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अखंड भारत और दक्षिण एशिया पर भारतीय सभ्यता के दावे

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28/08/2023
उदयन दास

भारत के नए संसद भवन में एक भित्ति चित्र दक्षिण एशिया में विवाद का विषय बन गया है. अखंड भारत की धारणा की ओर संकेत करते हुए, यह प्राचीन मानचित्र मौजूदा दक्षिण एशिया के देशों के अधिकांश भागों को अतीत की व्यापक अविभाजित राजनीतिक व्यवस्था के भाग के रूप में चित्रित करता प्रतीत होता है. इसके बाद, इस तथ्य के उद्घाटन पर पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ सामने आने लगीं. इन देशों ने इस बात पर चिंता जताई कि मानचित्र में निहित दावे कैसे उनकी स्वतंत्रता और संप्रभुता को खतरे में डालते हैं.

ऐतिहासिक रूप में, कई देशों ने अपने राजनीतिक दावों को छुपाने के लिए सभ्यता से जुड़े तर्कों को सामने रखा है और ये देश मौजूदा राजनीतिक दावों को वैध बनाने के लिए अतीत के सांस्कृतिक आह्वान का सहारा लेने लगे हैं. उदाहरण के लिए, सभ्यता से जुड़ी आकांक्षाओं और तत्संबंधी विचारधारा के परस्पर संबंधों यानी जातीय या ऐतिहासिक आधार पर अन्य देशों के क्षेत्रों पर दावों पर विचार करें.  ये देश अतीत में इसकी सीमाएँ क्या थीं, इसकी सभ्यता से जुड़ी समझ के आधार पर क्षेत्रीय दावों पर जोर देते हैं. क्या भारत की दक्षिण एशिया नीति सभ्यता की आकांक्षाओं के आधार पर एक बदलाव के दौर से गुजर रही है? क्या इसके कारण दक्षिण एशिया के देशों के साथ उसके संबंध कुछ जटिल नहीं हो जाएँगे?

International Affairs के मार्च 2023 के अंक में प्रकाशित अपने शोधपरक लेख में शिबाशीष चटर्जी और मैंने खास तौर पर 2014 से दक्षिण एशिया में भारत के सभ्यता संबंधी तर्कों की छानबीन की है. दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उदय के बाद से बहुमत की सरकार आने के कारण जो राजनैतिक स्थान उसे मिला है,क्या उससे यह माना जा सकता है कि भारत की दक्षिण एशिया नीति हिंदुत्व की ओर बढ़ रही है? यदि सचमुच ऐसा है तो दक्षिण एशिया के संबंध में हिंदू दक्षिणपंथ द्वारा समर्थित मुख्य तर्क इस क्षेत्र से जुड़ी भारत की रणनीतियों में प्रतिबिंबित और प्रदर्शित होने चाहिए; जैसे अखंड भारत को फिर से स्थापित करने की इच्छा और विश्वास.

सभ्यता संबंधी विमर्श और सरकार का आचरण
भाजपा के अंतर्गत दक्षिण एशिया में भारत की सभ्यता से जुड़े तर्क दो स्तरों पर देखे जा सकते हैं. सरकारी स्तर पर, भाजपा शासन के प्रभुत्व के बावजूद, भारत की दक्षिण एशिया नीति के निर्माण में हिंदुत्व का कारणभूत परिवर्तन, आधिकारिक सत्यापन या समर्थन नहीं है. जहाँ तक द्विपक्षीय संबंधों की बात है, भारत और उसके दक्षिण एशिया के पड़ोसी लंबे समय से चली आ रही परंपराओं के आधार पर सामान्य कारोबार का निर्वाह कर रहे हैं. भले ही मौजूदा सरकार अपनी विदेश नीति के माध्यम से अपवादवाद पर ज़ोर दे रही हो और उनका ज़ोर सांस्कृतिक और धार्मिक तत्वों पर हो तो भी उनकी विदेश नीति को नई नीति नहीं माना जा सकता. परंतु यह योग जैसी हिंदू धर्म से उद्भूत आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं के समर्थन में प्रकट हुआ है और इस प्रकार वे आम तौर पर हिंदू अधिकारों से जुड़े शक्तिशाली राष्ट्रवाद या धर्म की एकरूपता जैसे विवादास्पद मुद्दों से दूर रहे हैं. परंतु, सांस्कृतिक और धार्मिक तत्वों की बढ़ती प्रमुखता भारत की विदेश नीति के केंद्रीय सिद्धांतों से बदलाव का संकेत नहीं देती है. ये सांस्कृतिक तत्व ज़्यादातर बाहरी स्वरूप के बारे में रहे हैं क्योंकि दक्षिण एशिया के देशों के साथ भारत के जुड़ाव में बदलाव की तुलना में अधिक निरंतरता दिखती है.

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि समृद्ध सभ्यता वाले देश के रूप में भारत के विचारों को लेकर समय-समय पर बयानबाजी और प्रचार किया जाता है, जिसका दक्षिण एशियाई क्षेत्र पर काफ़ी असर पड़ता है,लेकिन इसे विदेश नीति में रूपांतरित नहीं किया जाता है. अखंड भारत के मामले में, जब दक्षिण एशिया की बात आती है तो यह मानचित्र भारत के हिंदू अधिकारों के सभ्यतागत मूल दावे को दर्शाता है. इस दावे के अनुसार आधुनिक दक्षिण एशिया भारतीय सभ्यता का केंद्र है. विनायक दामोदर सावरकर और एम.एस. गोलवलकर जैसे हिंदूवादी विचारकों के लेखन में इसे अच्छी तरह से स्पष्ट किया गया है. इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय सभ्यता पहले सांस्कृतिक रूप से विभिन्न धर्मों में विभाजित थी. इसकी परिणति अंततः 1947 के बँटवारे के माध्यम से क्षेत्रीय विघटन के रूप में हुई. अखंड भारत का यह चित्र अतीत के हिंदू गौरव को और उसके नष्ट होने की पीड़ा को दर्शाता है और साथ ही उस गौरव को पुनः स्थापित करने के संकल्प को भी प्रकट करता है.

इसके सशक्त प्रदर्शन के बावजूद इसे औपचारिक विदेश नीति में रूपांतरित करने की कोई संभावना दिखाई नहीं देती. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत का सबसे प्रभावशाली हिंदू दक्षिणपंथी संगठन है और साथ ही सत्तारूढ़ भाजपा का वैचारिक अग्रदूत भी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रवक्ता समय-समय पर जोश में आकर भारत की गौरव-गाथा का कभी-कभार बखान भी कर देते हैं, लेकिन उन्होंने भी एक सांस्कृतिक अवधारणा के रूप में ही इसका दावा किया है, न कि एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में. हिंदुत्व के बावजूद पाकिस्तान और चीन के साथ सीमा पर झड़पें तो होती रहती हैं, लेकिन इन झड़पों का कारण हिंदुत्व नहीं है. सीमाओं के पुनर्निर्धारण की परिकल्पना न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने की है और न ही भाजपा सरकार द्वारा इस पर विचार किया गया है. अखंड भारत की परिकल्पना दक्षिण एशिया से संबंधित भारत की विदेश नीति का आधार नहीं है. बल्कि इसके बजाय यह परिकल्पना भारतीयों और प्रवासी भारतीयों के लिए है. 

विश्व व्यवस्था में अपने उचित स्थान को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए भारत हमेशा ही अपनी सभ्यता के विमर्श का उपयोग करता रहा है. सभ्यता का गठन क्या है, इसकी कल्पना नेहरूवादी और हिंदुत्ववादी रूपों में बदल गई है. भारत में हिंदुत्व की बढ़ती प्रमुखता के कारण वैश्विक मंच पर हिंदू राष्ट्र द्वारा सभ्यता की अपनी जगह को पुनः प्राप्त करने के विमर्श के साथ इसका संयोजन अच्छी तरह से होता है. अखंड भारत का घरेलू विमर्श आज भी लोकप्रिय बना हुआ है, लेकिन क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विदेश नीति में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का कोई निश्चित संकेत नहीं मिलता है. न तो आधिकारिक स्तर पर भारत में इस प्रकार की नीतियों पर कोई चर्चा की गई है और न ही नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे दक्षिण एशिया के देशों के साथ इसकी कोई गुंजाइश है. ताइवान और दक्षिण एशिया सागर पर चीन के दावों की तरह भारत ने अपने पड़ोसियों की किसी भी भूमि को हथियाने का कोई संकेत दिया है.

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि दक्षिण एशिया में व्यवस्था और स्थिरता भारत के विकास के लिए राजनीतिक संदर्भ में हमेशा महत्वपूर्ण सरोकार रहा है. ऐतिहासिक रूप में भारत में ऐसी किसी विचारधारा या क्षेत्रीय विस्तारवाद का कोई संकेत नहीं मिलता है. पाकिस्तान को छोड़कर दक्षिण एशिया के अपने सभी पड़ोसियों के साथ भारत ने अपने सीमा विवाद सुलझा लिये हैं.  . अंततः विदेश नीति ही एक ऐसी योजना है, जिससे बाहरी दुनिया को घरेलू परिवर्तन का कोई संकेत मिलता है. विदेश नीति एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय माहौल में भी संचालित होती है जहाँ कई बातें दाँव पर लगी होती हैं. भारत की संप्रभुता के भीतर घरेलू राजनीति के विपरीत, जहाँ सरकारों का कहीं अधिक व्यापक नियंत्रण होता है, अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में विचार करने के लिए अन्य देश और संगठन, भौतिक और वैचारिक कारक, कानून और मानदंड होते हैं. घरेलू राजनीतिक बदलावों के बावजूद, भारत में विदेश नीति में बदलावों की तुलना में निरंतरता और सर्वसम्मति अधिक है. भारत हमेशा ही एक ज़िम्मेदार देश रहा है, पड़ोसी देशों के साथ उसके संबंध अच्छे रहे हैं और उसमें उनकी ज़मीन हथियाने की कोई आकांक्षा नहीं रही है. वस्तुतः भारत ने बांग्ला देश के साथ भूमि और समुद्र की सीमाओं का शांतिपूर्वक समाधान कर लिया है. भारत की विदेश नीति में उपनिवेशवाद से मुक्ति के पहले के मुद्दों पर प्रतिबद्धता का रुख अपनाया गया है और यह खुद को वैश्विक दक्षिण के लिए एक स्वर के रूप में प्रस्तुत करता है. एक ज़िम्मेदार देश की छवि के कारण दक्षिण एशिया में सभ्यतागत दावों के ऐसे विमर्शों के खिलाफ़ ही वह खड़ा रहेगा. 

आधिकारिक चुप्पी या उदासीनता के बावजूद इसका मतलब यह नहीं है कि इसका कोई महत्व और तात्पर्य नहीं है. विदेश नीति का क्षेत्र केवल आधिकारिक संवाद,प्रेस रिलीज़ और शिखर सम्मेलनों तक सीमित नहीं रहता. दक्षिण एशिया में जटिलताएँ भाजपा शासन के अंतर्गत की जाने वाली भारतीय संस्कृति की गौरव गाथाओं के कारण पैदा होती हैं, भले ही आधिकारिक स्तर पर वे प्रतिबिंबित नहीं होतीं. जाहिर है, भारत की ओर से सांस्कृतिक श्रेष्ठता के किसी भी दावे से भारत के पड़ोसियों में सुरक्षा, दोषारोपण और यहाँ तक कि अनुकरण की भावना भी पैदा होती है. दोनों स्तरों पर इस प्रकार की बातों से अक्सर भारत की अपनी छवि खराब होती है और दक्षिण एशियाई देशों के साथ इसके व्यवहार के लिए परस्पर विरोधी दृष्टिकोण और निहितार्थ पैदा होते हैं.

उदाहरण के लिए हाल ही के विवाद को ले लेते हैं. जब भित्तिचित्र का अनावरण किया गया, तो भारत के संसदीय कार्य मंत्री ने ट्वीट किया, "संकल्प स्पष्ट है - अखंड भारत. इस पर तुरंत नेपाल और बांग्लादेश से आधिकारिक प्रतिक्रियाएँ सामने आईं. भारत के विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता, अरिंदम बागची ने स्पष्ट किया कि भित्ति चित्र लौह युग के मौर्य साम्राज्य के पिछले क्षेत्रीय परिदृश्य को प्रदर्शित करता है और भारत की दक्षिण एशिया में कोई क्षेत्रीय आकांक्षा नहीं है. ज़ाहिर है कि उसके तुरंत बाद भारत के दौरे पर आए नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की. इसी प्रकार बांग्ला देश से आई आरंभिक टिप्पणी के बाद भी इस मुद्दे पर नई दिल्ली और ढाका के बीच कोई बातचीत नहीं हुई. हालाँकि ये आपत्तियाँ आधिकारिक नीतिगत दायरे में नहीं आतीं, लेकिन भारत को अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों को इस बारे में स्पष्टीकरण देना पड़ा ताकि उनकी चिंताओं का निवारण हो सके.

दक्षिण एशियाई विषमता
यदि नियमित द्विपक्षीय व्यवहार में भारत की सभ्यता संबंधी आकांक्षाएँ कोई मायने नहीं रखतीं, तो ये आपत्तियाँ क्यों की जाती हैं?  इसके दो बड़े कारक हैं. पहला तो कारक है दक्षिण एशिया में भौगोलिक और शक्ति की विषमता का संरचनात्मक कारक. इस क्षेत्र में भारत का दबदबा है और शक्ति, भौतिक या सांस्कृतिक किसी भी प्रकार प्रदर्शन से दक्षिण एशियाई देशों की चिंताएँ बढ़ने लगती हैं. एक बड़ा कारक तो है ही और यही कारण है कि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग एक जटिल परियोजना है. दूसरा कारण अपने स्वरूप में कहीं अधिक राजनैतिक है. जिस तरह सभ्यता के अपवादवाद का भारतीय प्रदर्शन अपने घरेलू दर्शकों के लिए लक्षित है,उसी प्रकार अन्य दक्षिण एशियाई देशों के ऐसे प्रदर्शनों पर आपत्तियाँ भी उनकी घरेलू राजनीति से जुड़ी हुई हैं. दक्षिण एशिया के देश अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के लिए पूरे क्षेत्र में भारत की सांस्कृतिक पहचान से अलग खड़े होने का प्रयास करते हैं. भारत विरोधी मौजूदा लहर की पृष्ठभूमि में इन देशों के राजनैतिक खिलाड़ी एक ऐसी स्वतंत्र और नियमित पोज़ीशनिंग रखना चाहते हैं ताकि वे भारत के सभ्यतागत तर्कों का मुकाबला कर सकें. इससे वे अपने घरेलू दर्शकों को भी संतुष्ट कर सकते हैं और यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि वे बिकाऊ नहीं हैं. भारत के सभ्यता संबंधी दावों के खिलाफ़ कड़ा रुख अपनाकर वे अपनी विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान की आंतरिक लामबंदी में भी सफल हो सकते हैं. आपत्तियाँ होती रहीं और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में निहित विशिष्ट राष्ट्रवाद के गहरे विचारों का संकेत देती रहीं.

क्या भारत के सभ्यता संबंधी सूक्ष्म या प्रत्यक्ष दावे दक्षिण एशियाई देशों के साथ भारत के संबंधों को प्रभावित करने वाले हैं? सभ्यता संबंधी दावों और प्रतिदावों बावजूद एक ही समय में भारत और दक्षिण एशियाई देशों के बीच संबंधों के अप्रभावित करते हुए भी संबंधों के मौजूदा स्वरूप को जारी रखा जा सकता है. असहमतियों के बावजूद दक्षिण एशियाई देश नई दिल्ली के साथ विधिसम्मत हितों और निर्भरताओं को परस्पर साझा करते हैं. ये देश इतने व्यावहारिक रहे हैं कि उन्होंने केवल सभ्यता संबंधी बयानबाजी के आधार पर भारत के प्रति अपनी कार्यप्रणाली में कोई बदलाव नहीं किया है. वे कभी-कभार तो भारतीय दावों को लेकर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर कर सकते हैं, लेकिन इन प्रतिक्रियाओं को नीति में रूपांतरित नहीं किया गया है. अगर भारत के मुकाबले उनके मूल हित प्रभावित होते हैं तो सभ्यतागत आधार पर भारत-विरोधी असुरक्षाओं को दक्षिण एशियाई देशों द्वारा भड़काए जाने की संभावना है. इसे समझने के लिए नेपाल में कथित नाकेबंदी या बांग्लादेश के साथ नदी जल-बँटवारे के मुद्दों के कारण भारत के खिलाफ़ बनी घरेलू सहमति जैसे पिछले उदाहरणों को देखा जा सकता है. चीन के प्रति झुकाव के कारण ही ऐसे हालात पैदा हुए थे. भारत के सभ्यता संबंधी दावे और उससे जुड़ी असुरक्षा ऐसे मामले हैं, जिनके भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के लिए साधन बनने की संभावना है.

उदयन दास कोलकाता (भारत) के सैंट ज़ेवियर्स कॉलेज के राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.  Udayan Das is Assistant Professor, Department of Political Science, St. Xavier’s College, Kolkata, India. 

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India

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