कोविड-19 के प्रकोप से पहले लगता था कि भारत में कृषि के लिए जो कुछ सबसे बुरा हो सकता था, वह हो चुका है. अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से अलग मुख्यतः मूल्यों की आई स्थिरता के कारण यह क्षेत्र शायद पटरी पर भी आ गया था. सितंबर 2016 और अगस्त 2019 के बीच उपभोक्ता खाद्य मूल्यों की मुद्रास्फीति की दर लगातार समग्र फुटकर मुद्रास्फीति से नीचे ही बनी रही. 36 महीने की यह निरंतर बनी रहने वाली अप्रत्याशित प्रवृत्ति अगस्त में 2.9 प्रतिशत के वर्ष-दर-वर्ष होने वाले पिछले उछाल से बढ़कर लगातार बाद के पाँच महीनों में 5.11 प्रतिशत, 7.89 प्रतिशत, 10.01 प्रतिशत, 14.19 प्रतिशत और 13.63 प्रतिशत तक पहुँच गई (नीचे का चार्ट देखें). दिसंबर का 14.19 का फुटकर खाद्य मुद्रास्फीति का आँकड़ा वस्तुतः नवंबर, 2013 में 17.89 प्रतिशत का उच्चतम आँकड़ा था.
लेकिन यह केवल घरेलू कीमतें नहीं थीं.
जनवरी, 2020 में संयुक्त राष्ट्र का खाद्य व कृषि संगठन (FAO) का वैश्विक खाद्य मूल्य सूचकांक (आधार वर्ष 2002-04=100) 183 बिंदुओं तक पहुँच गया था. दिसंबर 2014 में 185.8 के बाद का यह उच्चतम आँकड़ा था. अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों की आई स्थिरता कई पण्य वस्तुओं की आपूर्ति में आई कमी में प्रतिबिंबित होती है. फ़रवरी में अमरीका के कृषि विभाग ने अनुमान लगाया था कि अक्तूबर 2019 से लेकर सितंबर 2020 तक के ताड़ के तेल का वैश्विक बंद स्टॉक 2009-10 के बाद न्यूनतम होगा. दिसंबर में डच वित्तीय सेवाओं की विशालकाय कंपनी रैबोबैंक ने भविष्यवाणी की थी कि 2019-20 में दुनिया भर में 8.2 मिलियन टन का चीनी की आपूर्ति का घाटा होगा और यह घाटा चार साल में सबसे अधिक होगा. इसीप्रकार मलाई रहित (स्किम्ड) दूध के पाउडर (SMP) का मूल्य दिसंबर-जनवरी में न्यूज़ीलैंड के वैश्विक डेरी व्यापार का नीलामी मूल्य औसतन $3,000 डॉलर प्रति टन था. यह स्तर अगस्त 2014 में देखा गया था. थाईलैंड से आने वाले 5 प्रतिशत टूटे सफ़ेद चावल का औसत निर्यात मूल्य मार्च में $ 493.5 डॉलर प्रति टन था. जुलाई 2013 के बाद यह भी सर्वाधिक मूल्य था.
अगर हम 2014-15 और 2015-16 की वैश्विक पण्य मूल्यों की गिरावट सहित पिछले “अनेक कोरोनाओं” से प्रभावित भारत के किसानों के सबसे खराब मुद्रास्फीति के चरण को देखें तो पाएँगे कि फ़रवरी 2015 में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा “मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाकर” अंगीकृत मौद्रिक नीति का ढाँचा और अंततः नवंबर, 2016 में अंततः अपनाई गई नोटबंदी की नीति कोविड-19 के प्रकोप के आगमन से पहले की अतीत की घटनाएँ बनकर रह गई थीं. इसे भी अंशतः राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी सकल घरेलू उत्पाद के तिमाही आकलन में समाहित कर लिया गया है. नीचे की सारणी में फ़ार्म क्षेत्र की प्रगति को दर्शाया गया है. यह प्रगति 2019-20 की पिछली दो तिमाहियों की समग्र प्रगति से भी न केवल असल में, बल्कि मुद्रास्फीति को घटकों में दिखाने के बाद सामान्य रूप में भी आगे निकल जाती है.
इसके अलावा, निम्नलिखित चार्ट यह भी दर्शाता है कि समग्र मूल्य सूचकांक, जिसका संबंध उत्पादकों से अधिक है, पर आधारित खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति अंतिम फुटकर उपभोक्ता में प्रतिबिंबित होने से लगभग छह महीने पहले ही बढ़ने लगा था.
कीमतों को छोड़ दें तो भी उत्पादन से संबंधित दृष्टिकोण उतना ही अनुकूल था ; 25 वर्षों में वर्ष 2019 ही ऐसा वर्ष था, जिसमें भारत में सबसे अच्छी बारिश हुई थी. फिर भी अधिकांश बारिश जुलाई से जनवरी 2020 तक दूसरी छमाही में हर महीने अधिक हुई थी. इसके कारण अतिरिक्त बारिश रिकॉर्ड की गई. देर तक बहुत बारिश होने और मानसून के बाद भी बारिश होने के कारण भूमिगत जल का स्तर और जलवाही स्तर रीचार्ज हो गया था और बड़े-बड़े बाँध अपनी क्षमता के आसपास लबालब भर गए थे. इसका प्रभाव मुख्यतः रबी (सर्दी और वसंत ऋतु में होने वाली) फसल पर पड़ा और किसानों ने रबी का एकड़ क्षेत्र बढ़ाकर 9.5 प्रतिशत कर दिया और अच्छी ठंड पड़ने के कारण उपज भी बहुत अच्छी हुई.
कुल मिलाकर कीमतों में भारी बदलाव आया और रबी की अच्छी फसल की संभावनाएँ भी बढ़ गईं और इससे किसानों में खुशी की लहर दौड़ गई. लेकिन सब कुछ ठीक होने पर भी हाल ही की घटनाओं के कारण उस समय यह दूर की कौड़ी साबित हुई जब उन्हें लगातार सूखे (2014, 2015,और 2018) का सामना करना पड़ा और उपज की वसूली भी बहुत कम हुई. दुर्भाग्यवश ये आशाएँ फलीभूत न हो पाईं.
माँग पर प्रहार
इसकी शुरुआत जनवरी के मध्य के आसपास मुर्गीपालन से हुई. यह वही समय था जब चीन में नये कोरोना वायरस के फैलाव की रिपोर्ट तेज़ी से चारों ओर फैल रही थी. इस मामले में, ब्रॉयलर पक्षियों के फ़ार्मगेट की कीमतों में गिरावट आने लगी और फ़रवरी के दूसरे सप्ताह तक 80-85 रुपये प्रति किलोग्राम की कीमत गिरकर 40-42 रुपये हो गई और मार्च की शुरुआत में इसमें 30-32 रुपये तक और भी गिरावट आ गई. इसकी शुरुआत शुद्ध रूप से चिकन माँस की खपत के बारे में कोविड-19 के खतरे की निराधार अफ़वाह से हुई थी. मुर्गीपालन के उत्पादों से संबंधित आधिकारिक स्पष्टीकरण भी व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक और अन्य सोशल मीडिया द्वारा न तो कोविड-19 के वायरस और न ही इसके आरंभिक गंभीर तीव्र और मध्य पूर्व श्वसन सिंड्रोम (SARS / MERS) के अवतारों के संबंध में चलाये जाने वाले अभियानों के दुष्प्रचार को रोक नहीं पाए.
लेकिन असली संकट तो तब शुरू हुआ जब मोदी सरकार ने 25 मार्च से सारे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया. इसका असर मुर्गीपालन तक ही सीमित नहीं रहा. लॉकडाउन के कारण छात्रावास और कैंटीन के अलावा होटल, रेस्तराँ और खानपान सेवाओं (HORECA) जैसे कारोबार भी बंद हो गए. विवाह समारोह और अन्य सार्वजनिक समारोह भी बंद हो गए. पूरे देश में घर के बाहर खाने का रिवाज़ लगभग बंद ही हो गया. भारत में मुर्गी के माँस का खानपान लगभग 45 प्रतिशत होता है. बहुत से लोग जो घर पर नियमित रूप में “माँसाहारी” नहीं हैं, वे भी घर के बाहर चिकन खाते हैं और 25 प्रतिशत अंडे का सेवन करते हैं (ये अंडे स्कूलों में दोपहर के भोजन (मिड-डे मील) में भी दिये जाते हैं, लेकिन अब ये स्कूल भी बंद हैं). खपत और कीमत दोनों में ही गिरावट आने से देश में ब्रॉइलर का मासिक उत्पादन जनवरी में 30 करोड़ (300 मिलियन) जीवित पक्षियों से घटकर मई तक औसतन 11-12 करोड़ (110-120 मिलियन) रह गया और उसी अवधि में अंडों का उत्पादन लगभग 900 करोड़ (9 बिलियन) से घटकर 700 करोड़ (7 बिलियन) अंडों तक रह गया. इसके कारण मुर्गे के चारे और खास तौर पर मक्के आदि माँग में भी कमी आ गई. कृषि मंत्रालय के पोर्टल के अनुसार पूरे भारत में मक्के का थोक मूल्य जनवरी में औसतन 1,913.21 रुपये प्रति 100 किलो ग्राम था. मई में इस मूल्य में गिरावट आ गई और इसका मूल्य 1,434.48 रुपये रह गया. जबकि मई 2019 में इसका मूल्य 1,921.25 रुपये से भी कम था. इस बार बिहार के पूर्णिया ज़िले के गुलाबबाग बाज़ार में इस बार इसका मूल्य मुश्किल से 1,250 रुपये प्रति 100 किलो ग्राम रहा.
माँग में गिरावट की यह कहानी कृषि की दूसरी उपजों की भी रही, जिनके उत्पादन में अब तक भारी कमी आती रही है, उनका भी यही हाल रहा. सामान्य स्थितियों में इनकी कीमतें बढ़ जाती हैं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. इसके कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं. आलू के लगभग 36 करोड़ (360 मिलियन) बैग ( हर बैग में 50 किलो ग्राम आलू था) फ़रवरी-मार्च में मुख्य रबी फसल से कोल्ड स्टोर में रखे गए थे, जबकि इसके विपरीत 2019 में 48 करोड़ (480 मिलियन), 2018 में 46 करोड़ (460 मिलियन) और 2017 में नोटबंदी के बाद हुई सबसे अधिक फसल 57 करोड़ (570 मिलियन) बैग कोल्ड स्टोर में रखे गए थे. फिर भी उत्तर प्रदेश के आगरा में कोल्ड स्टोर से बेचे जाने वाले मोटे आलू की कीमत अप्रैल की शुरुआत तक लगभग 21 रुपये प्रति बैग थी. मई के अंत तक यह कीमत कम होकर 17 रुपये रह गई.
दूध पर इसका प्रभाव और भी नाटकीय रहा. 2019-20 के वर्ष में कई दशकों में पहली बार दूध के उत्पादन में कमी आई. मार्च के मध्य तक देश में यह बात चलती रही थी कि हमें खास तौर पर गर्मी के उन महीनों में जब पशु कम दूध देने लगते हैं, की माँग को पूरा करने के लिए एक लाख टन (सौ हज़ार टन) SMP आयात करना चाहिए. लॉकडाउन से पहले डेरी में SMP 300-320 रुपये, मक्खन 290-310 रुपये और चीज़ 350 रुपये प्रति किलो बिक रहा था. लेकिन मई के अंत तक इनमें भारी गिरावट आ गई और इनकी कीमतें क्रमशः 170-180 रुपये, 230-240 रुपये, और 225-250 रुपये रह गईं. कम उगाही के कारण डेरी वालों ने किसानों को कम दाम देने शुरू कर दिये. गाय का दूध 31-32 रुपये से कम होकर 21-22 रुपये प्रति लीटर (3.5 प्रतिशत वसा और 8.5 प्रतिशत बिना वसा की ठोस सामग्री के साथ) और भैंस का दूध 43-46 रुपये से कम होकर 31-33 रुपये प्रति लीटर (6.5 प्रतिशत वसा और 9 प्रतिशत बिना वसा की ठोस सामग्री के साथ).
सबके कारण वही थे. आलू और दूध की खपत घरों के रसोई घरों में होती है. इस खपत में कोई अंतर नहीं आया. लॉकडाउन के आरंभिक दिनों में घबराहट के कारण खरीदारी (पैनिक बाइंग) दिखाई पड़ी, क्योंकि घर-गृहस्थी वाले कुछ किलो या लीटर अधिक सब्ज़ियाँ, आटा, दाल, ब्रैड, दूध और खाना पकाने का तेल खरीदकर घर में जमा कर लेना चाहते थे. लेकिन लॉकडाउन के कारण घर के बाहर की खपत या संस्थागत खपत पर बहुत भारी असर पड़ा. इस प्रकार सड़क के किनारे आलू चाट, टिक्की, समोसा और पाव भाजी से लेकर डोसा और फ्रैंच फ्राइज़ बेचने वाले खोमचे वालों को बहुत बड़ा झटका लगा. इसी तरह टी स्टॉल और होटल, रेस्तराँ और खानपान सेवाओं (HORECA) द्वारा दूध, आईसक्रीम निर्माताओं द्वारा SMP और मक्खन, मिठाईवालों द्वारा खोया और छेना और डोमिनोज़ पिज़्ज़ा, मैकडॉनल्ड्स और पिज़्ज़ा हट द्वारा चीज़ की बिक्री ठप्प हो गई.
कोविड-19 और लॉकडाउन का मूलतः असर यह हुआ कि माँग-वक्र में बाईं ओर बदलाव आने से कृषि उपज के दाम “समतल” हो गए; इसका कारण दाम बढ़ने के कारण माँग की कमी नहीं था. बल्कि इसका कारण यह था कि इनकी खपत घरों तक सीमित रहने और कामगारों की कमी के कारण अधिकांश कंपनियाँ अपने कारखानों में उत्पादन कम करने के लिए विवश हो गईं. इस समय माँग उतनी भी नहीं थी जितनी कि उस समय थी जब उनके दाम वही थे.
चीनी और खाद्य तेल की संस्थागत खपत में भारी कमी अनेक क्षेत्रों में हुई, जैसे-वातित शीतल पेय, मिठाई, कॉन्फ़ेक्शनरी और जलपान निर्माताओं, सड़क के किनारे खाने-पीने की चीज़ें बेचने वाले खोमचे वालों और ढाबों में भी इनकी माँग में भारी कमी आ गई. अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में और कमी आने के कारण स्थिति और बिगड़ गई.
खाद्य व कृषि संगठन (FAO) का मूल्य सूचकांक जनवरी में 183 पॉइंट के 61-महीने के उच्च स्तर पर पहुँच गया था. मई तक यह लुढ़क कर 162.5 पॉइंट के 17-महीने के निम्न स्तर पर आ गया. हालाँकि चीनी और खाद्य तेल के मामले में एक अतिरिक्त कारक की भी भूमिका थी. 20 अप्रैल को वैस्ट टैक्सास मध्यवर्ती कच्चे तेल के मूल्य माइनस -$37.63 डॉलर प्रति बैरल पर अप्रत्याशित रूप में बंद हो गए, जबकि 2020 की शुरुआत में यह मूल्य $61.06 डॉलर प्रति बैरल था, एक दिन के बाद ही न्यूयॉर्क में कच्ची चीनी के दाम लुढ़क कर 9.75 सैंट पाउंड पर आ गए. 12 फ़रवरी को 15.78 सैंट तक पहुँचने के बाद 9 जून 2008 को ये दाम निम्नतम थे. मलेशिया में कच्चे ताड़ के तेल के दामों का भी ऊपर से नीचे लुढ़कने का ऐसा ही मामला हुआ था. 10 जनवरी को कैलेंडर वर्ष-उच्च में इसका दाम 3,134 निगनिट्स प्रति टन तक था और 6 मई को लुढ़क कर 3,134 निगनिट्स प्रति टन तक आ गया.
यहाँ दो बातों का ख्याल रखना होगा. पहली बात तो यह है कि कच्चे तेल से इसका लिंक. गन्ने को पेरकर इसे चीनी के रूप में सघन बनाया जा सकता है या फिर पैट्रोल के साथ मिलाकर इसे ईथानोल के रूप में किण्वित किया जा सकता है. जब तेल के दाम ऊँचे होते हैं तो खास तौर पर ब्राज़ील की मिलें ईथानोल से ज़्यादा चीनी बनाना चाहेंगी. इसी तरह जब कच्चे तेल के दाम में कमी आई तो ब्राज़ील की मिलें 2020-21 में 8-9 मिलियन टन अधिक चीनी का उत्पादन करके अपना भाग्य चमका सकती हैं और दुनिया की मंडियों को नीचे लाने के लिए तो यही काफ़ी है. यह तर्क ताड़ के तेल पर भी लागू होता है, जिसका दोहरा उपयोग खाना पकाने और बायोडीज़ल के लिए फ़ीडस्टॉक के रूप में भी होता है. दूसरा बिंदु यह है कि साल की शुरुआत में ही यह भविष्यवाणी कर दी गई थी कि चीनी और ताड़ के तेल की आपूर्ति में कमी आएगी. कोविड 19 ने इन सभी वैश्विक कमियों को धो दिया, क्योंकि फ़रवरी तक भारत की चीनी मिलें सितंबर को समाप्त होने वाले वर्ष के लिए 5.5-6 मिलियन टन के निर्यात-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उद्यत थीं और सफ़ेद सरसों के किसान अपनी रबी की फसल के लिए बेहतर दाम पाने की उम्मीद लगाये बैठे थे.
कोविड-19 ने बिल्कुल वही किया जो नोटबंदी ने तीन साल पहले किया था. दोनों ने ही किसानों पर कुठाराघात तभी किया जब उनकी फसलें बहुत अच्छी हुई थीं और माँग वक्र मुड़कर बाईं ओर चला गया था और उसके कारण भारी नुक्सान हो गया था. नोटबंदी के कारण नकदी की कमी हो गई थी जबकि उपज की मंडियों में मुख्यतः लेन-देन नकद रूप में ही होता है. संकट का कारण नकदी था, खरीदार नहीं. घरबंदी में संकट का कारण खरीदारों की कमी था. खरीदार घर में ही बंदी था और घर-परिवार के लोग मोटे तौर पर खाना भी घर पर ही खाते थे. (गरीबों और निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों की) आमदनी की कमी के कारण खपत भी प्रभावित हो रही थी और (संपन्न परिवारों की तुलना में) जबरन निष्क्रियता के कारण खाने-पीने की चीज़ों की ज़रूरतें भी कम हो गई थीं.
इसका नतीजा वही हुआः माँग का खात्मा. उपभोक्ता गर्मियों में आम तौर पर टमाटर अधिक खरीदते हैं. लेकिन मौजूदा दौर में कर्नाटक की कोलार मंडी में इसका थोक मूल्य औसतन अप्रैल में 327 रुपये प्रति 100 किलो और मई में इसका मूल्य 436 रुपये था जबकि 2019 के तदनुरूपी महीनों में इसकी तुलना में इनका मूल्य 1,440 और 2,068 रुपये था. डेरी किसानों को “फ़्लश” शरद-वसंत के मौसम की तुलना में गर्मी की “मंदी” के मौसम में बहुत कम वसूली के दाम मिले.
आगे क्या होगा?
समानताओं के बावजूद घरबंदी और नोटबंदी की स्थितियों में अंतर है. आरंभ में नोटबंदी के दौर में कृषि ने पहले ही बहुत कठिन दौर देखा था. एक दशक तक चलने वाले पण्यों के वैश्विक उत्कर्ष के अंतिम दौर में उन्होंने 2014 और 2015 में लगातार सूखे की मार झेली थी. नोटबंदी तो वस्तुतः पूरी तरह से कृषि का संकट बन गया था, भले ही समाज के दूसरे वर्गों ने भी अस्थायी तौर पर इससे भी बुरा या बहुत बुरा वक्त झेला होगा. लेकिन लॉकडाउन के हालात बिल्कुल उलट थे. संगठित और सूचीबद्ध फ़र्मों के साथ-साथ संपूर्ण विनिर्माण क्षेत्र और सेवाएँ, जो अनौपचारिक उद्यमों की कीमत पर नोटबंदी और जीएसटी से सचमुच लाभान्वित हुई थीं, 2018-19 में मंदी के क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी थीं. और ठीक उस समय जब लॉकडाउन से पहले कृषि क्षेत्र कुछ सँभलने लगा था, इन क्षेत्रों और सेवाओं में मंदी और गहराने लगी. मंदी के इस अंतिम दौर का कृषि क्षेत्र पर कम असर हुआ था, क्योंकि कृषि-कार्यों को – फसल काटने और उपज को प्राथमिक थोक मंडियों में ले जाकर बेचने- को आतंर राज्यीय और अंतर्राज्यीय आवागमन से घरबंदी के प्रतिबंधों में छूट दे दी गई थी. दूसरा अंतर यह था कि सरकार की प्रतिक्रिया नोटबंदी के दौरान लापरवाही की थी. इस दौर में मोदी सरकार का उद्देश्य मुद्रास्फीति के लक्ष्य को पूरी तरह से हासिल करना था. अनिवार्य वस्तु अधिनियम (ECA) को पुनर्जीवन देकर प्याज और आलू को भी इसके दायरे में ले लिया गया था ताकि तथाकथित जमाखोरों के खिलाफ़ कार्रवाई की जा सके. व्यापार संबंधी नीतिगत उपायों के साथ-साथ दालों और चीनी पर भी जमा करने की सीमा निर्धारित कर दी गई थी और निर्यात पर पाबंदी लगाकर ड्यूटी मुक्त आयात की अनुमति दे दी गई थी. बावजूद इसके कि 2016-17 के बाद किसानों ने घरेलू उत्पादन काफ़ी बढ़ा लिया था, 2015-16 से 2017-18 तक की अवधि में दालों और खाद्य तेल का रिकॉर्ड आयात किया गया. 2017 के उत्तरार्ध में ही आयात पर पाबंदी लागू कर दी गई थी. इसका आंशिक कारण किसानों में बढ़ता असंतोष था.
नोटबंदी के विपरीत लॉकडाउन के दौरान मोदी सरकार की भूमिका अधिक सक्रिय रही. इसका एक कारण कदाचित् यह भी हो सकता है कि उन्हें इस बात का एहसास था कि सार्वजनिक स्वास्थ्य की आपात् स्थिति के दौरान खाद्य सामग्री की “अनिवार्य” आपूर्ति करने के अलावा मौजूदा स्थिति में एकमात्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि कृषि ही है. स्थानीय प्रशासन सहित उनकी सरकार द्वारा आरंभिक बाधाओं के बाद मज़दूरों और मशीनों की आवाजाही के लिए वे तमाम कदम उठाये गए जिनसे किसान गेहूँ, सरसों, चना और गन्ने की फसल काट सकें. इसमें संदेह नहीं कि किसानों को दूध के साथ-साथ टमाटर, गाजर, शिमला मिर्च और लौकी, केले, तरबूज़ और तोतापुरी आम जैसी जल्दी खराब होने वाली उपज की बिक्री में काफ़ी नुक्सान झेलना पड़ा. लेकिन सरकारी एजेंसियों ने भी रबी के मौजूदा विपणन के मौसम में गेहूँ (735,000 मिलियन रुपये से ऊपर मूल्य के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 38.2 मिलियन टन की रिकॉर्ड वसूली),धान (735,000 मिलियन रुपये से ऊपर मूल्य के 15.2 मिलियन टन की वसूली), दालों (105,000 मिलियन रुपये मूल्य के 2 मिलियन टन चने और अरहर) और सफ़ेद सरसों (35,000 मिलियन रुपये मूल्य के 0.8 मिलियन टन) की बड़े पैमाने पर वसूली की. कुल मिलाकर प्रधानमंत्री-किसान प्रत्यक्ष लाभ अंतरण कार्यक्रम के अंतर्गत 166,000 मिलियन रुपये की और राशि का नकद भुगतान किया गया. इस तरह 1,300 बिलियन रुपये की अतिरिक्त नकदी लॉकडाउन के बाद की अवधि में केवल सरकारी खर्च के माध्यम से कृषि अर्थव्यवस्था में डाली गई होगी.
समग्र रूप में कहा जा सकता है कि लॉकडाउन की अवधि में मोदी सरकार ने कृषि संबंधी मामलों को निपटाने में बेहतर ढंग से काम किया, जबकि नोटबंदी के दौरान वह उदासीन बनी रही. कृषि क्षेत्र में आए स्पष्ट बदलाव से भी यह पता चलता है कि आज की अर्थव्यवस्था में कृषि ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है, जिसका निष्पादन अच्छा रहा है. नवंबर से अगले सात महीनों तक फुटकर उर्वरक की बिक्री में वृद्धि की दर लगातार दोहरे अंक में बढ़ती रही है और अभी शुरू हुए खरीफ़ (मानसून) के मौसम में जिस तेज़ी से पौधों की रोपाई हुई है, उससे ही यह बात सिद्ध हो जाती है.
हाल ही में दो सुधार ऐसे लागू किये गए जिनके कारण कृषि का महत्व संभवतः और भी बढ़ गया है. इन सुधारों को सामान्य हालात में लागू नहीं किया जा सकता था. पहला सुधार सरकार ने यह लागू किया कि युद्ध या अकाल जैसी “असाधारण स्थितियों” या वार्षिक फुटकर मूल्यों में 50 प्रतिशत वृद्धि होने पर ही जिन सरकारी शक्तियों का प्रयोग किया जाता है, उन शक्तियों का प्रयोग करते हुए सरकार ने अनाज, दाल, आलू, प्याज, खाद्य तेल और खानपान की अन्य चीज़ों को जमा करने की सीमा लागू कर दी. अनिवार्य वस्तु अधिनियम (ECA) खाद्य प्रसंस्करकों और निर्यातकों पर लागू नहीं होगा. दूसरा सुधार सरकार ने यह लागू किया कि नियमित थोक मंडियों की भौतिक सीमाओं के बाहर भी खाद्य उत्पादों की बिक्री और खरीद को लिए अनुमति प्रदान कर दी. सिद्धांत रूप में इन सुधारों के कारण किसानों को यह छूट मिल गई कि वे अपने उत्पादों को अब खाद्य प्रसंस्करकों, व्यापारियों या फुटकर व्यापारियों को अपने राज्य के अंदर या बाहर सीधे बेच सकते थे. यह छूट इलैक्ट्रॉनिक व्यापारिक प्लेटफ़ॉर्मों पर भी लागू होती है.
खास तौर पर अनिवार्य वस्तु अधिनियम (ECA) के अंतर्गत खाद्य सामग्री को जमा करने की सीमाओं को हटाने से संबंधित इन सुधारों के कारण इसी सरकार के अधीन यह विडंबना ही है कि एक ऐसे क्षेत्र को जीवन दान मिला है, जो अब सप्लाई की बाधाओं से मुक्त हो गया है. ये सुधार सांकेतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. इस प्रकार के सुधार को लागू करने के लिए एक ऐसे आर्थिक संकट की आवश्यकता थी, जो भारतीय कृषि और कृषि-आधारित कारोबार के मूल्य और क्षमता को पहचान सके और यह संकट कोविड-19 के कारण बड़ी निर्ममता से हमारे सामने आ गया है.
हरीश दामोदरन इंडियन ऐक्सप्रैस में राष्ट्रीय ग्रामीण कार्य एवं कृषि संपादक हैं और वे CASI Spring 2008 में विज़िटिंग स्कॉलर रहे हैं. वे मेखला कृष्णमूर्ति और अरविंद सुब्रमणियन के प्रति उनके अमूल्य सुझावों और टिप्पणियों के लिए विशेष रूप से आभारी हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919