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बहिष्कार और भेदभाव से लड़ने का उपाय है, चुनावी कोटा

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11/04/2016
फ्रांसेस्का आर.जेन्सेनियस

संसद में आरक्षित कोटे या प्रत्याशी कोटे जैसे चुनावी कोटे का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है और इसके दीर्घकालीन विभिन्न प्रभावों को देखते हुए आम तौर पर इसका बचाव भी  होने लगा है. लेकिन अधिकांश देशों में इसके प्रभावों का आकलन बहुत मुश्किल रहा है. इसका एक आंशिक कारण तो यही है कि ये नीतियाँ लंबे समय तक लागू नहीं रह पाईं.

भारत में चुनावी कोटा प्रणाली सबसे अधिक व्यापक है और लंबे अरसे से स्थापित रही है. इसलिए भारत के अनुभव से यह समझा जा सकता है कि कोटों का दीर्घकालीन प्रभाव क्या हो सकता है. सितंबर, 2010 से लेकर अप्रैल 2011 के बीच मैंने (मुख्यतः दिल्ली , हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में ) भारत में चुनावी कोटा प्रणाली के बारे में राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के  हज़ारों साक्षात्कार या इंटरव्यू लिये. इन साक्षात्कारों और विभिन्न प्रकार के मात्रापरक आँकड़ों के आधार पर मैंने अनुसूचित जाति के चुनावी कोटों के दीर्घकालीन परिणामों का अध्ययन किया है. चूँकि आज़ादी के बाद भारत का पहला चुनाव सन् 1951 में संपन्न हुआ, इसलिए लोकसभा में और राज्य की विधानसभाओं में संबंधित राज्य में उनकी आबादी के अनुपात में ( औसत 16 प्रतिशत)  इस विशाल अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सीटें आरक्षित की गईं.

इसका स्वरूप और कार्यान्वयन
कोटे को अक्सर एक प्रकार की नीति ही माना जाता है, लेकिन इसको अनेक स्वरूपों में डिज़ाइन किया जा सकता है.  मोटे तौर पर इन कोटों को दो प्रणालियों में विभाजित किया जा सकता है. एक प्रणाली वह है जिसमें कोटा राजनीतिज्ञों का चुनाव उनके अपने वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता है और उनके प्रति वे जवाबदेह भी होते हैं. जैसे न्यूज़ीलैंड के माओरी राजनीतिज्ञ. दूसरी प्रणाली वह है, जिसमें उनका चुनाव उन्हीं मतदाताओं द्वारा अन्य राजनीतिज्ञों के रूप में किया जाता है. (जैसे महिला उम्मीदवारों का कोटा होता है). भारत में इन दो प्रकार के कोटों को  “अलग मतदातासंघ” और “संयुक्त मतदातासंघ” के नाम से जाना जाता है.

भारत का संविधान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रत्याशियों को संयुक्त मतदातासंघ के साथ मिलकर आरक्षित सीटें प्रदान करता है. इसका अर्थ यह है कि आरक्षित चुनाव-क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रत्याशी भाग तो लेते हैं, लेकिन उनके मतदाता  सभी वर्गों के होते हैं. इस प्रणाली का डिज़ाइन डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, जो अलग मतदाता संघ की माँग कर रहे थे और महात्मा गाँधी, जो हर तरह के कोटे का विरोध कर रहे थे, के बीच एक समझौते के रूप में उभरकर सामने आया था. 

सन् 1951 और 1961 के बीच अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति  की आरक्षित सीटों को कुछ ही चुनाव क्षेत्रों (चुनावी ज़िलों) में अतिरिक्त सीटों के रूप में लागू किया गया था. लेकिन सन् 1961 के द्वि-सदस्यीय चुनाव क्षेत्र (उन्मूलन) अधिनियम के लागू होने के बाद भारत के प्रत्येक चुनाव क्षेत्र का सीमांकन सामान्य (सभी के लिए) और आरक्षित (केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए)  चुनाव क्षेत्र के रूप में कर दिया गया. आरक्षण की इस नीति को सख्ती से लागू किया गया और इसके परिणामस्वरूप पूरे भारत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अनेक राजनीतिज्ञ सत्ता में आ गए.

भारतीय सीमांकन आयोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अधिक अनुपात वाले इलाकों का चुनाव करने के लिए बहुत ही व्यवस्थित रूप में आरक्षित चुनाव क्षेत्रों का चयन करता रहा है. साथ ही उसका यह भी प्रयास रहा है कि आरक्षित चुनाव क्षेत्रों का फैलाव भौगोलिक रूप में किया जाए. चूँकि अनुसूचित जाति के लोग अधिकांश भारत में आम तौर पर अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनके लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में भी वे अल्पसंख्यक हैं. व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो अनुसूचित जाति के अधिकांश राजनीतिज्ञ भी बहुसंख्यक गैर-अनुसूचित जाति के मतदाताओं द्वारा ही चुने गये हैं. इसके विपरीत, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में मतदाता भी अधिकांशतः अनुसूचित जाति के ही हैं.

अपने वर्ग के नहीं, अपनी पार्टी के एजेंट
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जाति की सीटों की संख्या निर्धारित होने के कारण सभी प्रमुख पार्टियाँ इन सीटों को जीतना चाहती थीं और यही कारण है कि वे आरक्षित चुनाव-क्षेत्रों में अपने प्रत्याशी खड़े करती हैं. यदि पिछले कुछ समय में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित और सामान्य चुनाव-क्षेत्रों में विभिन्न पार्टियों द्वारा जीती गई सीटों का प्रतिशत देखें तो बहुत ही कम अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञ स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव में खड़े हुए हैं और उनमें से कुछ ही अधिक उम्मीदवारों ने भाजपा जैसी दक्षिणपंथी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा है. नब्बे के दशक के आरंभ से ही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अनुसूचित जातियों के प्लेटफॉर्म पर एक जातीय पार्टी के रूप में उत्तर प्रदेश जैसे भारत के सबसे बड़े राज्य के सामान्य और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित- दोनों ही चुनाव क्षेत्रों से भारी मात्रा में चुनावी सीटें जीतती रहती हैं, लेकिन यदि अखिल भारतीय दृष्टि से देखें तो अनुसूचित जाति की सीटों पर उनका हिस्सा बहुत अधिक नहीं रहा है.

अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञ न केवल एक ही पार्टी से चुनाव लड़ते रहे हैं, बल्कि पार्टी प्लेटफॉर्म से ही चुनाव लड़ने की कोशिश में रहते हैं. चूँकि उनके अधिकांश मतदाता गैर- अनुसूचित जाति के होते हैं, इसलिए जब भी मैंने अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञों का इंटरव्यू लिया तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी पार्टी और मतदाताओं के प्रतिनिधि हैं, किसी खास वर्ग के नहीं. सच तो यह है कि अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञों का प्रोफ़ाइल भी  अन्य राजनीतिज्ञों की  तरह ही होता है और वे अन्य राजनीतिज्ञों की तरह ही केवल अपने वर्ग के लिए ही काम नहीं करते. इसका अर्थ यह है कि उनके राजनीतिक निर्णयों में भी कोई खास अंतर नहीं होता.  वस्तुतः 1971 और 2001 के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित और सामान्य चुनाव क्षेत्रों में कोई प्रणालीगत अंतर नहीं होता. न तो समग्र  विकास में कमी आती है और न ही अनुसूचित जाति के लोगों के लिए वे अधिक काम करते हैं.

भेदभाव में कमी
अब तक अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञ कुछ हद तक कम अनुभवी और कम शिक्षित होते थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह अंतर भी खत्म हो गया है. सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि इस बात में कोई प्रणालीगत अंतर नहीं होता कि मतदाता अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञों और अन्य राजनीतिज्ञों के बारे में क्या सोचते हैं.  जिन मतदाताओं के प्रतिनिधि अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञ होते हैं, वे राजनीतिज्ञों के रूप में अनुसूचित जाति के लोगों के प्रति सकारात्मक सोच रखते हैं  और उनके अपने समुदाय में जातिगत भेदभाव की वारदातें भी कम होती हैं. गाँव स्तर की राजनीति में अनुसूचित जाति के कोटे के प्रभाव के अध्ययन से पता चलता है कि अंतर्वर्गीय संवाद में इसका अनुकूल प्रभाव ही पड़ता है.

मैंने जिन अनुसूचित जाति के राजनीतिज्ञों का इंटरव्यू लिया, वे यह मानते हैं कि यद्यपि भारत के कई हिस्सों में अनुसूचित जाति के लोगों के साथ भेदभाव होता है, लेकिन आम तौर पर लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से ही देखते हैं. मेरे कई उत्तरदाताओं ने मुझे बताया कि कोटे के बिना वे कभी राजनीति में नहीं आ सकते थे, लेकिन एक बार राजनीतिक अनुभव मिलने के बाद वे अपनी योग्यता भी सिद्ध कर सकते हैं और उन्हें उनकी पार्टी और मतदाता भी गंभीरता से लेने लगते हैं.

अनुसूचित जाति का आरक्षण महिलाओं के लिए प्रवेश द्वार
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कोटा महिलाओं  के लिए भारतीय राजनीति में प्रवेश द्वार है. पचास और साठ के दशकों में कांग्रेस पार्टी में महिलाओं का अनौपचारिक कोटा होने के बावजूद नब्बे के दशक से पहले संसदीय चुनावों में केवल 3 प्रतिशत महिलाओं ने और राज्य विधानसभाओं में 2-3 प्रतिशत महिलाओं ने ही भाग लिया था. लेकिन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में चुनाव लड़ने वाली महिलाओं का प्रतिशत सामान्य चुनाव क्षेत्रों से अधिक रहा है.

यह पैटर्न उन राजनीतिक दलों का परिणाम भी हो सकता है जिन्होंने महिला उम्मीदवारों को उन पुरुष राजनीतिज्ञों की जगह पर नामित किया था, जिन्हें पार्टी का “ सबसे कमज़ोर”  अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का उम्मीदवार माना जाता था, लेकिन इसे एक प्रमाण के रूप में भी देखा जा सकता है कि आरक्षित चुनाव-क्षेत्रों का चुनावी वातावरण महिला उम्मीदवारों के लिए अधिक उदार होता है. चूँकि आरक्षित चुनाव-क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम प्रतियोगिता होती है और चुनाव-क्षेत्रों की तुलना में “पैसे और बाहुबल” का ज़ोर भी कम रहता है, इसलिए महिला उम्मीदवारों के लिए वहाँ प्रवेश पाना आसान रहता है.

फ्रांसेस्का आर.जेन्सेनियस  नॉर्वीजियन इस्टीट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल अफ़ेयर्स में  सीनियर रिसर्च फैलो हैं. वह महिलाओं और अल्पसंख्यक वर्ग की असमानता को मिटाने और उन्हें  प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए  काम करती हैं.  उनकी आगामी पुस्तक है, Social Justice Through Inclusion. भारत में चुनावी कोटा के परिणाम : भारत में अनुसूचित से संबंधित आरक्षित कोटे पर है.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919