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नरम हिंदुत्व की नादानी

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05/07/2022
निखिल मेनन
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भारत में हिंदू राष्ट्रवाद का उदय हो रहा है; इसका अनुशासन आम माफ़ी से उत्पन्न अहंकार से मेल खाता है. इसकी जीत क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर होती रही है और इसकी गूँज नागरिकों के माध्यम से सुनाई देती है. नागरिकता संशोधन अधिनियम के साथ-साथ अयोध्या में एक ऐसे स्थान पर मंदिर के निर्माण की शुरुआत होने जा रही है, जहाँ पहले मस्जिद थी. लेकिन तब से लेकर अब तक कई ऐसी बातें सामने आई हैं, जिनके बहाने देश भर में इस राजनीतिक विचारधारा का प्रसार किया जा रहा है. कर्नाटक में सरकारी कॉलेजों में हिजाब पर लगा हालिया प्रतिबंध या भाजपा शासित राज्यों की बुलडोज़र राजनीति, भारत में धर्मनिरपेक्षता पर प्रहार करने वाले राजनीतिक आंदोलन के कुछ नवीनतम घटनाक्रम हैं. विपक्षी दलों के सामने यही दुविधा है कि हिंदुत्व के रथ को कैसे रोका जाए.

जहाँ एक ओर चुनावी दिग्गज के रूप में भाजपा सत्ता के मद में चूर है; वहीं इसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अक्सर या तो रक्षात्मक मुद्रा में आ जाते हैं या फिर खुद ही धार्मिक राष्ट्रवाद की रस्साकशी की दौड़ में फँस जाते हैं. यह बात हाल ही में दिल्ली के जहाँगीरपुरी इलाके में ज़्यादातर मुस्लिम-मिल्कियत वाली संपत्तियों पर बीजेपी द्वारा नियंत्रित नगर निगम द्वारा बुलडोज़र चलाने के दौरान स्पष्ट हो गई थी. ऐसे हालात में जहाँ एक ओर कांग्रेस नदारद थी, वहीं आम आदमी पार्टी ने पीड़ितों को गैर-कानूनी "बांग्लादेशी" और "रोहिंग्या" बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया. ज़ाहिर है कि इस रणनीतिक अपील को “नरम हिंदुत्व” कहा जाता है. धार्मिक विषयों पर खुद पहल करके ये विपक्षी दल हिंदू विरोधी होने की छवि से बचने की कोशिश तो करते ही हैं, साथ ही यह भी ख्याल रखते हैं कि लोगों के दिमाग में यह न आ जाए कि वे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ जुड़े हुए हैं. कदाचित् इसी यथार्थ लगने वाले तर्क के अनुसार, धार्मिक संवेदनाओं या नरम हिंदुत्व को स्वीकार करना ही भाजपा का मुकाबला करने का सबसे अच्छा उपाय है. लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने और राजनीति को दूषित करने की कीमत चुकाने के बाद क्या लंबे समय में इसके चुनावी रूप से सफल होने की भी संभावना है? भारत का आधुनिक इतिहास तो कुछ और ही बताता है.

भारतीय राजनीति में धर्म के उपयोग का एक लंबा इतिहास है. उपनिवेशवादी ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ स्वाधीनता-आंदोलन के दौरान, देशभक्तों ने देशवासियों को प्रेरित करने के लिए हिंदू धर्म में प्रचलित इसी तरह के नारों का इस्तेमाल किया था. स्वाधीनता-आंदोलन की मुख्य धारा के आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई नेताओं के लिए तो हिंदुत्व पर आधारित राष्ट्रवाद ही उनकी राजनीति का आधार था. इनमें प्रमुख बुद्धिजीवी नेता थे, बाल गंगाधर तिलक, मोहनदास गाँधी और पुरुषोत्तमदास टंडन. स्वतंत्रता संग्राम में इनके महत्व को स्वीकार करते हुए कई विद्वानों ने यह तर्क भी दिया है कि हिंदू समाज के सभी शोषित वर्गों (Subaltern) की दशा को ध्यान में रखते हुए उन्हें एकजुट करने में उनकी धार्मिक अपील सफल रही, लेकिन इसके कारण अन्य समुदायों के बीच अलगाव और संदेह पैदा हो गया और मुस्लिम लीग ने इसका लाभ उठाया.

स्वाधीनता के तुरंत बाद कई दशकों तक अनायास ही धर्म के राजनीतीकरण के अनेक दुष्परिणाम हमारे सामने आते रहे हैं. मेरे अपने शोध से स्पष्ट होता है कि नेहरूवादी युग की प्रचारित धर्मनिरपेक्षता को अक्सर कांग्रेस द्वारा ही नकार दिया जाता था. इसके विनाशकारी परिणाम देश और पार्टी को भुगतने पड़े. उदाहरण के लिए, भारत साधु समाज की कहानी हमें सतर्क करने के लिए काफ़ी होनी चाहिए. भारत साधु समाज की स्थापना सन् 1956 के आरंभ में दिल्ली के बिड़ला मंदिर में कांग्रेस के राजनेताओं और साधुओं के बीच एक बैठक के बाद हुई थी. इसके बारे में नेहरू की गहन दुविधा के बावजूद राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और योजना मंत्री गुलजारीलाल नंदा जैसे धर्मभीरू राष्ट्रीय हस्तियों द्वारा इसे जोर-शोर से बढ़ावा दिया गया था. साधु समाज की स्थापना कांग्रेस और हिंदू साधुओं के इसी साझा विश्वास पर की गई थी कि यह साधु समाज लाखों धर्मनिष्ठ लोगों के बीच पंचवर्षीय योजनाओं को लोकप्रिय बनाने में मदद करेगा.

बहुत समय बाद कांग्रेस पार्टी को यह बात समझ में आई कि हिंदू मान्यताओं से जुड़कर वह अंततः अपने प्रतिद्वंद्वी पार्टियों (पहले जनसंघ और बाद में भाजपा) के हाथों में खेल सकती है.  साधु समाज के साधुओं को काबू करना मुश्किल हो जाएगा. ये साधु कांग्रेस पार्टी को ऐसी दलदल में फँसा देंगे जहाँ उनके लिए धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की रक्षा करना मुश्किल हो जाएगा और इसका लाभ उसकी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को मिलेगा.

उदाहरण के लिए भारत साधु समाज के पहले अध्यक्ष तुकड़ोजी महाराज के कैरियर को ही देखते हैं. एक ज़माने में वे गाँधीवादी थे और साथ ही गायक भी थे, लेकिन बाद में वे दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संगठन विश्व हिंदू परिषद (VHP) के संस्थापकों में शामिल हो गए. गुलज़ारीलाल नंदा की राजनीतिक नियति को ही देखें. इससे भी चेतावनी मिल सकती है. कहाँ तो वह पहले कैबिनेट मंत्री थे, दो बार प्रधानमंत्री भी बने और कांग्रेस के बड़े नेता भी थे, लेकिन उस समय उनकी बेहद दुर्गति हुई जब वही साधु, जिन्हें वह संरक्षण दिया करते थे, संसद पर हमला करने के लिए संसद भवन की ओर चल पड़े थे. 7 नवंबर, 1966 को लगभग 125,000 साधुओं के एक जत्थे ने गोहत्या पर रोक लगाने के लिए देशव्यापी आंदोलन के रूप में लाल किले से संसद तक मार्च शुरू कर दिया था. मार्च करने वाला जत्था थोड़ी देर में एक भीड़ में तबदील हो गया. त्रिशूल, तलवारें और भाले लेकर वे संसद भवन में घुसने की कोशिश करने लगे और जब पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने कांग्रेसी नेताओं के घरों पर हमला कर दिया और शहर में तोड़फोड़ करते हुए संपत्ति को नुक्सान पहुँचाने लगे. इस हिंसक झड़प में दस लोग मारे गए, चालीस बुरी तरह घायल हुए और आठ सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया. दो दिन के बाद जब कर्फ्यू उठाया गया तो जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्यसभा में भीड़ का नेतृत्व करने वाले एक नेता का बचाव किया. तत्कालीन गृहमंत्री गुलज़ारीलाल नंदा को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा. लंबे समय से वह इन साधुओं का समर्थन करते रहे थे और स्वयं भी गोरक्षक के तौर पर गोरक्षा का समर्थन करते थे. यही कारण है अंततः उनके शानदार राजनीतिक कैरियर का पटाक्षेप हो गया.

इसके बावजूद इंदिरा गाँधी और कांग्रेस पार्टी भारत साधु समाज को बढ़ावा देते रहे. लगता है कि आज की कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (AAP) इस बात को लेकर चिंतित हैं कि उन्हें हिंदू समुदाय का पर्याप्त समर्थन नहीं मिलता. यही कारण है कि वे साधु समाज को बढ़ावा देते हैं ताकि उन्हें हिंदुओं का समर्थन प्राप्त हो. लेकिन हमेशा की तरह उनकी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी आग से खेल रही है और यह बात बहुसंख्यकवादी राजनीति के पक्षधर लोगों के लिए अनुकूल है. 1989 के कुंभ मेले के तीन साल बाद दुर्भाग्यवश राजीव गाँधी ने बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने के लिए अपनी सरकार की मंजूरी दे दी और भारत साधु समाज भाजपा-समर्थित राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ने लगा. जल्द ही वह समय आ गया जब ऐसा लगने लगा कि साधु समाज का कार्यक्रम विश्व हिंदू परिषद (VHP) के कार्यक्रमों से मेल खाने लगा है और साधु समाज भी अयोध्या में मस्जिद के स्थान पर राममंदिर बनाने के लिए आह्वान करने लगा.

भारत साधु समाज का गठन कांग्रेस ने किया था. कांग्रेस के साथ उनका संबंध इतना गहरा था कि भारत साधु समाज के साधुओं को मज़ाक में “कांग्रेसी साधु” कहा जाने लगा था. सन् 1966 में संसद पर हमले की घटना के बावजूद कांग्रेस उसी भारत साधु समाज से जुड़ा रहा, जो गोरक्षण और गोमांस पर रोक लगाने जैसी भावनात्मक और विभाजनकारी नीतियों के लिए प्रतिबद्ध था. कांग्रेसी नेता हिंदुओं के वोट जुटाने के लिए कुंभ मेले में उनकी प्रशंसा के गीत गाते रहे. इस बात पर किसी को हैरानी नहीं हुई जब 1989 में कांग्रेस से उत्पन्न होने के बावजूद साधु समाज में विद्रोह हो गया और अनौपचारिक तौर पर वे विश्व हिंदू परिषद और भाजपा से जुड़ गए. नब्बे के दशक के अंत तक भाजपा संसद में मुख्यतः राम जन्मभूमि के सफल आंदोलन के कारण एक अंक की पार्टी से डेढ़ दशक में ही तीन अंकों वाली पार्टी बन गई.

समकालीन भारत (हिंदू राष्ट्रवादी भारत) में सांप्रदायिकता की राजनीति का विरोध करने वाले विरोधी दल के कुछ लोग कभी-कभी यह तर्क देने लगते हैं कि धर्म एक ऐसा शक्तिशाली संसाधन है जिसे केवल संघ परिवार के हाथों में सौंप देना ठीक नहीं होगा. उनका तर्क यह है कि आगे बढ़ने के लिए वास्तविक मार्ग यही होगा कि ढाल की तरह हिंदूवाद का प्रयोग करते हुए हिंदुत्व के प्रवाह को रोका जाए. इसके दो तरीके हो सकते हैं, हिंदू धर्म का प्रदर्शन करके या मुस्लिम धर्म के साथ न्यूनतम संबंध बनाकर या फिर यह तय कर लें कि हिंदुत्व के आक्रामक रुख की भर्त्सना ही न की जाए. यह दृष्टिकोण न केवल सैद्धांतिक "ह्रास" को कम करके आँकता है, बल्कि इस बात का भी वास्तविक साक्ष्य है कि हाल ही में इस तरह की चालें कैसे चली गईं. भले ही इस तरह का रुख शुद्ध हिंदुत्व की क्रूरता की तुलना में दब्बू लगता हो, फिर भी इससे पैरों तले ज़मीन खिसकने की आशंका हो सकती है. इसके अलावा, यह रुख कम से कम साधन के तौर पर तो बेहद महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन इस तरह की रणनीति की जब कीमत चुकानी पड़ती है तो यह विफल हो जाता है और लाखों भारतीय मुसलमान डर और असुरक्षा के साये में रहने को विवश हो जाते हैं.

निखिल मेनन Planning Democracy: Modern India’s Quest for Development (Cambridge University Press, 2022) के लेखक हैं. वह नोत्रे दोमे विश्वविद्यालय में इतिहास के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India malhotravk@gmail.com
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