अगस्त के महत्वपूर्ण घटनाक्रम के बाद बांग्लादेश सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल से जूझ रहा है - जिसके कारण पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को व्यापक विरोध के कारण 15 साल तक सत्ता में रहने के बाद देश छोड़कर भागना पड़ा - इसका असर सीमा के पार भारत में भी महसूस किया जा रहा है. अपदस्थ अवामी लीग सरकार में एक कथित सहयोगी को खोने से लेकर हिंदू अल्पसंख्यकों पर कथित अत्याचारों के खिलाफ़ घरेलू विरोध प्रदर्शन तक, भारत को बदलते हालात से उत्पन्न अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें से किसी का भी आसानी से समाधान नहीं हो सकता. इन परिस्थितियों में, यह महत्वपूर्ण हो गया है कि नई दिल्ली बांग्लादेश के प्रति अपने द्विआधारी, अवामी लीग बनाम बाकी के दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करे तथा एक चुस्त, बहु-वेक्टर (multi-vector) विदेश नीति के लिए जगह बनाए.
स्पिलओवर प्रभाव
जहाँ एक ओर बांग्लादेश के सामने क्रांति के बाद संरचनात्मक सुधारों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के पुनर्निर्माण की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वहीं भारत को अपने पड़ोसी देश में राजनीतिक उथल-पुथल से होने वाले भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक नुकसान को नियंत्रित करने जैसे कई कार्य करने होंगे.
5 अगस्त को शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग सरकार को सत्ता से बेदखल करने की घटना, 1971 में पाकिस्तान से आज़ादी के लिए लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में 30 प्रतिशत नौकरियों को आरक्षित करने वाली कोटा नीति को पुनः लागू करने के खिलाफ़ देशव्यापी छात्र आंदोलन के कारण हुई थी. प्रदर्शनकारियों के अनुसार, इस नीति से सत्तारूढ़ अवामी लीग के सदस्यों या उनके करीबी लोगों को संस्थागत वरीयता देकर उनके पक्ष में कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, इसलिए इसे भेदभावपूर्ण माना गया. जुलाई में विरोध प्रदर्शनों का प्रारंभिक दौर काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण रहा, लेकिन सरकार द्वारा छात्रों के खिलाफ़ कथित तौर पर अत्यधिक बल का प्रयोग करने और प्रदर्शनकारियों को “रजाकार” (1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के संदर्भ में देशद्रोही) कहकर उन्हें बदनाम करने के जानबूझकर किए गए प्रयासों ने छात्र आंदोलन को हसीना की कथित सख्ती के खिलाफ़ एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन में बदल दिया. चूँकि सुरक्षा बलों, मुख्यतः सेना ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ़ कार्रवाई करने से इनकार कर दिया, इससे हसीना और उनकी सरकार असुरक्षित हो गई, और अंततः उन्हें बांग्लादेश छोड़कर भारत आने के लिए मजबूर होना पड़ा.
भारत के करीबी माने जाने वाली हसीना सरकार को सार्वजनिक रूप से उखाड़ फेंकने से पश्चिम में बांग्लादेश के पड़ोसी देश पर भी प्रभाव पड़ा है. सबसे पहले, भारत ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र में एक ऐसा सहयोगी साझेदार खो दिया है, जो हाल के वर्षों में भारत विरोधी भावनाओं से भरा हुआ है. भारत को अपनी वैचारिक और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों के लिए प्रत्यक्ष चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे कि सीमा पार आतंकवाद और उग्रवाद से उत्पन्न खतरे और इस क्षेत्र में भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता से उत्पन्न अधिक रणनीतिक दुविधाएँ, जैसा कि मालदीव और नेपाल में स्पष्ट है. इस व्यापक भू-राजनीतिक गतिशीलता की पृष्ठभूमि में, हसीना के नेतृत्व में अपेक्षाकृत धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक शासन को उखाड़ फेंकने से भारत की तथाकथित "पड़ोसी प्रथम नीति" की खामियों पर ध्यान केंद्रित हुआ है, जिससे इसकी क्षेत्रीय नीतियों के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौतियां पैदा हो गई हैं.
मतभेदों के बावजूद, ढाका “भारत के सुरक्षा लक्ष्यों का प्रभावी प्रवर्तक” बना रहा, तथा उसने अपनी सीमाओं के भीतर इस्लामी कट्टरपंथ और उग्रवाद पर लगाम लगाने में नई दिल्ली की सहायता की. नए चुनावों के लंबित रहने तक, बांग्लादेश में व्याप्त राजनीतिक शून्यता - मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार की मौजूदगी के बावजूद - तथा ऐसी सरकार की बढ़ती संभावना जो भारत के प्रति कम सहानुभूतिपूर्ण होगी, देश के घरेलू और विदेशी मामलों को अपने हाथ में ले लेगी, जिससे नई दिल्ली की आतंकवाद-रोधी क्षमताओं पर असर पड़ने की पूरी संभावना है. इसी प्रकार, भारत-मित्र अवामी लीग को उखाड़ फेंकने से भारत के क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों, अर्थात् चीन और पाकिस्तान, के लिए बांग्लादेश में राजनीतिक परिदृश्य को अपने अनुकूल ढालने के लिए अधिक गुंजाइश पैदा हो गई है. निस्संदेह, बांग्लादेश के हालात पर भारत के प्रभाव को न केवल वैचारिक झटका लगा है, बल्कि यह एक गहरे संकट का भी सामना कर रहा है, जिसमें इंदिरा गांधी सांस्कृतिक केंद्र में तोड़फोड़ और ढाका में भारतीय उच्चायोग को पूरी तरह से बंद करने की खबरें हैं, जो 2021 में तालिबान के कब्जे के समय काबुल में देखी गई थीं.
भू-आर्थिक पहलू पर, यह देखना आश्चर्यजनक नहीं होगा कि अंतरिम और भावी बांग्लादेशी सरकारें भारत से परे देश की आर्थिक साझेदारियों में विविधता लाना जारी रखेंगी. हम नई दिल्ली के लिए इसे दो तरीकों से देख सकते हैं, जिनमें से एक अवामी लीग के साथ निरंतरता का संकेत देता है - जैसे कि अंतरिम सरकार द्वारा हाल ही में सौर ऊर्जा फ़ार्म स्थापित करने के लिए चीन से संपर्क करना - जबकि दूसरा भारत विरोधी भावनाओं में उलझ सकता है, जैसे कि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) द्वारा भारतीय उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान. वास्तव में, बांग्लादेश में राजनीतिक उथल-पुथल के कारण मैरिको, गोदरेज और डाबर सहित बारह फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (FMCG) कंपनियों की आपूर्ति श्रृंखला में भारी व्यवधान उत्पन्न हो गया है, जिससे उनके शेयर मूल्यों और राजस्व पर खतरा उत्पन्न हो गया है.
अधिक संरचनात्मक स्तर पर, बीएनपी ने शेख हसीना के कार्यकाल के दौरान भारत के साथ हस्ताक्षरित सभी समझौतों को रद्द करने की माँग की है, उन्हें गुप्त और अन्यायपूर्ण बताया है, जबकि अंतरिम सरकार भारत के साथ उन समझौता ज्ञापनों को रद्द करने पर विचार कर रही है, जिन्हें वह ढाका के लिए "गैर-लाभकारी" मानती है. खाद्य आपूर्ति, सूती धागे और ऊर्जा के लिए ढाका की नई दिल्ली पर निर्भरता के कारण इस मामले में ज़्यादा प्रगति होने की संभावना नहीं है, लेकिन बांग्लादेश में भारत के आर्थिक प्रभाव का कम होना एक नई सामान्य बात हो सकती है. अंतरिम सरकार के सत्ता में आने के बाद ज़मीनी बंदरगाहों को तेज़ी से पुनः खोलने तथा दोनों देशों के बीच व्यापार संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयासों के बावजूद, बांग्लादेश में राजनीतिक उथल-पुथल के कारण आशुगंज-अखौरा चार-लेन राजमार्ग जैसी प्रमुख संपर्क परियोजनाएँ बीच में ही छोड़ दी गई हैं. यह देखना अभी बाकी है कि ऐसी परियोजनाएँ कितनी जल्दी फिर से शुरू होंगी, क्योंकि यह काफ़ी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि ढाका में कौन और कब सत्ता में आता है.
नई दिल्ली के लिए संरचनात्मक चिंताएँ उत्पन्न करने के अलावा, बांग्लादेश के हालात ने भारत की घरेलू राजनीति को भी अछूता नहीं छोड़ा है. विशेष रूप से, अधिक धर्मनिरपेक्ष हसीना सरकार को उखाड़ फेंकने तथा अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ उनकी संपत्ति और संस्थाओं के विरुद्ध लक्षित हिंसा और बर्बरता ने राजनीतिक चिंता और नागरिक प्रतिक्रिया दोनों को जन्म दिया है. बांग्लादेश में 5 से 10 अगस्त के बीच अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ हिंसा के 200 से अधिक मामले सामने आने के बाद, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में अल्पसंख्यक समुदाय की दुर्दशा के प्रति अपनी सरकार की चिंता प्रकट की थी. साथ ही, भारतीय हित समूहों, विशेषकर दक्षिणपंथी झुकाव वाले समूहों ने अपनी माँगों की सूची के साथ असम में बांग्लादेश के सहायक उच्चायोग के कार्यालय तक मार्च निकालने से लेकर महाराष्ट्र और त्रिपुरा में प्रदर्शन आयोजित करने तक बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमलों के मुद्दे पर लामबंद होने की कोशिश की है. वास्तव में, बांग्लादेश की स्थिति ने भारत के प्रांतीय चुनावी विमर्श में भी अपनी पैठ बना ली है, जो इस बात को दर्शाता है कि पड़ोसी देश के संकट ने देश के सामाजिक और राजनीतिक वर्गों की सोच पर किस हद तक कब्जा कर लिया है. ऐसा कहा जा रहा है कि भारत में इस तरह की प्रतिक्रियाएँ बांग्लादेश में अनदेखी नहीं की जा सकतीं, जिससे भारतीय प्रतिष्ठान के लिए बांग्लादेश के प्रति अधिक बारीक दृष्टिकोण अपनाना और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, विशेषकर तब जब ढाका में नेता सक्रिय रूप से नई दिल्ली से अधिक विचारशील दृष्टिकोण अपनाने का अनुरोध कर रहे हैं.
बहु-वेक्टर दृष्टिकोण
बांग्लादेश से संबंधित भारत की विदेश नीति की अक्सर इसकी अदूरदर्शी, द्विआधारी दृष्टिकोण के लिए आलोचना की जाती है, और कुछ मायनों में, नई दिल्ली को अवामी लीग पर अपनी अत्यधिक निर्भरता के लिए कीमत चुकानी पड़ रही है. ढाका के उभरते हालात में मित्रविहीन प्रतीत होने के कारण, ज़मीनी स्तर पर भावनाएँ भारत के पक्ष में नहीं हैं, विशेषकर इसलिए क्योंकि नई दिल्ली को हसीना के कथित कठोर शासन को एक बार नहीं, बल्कि तीन बार बढ़ावा देने वाला माना जाता है. यह कि अपदस्थ बांग्लादेशी प्रधानमंत्री कथित तौर पर भारत में शरण लेना जारी रखे हुए हैं, ढाका में नकारात्मक धारणा को बढ़ा सकता है, जिससे नई दिल्ली के लिए बांग्लादेश में प्रासंगिक राजनीतिक ताकतों, विशेष रूप से बीएनपी, जो आमतौर पर भारतीय विचारधारा और हितों से जुड़े होने के लिए नहीं जानी जाती है, के साथ बातचीत करना कठिन हो जाएगा. अपदस्थ अवामी नेता, उनकी पार्टी और उनके कथित हितैषी (भारत) के खिलाफ़ व्यापक सार्वजनिक और राजनीतिक आक्रोश को देखते हुए, यह नई दिल्ली के हित में होगा कि वह अब तक अपनाई गई नीति को या तो त्याग दे और फिर बांग्लादेश की जटिल स्थिति पर अधिक चुस्त, बहु-वेक्टर परिप्रेक्ष्य को अपनाए. इसके लिए ज़रूरी नहीं है कि ढाका में अपने पुराने सहयोगियों या अपने हितों को पूरी तरह त्याग दिया जाए. इसके बजाय, यह दृष्टिकोण भारत की द्विपक्षीय नीतियों को अपने “अवामी-बनाम-बाकी” ईको कक्ष से बाहर निकलने और ज़मीन पर होने वाली हलचल को बेहतर ढंग से समझने के लिए अन्य संस्थाओं तक नई दिल्ली की पहुँच को विविधतापूर्ण बनाकर कैनवास को व्यापक बनाने की कोशिश की जाए.
चयनिका सक्सेना बिग टेक में एम्बेडेड इंटेलिजेंस कंसल्टेंट हैं. सभी विचार निजी हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.