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संकट, भ्रष्टाचार और विश्वसनीयताः भारत में सरकारी व्यवहार का स्वरूप-निर्धारण

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21/11/2016
बिलाल बलोच

2011 के आरंभ से लेकर 2012 के अंत तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की यूपीए की गठबंधन सरकार ने भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के रूप में सबसे बड़ी नागरिक चुनौती का सामना किया था. यह आंदोलन वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों से जुड़े उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार के घोटालों के लगातार बढ़ने के कारण हुआ था. सन् 2009 में चुनाव में दुबारा सफलता मिलने के बाद यूपीए ने अपने-आपको विश्वसनीयता के संकट और भ्रष्टाचार के बीच फँसा हुआ पाया. भ्रष्टाचार-विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलनों ने विश्व भर के विकासशील लोकतांत्रिक देशों में 2013 की ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूप में नागरिकों के आक्रोश को स्वर प्रदान किया. टर्की जैसे कुछ लोकतांत्रिक देशों ने इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसे संगठनों को कुचल दिया, जबकि ब्राज़ील जैसे देशों ने समझौते के रूप में वार्ता का मार्ग चुना.

भ्रष्टाचार ने एक बार फिर से नागरिकों और विद्वानों की संवेदना पर प्रहार किया. इसी भावना ने चुनावों की दिशा बदल दी. इसके अलावा, प्रतिनिधित्व के सरकारी तंत्र और जवाबदेही की सोच भी बदल गई और आम जनता का संस्थाओं में विश्वास भी खंडित हो गया और इसी कारण जनता में विद्रोह का अंकुर फूटने लगा. हाल ही के अपने शोधकार्य में मैंने राज्य और समाज के इन्हीं संबंधों के बुनियादी स्वरूप पर विचार किया है, जिस पर कुछ ही लोगों का स्पष्ट तौर पर ध्यान गया है. आखिर क्या कारण है कि कुछ सरकारें अन्य सरकारों के मुकाबले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से कहीं अधिक सहिष्णुता से निपटती हैं? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए मैंने इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार द्वारा जयप्रकाश नारायण (जेपी) के क्रूर दमन के मामलों और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के विरोध में किये गये भारत के आंदोलन के संबंध में अपनाए गए सहिष्णु रवैय्ये की छानबीन की. यहाँ मैं मुख्यतः इसी आंदोलन को लेकर यूपीए की प्रतिक्रिया पर ही चर्चा करूँगा. संक्षेप में इसका यही उत्तर है कि वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा सरकारी निर्णय लेने की प्रक्रिया में बौद्धिक नियंत्रण और संतुलन होने या न होने से सरकार के रवैय्ये में सहिष्णुता की गुंजाइश बढ़ जाती है.

यह दावा कोई नया नहीं है कि बौद्धिक दृष्टि से उदार सरकारें अधिक सहिष्णु होती हैं, लेकिन हैरानी तो तब होती है जब भारत का आकलन उसकी सूझबूझ के खिलाफ़ किया जाता है. ऐतिहासिक दृष्टि से राजनीति विज्ञान में प्रचलित रवैय्ये से पता चलता है कि भारत में सरकारी व्यवहार के निर्णायक तत्व भौतिक लाभ और चुनावी हित ही होते हैं. संक्षेप में, बाहरी और वस्तुनिष्ठ तत्व ही निर्णायक होते हैं. इन्हीं तर्कों से चुनावी व्यवहार और बजट से संबंधित दीर्घकालीन राजनीति का अनुमान लगाया जा सकता है और नीति निरूपण संबंधी धारणाएँ स्पष्ट होती हैं, लेकिन भारत के राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जैसे संकटों के संदर्भ में लोकतांत्रिक प्रतिक्रियाओं के अंतर को समझने के लिए यह काफ़ी नहीं है.

ऐसे आंदोलन जो भ्रष्टाचार विरोधी प्रवृत्तियों से पैदा होते हैं, अक्सर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ऐसे ही परिवेश में और परिस्थितियों में उभरते हैं जब घोटालों या न्यायिक जाँच की वजह से सरकारी भ्रष्टाचार के मामले उजागर होते हैं. इनके कारण सरकार में असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है और मतदाताओं की नज़रों में उनकी विश्वसनीयता कम हो जाती है. इसके परिणामस्वरूप इस आंदोलन की प्रतिक्रिया स्वरूप सरकार की विश्वसनीयता को फिर से बहाल करना ही निर्णयकर्ताओं का सबसे बड़ा लक्ष्य हो जाता है. इस संकट के वातावरण में निर्णयकर्ताओं के विचारों की मदद से ही अनिश्चितता कम हो पाती है और ये विचार ऐसे व्याख्यात्मक ढाँचे का काम करते हैं जिनसे उनके मूलभूत अवयवों को परिभाषित करते हुए और उचित-अनुचित अंतःसंबंधों की सामान्य जानकारी देकर राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक दुनिया का वर्णन किया जाता है. इस प्रकार इन विचारों को आजमाकर निर्णयकर्ता सरकारी कार्रवाई के जोखिम और प्रक्रियाओं को कम कर देते हैं.

मेरे शोधकार्य में यूपीए प्रशासन के 120 वरिष्ठ लोगों के साक्षात्कार हैं. इसके अलावा इन साक्षात्कारों में प्रधान मंत्री, कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ सदस्य, मंत्रिमंडल के सदस्य और वरिष्ठ नौकरशाहों के साक्षात्कार भी शामिल हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न प्रकार के वरिष्ठ निर्णयकर्ताओं ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के संकट की व्याख्या करने और उसे सुलझाने के लिए और राष्ट्रीयता से मुकाबला करने के लिए भारत के राजनैतिक अर्थव्यवस्था संबंधी विभिन्न विचारों को स्वीकार किया, उन्हें वर्गीकृत और लागू किया और उनका प्रतिवाद भी किया. इन परस्पर विरोधी नुस्खों और रणनीतियों का अच्छी तरह से घालमेल करके उन्हें निर्णयकर्ताओं की व्यावसायिक पृष्ठभूमि के साथ नत्थी कर दिया गया है.

गठबंधन सरकार में बौद्धिक विविधता यूपीए सहित सभी राजनैतिक पार्टियों में निहित है, लेकिन यह विविधता नये नीतिगत ढाँचों के समर्थकों में, मुख्यतः टैक्नोक्रैट के विचारों में भी निहित है. अस्सी और नब्बे के दशकों के उत्तरार्ध में यूपीए के टैक्नोक्रैट के एक दल ने भारत सरकार में उस समय प्रवेश किया जब पहले-पहल गठबंधन सरकारों का उदय हो रहा था और देश के आर्थिक ढाँचे में उदारीकरण की नीतियों के कारण आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ था. उसी समय मनमोहन सिंह की सरकार में न केवल प्रधानमंत्री स्वयं, बल्कि मंत्रिमंडल के सदस्यों के रूप में, प्रधानमंत्री के कार्यालय में और नौकरशाही के वरिष्ठ खेमे में ये निर्णयकर्ता बड़े पदों पर आसीन हो गए थे. 1990 के दशक में और 2000 के दशक के पूर्वार्ध में सूचना के अधिकार के नये आंदोलन (आरटीआई) के एक भाग के रूप में टैक्नोक्रैट और कार्यकर्ताओं का एक और दल राष्ट्रव्यापी नागरिक गतिविधियों में अग्रणी भूमिका निभाने लगा और आगे बढ़कर यूपीए सरकार में ज़िम्मेदार पदों पर आसीन हो गया. ये टैक्नोक्रैट एक प्रकार के विचार “वाहक” हैं, जिनकी पहचान अपनी खास विचारधारा के कारण है. इनका प्रवेश निर्णय लेने वाली संस्थाओं में होता रहा है और इन संस्थाओं में वे ऐसे पदों पर आसीन रहते हैं जहाँ वे सरकारी कार्रवाई के लिए ज़िम्मेदार होते हैं. इन विचारों और उनके अंतर को चिह्नित करके और उनका अध्ययन करके ही हम यह पता कर पाते हैं कि इन राजनैतिक संस्थाओं पर कैसे विचार किया जाए.   

निर्णय लेने वाली संस्थाओं के इस व्यापक परिदृश्य के कारण ही यूपीए बनाम भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में ये लोग पूँजीवाद समर्थक, सांख्यिकी समर्थक और धर्मनिरपेक्ष-राष्ट्रवादी कहलाए. मुख्यतः टैक्नोक्रैट और वरिष्ठ नौकरशाहों को पूँजीवाद-समर्थक माना गया. इनकी भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में सीमित भूमिका ही रही, क्योंकि ये लोग मानते थे कि यह आंदोलन आर्थिक विकास के तंत्र के साथ भ्रष्टाचार को जोड़कर सरकार को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है. सांख्यिकी समर्थक मुख्यतः वे टैक्नोक्रैट और कार्यकर्ता हैं जो सरकारी पदों पर आसीन हैं और भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को सहानुभूति की दृष्टि से देखते हैं और चाहते हैं कि आंदोलनकर्ताओं के साथ पूरी तरह संवाद किया जाए. ये वरिष्ठ विचारक मानते हैं कि भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में वे लोग भी शामिल हैं जो आर्थिक उदारीकरण के मूल तंत्र से उपजे व्यापक भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लामबंद रहे हैं.   धर्मनिरपेक्ष-राष्ट्रवादी मुख्यतः कांग्रेस पार्टी के वे राजनीतिज्ञ हैं, जिन्होंने कांग्रेस को कैरियर की तरह मान लिया है और भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को अच्छी निगाह से नहीं देखते और यह मानते हैं कि इस आंदोलन को मुख्य विरोधी पार्टी भाजपा का समर्थन प्राप्त है और यह धार्मिक राष्ट्रवाद का ही एक रूप है. इन विचारों के कारण ही भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के संबंध में सरकारी संस्थाओं की अलग रणनीति बनाई गई है. कुल मिलाकर यही कारण है कि सरकार ने इस आंदोलन के खिलाफ़ एक ऐसा रुख अपनाया जिसमें सरकारी स्तर पर अधिकाधिक सहिष्णुता बरते जाने की गुंजाइश थी. इन तमाम वरिष्ठ अधिकारियों के उदार विचारों के कारण ही सरकारी कार्रवाई पर नियंत्रण और संतुलन रखा जा सका.

भारत का भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलन केंद्र सरकार के बौद्धिक दृष्टि से उदार विचारों के होने या न होने से ही प्रभावित होता रहा है. यदि शासक दल के पास चुनावी दृष्टि से बहुमत होता और उनके पास निर्णयकर्ता लोग होते और उनकी अपनी कट्टर विचारधारा होती तो इस बात की अधिक संभावना थी कि सरकार आंदोलनकारियों के प्रति अधिक सख्ती से पेश आती. उदाहरण के लिए, जेपी के 1974-75  के दौरान छेड़े गए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को आधिकारिक सत्ता पर आसीन इंदिरा गाँधी और अन्य निर्णयकर्ता वरिष्ठ लोग शत्रुतापूर्ण कार्रवाई मानते थे. उस समय के बिना छानबीन के एकत्रित पत्रों और दस्तावेज़ों पर आधारित मेरे शोधकार्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह परिदृश्य कांग्रेस पार्टी की उस मूलभूत विचारधारा में ही निहित है, जो “विविधता में एकता” की राष्ट्रीय सोच पर आधारित है. इसका टकराव सरकार के वरिष्ठ लोगों की उस धारणा से हुआ जो आंदोलन को ही धार्मिक-राष्ट्रवाद का अंग मानते हैं. पार्टी की इस विचारधारा का केंद्रीकरण श्रीमती गाँधी जैसे कुछ हताश लोगों के हाथ में था और निर्णय लेने की इस प्रक्रिया में टैक्नोक्रैट की अनुपस्थिति के कारण ही जेपी आंदोलन के खिलाफ़ सरकार द्वारा क्रूर और दमनकारी कार्रवाई की गई. ऐसी स्थिति में ऐसी ही कार्रवाई की संभावना बढ़ जाती है.

इसके विपरीत, यूपीए की गठबंधन सरकार के भीतर अलग-अलग पार्टियों के बीच सत्ता के बँटवारे के कारण संस्थाओं पर ऐसा नियंत्रण था, जिसमें सरकार के असहिष्णु होने की आशंका बहुत कम थी. मेरी धारणा है कि इस व्यवस्था का मूल आधार विभिन्न प्रकार की विचारधाराएँ हैं. ये विचार स्थितिजन्य या इधर-उधर से लेकर जुटाए गए नहीं हैं, बल्कि दीर्घकालीन सूझबूझ पर आधारित हैं. इसीसे पता चलता है कि यूपीए के वरिष्ठ लोग अपने शासन-काल में और उससे पहले के अपने कामकाज के दौरान विश्व को किस नज़र से देखते थे. अंततः निर्णयकर्ता अन्य कार्रवाई के मुकाबले अगर किसी खास कार्रवाई को चुनते हैं तो उसके पीछे बाहरी कारण होते हैं, जैसे, आर्थिक लाभ प्राप्त करने की आकांक्षा, रिश्वत लेना, चुनावी लाभ. साथ ही अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी रहता है. मेरे शोधकार्य में ऐसे निर्णायक तत्वों की चर्चा नहीं की गई है ताकि अंतर्जात तत्वों को अनुभव की दृष्टि से और ऐतिहासिक दृष्टि से उजागर किया जा सके और यह पता लगाया जा सके कि जिस परिवेश में राजनैतिक सत्ता अस्थिर रहती है, वहाँ नीति-निर्माण के लिए अनेक विचारों में से जूझते हुए कोई मार्ग निकालना पड़ता है और वहाँ नीति-निर्माण की प्रक्रिया कैसी रहती है.

बिलाल बलोच ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान में डॉक्टरेट के प्रत्याशी हैं, जहाँ वह विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में विश्वसनीयता के संकट के मद्देनज़र सरकारी व्यवहार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था से संबंधितसरोकारों पर अपना शोध प्रबंध लिख रहे हैं. वह इस समय नई दिल्ली (भारत) स्थित अंतर्राष्ट्रीय शांति के कारनेई ऐंडोमैंट (धर्मादा संस्थान) में फ़ैलो हैं. आप उनसे ट्विटर पर@bilalabaloch पर संपर्क बनाए रख सकते हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919