वर्ष 2018 की शुरुआत उस समय एक ऐसी निराशाजनक घटना से हुई जब केप टाउन (दक्षिण अफ्रीका) में पानी की सप्लाई ठप्प होने की खबर ने पूरी दुनिया के समाचार जगत् को झकझोर कर रख दिया. संपूर्णघटना क्रम में एक और भी तथ्य था, जिसपर मीडिया ने अधिक ध्यान नहीं दिया कि कच्ची बस्तियों में रहने वाले शहर के एक चौथाई लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं और “डे-ज़ीरो” अर्थात पानी न होने की स्थिति तो वहाँ लंबे समय से हर रोज़ ही बनी रहती है. अब चूँकि वैज्ञानिकों ने खास तौर पर विकासशील देशों के अन्य बड़े शहरों में इस जल संकट की उलटी गिनती शुरू कर दी है तो मूलभूत अनिवार्य सेवाओं के असमान वितरण के सामाजिक-राजनैतिक निहितार्थ निकालना ज़रूरी हो गया है.
बुद्धिजीवियों ने इस विषय पर काफी अध्ययन करने के बाद प्रभावित करने वाले राजनीतिज्ञ किस प्रकार से सार्वजनिक सेवाओं के वितरण की व्यवस्था को सुधारने में अड़ंगा लगाते हैं. फ़िलिप कीफ़र, सैसी क्रुज़ और अन्य अनेक विद्वानों ने माना है कि राजनीतिज्ञों में सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार लाने की कोई खास इच्छा नहीं होती और यही कारण है कि मतदाताओं को संरक्षण देने की उनकी शक्ति भी सीमित होती है. खास तौर पर वे किसी प्रकार का सुधार नहीं करना चाहते जिससे उनका नियंत्रण उन मतदाताओं पर कम जो मूलभूत सार्वजनिक सेवाओं को पाने के लिए महँगे निजी विकल्पों का बोझ उठा पाने में असमर्थ होते हैं. इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि राजनीतिज्ञों को चुनाव जीतने के लिए आसान यही लगता है कि वे कुछ निश्चित वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ती कर दे. निश्चय ही सबको किये गये वायदों को पूरा करना उनके लिए बहुत मुश्किल होता है. चुनाव में वोट डालते समय मतदाताओं की उम्मीदों के पैमाने न बढ़ जाएं इसीलिए राजनीतिज्ञ सार्वजनिक सुधार लागू करना अधिक पसंद नहीं करते हैं. नौकरशाहों के लिए सुधार लागू करने से चुनाव में उनके दुबारा चुने जाने की संभावना अधिक बढ़ जाती है. इस प्रकार की चुनावी गणना भारत जैसे देशों में बहुत मुखर होती है, क्योंकि इन देशों में सेवा के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने की संस्थागत क्षमता इतनी कम होती है कि निर्धारित लक्ष्यों की कभी-कभी तो गारंटी भी नहीं दी जा सकती.
व्यावहारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हुए भी ये तर्क सेवाओं की संरक्षक-आधारित डिलीवरी को बनाये रखने के लिए नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों की मिलीभगत का स्पष्टरूप में उल्लेख नहीं करते. यह लेख एक ऐसे व्यापक अध्ययन पर आधारित है जिसमें दिल्ली की गरीब जनता को मिलने वाली स्वच्छ सेवा के विभेदक प्रावधान संबंधी तमाम कारणों को उजागर किया गया है. इस व्यापक अध्ययन में संरक्षक-ग्राहक संबंधों और गरीब समुदायों में पाये गए स्वच्छ के परिणामों के बीच सांख्यिकीय कारण-कार्य संबंधों को स्थापित करने का प्रयास नहीं किया गया है, बल्कि उन नीति-निर्माण संबंधी प्रक्रियाओं को तलाशने का प्रयास किया गया है, जिनके कारण गरीब समुदायों में स्वच्छसेवाओं का असमान वितरण होता है. इसमें गरीब समुदायों के 9 नीतिगत संबंधों का भी विश्लेषण किया गया है, जिनके नमूने जानबूझकर गरीबों को शरण देने वाले निम्नलिखित वर्गीकरण के अनुसार उनके आकार पर आधारित रखे गए हैं : झुग्गी-बस्ती, झुग्गी-बस्तियों के निवासियों के लिए बनाई गई सार्वजनिक आवास परियोजनाएँ और दिल्ली के बेघरों के लिए बनाये गये आश्रयस्थल. स्वच्छ सेवा में होने वाली घटबढ़ के प्रक्रिया-आधारित कारणों के स्पष्टीकरण को प्रमाणित करने के लिए नीतिगत प्रलेखों, अखबारों में छपी रिपोर्टों और स्वच्छ सेवा में संलग्न राज्यों और शहरी स्तर के अधिकारियों के साथ नमूना-अध्ययन में शामिल समुदायों की मेज़बानी करने वाले चुनाव क्षेत्रों से संबद्ध चुने हुए प्रतिनिधियों, गैर-सरकारी सेवा प्रदाताओं जैसे अलाभकारी संगठनों और संबंधित समुदायों के निवासियों के साथ प्रमुख मुखबिरों के इंटरव्यू का पैटर्न मैचिंग तकनीकों का उपयोग करते हुए सैद्धांतिक अपेक्षाओं (अर्थात् संरक्षण संबंधों, प्रशासनिक बाधाओं, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) की उपस्थिति) और व्यावहारिक आँकड़ों के आधार पर विश्लेषण किया जाता है.
दिल्ली के राज्य और शहरी स्तर के झुग्गी-बस्ती और स्वच्छ सेवा के पंद्रह पदाधिकारियों के गहन इंटरव्यू के विश्लेषण का प्रमुख सार यही है कि किस प्रकार से नौकरशाही इमारतों/ स्वच्छ सेवा के बुनियादी ढाँचे के लिए आबंटित बजट प्रावधानों को प्राथमिकता प्रदान करने के लिए ग्राहकवाद का उपयोग करती है.इन विश्लेषणों में सार्वजनिक विकल्प और उन मामलों के संबंध में जहाँ उपलब्ध संसाधनों से अधिक नागरिकों की माँग हो, औपचारिक और अनौपचारिक विनियमन करने की तकनीकों का उपयोग करने में नौकरशाहों के पास होने वाले अधिकारों से संबंधित संगठनात्मक सिद्धांत के मौजूदा साहित्य को भी शामिल किया गया है. उदाहरण के लिए दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (DUSIB) राज्य स्तर की एजेंसी है, जिसे सामुदायिक शौचालय, गंदे पानी की निकासी और झुग्गी-बस्तियों में सड़कें बनाने और इन झोपड़ पट्टियोंसे स्थानांतरित लोगों के लिए सार्वजनिक गृह परियोजनाएँ बनाने का काम वैधानिक रूप में सौंपा गया है. इसने मार्गदर्शी आधार पर 50 झोपड़ पट्टियों के लिए अगस्त, 2016 में प्रमुख बुनियादी ढाँचों के निर्माण की एक “आदर्श बस्ती” परियोजना शुरू की थी. दिल्ली की कुल 722 झुग्गी-बस्तियों में से सेवा-सुधार के लिए इस एजेंसी ने 50 झुग्गी-बस्ती समुदायों का चयन किया, लेकिन इस चयन का आधार यह नहीं था कि इनमें से कितने समुदायों को सेवा-सुधार की बेहद आवश्यकता है, बल्कि इनके चयन का आधार था, नामांकन, राज्य के चुने हुए प्रतिनिधियों या विधान सभा के सदस्यों (MLAs) से कहा गया कि वे अपने संबंधित चुनाव क्षेत्रों से नामांकन करें. इस सार्वजनिक कार्य से सबसे अधिक वंचित लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने की प्रक्रिया का शुभारंभ किया जा सकता था, लेकिन इसका उपयोग मात्र संरक्षक-ग्राहक संबंधों को मज़बूत बनाने के लिए किया गया ताकि नमूना-अध्ययन में शामिल कुछेक झोपड़पट्टियों की स्वच्छ सेवा में चयनित सुधार के ज़रिये निष्ठावान् चुनाव क्षेत्रों को पुरस्कृत किया जा सके और विरोधियों को दंडित किया जा सके.
एकऔर राज्य की नौकरशाही है, दिल्ली जल बोर्ड (DJB). इसका काम है दिल्ली की कानूनी बस्तियों को पानी और सीवरेज सेवाएँ प्रदान करना. साथ ही सीवरेज से संबंधित नीति-निर्माण प्रक्रिया की दिशा और दायरे के बारे में कार्यपालक शाखा को अवगत कराने का दायित्व भी इसी पर है. जब मैंने यह जानना चाहा कि सन् 2005 से उत्तर-पूर्वी दिल्ली में रहने वाले निम्न-आयवाले परिवारों के लिए सीवरेज प्रणाली की व्यवस्था क्यों नहीं की गई जबकि पूर्वी दिल्ली में इसी वर्ग की बस्तियों के लिए यह व्यवस्था की गई है तो एक वरिष्ठ नौकरशाह ने तपाक से उत्तर दिया कि “उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इस समुदाय के विधायक ने इस तरह की सेवाओं के लिए हमसे पहले कभी संपर्क ही नहीं किया था (विधायक हर साल 4 करोड़ रुपये तक के अपने विवेकाधीन कोटे से परियोजनाओं को प्रस्तावित कर सकता है). इस इलाके के परिवारों को घर-घर पानी का वितरण करने और सीवरेजनैटवर्क स्थापित करने के बारे में चर्चा करने के लिए हाल ही में इस बार चुनाव जीतने वाले विधायक से हमारी मुलाकात हुई. इस विधायक के मुख्य मंत्री से भी अच्छे संबंध थे और मंत्रिमंडल में जल मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी इनके पास ही था और इसी कारण वे दिल्ली जल बोर्ड के अध्यक्ष भी थे. यह समुदाय निकट भविष्य में बहुत-सा विकास-कार्य देखने के लिए उत्सुक है.” इसकी कल्पना भी आसानी से की जा सकती थी कि चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा लगातार दबाव बनाये रखने के कारण सीवरेज-कर्मचारियों पर काम का बोझ कितना बढ़ गया होगा. लेकिन इस बोझ को कम करने के लिए प्रतिकारी प्रोत्साहन देने की भी संभावना हो सकती है. पूर्वी दिल्ली की आवास परियोजना में लंबे समय से रहने वाले एक निवासी ने मुझे बताया कि “जब भी हम विधायक के कार्यालय में अपनी शिकायत दर्ज कराते हैं तो सीवरेज-कर्मचारी तुरंत ही उस पर कार्रवाई करते हैं. हम भी (त्योहार के समय पैसे या कोई उपहार देकर या कभी-कभी शराब देकर) उनको खुश रखने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हम यह जानते हैं सत्ता किसी के भी हाथ में क्यों न हो, हमें इनके सहयोग की हमेशा ही ज़रूरत रहती है.” राजनीतिज्ञ विकास संबंधी अपने (लक्षित) वायदों को पूरा करने और अपनी साख बनाये रखने के लिए नौकरशाही का हमेशा ही इस्तेमाल करते हैं और नौकरशाही दंड (तबादले आदि) से बचने के लिए उनके काम को प्राथमिकता देने की कोशिश करते हैं और रिश्वत आदि पाकर या नौकरी में तरक्की पाकर या फिर निजी स्कूलों में उनके बच्चों को दाखिला आदि दिलवा कर उसका बदला चुका देते हैं.
इन परिणामों के दो बड़े नीति संबंधी निहितार्थ हैं, जिनके कारण गरीबों के पहले से ही उपेक्षित समुदायों में सीवरेज जैसी सुविधाएँ जैसी महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में असमानता और भी बढ़ जाती है. पहली बात तो यह है कि चुने हुए प्रतिनिधियों को विवेकाधीन सार्वजनिक निधि की उपलब्धता के कारण संरक्षण-आधारित शासन-तंत्र और भी मज़बूत हो जाता है. सरकारी संसाधनों के विवेकाधीन वितरण (सेवा प्रदान करने या उनमें सुधार लाने) की राजनीति लाभान्वित होने वाले ग्राहकों में चुनावी भागीदारी और भी बढ़ा देती है और बहिष्कृत आबादी के वोट को दबा देती है. खास तौर पर कंचन चंद्रा इस बारे में बताती हैं कि चुनावी बाज़ार पर सार्वजनिक अधिकारों और राजनैतिक उम्मीदवारों की साख का भी असर पड़ता है. दूसरी बात यह है कि संरक्षक-ग्राहक लेनदेन में लिप्त राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के अपने लाभ के कारण की जाने वाली मिलीभगत से भ्रष्टाचार की संभावना कानून बनाने वाली और कानून को लागू करने वाली संस्थाओं को कमज़ोर कर देती है और अंततः सामाजिक न्याय और नागरिकता के लोकतांत्रिक सिद्धांत खोखले पड़ जाते हैं.
ज़ाहिर है कि नौकरशाही, चुने हुए प्रतिनिधियों, और नागरिकों के बीच किसी एक प्रकार का कोई विशेषीकरण न संभव है और न ही उपयुक्त है. एक व्यापक अध्ययन की इस विश्लेषणात्मक झलक का उद्देश्य यह दर्शाना है कि ग्राहकों के रूप में मतादाताओं के राजनैतिक संरक्षण से नौकरशाहों को मूलभूत सेवाओं के असमान वितरण को बनाये रखने के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में प्रोत्साहन मिलता है, जिसके कारण अन्य लोगों/ समुदायों की तुलना में कुछ गरीब लोगों / समुदायों को “योग्य नागरिकों” के रूप में दिखाया जाता है.
तनुश्री भान बोस्टन स्थित मैसाचुसेट्स वि वि के जॉनडब्ल्यूमैककॉर्मेक ग्रैजुएट स्कूल ऑफ़पॉलिसीऐंडग्लोबलस्टडीज़में सार्वजनिक नीति की डॉक्टरल प्रत्याशी हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919