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भारत का ग्रामीण मतदाता कितना समझदार है?

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29/01/2018
मार्क शाइडर

क्या भारत के ग्रामीण मतदाता इतने समझदार हैं कि वे भारत के स्थानीय चुनावों की जटिलता को समझ सकें ? सन् 1992 में 73 वें संशोधन के पारित होने के बाद ग्रामीण पंचायत अर्थात् ग्रामीण भारत के निम्नतम शासकीय पायदान को संवैधानिक अधिकार मिल गया कि ग्राम पंचायत और सरपंच का चुनाव नियमित रूप में कराया जाए. इसका परिणाम यह हुआ कि स्थानीय शासन के लाखों चुनावी पदों का सृजन हो गया. इससे ग्रामीण नेताओं का, खास तौर पर सरपंचों का सशक्तीकरण हो गया और उन्हें सरकारी कार्यक्रमों को स्थानीय स्तर पर लागू करने के लिए काफ़ी विवेकाधिकार मिल गये. साथ ही राज्य सरकारों ने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना अर्थात् मनरेगा के अंतर्गत शामिल परियोजनाओं के लिए निर्धारित निधि को आबंटित करने और स्कूलों व सड़कों आदि सार्वजनिक कल्याणकारी कार्यों के लिए सरकारी निधियाँ आबंटित करने का विवेकाधिकार राज्य सरकारों ने अपने पास ही रखा.

हमारे शोध से यह पता चलता है कि भारत सरकार के विभिन्न स्तरों के राजनीतिज्ञ सरकारी संसाधनों के आबंटन में अपने समर्थकों को लाभ पहुँचाने का प्रयास करते हैं, क्योंकि सरपंचों को चुनने वाले मतदाताओं के लिए 73 वें संशोधन के माध्यम से निर्मित बहु-स्तरीय प्रणाली को समझना बहुत जटिल है. उदाहरण के लिए, राजस्थान के मेरे शोध स्थल पर, जहाँ राज्य सरकार भाजपा की है और कांग्रेस मुख्य विरोधी दल है, वहाँ ऐसा हो सकता है कि कांग्रेसी सरपंच भाजपा समर्थक का पक्ष लेने के बजाय कांग्रेसी समर्थक का पक्ष ले, लेकिन जब स्थानीय स्तर पर सार्वजनिक कल्याणकारी कार्यों के लिए या पोर्क बैरल परियोजनाओं के लिए निधि आबंटित करने का सवाल आएगा तो हो सकता है कि भाजपा की सरकार उसके गाँव की उपेक्षा भी कर दे. सरपंच चुनते समय राजस्थानी मतदाताओं को चाहिए कि वे यह देखने के बजाय कि वह किस दल का है वैसे तो ग्राम पंचायतों के चुनावों में चुनाव आयोग ने राजनैतिक दलों के चुनाव चिह्नों पर पाबंदी लगा रखी है, फिर भी यह खुला रहस्य है कि सरपंच के चुनाव के लिए कौन-सा प्रत्याशी किस पार्टी का है यह देखना चाहिए कि राज्य सरकार किस पार्टी की है और राज्य और स्थानीय प्रशासन के साधनों पर किसका नियंत्रण है और उनकी प्राथमिकता क्या है, राज्य या उनके गाँव का स्थानीय प्रशासन. क्या ग्रामीण मतदाता इतना समझदार है कि वह यह समझ सके कि बहु-स्तरीय राजनैतिक व्यवस्था राज्य सरकार के लाभों को कैसे प्रभावित करती है और क्या इससे सरपंच के चुनाव में अपनी पसंद के प्रत्याशी को वोट देने से कोई फ़र्क पड़ता है ?

पिछले शोध-कार्यों से यह पता चलता है कि भारतीय मतदाता अपने सीधे-सादे अनुभव से (अर्थात् पार्टी के नेता की जाति के आधार पर) पार्टी को प्राथमिकता देने और अपनी पसंद के प्रत्याशी को वोट देने के लिए मोटा-सा निर्णय ले लेता है.इस दृष्टिकोण के कारण उसके लिए इस बात का हिसाब लगाने का कोई कारण नहीं रह जाता कि वह स्थानीय प्रशासन की भलाई को ध्यान में रखकर प्रत्याशी का चयन करे. इस दृष्टिकोण के विपरीत दलगत राजनीति पर लिखे अपने आगामी लेख समझदार मतदाता: बहु-स्तरीय शासन के अंतर्गत पार्टी-वोटर संबंध और स्थानीय वितरण में मैंने स्पष्ट किया है कि ग्रामीण भारत के मतदाता बड़े ही सूक्ष्म रूप में सरकारी और गैर-सरकारी लाभ प्राप्त करने के अवसर पाने की उम्मीदों पर विचार करके ही कोई निर्णय लेते हैं.

इसका निर्धारण करने के लिए इसी मामले में मैंने सन् 2013 में एक सर्वेक्षण का प्रयोग किया था, जिसमें पूरे राजस्थान के गरीब और ग्रामीण ज़िलों के 96 ग्राम पंचायतों के 960 परिवारों के मुखिया शामिल थे. इसे मैं असली प्रत्याशी के चित्र का प्रयोगकहता हूँ. इसमें मैंने सबसे पहले मतदाताओं से जानना चाहा कि उनकी ग्राम पंचायतों में भाजपा या कांग्रेस के सबसे अधिक लोकप्रिय नेता कौन-कौन से हैं. फिर मैंने पूछा कि सन् 2015 के लिए निर्धारित सरपंचों का चुनाव जीतने के लिए भाजपा या कांग्रेस में से किसी भी पार्टी का चुनाव जीतने पर अनेक प्रकार के लाभ पाने से जुड़ी उनकी उम्मीदें क्या होंगी; सर्वेक्षण में भाग लेने वाले प्रतिभागियों से भाजपा या कांग्रेसी नेताओं के बारे में यादृच्छिक रूप में ही पूछा गया था, क्योंकि इस प्रकार के प्रयोगों में कुछ इसी तरह से पूछा जाता है. बाद में मैंने नमूने के आधार पर कुछ मतदाताओं से उनके दलगत संबंधों के प्रभाव का विश्लेषण किया. इस विश्लेषण में उनकी दलगत प्राथमिकता का प्रतिशत इस प्रकार था, भाजपा (40 प्रतिशत), कांग्रेस (35 प्रतिशत) और वे लोग, जिन्होंने किसी भी पार्टी का समर्थन नहीं किया (25 प्रतिशत).  

निजी लाभों के संबंध में मतदाताओं की अपेक्षाओं का आकलन करने के लिए मैंने काम का अधिकार देने वाले मनरेगा कार्यक्रम जैसी ही एक स्थानीय ढाँचागत परियोजना का वर्णन किया और सर्वेक्षण के प्रतिभागियों से पूछा कि अगर उन्हें 2015 में होने वाले अगले ग्राम पंचायत में जीतना है तो इस कार्यक्रम के अंतर्गत काम पाने के लिए वे भाजपा या कांग्रेस (इस प्रयोग में किसी भी पार्टी का चयन यादृच्छिक रूप में किया जा सकता था) में से किस पार्टी का समर्थन करेंगे.मैंने इन प्रतिभागियों से यह भी पूछा कि क्या उनके नेता के सरपंच बन जाने से उन्हें गरीबी रेखा के नीचे वाला बीपीएल कार्ड मिलने की भी उम्मीद है, क्योंकि गरीबों को विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलने के लिए यह एक आवश्यक शर्त है.मैंने उनसे यह भी जानना चाहा कि अगर 2015 में ग्राम पंचायत का चुनाव होता है तो क्या इस प्रयोग के लिए चुना गया नेता उन्हें ग्रामीण स्तर की सार्वजनिक कल्याणकारी योजनाओं की धनराशि राज्य सरकार से अपनी ग्राम पंचायत को दिलवा सकेगा.महत्व की बात तो यह है कि इस बीच भाजपा की लहर राज्य के विधानसभा-चुनावों से नौ महीने पहले ही जनवरी, 2013 के मेरे सर्वेक्षण के समय में ही राजस्थान पहुँच गई थी. यही वे चुनाव थे, जिसमें राजस्थान के इतिहास में भाजपा पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में विजयी हुई थी. मैं यह देख सकता था कि मतदाता यह सोच रहा था कि यदि विधान सभा के चुनाव में भाजपा जीतती है और अगर भाजपा का पक्षधर उम्मीदवार भी सरपंच का चुनाव जीत लेता है तो उन्हें राज्य सरकार से धनराशि मिलने की उम्मीद बढ़ जाएगी. मेरी इस धारणा की पुष्टि उन तमाम बेहतरीन साक्षात्कारों से भी हुई थी जिन्हें सर्वेक्षण से पहले या सर्वेक्षण के दौरान लिया गया था. इस सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हो गया था कि आगामी चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत की संभावना है. यह जीत राजस्थानी मतदाताओं के उस पैटर्न के भी अनुरूप थी, जिसके अनुसार सन् 1993 से यह परंपरा बन गई थी कि राजस्थानी मतदाता सत्ताधारी पार्टी को सत्ता से उठाकर बाहर कर देता था.

मेरे इन नतीज़ों से मेरे इस दृष्टिकोण की भी पुष्टि हो जाती है कि ग्रामीण मतदाता राज्य सरकार से मिलने वाले लाभों के वितरण में राजनैतिक पक्षपात को भी बहुत अच्छी तरह से समझता है. सबसे पहली बात तो यह है कि मुझे इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिले कि ढाँचागत परियोजनाओं से मिलने वाले रोज़गार जैसे निर्धारित लाभ को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़कर पक्षपात करने के लिए तैयार रहता है. मतदाता, भले ही वह कांग्रेस या भाजपा में से किसी भी दल का समर्थक क्यों न रहा हो, उसी पार्टी का समर्थन करेगा जिससे रोज़गार मिलने की संभावना अधिक होगी. ये रोज़गार कांग्रेस और भाजपा के समर्थकों द्वारा समर्थित उस समय के किसी अन्य पार्टी के उम्मीदवार से क्रमशः .29 और .39 पॉइंट (4-पॉइंट के स्केल पर ) अधिक थे. इसी तरह कांग्रेस और भाजपा का प्रतिशत 15 और 21 प्रतिशत पॉइंट था और अपनी पसंद की पार्टी से जुड़े इस प्रयोग में उनके सरपंच बनने पर बीपीएल कार्ड मिलने की संभावना भी अधिक थी. किसी भी पार्टी का समर्थन नहीं करने वाले मतदाता भी यह नहीं मानते थे कि सरपंच की पार्टी का असर रोज़गार या बीपीएल कार्ड मिलने पर पड़ सकता है. जब मैं उनके नेता की जाति ( इसमें जाट, यादव, राजपूत जैसी सवर्ण जातियाँ और ओबीसी जैसी राजस्थान में राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जातियाँ भी शामिल हैं) और मुस्लिम धर्मावलंबियों आदि पर विचार करता हूँ तो भी ये नतीज़े उतने ही कारगर सिद्ध होते हैं. संक्षेप में, किसी पार्टी से संबद्ध मतदाता भी यह समझता है कि निजी लाभ प्राप्त करने के लिए पार्टी से संबंधित पक्षपात तो होता ही है और इसका विवेकाधिकार सरपंच के पास रहता है.किसी भी पार्टी से संबंध न रखने वाले मतदाता भी यह समझते हैं कि कोई भी मतदाता, जो स्थानीय पार्टी के नैटवर्क से अलग रहता है, उसे सरपंच से कोई लाभ नहीं मिल सकता.

मेरे नतीजों के दूसरे चरण से पता चलता है कि राज्य सरकार से आर्थिक लाभ पाने के लिए मतदाता पक्षपात करने से नहीं झिझकते, क्योंकि वे जानते हैं कि अगर सरपंच राज्य की सत्ताधारी पार्टी से जुड़ा होता है तो उसे काफ़ी लाभ मिल सकता है. समग्र रूप में यदि सर्वेक्षण में भाग लेने वाले प्रतिभागियों की पार्टी विशेष के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को छोड़ भी दिया जाए तो भी ऐसे मतदाताओं की संख्या 5 प्रतिशत पॉइंट अधिक थी, जो भाजपा के सरपंच को इसलिए जिताना चाहते थे ताकि उन्हें अपने गाँव के लिए राज्य सरकार से अधिक धनराशि मिल सके. जब मैं पक्षपात की बात करता हूँ तो भाजपा और किसी भी पार्टी विशेष से असंबद्ध मतदाता (कांग्रेसी सरपंच की तुलना में) 9 और 10 प्रतिशत पॉइंट से अधिक थे ताकि उन्हें राज्य से अधिक आर्थिक लाभ मिल सके. इस मामले में कांग्रेसी समर्थक भी भाजपा और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं करते, जबकि इसके विपरीत अपने पक्षधर सहयोगियों से लाभ मिलने की उनकी उम्मीद कहीं ज़्यादा होती है.

इन नतीजों से हमें पता चलता है कि ग्रामीण मतदाता यह समझते हैं कि राज्य से मिलने वाले आर्थिक लाभ में भी पार्टी के आधार पर पक्षपात होता है और यह भी समझते हैं कि अलग-अलग स्तरों (स्थानीय और राज्य प्रशासन) की सरकारों के कल्याणकारी कार्यों के लिए चिह्नित लाभों के वितरण में उनकी क्या भूमिका रहती है. भाजपा समर्थक और स्वतंत्र मतदाता भी यह स्पष्ट रूप में जानते हैं कि भाजपा का सरपंच बनने से उन्हें राज्य सरकार से अधिक आर्थिक लाभ मिलने की संभावना रहती है. और यहाँ तक कि कांग्रेस समर्थक भी, जिनका मनोवैज्ञानिक झुकाव कांग्रेसी नेता के प्रति ही रहता है, यह नहीं मानते कि कांग्रेसी नेता ही राज्य सरकार से आर्थिक लाभ दिलवाने में कोई मदद कर सकते हैं. रोज़गार और बीपीएल कार्ड के संदर्भ में पक्षपात से मिलने वाले लाभ को छोड़कर शेष सभी मामलों में दोनों पार्टियों की सोच में काफ़ी अंतर रहता है. 

स्थानीय चुनावों में इसके परिणाम काफ़ी महत्वपूर्ण होते हैं.अगर मतदाता यह समझते हैं कि सत्तादल के सरपंच से राज्य सरकार के संसाधन मिलने की अधिक संभावना रहती है तो सार्वजनिक हित में वे उसी उम्मीदवार को वोट देंगे जो सत्ताधारी राज्य सरकार से अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकता है. हालाँकि विरोधी दल के कट्टर समर्थक फिर भी अपनी पार्टी के प्रति वफ़ादार बने रहते हैं, लेकिन उन इलाकों में जहाँ कांग्रेस की पकड़ ज़्यादा रहती है, वहाँ भी कांग्रेस की स्थिति कमज़ोर ही रहती है और राजस्थान के गरीब ग्रामीण इलाकों के भाजपा समर्थकों की स्थिति बेहतर रहती है और किसी भी पार्टी से असंबद्ध मतदाता 10 प्रतिशत पॉइंट से भाजपा को अधिक मत देते हैं. आज जिस तरह से भाजपा भारत के 19 राज्यों में सरकार चला रही है और निरंतर आगे बढ़ रही है, उसे देखकर तो मेरे नतीज़ों से भी यही लगता है कि ग्राम पंचायतों के चुनावों में भाजपा अपनी जीत का परचम लहराएगी.

मार्क शाइडर पिट्ज़र कॉलेज में राजनीति शास्त्र के विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हैं और कैसी  के अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर हैं. उनसे mark_schneider@pitzer.edu पर संपर्क किया जा सकता है.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919