"उपनिवेशवाद से मुक्ति" की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों (IR) के एक गंभीर विद्वान् के रूप में काम करते हुए पिछले कुछ वर्षों में, मैंने जो चाहा है उसमें सतर्क रहना सीख लिया है. अकादमिक ज्ञान को उपनिवेशवाद से मुक्त करने का मतलब पारंपरिक रूप से विचार और जाँच के पश्चिमी-केंद्रित रूपों पर सवाल उठाना है जिन्हें सार्वभौमिक विचारों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. इसका मतलब है पश्चिम को सैद्धांतिक बैंचमार्क और अनुभवजन्य फोकस बिंदु से हटाना और उन तमाम तरीकों को गंभीरता से लेना, जिनसे शाही विरासत समकालीन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से आकार ग्रहण करती है. हालाँकि, शिक्षा जगत् में उपनिवेशवाद विरोधी विनियोजन को लेकर बेचैनी बढ़ रही है: उपनिवेशवाद से मुक्ति की फैशनेबल भाषा को रणनीतिक रूप से राष्ट्रवादी, देशी और रूढ़िवादी उद्देश्यों के लिए प्रचारित किया जा रहा है.
Cosmopolitan Elites: Indian Diplomats and the Social Hierarchies of Global Order (Oxford University Press, 2023) में मैंने यह तर्क रखा है कि औपचारिक रूप से उपनिवेशवाद से मुक्त अंतर्राष्ट्रीय समाज में भी, भारतीय राजनयिक विविधता और भिन्नता पर आधारित एक उत्तर-औपनिवेशिक अंतर्राष्ट्रीय समाज की दिशा में प्रयास करने की वास्तविक इच्छा के बावजूद, विचित्र ढंग से संतुलन बनाये रखने में लगे रहते हैं; एक गोरे, यूरोपीय-प्रभुत्व वाले समरूप क्लब की कैरिकेचर जैसी धारणा में उनका स्थायी विश्वास भी बना रहता है, जिसमें भारतीय राजनयिक शामिल रहने की एक सामाजिक अनिवार्यता महसूस करते हैं. यहाँ तक कि जब ये राजनयिक पश्चिमी राजनीतिक आधिपत्य का आगे बढ़कर विरोध करते हैं, तब भी वे ऐसे सामाजिक व्यवहार में संलग्न होते हैं जो एक पश्चिमी कुलीन क्लब के विशिष्ट सदस्य के रूप में पहचान बनाने की लालसा रखते हैं, जिनकी जाति और वर्ग के पदानुक्रम में वे आगे बढ़ने की उम्मीद करते हैं. ऐसे सामाजिक संदर्भ में, हमें राजनीतिक सिद्धांत की पारंपरिक शैली में सर्वदेशीयवाद के बारे में नहीं सोचना चाहिए, जो वैश्विक सहिष्णुता के लिए एक समतावादी नैतिकता के तौर पर वैचारिक प्रतिबद्धता के रूप में सर्वदेशीयवाद की कल्पना करता है. इसके बजाय हमें सर्वदेशीयवाद को एक समाजशास्त्रीय लैंस के माध्यम से, एक विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र के रूप में देखना चाहिए: एक ऐसा सामाजिक मानक जो ऐंग्लोफोन अभिजात वर्ग के विमर्श में सांस्कृतिक प्रवाह और उच्च वर्ग के पश्चिमी रीति-रिवाजों में सामाजिक समायोजन पर विचार करता है. यह पुस्तक इस बात की उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना प्रस्तुत करती है कि साम्राज्य की विरासतें कैसे भारतीय कूटनीति को आकार देती रहती हैं और यह जाँच करती हैं कि एक अधिक विस्तृत, उपनिवेशवाद से मुक्त सर्वदेशीयवाद कैसा दिख सकता है.
परंतु, भारत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों (IR) को उपनिवेशवाद से मुक्त करने का प्रयास नैतिक और ज्ञानमीमांसा संबंधी उलझनों की श्रृंखला को आमंत्रित करता है. सिद्धांत सत्ता से मुक्त नहीं रहता; राजनैतिक संदर्भ मायने रखता है. ऐसा प्रतीत होता है कि समकालीन भारतीय बहस में, सबसे उत्साही उपनिवेशवादी अक्सर ऐसी राजनीति का प्रचार करते हैं जो उपनिवेशवाद संबंधी विद्वत्ता की मूल नैतिक नींव के विपरीत होते हैं.
मैं ऐसे अभिनेताओं को “उत्तर-उपनिवेशवादी लोक-लुभावनवादी अभिनेता” मानती हूँ. वे खुद को नरेंद्र मोदी के भारत से लेकर रेसेप तैयप एर्दोआन के तुर्की तक को अलग तरह से व्यक्त करते हैं, लेकिन उनका मूल व्याकरण यह है कि पश्चिम के हाथों उत्पीड़न के ऐतिहासिक विमर्श को औपनिवेशिक मुक्ति की परियोजना के रूप में तैयार करने के लिए समकालीन सत्तावादी राजनीति में नियोजित किया जाता है. "गैर-पश्चिमी स्व" को एक अदूषित और रोमांटिक सबाल्टर्न के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसे धर्मनिरपेक्षता या उदार लोकतंत्र जैसे पश्चिमी अधिरोपण से मुक्त किया जाना चाहिए.
भारत में, "गैर-उपनिवेशवादी हिंदुत्व" हिंदुत्व की मूलभूत राजनीति को साम्राज्यवाद-विरोध की पूर्व वामपंथी भाषा के साथ जोड़ता है. यह काल्पनिक दुश्मनों के खिलाफ विद्रोही राष्ट्रवाद की परियोजना को बेचने के लिए घरेलू "पश्चिमी" असंतुष्ट शिक्षाविदों और पत्रकारों से लेकर विदेशों में "साम्राज्यवादी" मानवाधिकार के मॉनिटरों तक ब्रिटिश राज के खिलाफ प्रतिरोध के ऐतिहासिक प्रदर्शनों का आह्वान करता है. सभी विदेशी आलोचनाओं को भारत के संप्रभु मामलों में शाही घुसपैठ के रूप में खारिज कर दिया जाता है; सभी घरेलू आलोचनाएँ भारतीय मानस के अपर्याप्त उपनिवेशीकरण की पुष्टि करती हैं. भारतीय औपनिवेशिक अधीनता 18वीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन से नहीं, बल्कि 16वीं शताब्दी में मुगल अदालतों के आगमन से मानी जाती है, जिसने हिंदुत्ववादी इतिहासलेखन को गैर-औपनिवेशिक राष्ट्र निर्माण के बैनर तले मुस्लिम विरोधी राजनीति को शामिल करने की अनुमति दी.
उत्तर-औपनिवेशिक लोकलुभावन विश्व स्तर पर प्रचलित अकादमिक शब्दजाल को चयनात्मक ढंग से घरेलू बना लेता है. इस तरह के घरेलूकरण की प्रक्रिया का एक उदाहरण है, जे. साई दीपक की पुस्तक India That is Bharat: Coloniality, Civilisation, Constitution. इस पुस्तक का उपनिवेशवाद से मुक्ति से जुड़े प्रमुख सिद्धांतकार वाल्टर मिग्नोलो ने समर्थन किया था, किंतु दक्षिण एशियाई विद्वानों के तीव्र विरोध के बाद इसे वापस ले लिया गया था. विचार की इस उभरती परंपरा पर बहस करने वाले दीपक और उनके सहयोगी यह तर्क देते हैं कि उत्तर-औपनिवेशिक लोकलुभावनवादी लोगों के लिए, भारत के मूल निवासी केवल भारतीय नहीं हैं (या, जैसा कि किसी ने उम्मीद की होगी कि भारत के स्वदेशी आदिवासी समुदाय के लोग हैं) बल्कि हिंदू हैं, जो भारतीय समाज में निर्विरोध बहुमत की स्थिति के बावजूद, इसे धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा उत्पीड़ित समुदाय के रूप में देखते हैं. 3,000 वर्षों के जातिगत भेदभाव को ब्रिटिश राज द्वारा थोपे गए औपनिवेशिक निर्माण के रूप में घोषित किया गया है, जिससे स्वदेशी भारतीयों को नैतिक एजेंसी से राहत मिली है. "पश्चिम के प्रति ज्ञानपरक अवज्ञा" की उपनिवेशवादी वर्गबोली को अपनाते हुए, दीपक भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को उपनिवेशवाद के अवशेष के रूप में कमजोर करने और हिंदू को बहुसंख्यकवादी महानता को बहाल करने की आवश्यकता बताते हैं.
हिंदू बहुसंख्यकवाद को स्वदेशी मुक्ति के एक कार्य के रूप में पाठक के सामने रखा जाता है. यद्यपि "विनियोजन" शब्द का उपयोग मैंने एक प्रकार की जालसाजी या नाजायज कब्जे के रूप में किया है, उत्तर-औपनिवेशिक लोकलुभावनवाद की निंदा करने की नैतिकता एक तरह से जटिल प्रक्रिया है. सबसे पहले, उपनिवेशवाद से मुक्ति के तर्कों के प्रक्षेप पथ को नियंत्रित करने का आग्रह, विशेष रूप से जब वैश्विक उत्तर (Global North) की ओर से कहा गया हो, स्वयं जाँच का विषय होना चाहिए, यह देखते हुए कि यह उत्तरी सैद्धांतिक आधिपत्य को फिर से लागू करने के एक और प्रयास की तरह भयानक कार्य लगता हो. दूसरा, उत्तर-औपनिवेशिक एजेंसी के अभ्यास में ऐसे विकल्प चुनने का अधिकार शामिल होना चाहिए जो मुक्ति के बारे में अन्य लोगों की समझ के विपरीत हो.
वास्तव में, ऐसी एजेंसी के अधिकार का वास्तविक परीक्षण तभी होता है जब ऐसा घटता है, अन्यथा नहीं. तीसरा, पूरी 20 वीं शताब्दी के दौरान,किसी भी स्थान पर राष्ट्रवादी विनियोग की आलोचना केवल उसके राष्ट्रवाद के लिए होती है, तीसरी दुनिया का राष्ट्रवाद एक विश्व-परिवर्तनकारी उपनिवेशवादी शक्ति था, जिसने पूर्व में वंचितों के लिए अधिक संप्रभु समानता सुनिश्चित की थी. इसके बजाय, हमें अधिक मुक्ति के नाम पर अनुचित शक्ति संबंधी संरचनाओं पर सवाल उठाने जैसे उपनिवेशवाद-विरोधी सिद्धांत के मूलभूत उद्देश्यों की ओर लौटना चाहिए. जातीय-राष्ट्रवादी परियोजनाएँ प्राचीन समय में किये गए अन्याय की ओर संकेत कर सकती हैं, लेकिन उनके बहिष्कार, प्रवर्तित समानता और दमन के कार्यक्रम मुक्ति का मखौल उड़ाते हैं.
यह अकादमिक उपनिवेशीकरण की मुक्ति का एजेंडा कहाँ लेकर जाता है? मैं बौद्धिक सुधार के दो बिंदुओं से शुरुआत करना चाहती हूँ. मेरी पहली दलील रूमानी अशालीनता के ख़िलाफ़ है. उत्तर-औपनिवेशिक लोकलुभावनवाद इस धारणा पर कार्य करता है कि एक प्रकार का अदूषित पूर्व-उपनिवेशवाद भी है, जिसमें वह शरण लेता है. यह पलायन एक नैतिक रूप से दोषमुक्त स्वदेशी, पश्चिमी आधुनिकता के भ्रष्टाचार से अलग हटकर अपनी पहचान से प्राथमिक रूप से गुणी व्यक्ति को सामने लाता है. यह अवधारणा अनुभवजन्य रूप में बेईमान और राजनीतिक रूप से खतरनाक है. यह उल्लेखनीय विविधता और समन्वय वाले भारत देश के लिए पूर्व-औपनिवेशिक एकता का कैरिकेचर प्रस्तुत करता है. इस तरह की रूमानियत कई प्रगतिशील पश्चिमी परिसरों में प्रचलित है. जहाँ यह देशीयता और शालीनता की अनिवार्यता को धुँधला कर देती है और अब तो उपनिवेशवाद से मुक्ति को उजागर करना तकलीफ़देह भी होने लगा है.
स्वदेशी की रूमानी धारणाओं के अनुसार किसी व्यक्ति की नैतिकता और राजनीति उनकी पहचान से पूर्व निर्धारित होती है. एक निर्दिष्ट पहचान समूह से परे विचार की संभावना से इंकार करके व्यक्तियों को जन्म के समय उन्हें सौंपी गई संस्कृतियों, नैतिकताओं और दृष्टिकोणों से बाँध देती है. "प्रामाणिक" स्वदेशी की ऐसी निगरानी मुक्ति का कार्य नहीं है. यह कोई संयोग नहीं है कि उपनिवेशवाद-विरोधी हिंदुत्व भारतीय मानस को उपनिवेशवाद से मुक्त करने के तर्कों से शुरू होता है और एक ऐसे राजनीतिक स्थान पर पहुँच जाता है जहाँ मुस्लिम नागरिकों या असहमति रखने वाले छात्रों, कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा, "राष्ट्र-विरोधी" या अपर्याप्त भारतीय के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है.
मेरी दूसरी दलील एकजुटतावादी सार्वभौमिकता के किसी न किसी रूप की बहाली के लिए है. उपनिवेशवाद-विरोधी सिद्धांत का इस आधार पर सार्वभौमिकता के दावों का विरोध किया गया है कि औपनिवेशिक विचारधाराएँ अक्सर औपनिवेशिक शक्ति की आंशिक स्थिति के बारे में झूठी सार्वभौमिकता का प्रचार करती हैं.फिर भी अतीत की सार्वभौमिकता की विफलताओं को स्वीकार करते हुए हमें गैर-प्रभुत्व की उत्तर-औपनिवेशिक दुनिया के लिए अधिक महत्वाकांक्षी सार्वभौमिकता विकसित करने में पीछे नहीं हटना चाहिए. यहाँ हमें उस पर पुनर्विचार करना चाहिए जिसे ओलुफ़ामी ओ. ताइवो "सम्मान की राजनीति" कहते हैं. मौजूदा समय में यह एक ऐसी लोकप्रिय प्रगतिशील प्रथा है जो बिना सोचे-समझे "सबसे अधिक हाशिये पर पड़े लोगों को केंद्र में रखती है" और उनके "जीवंत अनुभव" को महत्व देती है. चूँकि किसी विशेष समुदाय के सदस्य ही, वैध रूप से अपने सच्चे दावों को स्पष्ट कर सकते हैं, यह दावा करना अब संभव नहीं है कि ये समुदाय शायद कई पीढ़ियों से किसी चीज़ के बारे में गलत हो सकते हैं (या वास्तव में आपस में मौलिक रूप से असहमत हो सकते हैं). इससे हमारे पास घरेलू असहमति या सांस्कृतिक अंतर पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए कोई संसाधन भी नहीं बचे हैं.
इसके अलावा, लगातार घटती पहचान की श्रेणियों के प्रति अतिसंवेदनशीलता सामूहिक कार्रवाई और विचार को लगभग असंभव बना देती है. यदि साझे जीवन का अनुभव एकमात्र मानदंड बन जाता है जिसके लिए समुदाय और नैतिकता को मापा जाता है, तो हम एकजुटता की किसी भी संभावना को नकार देते हैं, जिसके लिए, परिभाषा के अनुसार, पहचान के मतभेदों के पार सहानुभूति और गठबंधन की राजनीति का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है.
Cosmopolitan Elites में जिन भारतीय राजनयिकों का मैंने साक्षात्कार लिया है, उनमें से कुछ राजनयिकों ने इस संभावना पर विचार किया है कि उत्तर-पश्चिमी व्यवस्था की शुरुआत में, कॉस्मोपॉलिटनवाद भी विकसित हो सकता है.यह अनावश्यक रूप से पश्चिमीकृत, वर्गवादी, बहिष्कृत अर्थों से सांसारिकता के पुराने, संकीर्ण पाठों को दूर करने के लिए तर्कसंगत लगा. कॉस्मोपॉलिटनवाद की फिर से कल्पना की जा सकती है. उपनिवेशवाद की मुक्ति फिर से की गई इस कल्पना का एक भाग तो हो सकता है, लेकिन पूर्ण रूप में नहीं. और फिर भी, यह अनुभवजन्यता, ज्ञानमीमांसा या नैतिक रूप से स्पष्ट नहीं है कि उपनिवेशवाद का स्वरूप क्या होगा. उपनिवेशवाद से मुक्ति की कई समकालीन व्याख्याएँ या तो अनजाने में या जानबूझकर बाहरी विरोध और आंतरिक असहमति को संकीर्ण कर देती हैं - एक ऐसी संकीर्णता जिसे दुनिया भर के अधिनायकवादी उपनिवेशवाद से मुक्ति के नाम पर उत्सुकता से अपनाते हैं. सिद्धांत “वास्तविक दुनिया” में राजनीति के रूप में हमेशा ही जीवित रहता है. हमें इस तरह के विनियोग से बचने की उम्मीद में अराजनीतिकरण का दिखावा नहीं करना चाहिए, बल्कि, हमें सैद्धांतिक उपनिवेशवाद की नए सिरे से कल्पना करनी चाहिए.
किरा हुजू लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिटिकल साइंस में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की फ़ैलो हैं. उन्होंने पीएच.डी. की है. ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से संबंधित उनका पहला मोनोग्राफ, Cosmopolitan Elites: Indian Diplomats and the Social Hierarchies of Global Order 2023 में ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
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