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तरल परिसंपत्ति: अमूल्य और कम आकलन की गई

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29/08/2022
ईशा ज़वेरी

वर्षा, नदियों, समुद्र तटों और समुद्रों ने ही आदि काल से हमारे समाजों को आकार प्रदान किया है. अति प्राचीन काल से लेकर अब्राहमी धर्मों और प्राचीन मैसोपोटामिया तक की कहानियों से पता चलता है कि पानी ने इतिहास की धारा को कैसे बदल दिया.  भारत में, जून और सितंबर के बीच देश की 80 प्रतिशत वर्षा को ले जाने वाली हवाओं के साथ साल-भर चलने वाला "मानसून का पात्र” रूपी नाटक, बचपन से लेकर संस्कृति और वाणिज्य तक सभी को लंबे समय से आकार देता रहा है. वर्षा की परिवर्तनशीलता के प्रबंधन के संबंध में आरंभिक उल्लेख चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में लिखे गए कौटिल्य के प्राचीन ग्रंथ अर्थशास्त्र में मिलता है. इसमें मानसून की बारिश की भविष्यवाणी और अनुकूलन के तरीकों पर चर्चा की गई है. वर्षा की परिवर्तनशीलता कोई नई घटना नहीं है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप परिवर्तन की तीव्रता ज़रूर नई घटना है.

अक्सर कहा जाता है कि जलवायु परिवर्तन अगर शार्क है तो पानी उसके दाँत हैं. जलवायु परिवर्तन का एहसास सबसे अधिक पानी के ज़रिये ही होता है. उसका तापमान बढ़ने से सूखा, बाढ़ और वर्षा की परिवर्तनीयता में वृद्धि हो जाती है. ग्लोबल वार्मिंग की डिग्री में वृद्धि से पानी से संबंधित जोखिम के तेज़ होने की संभावना रहती है. जलवायु की अधिकाधिक वृद्धि से होने वाली चिंता जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे बहुत अधिक पानी और बहुत कम पानी का मुद्दा नीतिगत चर्चाओं के केंद्र में आ जाता है. और जब तक मानसून के भविष्य के बारे में अनिश्चितता बनी रहती है और विज्ञान नई पीढ़ियों के जलवायु मॉडल के साथ विकसित होता जाता है, वैज्ञानिक इस बात से सहमत हो जाते हैं कि मानसून की परिवर्तनशीलता बनी हुई है और आगे भी जारी रहेगी.

भारत पहले से ही बारिश के दिनों के छोटे-छोटे अंतराल के साथ और कभी-कभी एक महीने के अंतराल में भी लंबे समय तक सूखे की मार झेलता रहा है. इस साल जून में, जब असम सूखे से जूझ रहा था, उसी समय वह भारी वर्षा से भी त्रस्त था जिसके कारण एक सप्ताह के भीतर ही विनाशकारी बाढ़ आ गई थी. जलवायु परिवर्तन के संबंध में अंतःशासकीय जलवायु परिवर्तन पैनल (IPCC) की नवीनतम रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि इस तरह के व्यापक चक्रवृद्धि वाले जोखिमों की संभावना और भी बढ़ती जाएगी.

पानी की बढ़ती परिवर्तनशीलता -बहुत अधिक पानी और बहुत कम पानी- लोगों पर बहुत भारी पड़ सकती है और इसका सबसे अधिक जोखिम भारत के खेतों, कारखानों और परिवारों को झेलना पड़ सकता है. भारी बारिश और बाढ़ के कारण जल-स्तर बढ़ जाने से ऐसी भयानक घटनाएँ होने लगती हैं, जो बुनियादी ढाँचे को नष्ट कर सकती हैं, घरों को नुक्सान पहुँचा सकती हैं और पानी के किनारे बसे लाखों लोगों की आजीविका को बर्बाद कर सकती हैं. नये आँकड़ों से पता चलता है कि 390 मिलियन भारतीय, या हर दस में से तीन लोग, 1-in-100 वर्ष की बाढ़ के सीधे संपर्क में आने वाले क्षेत्रों में रहते हैं. इन बाढ़ों से कम से कम आधा फुट पानी पैदा हो सकता है - एक ऐसी भारी बाढ़ जो गंभीर क्षति का कारण बन सकती है. लेकिन इसका प्रभाव सब पर एक जैसा नहीं होता. यह हैरानी की बात है कि भारी गरीबी में रहने वाले 65 मिलियन लोग (यानी, प्रति दिन $ 1.90 से कम पर) सीमित क्षमता के साथ इसे झेलने, इससे उबरने या भारी बाढ़ के जोखिम का सामना करते हैं. यही कारण है कि बेहद गरीब लोगों के जीवन, आजीविका और कुशल-क्षेम पर बाढ़ का सबसे अधिक बुरा असर पड़ता है. जहाँ एक ओर बाढ़ें विनाशकारी घटनाएँ होती हैं, वहीं इनका असर बड़े इलाके पर होता है, इनके कारण धीमी गति से सूखा पड़ने लगता है, कारखानों और शहरों की उत्पादकता प्रभावित हो सकती है, जंगलों के विनाश में तेज़ी आ सकती है और लोगों के स्वास्थ्य और कृषि प्रणालियों पर भी असर हो सकता है.

दीर्घकालीन प्रवृत्तियों के अनुरूप समायोजन करने के बजाय अनिश्चित अवधि और अनिश्चित परिमाण के कारण वर्षा की ऐसी परिवर्तनीयता को झेलना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है. यही कारण है और इसमें किसी तरह की हैरानी भी नहीं होनी चाहिए कि अधिकांश देशों ने अपनी जलवायु परिवर्तन की योजनाओं में अनुकूलीकरण के लिए पानी को प्राथमिकता के रूप में सूचीबद्ध किया है. नवीनतम एकीकृत व्यावसायिक योग्यता पाठ्यक्रम (IPCC) की रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन की अनुकूलन संबंधी रणनीतियों में से अधिकांश नीतियाँ कृषि क्षेत्र को लक्षित करती हैं, जो वैश्विक जल खपत का 80 से 90 प्रतिशत हिस्सा है. इनमें से अनुकूलन की सबसे अधिक व्यापक रणनीति है, सिंचाई. यह फसलों पर पानी के रणनीतिक भंडारण और अनुप्रयोग की रणनीति है. ये प्रयास फसलों को वर्षा की बढ़ती परिवर्तनशीलता और तेज़ गर्मी के कारण होने वाली कुछ कठिनाइयों और अनिश्चितताओं से बचाने में महत्वपूर्ण ब़फर की भूमिका निभा सकते हैं. भारत में इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण भूजल सिंचाई है, जिसने पिछले पचास वर्षों में सतही सिंचाई को पार कर लिया है और इसमें 500 प्रतिशत की विस्फोटक वृद्धि हुई है, जिससे यह दुनिया के सबसे बड़े भूजल पियक्कड़ों में से एक बन गया है. इससे खेती-बाड़ी को भारी लाभ मिलता रहा है. लेकिन यह लाभ उन्हें कितना मिला है और कब तक मिलता रहेगा?

अनुभवजन्य और सांख्यिकीय विश्लेषण से समग्र प्रभावों पर प्रकाश डाला जा सकता है. अपने सहलेखक के साथ किये गए शोधकार्य में हमने 40 साल के डेटा का इस्तेमाल करते हुए उपज पर पड़ने वाले पिछली सिंचाई के प्रभाव का आकलन करने के लिए मौसम और सिंचाई का एक अर्थमितीय मॉडल विकसित किया है. हमने इसका परीक्षण अधिक पानी की ज़रूरत वाली गेहूँ की फसल पर किया. एक अनुमान के अनुसार यह फसल अधिक उपभोग्य सिंचाई की माँग की देश की मुख्य अकेली संचालक है. भारतीय गेहूँ वैश्विक गेहूँ सप्लाई में 13 प्रतिशत का योगदान करता है और अनाज से प्राप्त होने वाली कैलोरी का समग्र रूप में आधा भाग है. परिणामों से पता चलता है कि भारत में मुख्य फसल के रूप में गेहूँ की वृद्धि के अंतर्गत सिंचाई में वृद्धि की भूमिका प्रमुख रही है. सिंचाई ने सूखे के प्रभाव को कम कर दिया है और गर्मी के प्रति उपज संवेदनशीलता को इस हद तक कम कर दिया है कि पिछले चार दशकों में सिंचाई के अभाव में, राष्ट्रीय उपज 13 प्रतिशत कम होती रही है. परंतु इस बात में संदेह है कि भविष्य में भी इसका लाभ मिलेगा या नहीं. हाल के वर्षों में सिंचाई के विस्तार से उपज की प्राप्ति घटती रही है, जबकि बढ़ते तापमान और और सूखे के कारण नकारात्मक प्रभाव भी बढ़ता रहा है. इससे पता चलता है कि अतीत में जो रणनीतियाँ कारगर रही हैं, ज़रूरी नहीं कि भविष्य में भी वे कारगर रहेंगी. इस प्रवृत्ति के उलट होने का एक कारण यह है कि अतीत में जो लाभ हुए हैं,वे भी भूजल स्रोतों पर दबाव बढ़ने से ही हुए हैं. भूजल सिंचाई के उपयोग में वृद्धि होने से भूजल का व्यापक रूप में अति-निष्कासन हुआ है और भूजल स्तर में कमी हुई है. जब भूजल का स्तर गहरा हो जाता है, तो पंपिंग की लागत भी बढ़ जाती है और कुएँ को गहरा करना भी महँगा हो जाता है तो निष्कासन को बंद करना पड़ सकता है. जैसे-जैसे भूजल पर निर्भरता बढ़ती जाती है तो भूजल की सप्लाई भी घटती जाती है और भविष्य में पानी का इस्तेमाल करने वाले लोगों पर सूखे और गर्मी की मार भी आज की तुलना में अधिक पड़ सकती है. भूजल घटने से पूरे भारत में और इस सदी के मध्य तक फसल की तीव्रता 20 प्रतिशत तक कम हो सकती है और जब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और स्पष्ट होगा तो भूजल की कमी के कारण वार्षिक फसल की उपज 28 प्रतिशत तक कम हो जाएगी और शुष्क मौसम में फसल की उपज 51 प्रतिशत तक होगी, जिसके कारण खाद्य सुरक्षा, किसानों की आजीविका और कल्याण के साथ समझौता करने की नौबत आ जाएगी. भूजल स्तर में कमी आने का मतलब यह भी है कि शुष्क मौसम में, जब पानी की ज़रूरत सबसे अधिक होती है तो नदियाँ सूखने लगती हैं, क्योंकि बारहमासी नदियों का जलवाही स्तर भी आधारभूत प्रवाह से ही होता है. यह विरोधाभास ही है कि जिस संसाधन के कारण अतीत में जलवायु परिवर्तनशीलता में कमी आई है, वही संसाधन ऐसे हालात भी बना सकता है जो भविष्य में उनके प्रतिकूल प्रभावों को अधिकाधिक बढ़ा दे.

इसके कारण उन्नीसवीं सदी के फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जीन बैप्टिस्ट सई निश्चय ही इनके कारणों से परिचित रहे होंगे, जिन्होंने इस प्रस्ताव को लोकप्रिय बनाया कि "आपूर्ति अपनी माँग खुद बनाती है." इस बारे में इसका मतलब यह है कि उपलब्ध पानी का उपयोग खुलकर किया जाएगा. कुछ शुष्क क्षेत्रों में, मुफ्त या कम कीमत वाले सिंचाई के पानी की आपूर्ति बहुतायत का भ्रम पैदा करती है, जो अधिक पानी की अपेक्षा करने वाली फसलों की खेती को बढ़ाती है - जैसे कि चावल, गेहूँ, गन्ना और कपास - जो अंततः इन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त नहीं हैं. आनुपातिक रूप में फसल उत्पादकता पर बुरा असर पड़ता है. पानी की भारी ज़रूरत होने पर भी उसकी आपूर्ति नहीं हो पाती. इससे पहले से ही कमज़ोर संसाधन का संतुलन बिगड़ने लगता है. बदले में, सूखे और गर्मी का प्रकोप बढ़ जाता है.

जल निवेश अनजाने में असमानताओं को भी बढ़ा सकता है. महाराष्ट्र में, सूखा प्रभावित क्षेत्रों में कृषि तालाबों के प्लास्टिक-लाइनों के निर्माण का पैमाना और गति 2015 के बाद से तेज़ी से बढ़ी है. हालाँकि इसका उद्देश्य वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देकर छोटी जोत वाली कृषि को सूखा-मुक्त करना था, प्राथमिक शोध से पता चलता है कि किसानों को भूजल निकालने और उच्च मूल्य वाली अधिक पानी की अपेक्षा करने वाली फसलों के विस्तार या विस्तार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से तालाबों को भरने के लिए प्रोत्साहित किया गया था. इसके बदले बहुत अधिक मात्रा में भूजल का निष्कासन किया गया और किसानों में इसके लिए होड़ भी लगने लगी. इसके अलावा, कई तालाब उच्च तापमान के कारण वाष्पीकरण से पानी खो देते हैं. एक ही महीने में लगभग 81,247 क्यूबिक मीटर (लगभग 32.5 ओलंपिक आकार के स्विमिंग पूल की मात्रा) पानी का वाष्पीकरण हो सकता है, जिससे कृषि, पीने और घरेलू उपयोग जैसी पानी की अन्य ज़रूरतों के लिए पानी कम पड़ सकता है. चूँकि अमीर किसानों के पास अपने खेत के तालाब होते हैं, इसलिए ऐसे अनपेक्षित प्रभावों का सीधा असर भूजल पर पहुँच कम हो जाने के कारण गरीब और सीमांत किसानों पर पड़ता है और समग्र रूप में पानी की किल्लत भी बढ़ जाती है.

ऐसी प्रतिक्रियाएँ सब्सिडी के एक जटिल वैब के माध्यम से दिये गए प्रोत्साहनों से अक्सर बढ़ जाती हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली का आधार है, निर्धारित कीमतों पर गारंटीकृत उगाही वाली दोनों प्रकार की इनपुट और आउटपुट सब्सिडी और यह कृषि के अंतर्गत फसल और निवेश निर्णयों को प्रभावित करती हैं. बिजली की सब्सिडी, वह मुख्य इनपुट है, जिसका उपयोग भूजल के निष्कासन के लिए किया जाता है. यह सप्लाई की औसत लागत का 85 प्रतिशत है और भूजल के निष्कासन में इसकी अहम भूमिका है. मुफ्त या फ्लैट टैरिफ़ वाली बिजली के प्रावधान से सिंचाई-गहन फसलों के मूल्य में वृद्धि हुई है और यही कारण है कि इस क्षेत्र में ये फसलें उगाई जाती हैं. चावल और गेहूँ के न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी उत्पादन सब्सिडी इन फसलों के पक्ष में फसल निर्णयों को बदल भी सकती है, यहाँ तक कि उन क्षेत्रों में भी जो उनके विकास के लिए अनुकूल नहीं हैं.

विवेकपूर्ण रणनीति यही है कि ऐसी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाए जो स्थानीय कृषि-पारिस्थितिकी के साथ अधिक निकटता से जुड़ी हुई हैं, न कि उन फसलों को सब्सिडी दी जाए, जो जलवायु के झटकों के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाती हैं. इसके अलावा, बफ़र समुदायों के लिए पूरक समाधानों में निवेश करना - उदाहरण के लिए, इन समाधानों में से किसी एक में निवेश करने के बजाय जलागम और जंगलों के संरक्षण और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील भूमि- प्रबंधन की प्रथाओं के उपयोग से जल प्रवाह को बढ़ाया सकता है और फसल उत्पादकता और आय में भी अधिक लाभ हो सकता है.

परिवर्तन में अक्सर मुश्किलें होती हैं,लेकिन समय के साथ-साथ अच्छी नीयत से किये गए निवेश अल्पकालिक राहत प्रदान कर सकते हैं और इससे महँगे लॉक-इन प्रभाव भी उत्पन्न हो सकते हैं, और ऐसी पथ निर्भरता स्थापित हो सकती है, जो सुधारात्मक कार्यों को अधिक कठिन और महँगा बना देती है. परिवर्तनीयता के बढ़ते हुए स्तर का सामना करने के लिए ऐसे नीतिगत उपायों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होती है जिनका उपयोग दीर्घकालीन दृष्टि से उपायों के प्रभाव की परख के लिए किया जा सकता है. अब तक जो भी समाधान किये गए हैं, वे समग्र रूप में नहीं हैं, क्योंकि परंपरागत उपायों से जल चक्र और जलागम से इसके स्रोत से लेकर अंतिम उपयोग के रूप में खेतों, कारखानों, शहरों और घरों में इसके उपयोग-चक्र के प्रत्येक चरण में और स्रोत में इसकी वापसी के समय पुनः प्रवेश करते समय पानी के कई गुणों पर पूरा ध्यान नहीं जाता.

सफल जल-प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि नीतियों और प्रथाओं में मेल हो, जिनसे इनके उपयोग की पूरी श्रृंखला में पानी के मूल्य को समझा जा सके और कुशलता,समानता और स्थिरता- की तीन प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं में संतुलन स्थापित किया जा सके. लेकिन किसी भी श्रृंखला की तरह, यह उतना ही मज़बूत है जितना कि इसकी सबसे कमजोर कड़ी. और यही वह चुनौती है जो वर्तमान जल प्रबंधन प्रथाओं को प्रभावित करती है. विभिन्न सैक्टर और उपयोगकर्ता अपने संकीर्ण क्षेत्रों पर तो विचार करते हैं,लेकिन पूरी व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों की उपेक्षा करते हैं. जल शक्ति मंत्रालय द्वारा स्थापित स्वतंत्र विशेषज्ञों की समिति द्वारा तैयार किये गए नई राष्ट्रीय जल नीति के प्रारूप में इन अंतरालों को चिह्नित किया गया है और जल संसाधनों के प्रबंधन और संचालन के लिए आमूल परिवर्तन की योजना पेश की गई है. इस प्रारूप में जल संसाधनों की स्थायी सुरक्षा के लिए समाधान विकसित करने के लिए एक रोडमैप प्रदान किया गया है और पानी को सोच-समझकर और समान रूप में इस्तेमाल करने के लिए एक "कमांड-ऐंड-कंट्रोल" दृष्टिकोण अपनाया गया है. पानी की योजना बनाते समय भारत की विशाल विविधता को ध्यान में रखा गया है. इसका महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल मँडराने लगे हैं. ऐसी परिस्थितियों के अनुकूलन और लचीले समाधानों पर उच्च प्रीमियम देना होता है और ये परिस्थितियाँ नई जानकारी और बदलती परिस्थितियों के अनुरूप बदलती हैं. ऐसा करने के लिए स्थानीय और राष्ट्रीय सरकारों, सिविल सोसायटी, और सभी क्षेत्रों और पृष्ठभूमि के जल उपयोगकर्ताओं के लिए महत्वपूर्ण होगा कि वे जल आबंटन के लिए प्राथमिकताओं की पहचान करने के लिए निरंतर बातचीत करते रहें और ऐसी प्रक्रियाएँ बनाएँ जिनसे आम सहमति का निर्माण हो सके. भारत में जल के स्थायी भविष्य के लिए आवश्यक है कि हम अपनी कोशिशों को दुगुना कर दें. पानी की हर बूँद का महत्व है.

ईशा ज़वेरी स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के खाद्य सुरक्षा एवं पर्यावरण केंद्र में ऐफ़िलिएट स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार   

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Former Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India                                                       <malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365