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अमेरिका का प्रस्थान, भारत का प्रवेश? अफ़गानिस्तान में शांति-प्रक्रिया शुरू

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26/08/2019
चयनिका सक्सेना

पिछले अठारह वर्षों में अफ़गानिस्तान की स्थिति उतनी ही अस्थिर रही है जितनी तीन दशक पहले थी. सन् 2017 में जब चरमपंथियों को रोकने के लिए नंगरहार में तथाकथित "मदर-ऑफ़-ऑल-बम" गिराया गया था, तब से लेकर अब तक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. या फिर सन् 2001 में जब 25 हितधारकों ने मिलकर “अफ़गानी लोगों के देश में भयानक संघर्ष को खत्म करने और राष्ट्रीय समझौते और स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त करने और मानवाधिकारों के संरक्षण (और) अफ़गानिस्तान में आतंकवाद के अड्डों को समाप्त करने के लिए मिलकर उनकी मदद करने का संकल्प किया था”.

अमेरिका पर क्या हमें भरोसा है?
सत्तर के दशक से लेकर अब तक अफ़गानिस्तान में और अफ़गानिस्तान के लिए बहुत कुछ गलत होता रहा है. हाल ही के दिनों में अमरीका ने अक्सर अपने-आपको इन तमाम मुसीबतों के केंद्र में ही पाया है. इनमें से कई मुसीबतें तो उसकी अपनी गढ़ी हुई हैं. इस बात के अनेक प्रमाण हैं और अमरीकी नीतियों और रीतियों से भी यही लगता रहा है कि अमरीका लगातार अफ़गानिस्तान की माँगों और आकांक्षाओं से रणनीतिक और सामरिक तौर पर अलग-थलग पड़ता जा रहा है. हमारे कहने का यह आशय नहीं है कि अमरीका द्वारा अफ़गानिस्तान के अपने ढंग से (पुन)र्निर्माण के लिए उसमें कोई दुर्भावना है या उसका रुख तानाशाह का है. बल्कि उसका बर्ताव दर्शाता है कि उग्रवाद से निपटने से संबंधित मामलों को सँभालने के लिए उसकी तैयारी कितनी लचर रही है.

हाल ही में शांति और समझौते के लिए अमरीकी दबाव न्याय और जवाबदेही के अंतर्विरोधों से घिरा रहा है. अफ़गानी धरती पर अमरीकी सैन्य बलों और खुफ़िया महकमे के सदस्यों द्वारा भारी मात्रा में मानवता के विरुद्ध की गई (तथाकथित) आपराधिक वारदातों को लेकर अमरीका अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) में भी दादागिरी दिखाने से बाज नहीं आया. अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) को “प्रतिशोध की धमकी” देकर और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) के मुख्य अभियोजक फतौ बेनसौदा का वीज़ा रद्द करके अमरीका ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि उसके और “उसके मित्रदेशों” के खिलाफ़ होने वाली प्रस्तावित जाँच को होने ही न दिया जाए, जबकि तथाकथित आपराधिक वारदातों के बारे में 1.17 मिलियन बयान न्यायालय में पहले ही जमा कराये जा चुके थे.

जहाँ एक ओर अमरीका ने समय-समय पर अस्थिर और आत्म-विरोधी रवैये का प्रदर्शन किया है, वहीं आज के दौर के सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अफ़गानी समझौतों में अमरीका के विशेष प्रतिनिधि ज़ल्माय खलीलज़ाद किसी विशेष उत्साह का संचार नहीं कर पाते. सन् 2001 में अफ़गानिस्तान के राजनैतिक नेता के रूप में ज़ाहिर शाह की वापसी को ( प्रभावी ढंग से) नाकाम बनाने से लेकर सन् 2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति हमीद करज़ाई को अफ़गानिस्तान का (अनुत्तरदायी) प्रधानमंत्री बनाने के कथित समझौते से लेकर नब्बे के दशक से तालिबान के साथ   क्रमिक वार्ताएँ करने वाले ख़ालिज़ाद का अतीत विश्वसनीय नहीं रहा है.

कुछ हद तक अमरीका की अपनी नीति भी एक कदम आगे बढ़ाने और दो कदम पीछे खींच लेने की रही है. उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति ओबामा ने 2011 के अपने विरोधाभासी आदेश में अमरीकी सेना में वृद्धि के साथ-साथ अफ़गानिस्तान से अमरीकी सेना की वापसी की समय-सीमा की घोषणा भी कर दी थी. ऐसे किसी भी हालात में जब उग्रवाद विरोधी अभियान चल रहा हो तो भी उग्रवादियों के पास पर्याप्त समय रहता है, भले ही उग्रवाद विरोधी अभियान अपने चरम पर ही क्यों न हो. अमरीका अफ़गानिस्तान से बाहर निकलना चाहता है और उसे बाहर निकलना भी चाहिए. बस उसे यह नहीं मालूम कि वह कैसे बाहर निकले.

इसके विपरीतः क्या भारत के रुख में भारी परिवर्तन होने जा रहा है ?
अफ़गानिस्तान के प्रति भारत के रुख में भारी परिवर्तन की भूमिका के तौर पर हमें लगता है कि उसके विमर्श में भी बदलाव आ रहा है. भारत के नियंत्रण वाले जम्मू व कश्मीर राज्य के विवादग्रस्त “पुनर्गठन” के बाद उसकी इस आंतरिक कार्रवाई के अनेक मतलब निकाले जा रहे हैं. 

जम्मू व कश्मीर के आंतरिक पुनर्गठन का मकसद केवल अपने घर को ही व्यवस्थित करना नहीं  था. इसके कुछ और मकसद भी हो सकते हैं. कहा जाता है कि यह जानते हुए भी कि यह मसला पूरी तरह से द्विपक्षीय है और इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया भी हो सकती है, भारत की राजनैतिक मंशा निश्चय ही विवादग्रस्त क्षेत्र के भू-राजनैतिक स्वरूप में दखल देने की थी.

रणनीतिक दृष्टि से भारत के लिए सभी अंडे एक ही टोकरी में रखने की भी कोई तुक नहीं है, खास तौर पर तब जब अन्य क्षेत्रीय शक्तियाँ, विशेषकर रूस और ईरान अफ़गानिस्तान के अपने संपर्क-स्थलों के विस्तार में लगे हैं. साथ ही एक ओर राजनैतिक मुख्यधारा में अपनी घटती विश्वसनीयता के कारण और दूसरी ओर तालिबान की बढ़ती वैधानिकता के कारण यह आवश्यक हो गया है कि भारत अफ़गानिस्तान के मामले में अपने रुख में परिवर्तन करे. अफ़गानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हमीद करज़ाई ने भी भारत को अफ़गानिस्तान के ‘दूसरे’ भाई अर्थात् तालिबान से आगे बढ़कर बात करके अपने रुख को व्यापक बनाने की सलाह दी है.  

हालाँकि थोड़ी देर तो हो गई है, लेकिन लगता है कि भारत ने अंततः अपने-आपको इस मामले में एक पक्ष बनाने का मन बना लिया है. अफ़गानिस्तान के संघर्ष के संदर्भ में भारत के बदले हुए रुख में परिवर्तन का संकेत मई 2019 में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की शिखर वार्ता में दिए गए स्व. पूर्व विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के भाषण में तलाशा जा सकता है. अफ़गानिस्तान को एक स्थिर देश के रूप में देखने की भारत की मंशा का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था “ भारत किसी भी ऐसी प्रक्रिया का स्वागत करता है” जिससे इस देश के पुनर्विकास में मदद मिल सकती हो. भारत के रुख में परिवर्तन का यह संकेत बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अब तक भारत केवल उसी शांति प्रक्रिया (ओं) का समर्थन करता था, जिसका नेतृत्व “अफ़गानों द्वारा, अफ़गानों के लिए और अफ़गानों की ओर से” किया जाए.

अफ़गान शांति समझौते की पृष्ठभूमि में अमरीका द्वारा इस समझौते को अंतिम रूप देने की जल्दबाजी और अमरीका में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री द्वारा अमरीका के यशोगान को देखते हुए (किसी भी प्रकार की नैतिकता की परवाह न करते हुए) “अमरीका पहले” की नीति को अमरीका ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है. भारत अमरीका की पलटी मारने की नीति से अपरिचित नहीं है और अमरीका और पाकिस्तान के बीच रणनीतिक स्तर पर पुनर्वास और फिर से मिलकर काम करने की संभावना को लेकर भारत के आशंकित होने के कारण भी हैं. जम्मू व कश्मीर में भारत की कार्रवाई राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा अनपेक्षित मध्यस्थता की पेशकश की प्रतिक्रिया स्वरूप भी हो सकती है. तथापि कश्मीर के शासन को पूरी तरह अपने हाथ में लेने का भारत का यह प्रयास भी था. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर इस क्षेत्र में 38,000 अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती का मकसद कश्मीर घाटी में असहज शांति को बनाये रखने से कहीं अधिक था, लेकिन अफ़गानिस्तान से कश्मीर को अलग करने के लिए पाकिस्तान क्षेत्रीय महा खेल में भारत को अलग रखने के लिए इसका चारे की तरह अक्सर इस्तेमाल करता रहा है.

जब पाकिस्तान ने तालिबान को अपने इलाके में आने से रोक दिया तो भारत ने भी आगे बढ़कर तालिबान से (परोक्ष रूप में) संपर्क साधने का प्रयास किया. पाकिस्तानी प्रभाव से पूरी तरह मुक्त न रह पाने पर भी शक्ति सिन्हा (अफ़गानिस्तान के पूर्व प्रमुख, संयुक्त राष्ट्र शासन व विकास) ने यह माना कि तालिबान को मान्यता मिलनी चाहिए क्योंकि इसका वह पात्र है, उसकी वैधानिकता को न केवल अंतर्राष्ट्रीय हितधारकों ने स्वीकार किया है, बल्कि अफ़गानियों ने भी मान लिया है. उन्होंने यह भी कहा कि तालिबान के मुख्य धारा में आने से उसके तौर-तरीकों में भी सुधार आने की संभावना है, क्योंकि तब वे औपचारिक नियमों और प्रतिबद्धताओं से बँधे होंगे. 

संबद्ध करने और समर्थन देने के बीच के बारीक अंतर के मद्देनज़र इस विमर्श में भारत की भूमिका एक भागीदार की होगी और यह भी सुनिश्चित हो जाएगा कि कोई भी अफ़गानी खिलाड़ी खेल से बाहर नहीं रहेगा.सिन्हा ने तो यहाँ तक कहा कि किसी को भी भारत का विरोध नहीं करना चाहिए और अफ़गानिस्तान के संदर्भ में यह सोच बहुत पुख्ता और विश्वसनीय होगी.

तालिबान ने इसकी प्रतिक्रिया में “मौजूदा कश्मीरी संकट” के बारे में बड़ी रोचक बात कही कि   “किसी भी अन्य देश” को अफ़गानिस्तान के मुद्दे को कश्मीर से जोड़कर नहीं देखना चाहिए....( और इसके कारण) अफ़गानिस्तान को प्रतियोगिताओं का खेल नहीं बनने देना चाहिए.इस बयान की व्याख्या को दो अंतर्विरोधी रूपों में की गई है. एक ओर इसका संकेत भारत के लिए था, जो कश्मीर में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर रहा है, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के लिए था, जो अफ़गानिस्तान में दखल देने की कोशिश करता रहा है और अनायास ही कश्मीर और अफ़गानिस्तान को जोड़ने की कोशिश करता रहा है. दूसरी ओर इसे भारत से जुड़े विमर्श में होने वाले उक्त परिवर्तन की भूमिका के रूप में समझा जा सकता है. इससे यह संकेत भी मिलता है कि तालिबान के साथ बात करने की प्रक्रिया भारत ने शुरू कर दी है.

देश की पूर्वी सीमाओं पर सैनिकों की फिर से संभावित तैनाती के संबंध में अफ़गानिस्तान के पाकिस्तानी राजदूत असद मजीद खान का बयान कश्मीरी विवाद से अफ़गानिस्तान के संघर्ष को एक बार फिर से जोड़ने के प्रयास के रूप में था. हो सकता है कि तालिबान के बयान के विपरीत पाकिस्तानी प्रतिक्रिया जानबूझकर यह जताने की रही हो कि आखिर बॉस है कौन? या फिर तालिबान ने पाकिस्तान को यह जताने की कोशिश की हो कि वह सचमुच भरोसे के काबिल नहीं है?

इस बार शांति समझौता पहले से कहीं अधिक वास्तविक लगता है, इसलिए भारत को पहले की तरह बहुत संकोच करने की आवश्यकता नहीं है. अफ़गानिस्तान के हालात को अक्सर “रेत की उस लाइन” की तरह बयान किया जाता है, जिसमें बदलाव होते रहते हैं. भारत को “अपनी चाल चलते समय” अपना रुख लचीला रखना होगा, क्योंकि यह रास्ता अंडे की छिलके की तरह है जो अपना रास्ता बदलता रहता है. अफ़गानिस्तान में जो सद्भावना उसने अर्जित की है, उसे देखते हुए वह आश्वस्त हो सकता है कि उसके रुख में आये परिवर्तन को अफ़गानी लोग उदारता से स्वीकार करेंगे, क्योंकि बदलते हुए हालात में उसे कुछ नया अपनाना होगा और कुछ छोड़ना भी होगा.

चयनिका सक्सेना सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (NUS) के भूगोल विभाग में प्रेज़िडेंट ग्रैजुएट फ़ैलो और डॉक्टरेट की उम्मीदवार हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919