हर साल जून से सितंबर के अंत तक ग्रीष्म ऋतु की मानसूनी बरसात भारत के दक्षिणी तट से शुरू होकर धीरे-धीरे उत्तर की ओर बढ़ती जाती है, जिसमें भारत की वार्षिक बरसात के 80 प्रतिशत भाग की आपूर्ति होती है. नदियाँ कल-कल करके बहने लगती हैं, खेतों में बुवाई होने लगती है और जलवाही स्तर और जलाशय पानी से लबालब भरने लगते हैं. इसके फलस्वरूप गर्मी की चिलचिलाती धूप के बाद खेती-बाड़ी की गतिविधियों में बहार आ जाती है, लेकिन इस हर्षोल्लास में कहीं गहरे में बेहद दबाव से गुज़रती कृषि प्रणाली भी अंतर्निहित होती है.
साठ के दशक से भारत के भूमिगत जल से होने वाली सिंचाई में नाटकीय रूप में उछाल आया है और यह देश की अर्थव्यवस्था और लोकजीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी है. इससे 260 मिलियन से अधिक छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों के जीवन में हरियाली आने लगी है. ये किसान और खेतिहर मज़दूर भारत में तीन-तिहाई अनाज उगाते हैं, लेकिन इन लाभों की कीमत भूमिगत जल संग्रह पर दबाव बढ़ाकर चुकानी पड़ी है. विश्व में भारत भूमिगत जल का सबसे बड़ा उपयोक्ता है और अस्सी के दशक से भूमिगत जल का स्तर सारे देश में घटता ही रहा है. पूर्वोत्तर में यह समस्या खास तौर पर सबसे अधिक गंभीर है. इस इलाके में भूमिगत जल का स्तर जमीन में 8 मीटर से 16 मीटर तक नीचे चला गया है. इसलिए पानी को और भी गहराई से निकालना पड़ता है. इससे भी अधिक शोचनीय बात तो यह है कि इस पानी का नवीकरण भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसकी रीचार्ज दरें निष्कासन की दरों की तुलना में बहुत ही कम हैं और इसके पुनर्भराव की प्रक्रिया में हज़ारों साल लग सकते हैं.
ऐसा “जीवाश्म” भूमिगत जल अंतर्निहित रूप में रक्षणीय नहीं है. इसके अलावा मानसूनी बरसात भी अनिश्चित होती है. जहाँ एक ओर जलवायु के कुछ मॉडल भारी बरसात की भविष्यवाणी करते हैं, वहीं अन्य मॉडल कमज़ोर मानसून की भविष्यवाणी करते हैं. हालाँकि मानसून की घट-बढ़ में बदलाव होते रहते हैं और भविष्य में भी यह घट-बढ़ होती रहेगी. ऐतिहासिक रिकॉर्ड से पता चलता है कि पिछले पचास वर्षों में बेहद कम बरसात और बहुत ज़्यादा बरसात अर्थात् अनावृष्टि और अतिवृष्टि दोनों में ही बढ़ोतरी हुई है. जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ भारत की मानसून में भी बदलाव आता है. इसलिए भूमिगत जल के संसाधनों पर पहले से ही बहुत ज़ोर दिया जाता रहा है, लेकिन इसमें और भी बढ़ोतरी हो सकती है.
भूमिगत जल पर दबाव केवल जलीय मामला नहीं है, क्योंकि इस संसाधन का उपयोग मानव व्यवहार और आर्थिक नीतियों से भी संचालित होता है. उदाहरण के लिए, सूखे इलाकों में पानी ले जाने से जल-प्रधान फसलों की माँग और बढ़ सकती है. इसके कारण सिंचाई के क्षेत्र का और भी विस्तार हो सकता है और इससे भौतिक प्रणाली, पर्यावरण और इसका समर्थन करने वाले लोगों पर दबाव और भी बढ़ सकता है. इसलिए सबसे पहले यह समझना बहुत ज़रूरी है कि लोग इस पानी का उपयोग कैसे और क्यों करते हैं. भौतिक जल और फसल प्रणाली के उल्लेख के बिना कृषि और आर्थिक विषयों से संबंधित मानवीय निर्णयों की जटिलता के परिप्रेक्ष्य में भारत में भूमिजल का भविष्य कैसा होगा?
इस सवाल का जवाब देने के लिए ही मैंने ग्रामीण भारत में गैर-नवीकरणीय भूमिगत जल के उपयोग के समन्वित आर्थिक-जलविज्ञान संबंधी मूल्यांकन में ( न्यू हैम्पशायर विवि और पैन्सिल्वेनिया स्टेट विवि के अपने सहयोगियों के साथ) भाग लिया था. ऐसी बहु-विषयक दृष्टि के कारण ही हमने विभिन्न प्रकार के लोगों और जल-चक्रों के फ़ीडबैक को शामिल करके अपना मंतव्य प्रस्तुत किया, जबकि स्वतंत्र रूप से जलविज्ञान या भूमिगत जल संबंधी आर्थिक अध्ययन में इसकी पूरी तरह उपेक्षा कर दी जाती है. सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि समन्वित दृष्टि से ही इस बात पर प्रकाश डाला जा सकता है कि कौन-सी ऐसी अनुकूलन अनुक्रियाएँ और नीतिगत उपाय हैं, जिनकी मदद से इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है.
भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित पहल तो यह है कि 12,500 कि.मी. के जल परिवहन जालतंत्र का निर्माण करके नदी बेसिन की सीमाओं के आर-पार 178 बिलियन क्यूबिक जल को हर साल भौतिक रूप में स्थानांतरित कर दिया जाए. “राष्ट्रीय नदी संयोजन परियोजना” विश्व की ऐसी सबसे बड़ी प्रस्तावित जल ढाँचागत परियोजना है, जिसका उद्देश्य है “जलाधिक क्षेत्र” वाले बेसिन से “अल्पजलीय क्षेत्र” वाले बेसिन में पानी को ले जाकर सिंचित खेती का विस्तार करना. पहली नियोजित नहर के माध्यम से कावेरी और गोदावरी नदियों के संयोजन का कार्य 16 सितंबर,2015 को पूरा हो गया था.
अपने मॉडलिंग फ्रेमवर्क की मदद से हमने भूमिगत जल के दबाव को कम करने के लिए विकसित इस प्रस्तावित बुनियादी ढाँचे की क्षमता का आकलन करने में सफलता पाई थी. सबसे पहले हमने ऐतिहासिक मानसून की घट-बढ़ और भारत में उगाई गई छह प्राथमिक फसलों के संदर्भ में किसानों द्वारा बदले गये सूखे और बारिश के मौसम में सिंचित इलाकों के आधार पर मात्रा का पता लगाने के लिए सत्तर के दशक से फसल और मौसम के व्यापक डेटा का इस्तेमाल किया. भविष्य में जारी रहने वाली मानसून की घट-बढ़ से संबंधित इन अनुक्रियाओं का अनुमान लगाते हुए हमने मानसून की बारिश के प्रक्षेपणों पर आधारित सिंचित फसलों के इलाकों में भावी परिवर्तनों को प्रक्षेपित किया और इन्हें जलविज्ञान के मॉडल में इनपुट कर दिया. उसके बाद ही हम सिंचाई की माँग को मॉडल कर सके और इस बात का आकलन कर सके कि इस माँग में से कितनी मात्रा भूमिगत जल के रीचार्ज और सतह के पानी से सप्लाई की गई दीर्घकालीन सिंचाई से प्राप्त हो सकेगी और कितनी मात्रा अल्पकालीन या गैर-नवीकरणीय भूमिजल से प्राप्त हो सकेगी.
इस विश्लेषण (पर्यावरण संबंधी अनुसंधान पत्र में प्रकाशित) से पता चलता है कि कुछ ऐसे इलाकों में भी जहाँ मानसूनी बरसात में वृद्धि को प्रक्षेपित किया गया था, सिंचित कृषि के विस्तार से और अधिक गैर-नवीकरणीय भूमिजल का निष्कासन होगा. इसका अर्थ यह है कि इन इलाकों में भूमिजल के स्तर में अगले तीस साल तक कमी होती रहेगी. कुछ चरम मामलों में तो नवीकरणीय भूमिजल से बिलकुल सिंचाई न हो पाने के कारण राष्ट्रीय वार्षिक फसल उत्पादन में 25 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आ सकती है.
हमारे नतीजों से यह भी पता चलता है कि पूरे भारत में भूमिजल के भावी स्तर में भारी घट-बढ़ दिखाई पड़ रही है. यह भी उल्लेखनीय है कि भावी जलवायु परिवर्तन के कारण कुछ ज़िलों में स्थिति सुधर भी सकती है और वे भूमिजल के स्तर में सुधार लाकर पूरी तरह से केवल दीर्घकालीन जल आपूर्ति पर निर्भर रह सकते हैं. अन्य ज़िलों में भूमिजल में गिरावट का स्तर कुछ कम रहेगा और कुछ ज़िले ऐसे भी होंगे जहाँ पहली बार गिरावट दर्ज की जाएगी, लेकिन पंजाब और हरियाणा के अधिकांश भागों में, राजस्थान और गुजरात के उत्तरी इलाकों में और उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ भागों में भूमिगत जल का स्तर लगातार कम होता जाएगा. जैसे-जैसे पानी का स्तर गहरा होता जाएगा, पंपिंग की लागत में बढ़ोतरी के कारण निष्कासन का काम बंद हो जाएगा और इससे कल्याण कार्यों पर बुरा असर पड़ेगा.
पिछले अनुसंधान कार्य (सेखरी, 2014) में यह दर्शाया गया था कि उन इलाकों में गरीबी ज़्यादा होती है, जहाँ भूमिगत जल- स्तर में गिरावट आने के कारण जल-स्तर को ऊपर उठाने के लिए बहुत महँगे पंपों का उपयोग ज़रूरी हो जाता है. अन्य अनुसंधान कार्यों (फ़िशमैन, जैन और किशोर, 2015) में बताया गया है कि जिन इलाकों में नल सूख गए हैं, वहाँ संपन्न किसान शहरों की ओर रुख करने लगते हैं, लेकिन गरीब किसानों और मज़दूरों के पास कोई विकल्प नहीं होता और उनकी हालत और भी खराब हो जाती है.
अब हम नीति संबंधी प्रस्तावों की ओर लौटते हैं: क्या $120 बिलियन डॉलर की नदी-संयोजन परियोजना से हालात बदलेंगे? हमारे मॉडल के अनुसार यह इस बात पर निर्भर है कि यह परियोजना कैसे लागू की जाती है. हमें लगता है कि इस परियोजना में इस शताब्दी के मध्य (2040-2050) तक गैर-नवीकरणीय जल की माँग में 12-24 प्रतिशत की कमी लाने की क्षमता है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम कौन-सा मॉडल अपनाते हैं. हालाँकि इसका असर पूरे भारत में बिलकुल अलग-अलग होगा, लेकिन नहरों के किनारे-किनारे नये और बड़े जलाशयों के बिना बनाये गये सिमुलेशन में केवल जलांतरण से गैर-नवीकरणीय भूमिजल की माँग में बहुत अधिक कमी नहीं आएगी और बिना भंडारण के बारिश के मौसम में सूखे मौसम की सिंचाई में जलांतरण नहीं हो पाएगा. ऐतिहासिक रूप में भारी मात्रा में पानी को रोकने वाले बाँधों का निर्माण-कार्य भारत में काफ़ी विवादग्रस्त रहा है. हालाँकि नदी-संयोजन परियोजना के अंतर्गत बनने वाले बाँधों के निर्माण की वास्तविक योजना अभी सार्वजनिक नहीं की गई है, फिर भी इन नतीज़ों से यह स्पष्ट है कि जलाशयों की क्षमता में भारी वृद्धि के बिना प्रस्तावित परियोजना से भूमिगत जल के दबाव में कमी नहीं आएगी.
भूमिजल की माँग को कम करने के लिए कुछ और भी किफ़ायती और दीर्घकालीन उपाय हो सकते हैं, जैसे सूखे मौसम में कम पानी वाली फसलों को लगाकर अधिक दक्षता से सिंचाई प्रबंधन करना और उन इलाकों में जहाँ पानी की कमी है, वहाँ सिंचाई-प्रधान प्रणाली में परिवर्तन लाना. इसके अलावा, आवश्यकता इस बात की है कि भारत में बेहतर नीतियाँ इस तरह से अपनाई जाएँ कि उनसे केवल बड़ी जोत वाले किसानों को ही नहीं, छोटी जोत वाले किसानों और मज़दूरों को भी लाभ हो ताकि वे भूमिगत जल की कमी और अधिक घट-बढ़ वाले भावी जलवायु से होने वाले जोखिमों के अनुरूप अपने-आपको बदल सकें और समायोजित कर सकें. मिहिर सेन (भारत सरकार के तत्कालीन योजना आयोग के पूर्व सदस्य) की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा “भारत में जल सुधार के लिए 21 वीं सदी का संस्थागत आर्किटैक्चर” शीर्षक से प्रस्तुत हाल ही की रिपोर्ट जल संसाधन प्रबंधन में आमूल परिवर्तन लाने के लिए एक आह्वान है. यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं है, लेकिन एक ऐसा संसाधन, जो भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक भविष्य की दिशा को बदलने में सक्षम हो, हमें अपनाना ही होगा. विक्टर ह्यूगो के शब्दों में, “विश्व की सभी ताकतें इतनी शक्तिशाली नहीं हैं, जितना कि एक ऐसा शब्द, जिसका समय आ गया हो.”
ईशा झवेरी स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण और पृथ्वी प्रणाली विज्ञान में पोस्ट डॉक्टरेट रिसर्च फ़ैलो हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919