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अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार को संयम बरतना होगा.

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06/01/2020
देवेश कपूर

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में दुबारा वापसी की तो कई बातें उनके पक्ष में थीं, नया जनादेश, संसद में पूर्ण बहुमत, पराजित विपक्ष और मतदाताओं के बीच उनकी अपार व्यक्तिगत लोकप्रियता, जिसके सामने सभी नेता बौने दिखाई पड़ने लगे.

लेकिन उसी समय उनकी नई सरकार के सामने तीन प्रमुख चुनौतियाँ थीं. पहली चुनौती थी कमज़ोर अर्थव्यवस्था, जिसके कारण सभी अन्य लक्ष्यों को प्राप्त करना आसान नहीं था. दूसरी चुनौती थी, कहीं अधिक अनिश्चित अंतर्राष्ट्रीय परिवेश और इस अनिश्चितता का कारण था, अप्रत्याशित और ध्रुवीकृत संयुक्त राज्य अमरीका और शक्तिसंपन्न चीन.

लेकिन तीसरी चुनौती कदाचित् कहीं अधिक जटिल और सबसे अधिक घातक थी- और यह थी उनकी सरकार की उन तमाम मुद्दों पर आत्मसंयम की उनकी क्षमता, जिनसे दो मूलभूत लक्ष्यों की प्राप्ति खतरे में पड़ सकती थीः  तेज़ी से बढ़ता भारत, जो विश्वमंच पर अपना मुकाम हासिल कर सकता था. पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इसके बारे में कहा था, “ लगभग सभी लोग विपरीत परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं, लेकिन अगर उनका चरित्रबल देखना हो तो उन्हें सत्ता सौंप देनी चाहिए.”

सत्ता की प्रकृति को समझने के लिए 1972 की ओर लौटें. उस समय इंदिरा गांधी बाँगला देश के युद्ध में अपनी विजय के बाद अपनी सत्ता के शिखर पर थीं. लेकिन सिर्फ़ दो साल के बाद पोखरन परमाणु विस्फोट के बावजूद वह छात्र असंतोष और सत्ता पर अपने घटते नियंत्रण के कारण अपने शासन की एक अप्रत्याशित चुनौती से जूझ रही थीं. इस छोटी-सी कालावधि में आखिर क्या हुआ ?

पहला कारण यह था कि सन् 1973 में पहले तेल संकट के परिणामस्वरूप, अर्थव्यवस्था नियंत्रण से बाहर होती चली गई. दूसरा कारण यह था कि जब यह घटना चक्र चल रहा था तो उन्हें लगा कि वह बहुत शक्तिशाली हैं और कोई उनके आसपास ठहर भी नहीं सकता. जब कोई लगातार विजय-पथ पर आगे बढ़ता जाता है तो आत्मविश्वास और यकीन के बीच एक महीन-सी रेखा ही रह जाती है.

बस यहीं उनसे चूक हुई, कदाचित् सबसे बड़ी चूक कि वह अपनी सबसे बड़ी चुनौती से विमुख हो गईं और यह चुनौती थी अर्थव्यवस्था. इसका कारण यही था कि अपने दूसरे एजेंडे को पूरा करने के चक्कर में वह असली लक्ष्य से विमुख हो गई थीं.  

महाभारत में एक कहानी है. जब द्रोणाचार्य को कौरव और पांडव वंश के राजकुमारों को युद्धकला सिखाने के लिए कहा गया तो उन्होंने धनुर्विद्या की एक प्रतियोगिता रची और एक पेड़ की शाखा पर लकड़ी की चिड़िया रख दी और सभी छात्रों से कहा कि वह पेड़ की शाख पर बैठी चिड़िया की आँख पर बाण चलाएँ.   लेकिन जैसे ही कोई छात्र अपना बाण लेकर निशाना साधता तो वह उस छात्र से पूछते कि उसे क्या दिखाई दे रहा है. एक को छोड़कर सभी छात्रों ने बताया कि उन्हें पेड़ दिखाई देता है, पेड़ की शाखा दिखाई देती है, आसमान दिखाई देता है, दूसरे पक्षी दिखाई देते हैं अर्थात् लकड़ी की चिड़िया को छोड़कर आसपास की सब चीज़ें दिखाई दे रही थीं. केवल अर्जुन ने ही कहा, “मुझे सिर्फ़ चिड़िया की आँख दिखाई दे रही है.” और अर्जुन ने प्रतियोगिता जीत ली, क्योंकि अर्जुन के अलावा सभी छात्रों का ध्यान असली लक्ष्य के बजाय आसपास की अलग-अलग वस्तुओं पर केंद्रित था. केवल अर्जुन ही था जिसका ध्यान चिड़िया की आँख पर केंद्रित था.

पिछले कुछ समय से भारत की अर्थव्यवस्था की कमज़ोरी साफ़-साफ़ दिखाई देने लगी है. इस (या किसी और सरकार) को चाहिए कि वह केवल उन उपायों पर ध्यान केंद्रित करे, जिनसे अर्थव्यवस्था को मज़बूत किया जा सकता हो और अन्य सभी लक्ष्यों को दरकिनार कर दे. जब तक अर्थव्यवस्था तेज़ गति नहीं पकड़ लेती तब तक भारत की सभी आशाएँ-आकांक्षाएँ सिर्फ़ दुराशाएँ बनकर रह जाएँगी. इस मौजूदा आर्थिक मंदी के अनेक कारण हैं. अशोध्य ऋण की विरासत, जिसे इस सरकार ने पिछली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) की सरकार से विरासत में प्राप्त किया है. 2014 में ही इसका पता लग गया था. तब से लेकर अब तक सरकार ने विमुद्रीकरण से लेकर वस्तु एवं सेवा कर (GST) तक और पुनर्पूंजीकरण से लेकर दिवाला और शोधन अक्षमता कोड (Insolvency & Bankruptcy Code) और उज्ज्वल डिसकॉम आश्वासन योजना या उदय (UDAY) जैसे कुछ निर्णय भी लिये हैं.

लेकिन इन सभी मामलों में परिणाम अपेक्षा के अनुरूप तो नहीं रहे, लेकिन द्रोणाचार्य के उस पाठ की अनदेखी हुई है, जिसे वह राजकुमारों को सिखाना चाहते थेः जब तक आप अपना ध्यान अपने मूल लक्ष्य पर केंद्रित नहीं रखते तब तक उच्च स्तर पर राजनैतिक समर्थन और नौकरशाहों की सक्रियता के बावजूद आप अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते.

भले ही विमुद्रीकरण के लाभ और नुक्सान कुछ भी हों लेकिन इसके नेतृत्व पर बेइंतहा संज्ञानात्मक बोझ बढ़ता जा रहा है, जबकि एक ओर जीएसटी चल रही है और दूसरी ओर उनका अधिकांश समय और ध्यान विमुद्रीकरण के नियोजन और कार्यान्वयन पर लगा है. एक-साथ अनेक काम करने का संज्ञानात्मक प्रभाव भयावह हो सकता है.

इसके कारण ही नेता एक ऐसी “सँकरी गुफ़ा” की ओर बढ़ते जा रहे हैं जिसमें उनका ध्यान और  संज्ञानात्मक प्रभाव घटता जा रहा है और इसके परिणामस्वरूप समय की कमी के कारण नेता लोग लगातार संकटमोचन में जुटे हुए हैं और उनका ध्यान मुख्यतः तत्काल प्रकृति वाले केवल उन कामों पर लगा है जिसका मूल्य अक्सर अपने-आप में बहुत कम होता है और अधिक सार्थक काम दरकिनार होते चले जाते हैं. वास्तव में यही वे महत्वपूर्ण कार्य होते हैं जिनकी अधिक मूल्य की व्यापक क्षितिज वाली रणनीतिक सोच की कहीं अधिक आवश्यकता होती है.  .

इस प्रसंग में विमुद्रीकरण के परिणामस्वरूप किये गए संकटमोचन की गतिविधियों में संलग्न रहने के कारण जीएसटी पर सरकार का ध्यान कम हो गया. जीएसटी के जटिल ताने-बाने से बचने की सलाह दी जाती रही और उन्हें कम समय की चेतावनी भी दी गई और सरकार एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धि का श्रेय लेने से भी वंचित रह गई,

दूसरा उदाहरण पावर सैक्टर का है. कई दशकों से पावर सैक्टर में सुधार लाने के प्रयास किये जा रहे हैं और विद्युत् अधिनियम, 2003 के बाद किये गए अनेक प्रयास तो ऐसे थे जिनमें बहुत कम सफलता हासिल हुई. कई राज्यों ने विनियामक आयोग बंद कर दिये और उनकी स्वायत्तता कम कर दी, लेकिन अपनी वितरण कंपनियों (discoms) पर अपनी मिल्कियत बनाये रखी और उनका सूक्ष्म प्रबंधन जारी रखा.

सन् 2015 में केंद्र सरकार ने उदय (UDAY) नाम से एक बेल आउट पैकेज का अनावरण किया. इस पैकेज के अंतर्गत सरकार वितरण कंपनियों (या discoms) के ऋण का 75 प्रतिशत अपने ऊपर ले लेती है और शेष बकाया राशि के लिए कम दर पर ब्याज के बॉन्ड जारी कर देती है. चार साल के बाद बिजली उत्पादकों का वितरण कंपनियों पर कुल बकाया एक बार फिर बढ़ गया और यह रकम अक्तूबर,2019 में बढ़कर ₹81,010 करोड़ हो गई.

हैरानी तो इस बात की थी कि केंद्र सरकार गुजरात जैसे राज्य, जिसके मुख्यमंत्री स्वयं प्रधानमंत्री मोदी रहे हैं, और अन्य भाजपा शासित राज्यों में भी बिजली के क्षेत्र में सुधार लागू करके सफलता का इतिहास नहीं रच सके. इस मॉडल में सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाली बिजली के लिए फ़ीडर को उस बिजली से अलग कर दिया जाता है, जिसका इस्तेमाल गाँव की बस्तियों के लिए किया जाता है. इसके कारण सिंचाई के लिए दी जाने वाली बिजली के लिए तो सब्सिडी कायम रहती है और गाँव वालों को सब्सिडी तो नहीं मिलती, लेकिन उनके घर जाने वाली बिजली की सप्लाई बनी रहती है.

बिजली संबंधी सुधारों को लागू न कर पाने की लागत केवल वित्तीय नहीं होती. इसके कारण कृषि सुधार भी लागू नहीं हो पाते, बिजली का उत्पादन करने वाली कंपनियों की वित्तीय संभाव्यता भी कम हो जाती है और उनको ऋण देने वाले बैंकों पर वित्तीय दबाव भी बढ़ जाता है और अक्षय ऊर्जा के बड़े-बड़े लक्ष्य, ऊर्जा सुरक्षा और “मेक-इन-इंडिया” जैसे अभियान भी धरे के धरे रह जाते हैं. वित्तीय दृष्टि से दबाव में रहने वाली वितरण कंपनियाँ (discoms) उपभोक्ताओँ और उत्पादकों को निर्बाध रूप में मिलने वाली बिजली की सप्लाई को भी बार-बार बंद कर देती हैं और अक्षय ऊर्जा के सस्ते स्रोतों से मिलने वाली बिजली की सप्लाई को सीमित कर देती हैं और इस क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को अवरुद्ध भी कर देती हैं.

साथ ही यदि निवेशक वितरण कंपनियों (discoms) द्वारा उत्पन्न की जाने वाली बाधाओँ के कारण होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित हुए बिना ही) अक्षय ऊर्जा के प्रत्याशित विकास-मार्ग के प्रति आश्वस्त हो जाएँ तो वे आगे बढ़कर अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में निवेश के लिए तैयार हो जाएँगे और इससे सरकार के मेक-इन-इंडिया के अभियान को भी बल मिलेगा.

दुबारा अपना चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक सूचना के अनुसार सिविल सेवा और इस योजना के कार्यान्वयन की विफलता में उनकी भूमिका पर गहरा असंतोष प्रकट किया था. उनका मूल्यांकन सही है कि सिविल सेवा की हालत ठीक नहीं है. लेकिन साथ ही यदि वरिष्ठ स्तर के पदों की नियुक्ति में वफ़ादारी योग्यता पर भारी पड़ने लगे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. डरपोक नौकरशाहों और सक्षम नौकरशाहों में बहुत अंतर होता है और डरपोक नौकरशाह सक्षम नौकरशाह का मुकाबला नहीं कर सकता,  

हाथ में लिये काम को अर्थात् अर्थव्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण कार्य में सुधार लाने के लिए अर्जुन की तरह एकाग्रता से शर-संधान करने के बजाय  सरकार ने सबसे पहले उन लोगों को निपटाना शुरू किया जो कठिन सवाल कर रहे थे और उसके बाद संदिग्ध संस्थाओं या व्यक्तियों से निपटना शुरू कर दिया और फिर जाकर स्पष्ट मुद्दों पर काम शुरू किया. मीडिया से लेकर अदालतों तक, कारोबार से लेकर सिविल सोसायटी तक आलोचना का जवाब साक्ष्य और सुधारात्मक कार्रवाई से नहीं, बल्कि दबाव में आकर डर के कारण दिया जाता है.

अगर ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत मान ली जाए तो सीखना मुश्किल हो जाएगा. विश्वसनीयता की बात देवताओं पर तो लागू की जा सकती है, लेकिन इंसानों पर नहीं. अपनी गलतियाँ मानकर ही हम ज़्यादा तेज़ी से प्रगति कर सकते हैं.

सरकार को लगता है कि कश्मीर की घटनाओं के बारे में देश से बाहर होने वाली आलोचनाओं और नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) को एक साथ रखकर काम चल सकता है. अनुच्छेद 370 को हटाने के बारे में आपके विचार कैसे भी हों, लेकिन उसके बाद वहीं की आबादी के साथ जो कुछ भी हुआ, उस पर गर्व करने जैसा कुछ नहीं है. 

एक अमरीकी आतंकवादी ने कहा था कि आप बंदूक दिखाकर कुछ आगे तो चल सकते हैं, लेकिन आपको यदि उससे आगे बढ़ना है तो बंदूक से नहीं,शब्दों से बात करनी होगी.अगर आपको लगता है कि विदेशी कहावत हम पर ठीक से लागू नहीं होती तो हम तुलसीदास की बात को सामने रखना चाहेंगे. धर्म का आधार है करुणा और अहंकार पाप का मूल है.

अगर कश्मीरी भारतीय हैं और भले ही वे तुलसीदास की करुणा के पात्र न हों तो भी उन्हें संविधान के अंतर्गत प्रत्येक भारतीय को मिलने वाले नागरिक स्वतंत्रता के सभी अधिकार मिलने चाहिए. यह बात अलग है कि आप यह मानते हों कि सभी भारतीय इन अधिकारों के पात्र नहीं हो सकते.

यदि सरकार अपने कार्यों से वैश्विक असहजता की अनदेखी करती है तो मानो वह जान-बूझकर उसके निहितार्थों से अनजान बन रही है. सरकार ने जितनी मेहनत से मुस्लिम देशों के साथ अपनी सद्भावना बनाई थी, वह धीरे-धीरे सीएए और एनआरसी के कारण अफ़गानिस्तान, बाँग्ला देश और उससे भी आगे खाड़ी के देशों में क्षीण होने लगी है. हो सकता है कि चीन अपनी उइगर मुस्लिम आबादी से हमसे भी खराब ढंग से बर्ताव कर रहा हो, लेकिन भारत की उसके साथ आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में कोई बराबरी नहीं है, इसलिए यह तर्क देकर वह अपने आलोचकों का मुँह बंद नहीं कर सकता.  

लेकिन भारत ने जितनी मेहनत से भारतीय प्रवासियों के मतदाता-संघ को पाला-पोसा है और उनके साथ अपने संबंध मज़बूत किये हैं, उसे बहुत हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए.

मोदी के अलावा किसी और विदेशी नेता ने ऑस्ट्रेलिया से लेकर कनाडा तक, यू.के. से यू.एस.ए तक और दुबई से लेकर इज़राइल तक अपने प्रवासियों के साथ इतने अच्छे रिश्ते कायम नहीं किये हैं.

सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि  अमरीका जैसे महत्वपूर्ण देश में वोट देने वाली आबादी में प्रवासी भारतीयों की दूसरी पीढ़ी का हिस्सा बढ़ता जा रहा है. यह वर्ग भारत में बहुत कम सक्रिय है, लेकिन अपने माँ-बाप की तुलना में कहीं अधिक उदार है. यह तथ्य उल्लेखनीय है कि अमरीकी कांग्रेस के भारतीय अमरीकियों के तथाकथित “समोसा कॉकस” के चार सदस्यों में केवल एक सदस्य ने ही हूस्टन में आयोजित “हाउडी, मोदी !” में भाग लिया था और वह समय भी आने वाला है, जब कुछ लोग बाहर खड़े होकर कश्मीर पर आवाज़ उठा रहे होंगे.

दूसरी बात यह है कि सरकार की इस कार्रवाई से भारतीय प्रवासियों में पीढ़ी और पद के आधार पर खाई बढ़ने लगी है. और अपने देश के लिए एक मज़बूत ताकत के रूप में उभरने के बजाय यह भेदभाव एक बाधा बन जाएगी. और तीसरी बात यह है कि इस प्रकार की कार्रवाइयों से उग्रवादियों को चक्की में पीसने के लिए गेहूँ मिलता रहेगा और खालिस्तान के प्रस्तावित जनमत-संग्रह की माँग को बल मिलेगा.

इसमें संदेह नहीं कि इससे विश्व भर में भारत की छवि बहुत खराब हुई है. किसी को यह लग सकता है कि इसके निहितार्थ बहुत गंभीर नहीं हैं, क्योंकि सॉफ़्ट पावर की ताकत को शायद कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है.

यह बात ठीक भी हो सकती है, लेकिन सच तो यह है कि भारत हार्डपावर के रूप में भी उभर रहा है. लेकिन भारत का रक्षा खर्च जीडीपी के एक शेयर के तौर पर ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत कम है और वेतन और पेंशन पर होने वाला खर्च बहुत ज़्यादा है. वैश्विक आकांक्षाओं के मुकाबले भारत की हार्डपावर और भी गिरती जा रही है.  

संसाधनों की कुछ सीमाओं को तो सार्थक रक्षा सुधार करके सँभाल लिया गया है, लेकिन कुछ और करना भी बाकी है.

एक अलग उपाय यह भी हो सकता है कि इज़राइल और चीन की तरह हम गंभीरता से घरेलू टैक्नोलॉजिकल क्षमताओं का अपने यहाँ निर्माण करें. टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में चीन आज एक अग्रणी नेता के रूप में उभर रहा है और वह बुनियादी तौर पर भविष्य को हर क्षेत्र में आकार प्रदान करेगा, भले ही वह क्वांटम टैक्नोलॉजी हो या नैनो टैक्नोलॉजी, आर्टिफ़िशल इंटैलिजेंस हो या न्यूरो साइंसेज़ और केवल अर्थव्यवस्था नहीं, बल्कि विज्ञान और टैक्नोलॉजी के महत्व को भी समझते हुए अपने व्यवस्थित संकल्प और बुनियादी विश्वास के कारण ही वह वैश्विक शक्ति बनने की दौड़ में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है.

इस बीच भारत में सरकार गाड़ी के पीछे के शीशे में देखते हुए ही भविष्य में छलांग लगाने की कोशिश कर रही है. बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ और मंदिर बनाकर और नागरिकता कानून या एनआरसी में बदलाव लाकर अच्छी राजनीति तो खेल सकते हैं, लेकिन इससे न तो आप भारी साइबर हमले की तैयारी कर सकते हैं और न ही आर्थिक विकास के इंजन को पटरी पर ला सकते हैं. जापानी प्रधान मंत्री शिंज़ो आबे द्वारा गुवाहाटी में प्रस्तावित शिखर- वार्ता को रद्द करने की बात इस बात के लिए प्रतीकात्मक हो सकती है कि अर्थव्यवस्था के निर्माण, अपने मुख्य भागीदारों के साथ संबंध मज़बूत करने या अपने देश की मानव पूँजी के निर्माण को अग्रता प्रदान करने जैसे भावी लक्ष्यों को हम कम प्राथमिकता दे रहे हैं.  

आज वैश्विक ब्याज की दरें ऐतिहासिक तौर पर बहुत कम हैं और भविष्य में इसमें परिवर्तन की भी गुंजाइश नहीं है, ऐसी स्थिति में भारत के विशाल बाज़ार और बढ़ती श्रम-शक्ति को हम निवेश निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण गंतव्य बना सकते थे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है.

विभिन्न कारणों से अनेक विदेशी कंपनियाँ आज अपने निवेश को चीन से बाहर स्थानांतरित करने में लगी हैं और वैकल्पिक गंतव्य की तलाश में हैं. भारत इनके लिए स्वाभाविक विकल्प होना चाहिए था. लेकिन हम तो विएतनाम से भी प्रतियोगिता नहीं कर सकते. हमारा यह ज़ुनून होना चाहिए कि हम किसी भी हालत में इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देंगे. लेकिन आलोचना सुनने के लिए अपने दिमाग को बंद कर लेना हमारे लिए आदर्श मार्ग नहीं होगा.

भारत पशोपेश में हैं. हम दीर्घकालीन चुनौतियों को कम आँक रहे हैं, जलवायु परिवर्तन के भारी दबाव से त्वरित टैक्नोलॉजिकल परिवर्तन के कारण बेरोज़गारी बढ़ने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं और अपने महान् पड़ोसी की आगे बढ़ने की होड़ को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय परिवेश भी अब हमारे लिए मैत्रीपूर्ण नहीं रहेगा.

लेकिन सरकार की सबसे बड़ी चुनौती अपने-आप से है. क्या हम सत्ता के उपयोग में आत्म-संयम नहीं बरत सकते? या सामाजिक एजेंडा के प्रति सरकार के जुनून के कारण कहीं अधिक महत्वपूर्ण चुनौतियों की अनदेखी नहीं हो रही है और अगर सरकार इन चुनौतियों का समाधान करने में विफल रहती है तो क्या इससे देश की प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आएगी? सरकार के लिए यह समय अर्जुन की तरह शर-संधान करने का है और वह एकाग्र होकर अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए पूरी शक्ति के साथ जुट जाए.  

देवेश कपूर स्टार फ़ाउंडेशन दक्षिण एशिया अध्ययन के प्रोफ़ेसर हैं और वांशिंगटन डीसी में स्थित जॉन ह़ॉप्सन विश्वविद्यालय के पॉल एच उन्नत अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन (SAIS) के नीत्ज़े स्कूल में एशिया प्रोग्राम के निदेशक हैं. वह CASI के सीनियर फ़ैलो हैं और 2006-18 में निदेशक भी रहे हैं.

यह लेख हिंदुस्तान टाइम्स में विशेष अनुमति लेकर प्रकाशित हुआ है, जहाँ 22 दिसंबर, 2019 को यह लेख पहली बार प्रकाशित हुआ था.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919