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दक्षिण एशिया में चीन के प्रतिकार के लिए “समान विचारधारा वाले” देशों की भागीदारी

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11/09/2017
कॉन्स्टेंटिनो ज़ेवियर

वर्ष 2000 के मध्य से दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभुत्व के कारण इस क्षेत्र में पाकिस्तान से लेकर म्याँमार तक और हिंद महासागर में भी भारत का परंपरागत दबदबा कुछ कम हो गया है. चूँकि बीजिंग पूरे उप महाद्वीप में इतनी भारी मात्रा में वित्तीय निवेश करता है और अपनी रणनीतिक धौंस जमाता है कि नई दिल्ली को अपने रणनीतिक ढंग से भारी क्षमताओं वाली चीनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

सन् 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने नेबरहुड फ़र्स्ट अर्थात् “पहले पड़ोसी” नाम से जो योजना शुरू की थी उसके परिणामस्वरूप भारत ने इस क्षेत्र के अन्य देशों के साथ अपनी भागीदारी बढ़ाना शुरू कर दिया है. संतुलन बनाने की यह रणनीति दक्षिण एशिया को उसके विशिष्ट क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाये रखने और इस क्षेत्र में इतर देशों के प्रभाव को रोकने के भारत के बढ़ते अस्थायी प्रयासों से बिल्कुल अलग है.     
आधिकारिक रूप में ऐसे अप्रत्याशित प्रयासों को ही परोक्ष रूप में “समान विचारधारा वाले” देशों की भागीदारी माना जाता है. विदेश सचिव एस. जयशंकर के अनुसार अधिकाधिक “जनता-केंद्रिक” कनैक्टिविटी परियोजनाओं और “सहकारी क्षेत्रीय आर्किटैक्चर” को लागू करने के लिए भारत “समान विचारधारा वाले अन्य अनेक अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ मिलकर काम कर रहा है.”

दक्षिण एशिया के नये भागीदार
भारत की क्षेत्रीय रणनीति के इस नये आयाम की खूब चर्चा हो रही है. अमरीका के साथ-साथ भारत अब नेपाल, बंगला देश या श्री लंका जैसे छोटे-छोटे देशों से भी परामर्श करता है. पिछले वर्ष मोदी द्वारा दिये गये इस बयान में वाशिंगटन के साथ मिलकर काम करने की नई दिल्ली की इच्छा व्यक्त हुई थी, “हम अफ़गानिस्तान के विकास के लिए समान विचारधारा वाले देशों के साथ काम करने के लिए तैयार हैं”.
सन् 2015 में मालाबार नौसैनिक अभ्यास में जापान को स्थायी तौर पर शामिल करने के बाद टोक्यो और नई दिल्ली ने संयुक्त दृष्टिकोण 2025 की एक योजना बनाई थी, जिसमें खास तौर पर बंगाल की खाड़ी में बेहतर क्षेत्रीय समन्वय और कनैक्टिविटी में सुधार लाने के लिए समन्वय की भावना से द्विपक्षीय रूप में और अन्य भागीदारों के साथ मिलकर सिनर्जी के रूप में मिलकर काम करने का संकल्प किया गया था. सन् 2016 में घोषित एशिया-अफ्रीका विकास कॉरिडोर में इस भावना को और अधिक स्पष्ट करते हुए भारत ने चीनी बैल्ट व सड़क पहल (BRI) का विकल्प तैयार करने के लिए जापान के साथ मिलकर काम करने की इच्छा व्यक्त की थी.
सन् 2014 में भारत और रूस ने बंगला देश और श्री लंका को केंद्र में रखते हुए तीसरे देशों में सहयोग करते हुए परमाणु ऊर्जा विकसित करने के अप्रत्याशित करार पर हस्ताक्षर किये थे. सन् 2017 में भारत के पूर्वी तट पर पहला ऑस्ट्रेलिया-भारत सामुद्रिक अभ्यास (AUSINDEX) किया गया. युनाइटेड किंगडम और भारत ने दक्षिण एशिया में विकास के लिए आवश्यक सहायता-निधि को केंद्र में रखकर “तीसरे देशों में सहयोग की भागीदारी” संबंधी आशय कथन (statement of intent) पर हस्ताक्षर किये और सन् 2016 में क्षेत्रीय मामलों पर अपना पहला औपचारिक संवाद शुरू किया.  

ब्रसेल, पेरिस और बर्लिन के साथ नई दिल्ली ने हिंद महासागर क्षेत्र में सामुद्रिक सुरक्षा पर चर्चा की और क्षेत्रीय आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए प्रयासों मे तेज़ी लाने के लिए खुफ़िया जानकारी साझा की. अंततः पिछली नीति से अलग हटकर भारत ने आगे बढ़कर क्षेत्र के बहुपक्षीय संगठनों का समर्थन किया और 2016-25 के एशियाई विकास बैंक के दक्षिण एशिया उप-क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग (SASEC) ऑपरेशन प्रोग्राम में पूरे उत्साह से भाग लिया, जिसका मुख्य उद्देश्य उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्वेशिया के बीच कनैक्टिविटी में सुधार लाना था.

भागीदारी का विस्तार
जहाँ एक ओर भागीदारी के कई प्रयास अभी उभर ही रहे हैं, वहीं कई उपाय ऐसे भी किये गये हैं जिनसे तीन क्रमिक स्तरों पर उनका विस्तार हो जाएगा. पहले स्तर पर आपसी सलाह-मशविरा को बढ़ावा देने के लिए नई दिल्ली और क्षेत्र से इतर शक्तियों को चाहिए कि वे दक्षिण एशिया में विकास के मुद्दों पर चर्चा करने और मूल्यांकन को साझा करने के लिए इसी उद्देश्य के लिए समर्पित नये संस्थागत तंत्र का विस्तार करने या निर्माण करने के लिए निवेश करें. मौजूदा क्षेत्रीय परामर्श के दौरान अक्सर अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान या व्यापक एशियाई रणनीतिक मुद्दे नेपाल या श्री लंका पर छा जाते हैं. इससे तीन विशिष्ट क्षेत्रीय मार्गों पर विशेष द्विपक्षीय संवाद का मार्ग प्रशस्त हो जाएगाः चीन पर मुख्यतः केंद्रित राजनैतिक और रणनीतिक मुद्दे, आतंकवाद के प्रतिकार से जुड़े मुद्दे और सामुद्रिक सुरक्षा संबंधी मुद्दे; कनैक्टिविटी, व्यापार और निवेश की पहलों से जुड़े आर्थिक मुद्दे और सहायता-प्राप्त परियोजनाओं और अन्य आर्थिक मदद संबंधी पहलों से जुड़े विकास के मुद्दे.

दूसरा स्तर है, समन्वय की संभावनाओं को बढ़ाने के लिए भारत और उसके भागीदारों द्वारा उसके बाद दक्षिण एशिया में नीति संबंधी समन्वय के उद्देश्य से द्विपक्षीय क्षेत्रों को चिह्नित करना, ताकि श्रम के विभाजन पर सहमति बनाते हुए प्रत्येक पक्ष के तुलनात्मक लाभ को अधिकाधिक सुनिश्चित किया जा सके. उदाहऱण के तौर पर बंगला देश में भारत ने राजनैतिक और क्षमता-निर्माण पर अपना ध्यान केंद्रित रखा है, जबकि जापान बुनियादी ढाँचागत परियोजनाओं के वित्तपोषण पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा है. इसी प्रकार ऐसे भी संकेत हैं कि भारत और अमरीका ने मालदीव में अपने राजनैतिक प्रयासों को सफलता पूर्वक समन्वित कर लिया है, जिससे “अच्छी पुलिस और बुरी पुलिस” की नीति के आधार पर माले के व्यवहार को ठीक किया जा सके.

तीसरा और सबसे ऊँचा स्तर तो यही है कि चीन के प्रतिकार के लिए और दक्षिण एशिया में ठोस सहयोग को बढ़ाने के लिए भारत और क्षेत्र से इतर उसके भागीदारों को चाहिए कि वे अपने प्रयासों को समन्वित करने और संयुक्त परियोजनाओं को लागू करने का प्रयास करें.  इसके लिए आवश्यक है कि भारत-अमरीका-अफ़गानिस्तान के त्रिपक्षीय मॉडल के आधार पर तीसरे देशों को भी द्विपक्षीय संवादों में शामिल किया जाए. क्षेत्र के तीसरे देशों को सुदृढ़ करने के लिए ऐसी भागीदारी अनेक विशिष्ट क्षेत्रों पर केंद्रित की जा सकती है, जैसे, विकास के लिए दी जाने वाली सहायता-राशि का संयुक्त संवितरण, कार्यान्वयन और निगरानी; ढाँचागत विकास को सुगम बनाने के लिए इसी उद्देश्य के लिए वितरित निधि की स्थापना या सैनिक साजो-सामान की प्राप्ति; प्रशासनिक और सुरक्षाकर्मियों के लिए क्षमता-निर्माण का प्रशिक्षण; सुशासन और कानून के शासन की स्थापना के लिए लोकतंत्र की सहायता; और संयुक्त सैनिक अभ्यास, मानवीय सहायता और आपदा राहत कार्य (HADR).

भावी चुनौतियाँ
जहाँ एक ओर भारत और क्षेत्र से इतर उसके भागीदार दक्षिण एशिया में परामर्श करने, समन्वय करने और आपसी सहयोग करने का प्रयास करते हैं, वहीं उन्हें अन्य अनेक चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना होगा. पहली बात तो यह है कि क्षेत्र से इतर भागीदारों को इस क्षेत्र में भारत की प्रमुख भूमिका को स्वीकार करते रहना होगा और वास्तविक और काल्पनिक सभी प्रकार के सुरक्षा संबंधी सरोकारों को दरकिनार करना होगा. उदाहरण के लिए, हाल ही के वर्षों में आए क्षेत्रीय संकटों (जैसे नेपाल के भूकंप के समय) में अमरीका द्वारा भारत के नेतृत्व को स्वीकार करने से नई दिल्ली में अमरीका की सद्भावना को बहुत बल मिला है और क्षेत्रीय संकट के समय “प्रतिक्रिया व्यक्त” करने में भी भारत अग्रणी रहा है. दूसरी बात यह है कि संतुलन बनाये रखने में इस क्षेत्र के छोटे देशों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है और वे चीन के विरुद्ध भारत और उसके भागीदार देशों के साथ नज़दीकी परामर्श कर सकते हैं और समन्वय बनाये रख सकते हैं और यही इस समस्या का समाधान हो सकता है.

अंततः जब लोकतंत्र और मानवाधिकारों से संबंधित मानक आयाम का सवाल आता है तो नई दिल्ली और समान विचारधारा रखने वाले उसके मित्र देशों को अपनी अलग-अलग प्राथमिकताओं के कारण कभी-कभार तनाव भी झेलना पड़ सकता है. स्वाभाविक रूप से भारत के लिए किसी मुद्दे पर ध्यान केंद्रित रखने की स्थिति अल्पकालिक हो सकती है, क्योंकि इसके पड़ोस में किसी शासन पद्धति के लिए उसके आर्थिक और सुरक्षा हितों के कारण परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं. हालाँकि पश्चिम की उदारवादी हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति में कमी आई है, फिर भी उनकी मूल्य-आधारित और दीर्घकालीन दृष्टि बनी हुई है जिसके कारण वे तानाशाही शासन प्रणाली पर अपना दबाव बनाये रखते हैं. 

आखिरी चुनौती इस समय म्याँमार है, जहाँ रोहिग्याँ शरणार्थियों के मामले में भारतीय और पश्चिमी दृष्टि में बहुत अंतर है. वर्ष 2000 के उत्तरार्ध में पूर्व भारतीय कूटनीतिज्ञ शिव शंकर मेनन ने इसे बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया था कि “प्रतिबंध लगाने की माँग हमेशा उन देशों की ओर से उठती है जिनकी भौगोलिक दूरी म्याँमार से अपेक्षाकृत अधिक होती है.” बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण नाएप्यीडॉ अब समर्थन के लिए चीन की ओर झुकने लगा है. इसके कारण बंगाल की खाड़ी में भारत की कनैक्टिविटी- योजना अब खटाई में पड़ गई है.

इसी तरह का संतुलन श्री लंका, बंगला देश, नेपाल और मालदीव में भी बनाना होगा. अपने क्षेत्र में भारत को अपनी प्रभावी भूमिका बनाये रखने के लिए वैश्विक स्तर पर अपनी पहुँच बढ़ानी होगी.

कॉन्स्टेंटिनो ज़ेवियरनई दिल्ली स्थित कार्नेई इंडिया में फ़ैलो हैं, जहाँ वह मुख्यतः भारत की पड़ोस नीति और दक्षिण एशिया से जुड़े क्षेत्रीय सुरक्षा संबंधी मामलों पर कार्य करते हैं. वह मुख्यतः भारत की पड़ोस नीति और दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय सुरक्षा संबंधी मामलों का अध्ययन करते हैं. इस समय वह 1950 के दशक से लेकर 2000 के दशक तक नेपाल, श्री लंका और म्यामाँर में भारत के संकट की प्रतिक्रिया और संलग्नता के पैटर्न पर पुस्तक लिख रहे हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919