जहाँ एक ओर कोरोना वायरस की महामारी की पहली लहर के परिणामस्वरूप भारत की अर्थव्यवस्था को लगभग पूरा लॉकडाउन झेलना पड़ा, वहीं अपने कामगारों के विरोध के कारण डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर लगभग भूचाल-सा आ गया. स्विग्गी जैसे डिलीवरी सर्विस प्लेटफार्मों को भुगतान में बार-बार कटौती करने और उनके मासिक प्रोत्साहन में ऐसे समय में कमी करने के कारण कामगारों के आंदोलन का सामना करना पड़ा, जब उन्हें व्यक्तिगत स्वास्थ्य को खतरे में डालते हुए कंटेनमैंट ज़ोन में डिलीवरी के लिए सड़कों पर पुलिस बल से हिंसा का सामना करने के लिए मज़बूर होना पड़ा था.
राइड-हेलिंग ऐप ऊबर और ओला के ड्राइवरों ने माँग की थी कि उनके नियोक्ताओं द्वारा चार्ज किये जाने वाले अतिरिक्त कमीशन को माँग में गिरावट के समय कम किया जाए. अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट जैसे डिलीवरी प्लेटफॉर्म में छोटे विक्रेताओं और अन्य विक्रेताओं ने उनकी प्रतिस्पर्धा-विरोधी उन प्रथाओं का विरोध किया, जिनमें बड़े ब्रांडों और थोक विक्रेताओं को तरजीह दी जाती थी. भारत में कामगारों के अधिकारों और डेटा सुरक्षा की पक्की व्यवस्था न होने के कारण प्लेटफ़ॉर्म ऐग्रीगेटर्स द्वारा उनके खातों को निष्क्रिय करना ही विरोध करने वाले श्रमिकों के सामने मुख्य चुनौती थी. यहाँ, हम इस नियामक विफलता और प्लेटफॉर्म श्रमिकों के डेटा अधिकारों के साथ-साथ कार्यस्थल के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले संस्थागत ढाँचे के निर्माण में उनकी भूमिका की जाँच करेंगे.
कामगारों की सामूहिक माँगें
महामारी ने भारतीय प्लेटफ़ॉर्म के कामगारों के लिए श्रमिक अधिकारों को संगठित करने और माँग करने के अवसर की एक खिड़की खोल दी, जो पहले कभी नहीं थी. अन्य जगहों पर अपने समकक्षों की तरह, भारतीय प्लेटफ़ॉर्म के कामगार भी सोशल मीडिया, (जैसे, व्हाट्सऐप ग्रुप) का इस्तेमाल श्रमिकों के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए एक साझा स्थल के रूप में करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप शहरों में प्रदर्शन, विरोध और हड़तालें होने लगीं. परंतु प्लेटफ़ॉर्म होने के कारण (जैसे स्विग्गी ने हड़ताली श्रमिकों को निलंबित कर दिया),कामगारों की सामूहिक शक्ति श्रमिक अधिकारों की सौदेबाजी के लिए संगठनात्मक वाहन के रूप में उभरने लगी.
इंडियन फ़ैडरेशन ऑफ़ ऐप-ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (IFAT) ने राइड-हेलिंग ऐप्स और डिलीवरी कामगारों और ड्राइवरों को संगठित किया. लॉकडाउन के दौरान भारत के 50 शहरों में कार्यरत प्लेटफ़ॉर्म कामगारों के चार अलग-अलग सर्वेक्षण करके IFAT ने बताया कि 90 प्रतिशत प्लेटफ़ॉर्म कामगारों को खाने-पीने की कोई मदद नहीं मिली और लगभग 85 प्रतिशत कामगारों को उस समय भी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं दी गई, जब उनके पास कोई काम काम-धंधा नहीं था और साथ ही उन्हें गाड़ी के कर्ज़ की आधे से अधिक रकम भी चुकानी बाकी थी. उसी समय IFAT बेरोज़गार प्लेटफ़ॉर्म कामगारों की मदद करने और महिला ड्राइवरों को सपोर्ट करने में जुटा हुआ था.
ऑल इंडिया गिग वर्कर्स यूनियन (AIGWU) नामक प्लेटफ़ॉर्म और गिग कामगारों का एक अपंजीकृत अंब्रैला संगठन भी सक्रिय हो गया. उन्होंने अपनी माँगों को समेकित करने, राज्य-स्तरीय श्रमिक संघों के साथ परस्पर समन्वय करने, जागरूकता बढ़ाने और अन्य श्रमिकों के समूहों के बीच रणनीतिक सहयोग बनाने के लिए प्लेटफ़ॉर्म कामगारों की ओर से स्वतःस्फूर्त विरोध शुरू कर दिया. उन्होंने कर्मचारियों की ओर से प्रस्तुत एजेंडा में कामगारों के डेटा संबंधी अधिकारों की भी पैरवी भी शुरू कर दी.
कामगारों के डेटा संबंधी अधिकार
इसके परिणामस्वरूप,प्लेटफ़ॉर्म और गिग कामगारों के सामने आने वाली चुनौतियों और कठिनाइयों को केंद्रीय बजट 2021 में संक्षेप में स्वीकार किया गया था. प्लेटफ़ॉर्म और गिग कामगार न्यूनतम मज़दूरी पाने के हकदार थे, जिसका प्रावधान कर्मचारी राज्य बीमा निगम द्वारा प्रदान किया जाना था. दूसरी बात यह है कि स्वास्थ्य, आवास, बीमा, ऋण दिलाने और खाने-पीने की सहायता-राशि जैसी सामाजिक सुरक्षा संबंधी अनेक योजनाओं के लिए डेटा-संचालित नीति निर्माण की प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए गिग और अनौपचारिक कामगारों से जुड़ी सूचनाएँ एकत्र करने के लिए एक पोर्टल शुरू किया जाना था. लेकिन इस सीमित नीति संबंधी फ़ोकस के कारण प्लेटफॉर्म कामगारों के डेटा अधिकारों का संक्रमण संबंधी विमर्श सुगम नहीं हो पाया जिसके कारण प्लेटफॉर्म कामगारों के डेटा अधिकारों को शामिल नहीं किया जा सका.
प्लेटफ़ॉर्म कामगारों के अधिकारों के लिए एकीकृत दृष्टिकोण बनाने के लिए, श्रम प्रबंधन और नियंत्रण के प्लेटफ़ॉर्मों से संलग्न नए रूपों को समझना होगा. अपने “Digital Workers, Urban Vectors, and New Economies” विषयक लेख में हमने उन उपायों की चर्चा की है, जिनमें प्लेटफ़ॉर्म कामगार काम की संपत्ति से संबंधित अधिकारों में परिवर्तन करके माइक्रो-लॉगिंग और जोखिमों के हाइपर-इंडिविजुअलाइजेशन जैसे तरीकों का उपयोग करते हुए काम के ऐल्गोरिथम नियंत्रण को नियोजित करते हुए अपने श्रमिकों द्वारा अर्जित मूल्य पर कब्जा कर लेते हैं. इसके अलावा, कामगारों की निरंतर निगरानी के माध्यम से उनकी जानकारी और सहमति के बिना ही कामगारों से उनके काम की सख्त सीमा से परे अतिरिक्त मूल्य प्राप्त कर लिया जाता है. ऐसे परिदृश्य में कामगारों के परंपरागत उपायों और अधिकारों की मात्र सौदेबाजी से इन प्रथाओं को चुनौती देना काफ़ी नहीं होगा,क्योंकि कार्यस्थल का नियंत्रण स्वतः उत्पन्न ऐल्गोरिदम द्वारा ही किय़ा जाता है और कामगारों के निष्पादन और पुरस्कार का आकलन ऐग्रीगेटिंग रेटिंग पॉइंट्स के अपारदर्शी उपायों द्वारा किया जाता है.इस संदर्भ में नियोक्ताओं द्वारा डेटा उपयोग की सीमाओं की अवधारणा तय करने और कार्यान्वयन में सरकार की भूमिका अहम हो जाती है.
जैसा कि यूरोपीय संघ के जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन के उदाहरण से पता चलता है कि स्थापित श्रमसंबंधी कानूनों और डेटा अधिकार संबंधी व्यवस्थाओं के कारण ही प्लेटफ़ॉर्म कामगार यूनियनों को न्यूनतम मजदूरी कानून की पैरवी करने और डेटा माइनिंग को चुनौती देने के लिए प्रोत्साहित किया जा सका. युनाइटेड किंगडम में, ऊबर ड्राइवरों ने कामगारों के डेटा को पूल करने और अदालतों में कामगारों के खातों को निष्क्रिय करने की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक चुनौती देने के लिए डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म में सब्जेक्ट एक्सेस रिक्वेस्ट प्रोविज़न का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. भारत के संदर्भ में भी कामगारों को उनके अधिकार दिलाने और उन्हें सामूहिक न्याय दिलाने में न्यायपालिका की भूमिका बहुत बड़ी है. डेटा अधिकारों के स्वामित्व का मुद्दा डेटा पोर्टलों के माध्यम से सरकार द्वारा एकत्र किए गए कामगारों के डेटा पर भी लागू होता है जैसा कि भारत के मामले में कल्पना की गई है. कामगारों के डेटा को केंद्रीय रूप से पूल करने के बजाय, सिविल सोसायटी के संगठनों की व्यापक भागीदारी के साथ एक ऐसे संघीय ढाँचे की खोज की जानी चाहिए,जिससे डेटा के लोकतांत्रिक और विकेन्द्रीकृत प्रबंधन को सक्षम बनाया जा सके. सामाजिक सुरक्षा (केंद्रीय) नियम, 2020 के ड्राफ्ट कोड पर किये गए सार्वजनिक विमर्श में कामगारों ने सामूहिक रूप में माँग की थी कि सरकार को चाहिए कि वह प्लेटफॉर्म ऐग्रीगेटर्स को स्पष्ट निर्देश दे कि वे कामगारों का डेटा एकत्र करने के उद्देश्य को स्पष्ट करें और इस डेटा की प्रतियाँ प्राप्त करने और न्यायालयों में दावों के लिए मुकदमा करने के स्पष्ट अधिकार का भी उल्लेख करें और एक स्वतंत्र प्राधिकरण द्वारा इसकी लेखा परीक्षा को भी सुनिश्चित करें.
कामगारों के अधिकारों के लिए एकीकृत दृष्टिकोण
अधिकारों का दावा करने के लिए मौजूदा संस्थानों का उपयोग करने के अलावा, कामगारों के स्वामित्व वाली सहकारी समितियों और सार्वजनिक उपयोगिताओं की पेशकश करने वाले प्लेटफॉर्मों जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म के स्वामित्व के वैकल्पिक रूपों की भी उतनी ही आवश्यकता है. सामूहिक स्वामित्व वाले प्लेटफॉर्मों को कंप्यूटेशनल आर्किटेक्चर के साथ-साथ संबंधित निवेश, प्रशासनिक और वित्तीय सहायता प्राप्त करने में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. हालाँकि, छोटे पैमाने के उपक्रमों के ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें स्थानीय सरकारों और ओपन-सोर्स संस्थानों ने निष्पादन को बनाए रखने के लिए कामगारों के सहकारी प्लेटफार्मों को सक्षम बनाने के लिए मध्यस्थ संगठनों के रूप में काम किया है. उदाहरण के लिए, जर्मनी में डाई लिंके ने मुफ्त और ओपन सॉफ्टवेयर के लिए एक ढाँचे की पेशकश की, जिसकी मदद से सहकारी प्लेटफ़ॉर्मों के रख-रखाव के लिए डेटा शेयरिंग, उनके पुन: उपयोग, सहयोग और सहकारिता को सक्षम बनाया जा सकता है. ऐसे प्लेटफ़ॉर्मों के लिए एक निवेश व्यवस्था सरकार द्वारा सक्रिय कार्यक्रमों के माध्यम से निर्मित की जा सकती है. प्लेटफ़ॉर्म को अधिकाधिक कामगार-केंद्रित बनाने के इन सभी नीतिगत अवसरों में, केंद्रीय भूमिका नियामक वातावरण की होनी चाहिए ताकि अधिकारों और न्याय के स्पष्ट सिद्धांतों के साथ-साथ संस्थागत समन्वय को भी सुनिश्चित किया जा सके. एक ओर कामगार यूनियनों और सिविल सोसायटी के संगठनों के बीच और दूसरी ओर सरकार और न्यायपालिका के बीच श्रमिकों के अधिकारों पर सक्रिय रूप में वार्ता होती रहनी चाहिए ताकि प्लेटफ़ॉर्म ऐग्रीगोटरों को विनियमित किया जा सके. भारत में कामगारों की सहकारी समितियों और ट्रेड यूनियनों के आंदोलनों के देसी प्रयोग की समृद्ध परंपरा को देखते हुए एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने के अनेक अवसर मिल सकते हैं. इससे प्लेटफ़ॉर्म संबंधी कार्यों की अस्थिर दुनिया में कामगारों के लिए स्थायी और न्यायसंगत संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त हो सकता है.
फ्रैंसिस कुरियाकोज़ कोयंबतूर (भारत) में स्थित भरतियार विश्वविद्यालय के कुमारगुरू कॉलेज ऑफ़ लिबरल आर्ट्स ऐंड साइंस में सहायक प्रोफ़ेसर हैं और यू.के.स्थित कैम्ब्रिज डिवलपमेंट इनीशियेटिव के सलाहकार हैं.
दीपा किलसम ऐय्यर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में कैम्ब्रिज ट्रस्ट-क़ॉमनवैल्थ स्कॉलर हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919