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भारत-रूसी रक्षा संबंध वाशिंगटन की नाराज़गी को भविष्य में भी झेलते रह सकते हैं

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01/07/2019
योगेश जोशी

मार्च, 2019 में भारत ने रूस के साथ  एक और इसकी अकुला-श्रेणी की हमलावर परमाणु पनडुब्बी (SSN) को पट्टे पर लेने के लिए एक अंतर सरकारी करार (IGA) पर हस्ताक्षर किये. यह परमाणु पनडुब्बी सन् 2025 में रूस के सेवेरोद्विंस्क के आर्कटिक बंदरगाह में पतवार के एक प्रमुख परिशोधन के बाद भारतीय नौसेना में शामिल हो जाएगी. इससे पहले भारत ने सन् 2012 में मास्को से अकुला-श्रेणी के SSBN को पट्टे पर लिया था. भारतीय बेड़े में चक्र के रूप में पुनर्नामित होकर यह पनडुब्बी सन् 2025 तक नई अकुला पनडुब्बी के चालू होने तक भारतीय नौसेना की सेवा में रह सकती है. इस करार के संबंध में वाशिंगटन ने मास्को से साथ भारत के रक्षा संबंधों को लेकर भारी चिंता जताई है. शीत युद्ध के दौरान लोकतांत्रिक देश के रूप में अलग-थलग पड़े रहने के बावजूद भारत-अमरीकी संबंध पिछली शताब्दी की अंतिम तिमाही में बहुत मज़बूत हुए हैं. एक ज़माने में रूसी रक्षा उद्योग में भारत का एक विशिष्ट स्थान हुआ करता था, लेकिन वाशिंगटन ने भी भारत के रक्षा बाज़ार में अच्छी-खासी पैठ बना ली थी. बाजार की प्रतिस्पर्धा के बावजूद, वाशिंगटन और मास्को के बीच बढ़ते तनाव ने नई दिल्ली को एक कोने में धकेल दिया है. जहाँ एक ओर वाशिंगटन ने प्रतिबंध लगाकर रूस को दंडित करने का प्रयास किया है, वहीं वह मास्को के साथ भारत के हथियारों से संबंधित समझौते के प्रति भी असहिष्णु होता जा रहा है. हालाँकि अमरीका की इस नाराज़गी का भारत की निर्णय लेने की क्षमता पर मामूली-सा ही असर होगा. विशेषकर नौसैनिक परमाणु क्षेत्र में भारत-रूस का रक्षा सहयोग अमरीकी चिंताओं के बावजूद भविष्य में भी फलता-फूलता रहेगा.

1966 के आरंभ में भारत के परमाणु शक्ति प्रतिष्ठान ने नौसैनिक परमाणु की संचालक शक्ति को बल देने के लिए एक संभाव्यता कार्यक्रम शुरू किया था. होमी भाभा ने इस आशा से यह कार्यक्रम शुरू किया था कि अमरीकी परमाणु शक्ति आयोग (USAEC) समुद्री संचालक शक्ति को विकसित करने के भारत के इस प्रयास में मदद करेगा. फ़रवरी 1965 में वाशिंगटन डीसी की अपनी यात्रा के दौरान भाभा ने अमरीकी परमाणु शक्ति आयोग (USAEC) के अधिकारियों से कहा था कि “यह समुद्री संचालक शक्ति परमाणु शक्ति के क्षेत्र में भारत की प्रभावी क्षमता को प्रदर्शित करेगी”, लेकिन राष्ट्रपति जॉन्सन के विज्ञान व प्रौद्योगिकी कार्यालय ने मुख्यतः इस आधार पर भाभा के इस अनुरोध को ठुकरा दिया था कि दूसरे देशों के साथ नौसैनिक रिएक्टर टैक्नोलॉजी के साझा करने पर ऐडमिरल रिकोवर ने नाराज़गी प्रकट की थी. वाशिंगटन की अप्रसार नीति भी इसका एक अतिरिक्त कारण था. यही कारण था कि यह कार्यक्रम लगभग पंद्रह वर्षों तक लटकता रहा और भारत के परमाणु वैज्ञानिक और भारतीय नौसेना के वैज्ञानिक नौसैनिक संचालक शक्ति के लिए एक व्यावहारिक रिएक्टर प्रणाली को डिज़ाइन और विकसित करने के लिए जूझते रहे.

भारत में परमाणु शक्ति प्रतिष्ठान की भारी कमियों के बावजूद 1974 के बाद शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट के कारण भारत पर लगे प्रतिबंधों ने इस काम को और भी उलझा दिया. सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में देसी स्तर पर किये गये प्रयासों पर प्रौद्योगिकीय झटका लगने के कारण भारत सरकार ने मास्को से मदद की गुहार लगाई. अस्सी के दशक के आरंभ में मास्को भारत के देसी परमाणु पनडुब्बी के कार्यक्रम में मदद के लिए तैयार हो गया. इसी समय भारत की पहली परमाणु पनडुब्बी को पट्टे पर लेने का करार भी तय हुआ. यहीं से भारत की नौसैनिक परमाणु पनडुब्बियों के क्षेत्र में भारत-रूसी सहयोग का युग आरंभ हुआ, लेकिन भाग्य की विडंबना है कि भारत को अपनी नौसैनिक परमाणु संचालक शक्ति की अवधारणा और प्रेरणा अमरीका के प्रौद्योगिक प्रयासों से ही मिली, लेकिन इसका कार्यान्वयन मास्को की मदद से हुआ.वाशिंगटन को परमाणु पनडुब्बियों के क्षेत्र में मास्को और नई दिल्ली के बीच हुआ सहयोग कभी रास नहीं आया. जैसे ही भारतीय नौसेना सन् 1987 में सोवियत संघ से अपनी पहली परमाणु पनडुब्बी प्राप्त करने की तैयारी करने लगी, अमरीका ने मास्को पर इस पट्टे में विलंब करने और टालने के लिए भारी दबाव डालना शुरू कर दिया. सितंबर, 1987 में भारतीय नौसेना का कर्मीदल सोवियत-चार्ली श्रेणी की परमाणु पनडुब्बी की कमान सँभालने के लिए व्लादीवस्तोक के बंदरगाह पर पहुँच गया. नवंबर 1987 में इस नौका के अंतरण की प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी थी, तभी सोवियत नौसेना के हाई कमान ने  पनडुब्बी पर भारतीय कर्मीदल के चढ़ने पर न केवल रोक लगा दी, बल्कि उसे वापस जाने का हुक्म भी दे दिया. इसके कारण नई दिल्ली और मास्को के बीच भारी कूटनीतिक गतिरोध भी उत्पन्न हो गया. मास्को में तैनात भारत के तत्कालीन राजदूत टी.एन. कौल ने सोवियत प्रधानमंत्री रिज़कोव से यहाँ तक कह दिया कि “हमारे 100 कार्मिकों की वापसी की खबर छिपी नहीं रह सकती” और इसके कारण “भारत-सोवियत संबंधों पर बुरा असर पड़ेगा”. मास्को ने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के सीधे हस्तक्षेप करने के बाद ही इस पर अपनी सहमति प्रदान की. लेकिन सोवियत नीति पर अमरीकी विरोध का गहरा असर पड़ा. इसके कुछ समय के बाद ही राष्ट्रपति गोर्बाचेव ने भारत के देसी परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम में तकनीकी सहयोग करने के पहले के अपने वायदे को पलट दिया. सन् 1991 के आरंभ में इस नौका को अपने पास रखने की भारतीय नौसेना की इच्छा के बावजूद चार्ली-श्रेणी की परमाणु पनडुब्बी सोवियत संघ को वापस कर दी गई.

परंतु शीत युद्ध के दौरान परमाणु अप्रसार व हथियार नियंत्रण और दक्षिण एशिया में रणनीतिक संतुलन बनाये रखने की अपनी व्यापक नीति के अंतर्गत ही अमरीका ने भारत-रूसी परमाणु पनडुब्बी सहयोग के लिए अपनी असहमति जताई थी. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद जैसे-जैसे भारत- अमरीकी संबंध रणनीतिक संबंधों के मधुर दौर से गुज़रने लगे, वाशिंगटन-डीसी ने नई दिल्ली और मास्को के बीच बढ़ती प्रौद्योगिकीय भागीदारी की अनदेखी करनी शुरू कर दी.   वस्तुतः भारत-अमरीका परमाणु समझौते के दौरान भारत के परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम और रूस के साथ उसके संबंधों पर अमरीका के निर्णय लेने की प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ा और उस पर गौर भी नहीं किया गया. इतना ही नहीं, वाशिंगटन डीसी ने यह भी महसूस किया कि अगर वह भारत को प्रौद्योगिकीय संसाधन उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं है तो नई दिल्ली को अन्य स्रोतों से इसे जुटाने का वैधानिक अधिकार है.

इसलिए अमरीका की मौजूदा चिंताओं का आधार रूस पर अमरीका में चलने वाली घरेलू बहस ही है. भले ही नई दिल्ली इसके कारण कुछ उलझन महसूस करता हो तो भी यह संभव नहीं है कि वह मास्को के साथ अपने रक्षा संबंधों में, खास तौर पर नौसैनिक परमाणु संचालक शक्ति के क्षेत्र में संशोधन करते हुए अमरीकी माँगों को मान सके. भारत के देसी परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम के लिए रूसी सहायता जारी रखना बहुत ज़रूरी है. रूसी परमाणु पनडुब्बियों को पट्टे पर लेकर भारत न केवल मास्को से निरंतर प्रौद्योगिकीय मदद प्राप्त करता है, बल्कि इससे भारतीय नौसेना को आवश्यक संचालन अनुभव भी प्राप्त होता है. इस संदर्भ में भारत के भारी मात्रा में भू-रणनीतिक हित भी हैं. रूस पर अमरीका के निरंतर दबाव के कारण भारत चीन से भी इस संबंध में गठबंधन कर सकता है. स्वतंत्र मास्को, एशिया की भू-राजनीति में संतुलन बनाये रखने के लिए आवश्यक है. अमरीकी दबाव के कारण ही रूस चीन के साथ कुछ हद तक गठबंधन करने के लिए इच्छुक हुआ है. अगर भारत अमरीकी माँग के सामने झुक जाता है तो रूसी पूरी तरह से चीन की ओर उन्मुख हो जाएँगे.

योगेश जोशी स्टैनफ़ोर्ड के अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व सहयोग केंद्र (CISAC) में स्टैंटन परमाणु सुरक्षा के पोस्ट-डॉक्टरल फ़ैलो हैं.अगस्त 2019 में वह सिंगापुर के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया अध्ययन संस्थान में अनुसंधान फ़ैलो का पद ग्रहण कर लेंगे.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : +91- 9910029919