कोविड-19 की महामारी के आरंभ से ही हालात चिंताजनक रहे हैं, लेकिन अब तो भारत के सोशल मीडिया पर गलत सूचनाओं की भरमार से हालात और भी बिगड़ गए हैं. ऐसे दावे तो आम हो गए हैं कि वायरस को जानबूझकर फैलाया गया है और अल्पसंख्यकों के कुछ समुदायों के कारण इसके फैलाव में तेज़ी आई है. चमत्कारी उपचार के तरीकों की जानकारी भी इंटरनैट पर हावी है. इनकी सच्चाई का पता लगाने के बजाय भारी मात्रा में झूठे इलाजों का दावा किया जा रहा है.
दूसरे देशों की तुलना में गलत सूचनाओं का संकट भारत में अलग किस्म का है. आंशिक रूप में इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यहाँ साक्षरता और डिजिटल साक्षरता की दर बहुत कम है. लेकिन इसका कारण प्रौद्योगिकीय और पक्षपातपूर्ण भेदभाव भी हो सकता हैः भारत में कोविड-19 से संबंधित गलत सूचनाओं के साथ-साथ अन्य प्रकार की गलत सूचनाएँ भी भाजपा शासक दल द्वारा संगठित व्हाट्सऐप ग्रुप द्वारा प्रसारित की जाती हैं, क्योंकि डिजिटल विश्व में भाजपा का स्पष्ट रूप में अपना संगठनात्मक वर्चस्व बना हुआ है.
खास तरह से प्रसारण की विधि अपनाने के कारण अनेक सवाल उठ खड़े होते हैं. पहला सवाल तो यही है कि भारत के व्हाट्सऐप से संबंधित अधिकांश गलत सूचनाएँ क्या इन्हीं पक्षपातपूर्ण सूत्रों से ही आरंभ होती हैं. दूसरा सवाल यह है कि इन पक्षपातपूर्ण सूत्रों से कितना अंश गलत सूचनाओं से संबंधित होता है.
इन सवालों के जवाबों से कारणभूत संबंधों और कहीं अधिक सार्थक प्रश्नों की श्रृंखला बन जाती है. इन सूत्रों से प्रसारित होने वाली गलत सूचनाओं के उजागर होने से किस प्रकार का राजनैतिक प्रभाव पड़ता है? पहले तो व्हाट्सऐप पर प्रसारित होने वाली गलत सूचनाएँ सामूहिक हिंसा और चुनावी झटकों से संबद्ध होती थीं. कोविड-19 से संबंधित गलत सूचनाओं का असर ऑफ़ लाइन भी हो सकता है. जानबूझकर वायरस फैलने से संबंधित अफ़वाहें फैलाने वाले ग्रुप सामूहिक हिंसा को बढ़ावा दे सकते हैं. चमत्कारी उपचार का दावा करने वाले लोग व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को विधिवत् वैज्ञानिक दिशा-निर्देशों की अनदेखी करने के लिए उकसा सकते हैं.
जहाँ एक ओर समाज वैज्ञानिकों के पास इन तमाम सवालों के व्यवस्थित और साक्ष्य-आधारित उत्तर देने के लिए पर्याप्त आँकड़े उपलब्ध नहीं होते और यही कारण है कि इन समूहों के उपचारात्मक प्रभाव के बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण प्रवचनों से वास्तविकता को प्रकट करने के लिए, कई सैद्धांतिक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं.
भारत में गलत सूचनाओं (और खास तौर पर कोविड-19 से संबंधित गलत सूचनाओं) के समग्र रूप में उत्पादन और प्रसारण में भाजपा समूहों का सापेक्षिक महत्व क्या है? इस प्रश्न के उचित उत्तर के लिए इस बात का व्यापक विश्लेषण करना होगा कि विभिन्न प्रकार के समूहों (पक्षपात-पूर्ण और गैर पक्षपात-पूर्ण) समूह वाले कितने भारतीय फ़ोन से जुड़े हैं. हालाँकि निजी स्वरूप वाले समूहों को देखते हुए मौजूदा सूचनाओं को प्राप्त करना बहुत कठिन है, लेकिन इससे एक शिक्षित अनुमान तो लगाया ही जा सकता है. पक्षपात पूर्ण सूत्रों में कुछ न कुछ गलत सूचनाएँ तो होती हैं, इसलिए इनसे गंभीर खतरा हो सकता है. लेकिन इस बात की बहुत कम संभावना है कि अधिकांश गलत सूचनाएँ व्हाट्सऐप के माध्यम से भारतीयों तक पहुँचती हैं, भले ही वे भाजपा समूहों के माध्यम से ही क्यों न निकली हों. अधिकांश गलत सूचनाएँ पारिवारिक समूहों जैसे अन्य चैनलों के माध्यम से हम तक पहुँचती हैं. भले ही कुछ गलत सूचनाएँ भाजपा समर्थित विश्वास में निहित हों, फिर भी अधिकांश गलत सूचनाएँ इसमें निहित नहीं हैं. और भारत में और अन्य देशों में भी गलत सूचनाओं में विश्वास रखने और उन्हें साझा करने के मामले में लोग पार्टी का दखल नहीं चाहते. उदाहरण के लिए, धार्मिकता का अपने आप में ही गलत सूचनाओं को मानने के साथ गहरा सह-संबंध होता है. उदाहरण के लिए कोविड-9 से संबंधित गलत सूचनाओं के मामले में सुमित्रा बद्रीनाथन और मैंने अपने मौजूदा शोध में यह पाया कि सूचनाओं से जुड़े विश्वासों के बारे में भाजपा की सपोर्ट के स्तरों की तुलना में धार्मिक स्तरों पर की गई भविष्यवाणी बेहतर होती है. उस अर्थ में यह स्पष्ट है कि भारत में कोविड से संबंधित गलत सूचनाओं के लिए, भले ही उन्हें भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा अक्सर हवा दी जाती है, पक्षपातपूर्ण सूत्रों को पूरी तरह से दोषी नहीं ठहराया जा सकता.
इन सूत्रों पर गलत सूचनाएँ किस हद तक सामान्य हैं? इस बिंदु पर मेरी उम्मीद इन सूत्रों से संबंधित कुछेक बेहद अतिशयोक्तिपूर्ण दावों पर भी उलटी पड़ जाती है. सीधे-सादे ढंग से कहें तो जहाँ एक ओर इन सूत्रों में कुछ गलत सूचनाएँ तो होती हैं और निश्चय ही ये गलत सूचनाएँ कोविड-19 से संबंधित होती हैं, वहीं यह कहना कदाचित् सही नहीं होगा कि भाजपा के व्हासऐप के सूत्रों में इस तरह की बातों की “भरमार” रहती है. सच तो यह है कि आनुपातिक शब्दों में भाजपा के सूत्रों में अपेक्षाकृत गलत सूचनाओं की पोस्ट कम होती हैं (कुल सूचनाओं में अधिक से अधिक कुछ प्रतिशत). इसका सीधा- सा कारण यह है कि इन सूत्रों में अन्य सामग्री की गैर-आनुपातिक मात्रा भी अधिक होती है-विभिन्न मुद्दों और विभिन्न प्रकार की अन्य पक्षपातपूर्ण सामग्री (इनमें पार्टी के कार्यकर्ताओं की सेल्फ़ी और राजनैतिक कार्यकर्ताओं के भेजे गए जन्मदिन की शुभकामनाओं के संदेश) पर “विधिसंगत” पक्षपातपूर्ण प्रचार मुख्यतः पहले से वफ़ादार समर्थकों/ सदस्यों को एकजुट करने के लिए होता है. इसके बदले में सभी प्रकार की पक्षपातपूर्ण सामग्री पूरी तरह से गैर-राजनैतिक सामग्री के रूप में तैरती रहती है. इनमें से अधिकांश सामग्री धार्मिक शास्त्रों पर आधारित नमोभाव और शुभकामनाओं से भरी होती है, लेकिन अधिकांश सामग्री न तो पक्षपातपूर्ण सामग्री होती है और न ही धार्मिक सामग्री. बहुत हद तक हम इन्हें टाइम पास या मनोरंजन की कोटि में वर्गीकृत कर सकते हैं.
भाजपा के समूहों में चुटकुले, गाने, स्थानीय समाचार, और यहाँ तक कि विज्ञापन भी पाए जा सकते हैं. व्हाट्सऐप के अपेक्षाकृत क्षैतिज स्वरूप के आलोक में हमें यह देखकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि यहाँ अपने तमाम प्रयासों के बावजूद “ऐडमिन्स” बहुत शक्तिशाली नहीं होते और वे किसी भी सामग्री को पोस्ट करने से रोक नहीं पाते. इस प्रकार गलत सूचना के तौर पर जो भी सामग्री इन सूत्रों में दिखाई देती है, वह अधिकांशतः तो रुचिकर नहीं होती और गलत सूचना भी नहीं कही जा सकती.
इन समूहों के माध्यम से प्रसारित अव्यवस्थित सामग्री से उपर्युक्त कारण संबंधी सवालों की सूचना मिलती है. इस तरह की गलत सूचनाओं के प्रसार का सचमुच क्या प्रभाव पड़ता है? उदाहरण के लिए, हमें यह देखकर हैरत होनी चाहिए कि भाजपा के सूत्रों के माध्यम से आम तौर पर व्हाट्सऐप समुदायों के माध्यम से प्रसारित गलत सूचनाएँ क्या सचमुच खतरनाक हो सकती हैं. इसका कारण यह नहीं है कि अधिकांश गलत सूचनाएँ प्रयोक्ताओं तक पहुँचती हैं, बल्कि यह सामग्री हानिरहित सामग्री लगने वाली सामग्री के बीच बिखरी रहती है. अगर इस प्रकार की “अन्य” सामग्री से समुदाय और विश्वास की भावना प्रयोक्ताओं में विकसित होती है तो उक्त गलत सूचना का गलत प्रभाव भी पड़ सकता है. दूसरे शब्दों में, धीरज के साथ – और विश्वसनीय रूप में गढ़ी गई गलत सूचनाओं की तुलना में बंद दरवाजों के बीच होने वाली चर्चा में अधिक मात्रा में बहुत कम लागत पर डिजिटल समुदायों में गलत सूचनाओं के प्रसारित होने की सीमित क्षमता और प्रभाव होता है.
इन सबसे यह पता चलता है कि व्यवहार को प्रभावित करने वाली गलत सूचनाओं का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि इसका प्रसार आम तौर पर अक्सर होता रहता है, लेकिन और भी विश्वसनीय रूप में इसका प्रभाव तब पड़ता है जब इसका प्रसार कभी-कभार होता है और इसे सही संदर्भ में इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि इससे विश्वास पैदा हो. क्या हमें गलत सूचनाओं को अनिवार्यतः कुछ इस तरह से डिलीवर करना चाहिए कि इससे व्यवहार में परिवर्तन आए ? ठोस रूप में किसी ग्रुप चैट में चमत्कारिक उपचार के बारे में पढ़ने के बाद पाठक उक्त उपचार को सचमुच आज़माना चाहते हैं और/या अन्य सभी स्वास्थ्य संबंधी उपायों की अनदेखी करने लगते हैं?
एक बार फिर हम पाठकों को याद कराना ज़रूरी समझते हैं कि हमारे पास इस समय दुःखद कारण बताने वाले संबंध का पक्का साक्ष्य मौजूद नहीं है. हमारे पास जो भी साक्ष्य हैं उनसे यह सवाल बना ही रहता है कि इसमें अतिरिक्त शोध कार्य करने की आवश्यकता है. अगर हम स्वास्थ्य संबंधी गलत सूचनाओं के प्रसार के प्रभाव का वैज्ञानिक तौर पर आकलन कर भी लेते हैं तो भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि हम इनके प्रभावों का पता भी लगा पाएँगे या नहीं. आम तौर पर व्हाट्सऐप का प्रभाव तमाम विश्वसनीय लगने वाले उपायों की तुलना में कम ही पड़ेगा. वस्तुतः बेहद शक्तिशाली भाजपा का नैरेटिव या विमर्श यही है कि लोगों की सोच को बदला जाए और इससे ही उनके या पार्टी के हितों का पूरी तरह से संवर्धन होता है. इस तरह के अभियान का नेतृत्व करने वाले अमित शाह जैसे पार्टी के नेता लगातार इस बात पर अभिमान करते हैं कि उनके पास उनके द्वारा निर्मित “डिजिटल सेना” या “व्हाट्सऐप तंत्र” है. उनके इस अभिमानपूर्ण वक्तव्य को एक ऐसी वर्चस्व वाली पार्टी के संदर्भ में देखा जाना चाहिए जो अजेय पार्टी के रूप में अपनी पार्टी की छवि बनाकर विरोधी दल को निरुत्साहित करना चाहती है.
इस प्रकार के नैटवर्क का आकार इतना बड़ा हो गया है कि इन्होंने विरोधी दलों को पछाड़ दिया है, लेकिन भाजपा के कुछ कार्यपालक अधिकारी जिस रूप में सिल्वर बुलेट के रूप में इसे विकसित करना चाहते हैं, वैसा नहीं हो पाया है. सरल ढंग से कहें तो राजनैतिक मनोविज्ञान, राजनैतिक संप्रेषण और विज्ञापन के संबंध में पिछले 70 वर्षों में किये गए शोधकार्य के आधार पर हम कह सकते हैं कि समझाने-बुझाने की प्रक्रिया स्वचालित प्रक्रिया से कहीं बहुत दूर की बात है.
और रिकॉर्ड के लिए पिछले कुछ वर्षों में अमरीकी संदर्भ में इस प्रकार के सवालों पर जो शोध हुए हैं उनसे पक्के तौर पर यही निष्कर्ष निकलता है कि ऑनलाइन गलत सूचनाओं के प्रभाव को अंशतः बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है, क्योंकि सोशल मीडिया की इस प्रकार की सामग्री से परिचित लोग पहले ही इस पर भरोसा करते हैं और अंशतः अपेक्षा से कम लोग ही अच्छी तरह से इसकी विवेचना करते हैं.
यह सोचना तर्कसंगत है कि इस प्रकार की गतिशीलता भारत पर और कोविड-19 से संबंधित गलत सूचनाओं पर भी लागू होती है. कई कारणों से सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित इस प्रकार की सामग्री से बहुत ही छोटे समूह के व्यवहार में परिवर्तन आने की संभावना होती है. इस प्रकार की गलत सूचनाओं को कभी पूरी तरह से संसाधित नहीं किया गया है और न ही अधिकांश लोगों ने इसे गंभीरता से लिया है; या, अधिक बड़ी समस्या तो यही है कि जो इस प्रकार की सूचना से प्रभावित हैं वे पहले से ही कई अन्य उपायों से इससे परिचित हैं.
इस अर्थ में भारत के सामने असली चुनौती यह नहीं है कि भाजपा के व्हाट्सऐप समूहों ने कोविड-19 से संबंधित गलत सूचनाओं के बदले अपनी विशिष्ट भूमिका को अपना लिया है, बल्कि अधिक जटिल तथ्य तो यह है कि बरसों से पार्टी के नेता मुखर होकर व्हाट्सऐप और अन्य मंचों पर वैज्ञानिक ढंग से गलत सूचनाओं को प्रसारित करते रहे हैं.
साइमन चौचर्ड लाइडन विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919