भारत की विदेश-नीति के निर्माण की प्रक्रिया में रॉ की भूमिका और भारत के खुफ़िया तंत्र और उनके राजनैतिक आकाओं को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं.

संसदीय चूक और प्रधानमंत्री को सीधे रिपोर्ट करने जैसी स्थितियों के कारण रॉ की जवाबदेही, कुशलता और प्रभाव के आकलन का कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है. इन सूचनाओं के जोखिम की कमी के कारण ही इस एजेंसी पर लोगों का भरोसा कम रहता है, मौजूदा नौकरशाही की प्रतिद्वद्विता बढ़ने लगती है और इस तथ्य पर भी पर्दा पड़ जाता है कि विदेशों में खुफ़िया जानकारी जुटाने में सफलता और विफलता दोनों में ही राजनैतिक आकाओं की भी बराबर की भूमिका रहती है

दो पक्ष
भारत की विदेशी खुफ़िया एजेंसी को सरल ढंग से मुख्यतः दो बातों से समझाया जा सकता है. पहली बात तो यह है कि इसके दो पक्ष हैं, बेहद सक्षम एजेंसी बनाम बेहद निकम्मी एजेंसी. रॉ को विदेशों में परोक्ष ऑपरेशन चलाने में बहुत सक्षम माना जाता है. इन ऑपरेशनों में निम्नलिखित गतिविधियाँ शामिल हैं, पाकिस्तान में कथित तौर पर असंतोष फैलाना; तिब्बत के निर्वासित लोगों को सैनिक प्रशिक्षण देना; श्री लंका में युद्ध से पूर्व और बाद में सहायता प्रदान करना; 1971 के बंगला देश युद्ध को विजयी बनाना; अफ़गानिस्तान में अपनी मज़बूत उपस्थिति सुनिश्चित करना और खुफ़िया गतिविधियों को उन्नत टैक्नोलॉजी से सुसज्जित करना. रॉ भारत के प्रतिद्वंद्वियों में शत्रुता के भाव को बढ़ा भी सकता है और भारत के रणनीतिक साझीदारों के बीच यह मान्यता भी घर करने लगी है, लेकिन जब 1999 के कारगिल संघर्ष और 2008 के मुंबई हमले होते हैं या अधिकारी पदत्याग करते हैं तो लोग एजेंसी को निकम्मी और भ्रष्ट मानने लग जाते हैं. ऐसी आक्रामक सफलता और रक्षात्मक विफलता की दोहरी स्थितियों के कारण एक ओर उसे आसान और गैर-जवाबदेह बलि का बकरा मिल जाता है, वहीं जब बाहर से भारत पर कोई संकट आता है तो इसकी छाया से भारत मुक्त नहीं हो पाता. दूसरी ओर इससे भारत की उन चिंताओं में भी कमी आती है, जो पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों और चीन के अड़ियल रुख के कारण उसे झेलनी पड़ती हैं.

दूसरी बात यह है और यह बात रॉ के पहले पक्ष से जुड़ी हुई है कि मोरारजी देसाई, इंदर कुमार गुजराल और मनमोहन सिंह जैसे कोमल प्रकृति के भी प्रधानमंत्री हुए हैं जिन्होंने इस तरह की एजेंसियों को कभी सम्मान नहीं दिया. देसाई तो रॉ पर भरोसा ही नहीं करते थे और गुजराल और सिंह की नीति चीन और पाकिस्तान के प्रति कभी कठोर नहीं रही. नरसिम्हाराव और अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इन एजेंसियों का कम ही इस्तेमाल किया. पहले केवल इंदिरा और राजीव गाँधी ने और अब मोदी ने कथित तौर पर इनकी आक्रामक और परोक्ष क्षमताओं के महत्व को बखूबी समझा और कारगर ढंग से इनका इस्तेमाल भी किया और कर भी रहे हैं. भारतीय रणनीतिक हलकों में ये बातें लोकगीतों की तरह गुनगुनायी जाती हैं. यह बात सही नहीं मानी जा सकती, क्योंकि भारत के इतिहास में ऐसे भी क्षण आये हैं जब खुफ़िया तंत्र की भूमिका नगण्य रही है. अगर कोई भी भूमिका रही भी है तो वह विदेश-नीति निर्माण की प्रक्रिया में रही है. इसप्रकार एक ऐसा जोखिम पैदा हो गया है कि रॉ की छवि भारत के रणनीतिक परिवेश का मूल्यांकन करने और आकार देने वाली व्यावसायिक खुफिया एजेंसी के बजाय भाड़े के हत्यारों और भड़काऊ गतिविधियों में संलग्न व्यंग्य-चित्र जैसी एक एजेंसी के रूप में हो सकती है. भले ही यह किसी विशेष स्थिति में सही प्रतिक्रिया देती हो फिर भी गैर-आक्रामक रुख अपनाने वाली कमज़ोर एजेंसी के रूप में इसकी छवि बनने का खतरा पैदा हो गया है. (जैसे मुंबई पर आतंकी हमले के दौरान भारत की प्रतिक्रिया थी)  

भले ही यह सही हो, लेकिन दूसरी बात से यह सवाल तो उठता ही है कि क्या भारत के खुफ़िया तंत्र का राजनीतिकरण हो रहा है और भारत के लोकतंत्र पर रॉ की जवाबदेही का प्रभाव पड़ रहा है. उदाहरण के लिए आपात् काल के दौरान राजनैतिक नेतृत्व द्वारा रॉ के दुरुपयोग और जनता में रॉ के प्रति बढ़ते अविश्वास का चरम बिंदु थी. अविश्वास की यह बात सन् 1988 में हुई उस घटना से उजागर हुई जब एक सुरक्षाकर्मी ने नई दिल्ली के हवाई अड्डे पर काबुल से आने वाली एयर इंडिया की फ़्लाइट से एक बैग में हथियारों का एक जखीरा पकड़ा. इससे पहले कि हवाई अड्डे के सुरक्षा कर्मचारी इस जखीरे की जाँच करते, एक खुफ़िया अधिकारी ने इसे अपने कब्ज़े में ले लिया. कुछ हफ़्तों के बाद यही सामान खालिस्तान के आतंकवादियों के पास बरामद हुआ. इस घटना के कारण संसद में उस समय हंगामा हो गया जब विरोधी दलों ने कथित तौर पर राजीव गाँधी और रॉ पर आरोप लगाया कि वे जनता को गुमराह कर रहे हैं. क्या भारत और अफ़गान की खुफ़िया एजेंसियों में ISI की इस कदर घुसपैठ हो गयी थी कि वह खालिस्तानी आतंकवादियों को हथियार पहुँचाने के लिए एयर इंडिया के जहाज का भी इस्तेमाल करने लगे? या फिर भारत ने पाकिस्तान को फँसाने के लिए ऐसी कार्रवाई की थी? पाकिस्तान द्वारा खालिस्तानी आतंकवादियों के समर्थन और उसके साथ साँठ-गाँठ की बात तो आम तौर पर मान ली गयी है. लेकिन इस तरह की भारी गोपनीयता के कारण ही एक ओर ऐसी घटनाओं से रॉ के प्रति आम जनता का विश्वास हिलने लगा था और दूसरी ओर भारत के पड़ोसी देश भी भारत को अक्सर सतर्क नज़रिये से देखने लगे थे. 

भावी मार्ग
भारत में खुफ़िया तंत्र को किस तरह से समझा और जाना जाता है, जाधव-ज़हीर मामले से इस धारणा में किसी तरह के परिवर्तन की बात दिखायी नहीं पड़ती, बल्कि उसी धारणा की निरंतरता का पता चलता है. क्या जाधव सचमुच भारत का जासूस है, यह बात अब मायने नहीं रखती. उसकी सैनिक पृष्ठभूमि और उसकी पहचान के जाली दस्तावेज़ उसे भारतीय जासूस सिद्ध करने के लिए पाकिस्तान के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन इसके पीछे एक मूक पहलू यह भी है कि उसकी छवि पाकिस्तान में हिंसा को बढ़ावा देने में सक्षम परोक्ष ऑपरेशन करने वाले भारतीयों से मेल खाती है. बलोचिस्तान के बारे में मोदी के बयान और ज़हीर के कथित अपहरण से यह सुनिश्चित हो जाता है कि लोगों की याद्दाश्त में पुराने दिनों की यादें अभी-भी अंकित हैं. दोनों तरह की बातों से इनकी विफलता का तो पता चलता है, लेकिन यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कूटनीतिक चाल के रूप में खुफ़िया तंत्र का व्यापक उद्देश्य क्या है. अन्य अनेक लोकतांत्रिक देशों के विपरीत भारत में खुफ़िया तंत्र के डोज़ियर को न तो अवर्गीकृत किया जाता है और न ही रॉ के आधिकारिक इतिवृत्त को लिपिबद्ध किया जाता है. रॉ के एक अधिकारी ने कुछ साल पहले अपने इंटरव्यू में मुझे बताया था, “अगर लोग हमारी विफलताओं की चर्चा करते हैं तो हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन हम नहीं चाहते कि हमारी सफलताओं की खूब चर्चा हो.” यह ठीक है कि परोक्ष सफलताओं की सार्वजनिक तौर पर चर्चा करने से ऑपरेशन पर असर पड़ सकता है, जो किसी भी रूप में वांछनीय नहीं है.

परंतु निरंतर जटिल होते भूराजनैतिक परिवेश में भारत जैसी उदीयमान शक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अपने खुफ़िया तंत्र के ऑपरेशन से इतर गतिविधियों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करे. यह तर्क भी बिल्कुल गलत है कि रॉ जैसी जटिल संकल्पना वाली संस्था को लेकर जनता के बीच प्रचलित धारणा का विदेश नीति के निर्माण की प्रक्रिया पर अनिवार्यतः कोई असर नहीं होता. इससे इस तथ्य की अनदेखी हो जाती है कि ऐसी संस्थाओं के ऑपरेशनों में तभी सफलता मिलती है जब स्वदेश में उनका आधार बहुत मज़बूत हो. भारत में सिविल सेवा के कुछ अभ्यर्थी आज रॉ में प्रवेश के लिए उत्सुक हैं. सिविल सेवा की परीक्षाओं के माध्यम से भर्ती किये गये अधिकांश अधिकारियों का रैंक अच्छा नहीं होता और अन्य विभागों से लिये जाने के कारण नौकरशाही की राजनीति से जुड़े मामलों के कारण और प्रशिक्षण के मानकों में असंगति भी आ जाती है. अपना आधार सुदृढ़ करने और उच्चस्तरीय योग्य प्रत्याशियों की भर्ती के लिए पहला कदम यही है कि उनमें भारत की विदेश नीति के निर्माण की प्रक्रिया में खुफ़िया तंत्र की बेहतर समझ हो और संसद के प्रति भारत की एजेंसियों की जवाबदेही हो.

यह तर्क भी दिया जा सकता है कि खुफ़िया विभाग से संबंधित दस्तावेज़ों को अवर्गीकृत करना तब तक अनावश्यक है जब तक सरकार के सही लोगों को इन फ़ाइलों को देखने की अनुमति न मिल जाए ताकि वे अतीत से कुछ सीख सकें. अफ़गानिस्तान से आने वाले हथियार कथित तौर पर पंजाब तक पहुँच जाते हैं. ऐसे मामले से भी राजनैतिक नेता कोई सीख नहीं ले पाते. अगर इस मामले में लगे आरोप सही हैं तो हमें उस परिदृश्य को देखना होगा जहाँ राजीव गाँधी ने तात्कालिक राजनैतिक लाभ प्राप्त करने के लिए अपनी माँ की जान लेने वाले तत्वों के हाथों में खेलते हुए संघर्ष को बढ़ाने के लिए रॉ का दुरुपयोग किया. स्पष्ट है कि ऐसे मामलों को पूरी तरह से राजनीतिज्ञों के हाथ में छोड़ना भी खतरनाक है. अगर कोई महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री अतीत में रॉ का दुरुपयोग कर सकता था तो भविष्य में नहीं करेगा, इसकी क्या गारंटी है.

भारत के खुफ़िया तंत्र से जुड़े लोगों पर बहुत ही रहस्यमय ढंग से काम करने का आरोप लगाया जाता है, लेकिन राजनैतिक वर्ग भी उतना ही दोषी है. राजनैतिक विरासत को लेकर चिंतित कुछ राजनीतिज्ञ यह माँग भी करने लगते हैं कि वर्गीकृत फ़ाइलों की सार्वजनिक तौर पर छानबीन की इजाज़त दी जानी चाहिए. इन मामलों से जुड़ी लोगों की धारणा ऑपरेशन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं भी लग सकती, लेकिन सार्वजनिक उपयोग के लिए ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को अवर्गीकृत करना और संसदीय चूक को स्वीकार करना यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि एजेंसी का भरपूर उपयोग सत्ता पर आसीन सरकार द्वारा किया जाए और उन्हें ऐसा करने का अधिकार भी है. साथ ही यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि राजनैतिक नेतृत्व एजेंसी का उपयोग एक हथियार के रूप में न कर सके.

अविनाश पालीवाल लंदन विवि के ओरिएंटल व अफ्रीकी अध्ययन स्कूल (SOAS) के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन व कूटनीति केंद्र में कूटनीति व सार्वजनिक नीति के लेक्चरर हैं. उनकी लेखकीय रचना है, My Enemys Enemy: India in Afghanistan from the Soviet Invasion to the US Withdrawal (London: Hurst Publishers, 2017).

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919