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क्या भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली कोविड-19 की विश्वव्यापी महामारी का सामना करने के लिए तैयार है?

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09/04/2020
टी. सुंदररामण

अचानक ही सिर्फ़ छह सप्ताहों में कोविड-19 की विश्वव्यापी महामारी हम पर हावी हो गई है.

भारत में कोविड-19 का पहला मामला 29 जनवरी को प्रकाश में आया था और 14 मार्च तक इनकी संख्या 100 तक पहुँच गई थी. आज की तारीख में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या 5,000 से अधिक हो गई है और 166 लोगों की मौत हो गई है. पहली नज़र में यह स्थिति इतनी खतरनाक नहीं लगती, क्योंकि दस लाख लोगों में केवल 3.6 मामले संक्रमण के हैं और 0.11 मामलों में संक्रमित लोगों की मौत हुई है. दुनिया में संक्रमित होने वाले लोगों की और संक्रमण के कारण मरने वालों की यह सबसे कम दर है. भारत के मीडिया ने और विश्व के अनेक नेताओं ने भारत के प्रधानमंत्री की निर्भीकता की तारीफ़ की है कि उन्होंने बहुत जल्दी और कड़ाई से देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी और यह भी माना है कि उनकी इस रणनीति के कारण ही संक्रमित मामले इतने कम हुए हैं. अनेक नेताओं के अलावा प्रधानमंत्री ने स्वयं भी यूरोप से भारत की तुलना करते हुए कहा है कि निश्चय ही यूरोप के इन देशों की स्वास्थ्य प्रणाली भारत से कहीं बेहतर है, फिर भी भारत ने इस संकट का मुकाबला उनकी तुलना में बेहतर ढंग से किया है. कुछ लोगों ने इस “सफलता” का कारण भारत का गर्म जलवायु या आनुवंशिक या उनकी  प्रतिरोधक क्षमता को माना है.

इस तरह की घोषणाएँ निराधार और भ्रामक हो सकती हैं. हम अभी-भी इस महामारी के आरंभिक दिनों में हैं और हर सप्ताह नये-नये मामले प्रकाश में आते जा रहे हैं. इसके अलावा भारत में परीक्षण की दरें दुनिया में सबसे कम हैं और कदाचित् प्रकाश में आये मामलों की कम संख्या का यह कारण भी हो सकता है. इसके अलावा, जहाँ अधिकांश देश हल्के और मध्यम श्रेणी के संक्रमित रोगियों ( 50 प्रतिशत संक्रमित लोगों के तो लक्षण ही नहीं होते) को भी सूचीबद्ध कर लेते हैं, वहीं भारत में लोगों का परीक्षण तब तक नहीं किया जाता जब तक उनका संक्रमित लोगों के संपर्क में आने का कोई स्पष्ट इतिहास न रहा हो. अगर सामुदायिक प्रसारण का सिलसिला शुरू हो गया तो भारत में मौजूदा संख्या से पाँच गुना अधिक वास्तविक रूप में संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ सकती है. भारत के अधिकांश राज्यों में मृत्यु की सूचना देने की प्रणाली बहुत कारगर नहीं है. चार मौतों में से केवल एक मौत के कारण का ही उल्लेख किया जाता है. अधिकांश मौतें तो घर में ही हो जाती हैं. इसलिए उचित यही होगा कि हम इस महामारी से लड़ने की पूरी तैयारी यह मानकर करें कि कोविड-19 किसी भी भारतीय को वैसे ही संक्रमित करता है जैसे किसी अन्य जाति या देश के लोगों को करता है.

स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधारों की विरासत
किसी भी महामारी के प्रकोप से जूझने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत करने में यही मुश्किल है कि उसे कम से कम दस साल पहले अग्रिम रूप में शुरू करना पड़ता है. इस विश्वव्यापी महामारी से सीख लेते हुए भारत को कुछ महत्वपूर्ण कामों की सूची तैयार करनी होगी और यह भी विचार करना होगा कि हमने ऐसे कामों की शुरुआत पहले क्यों नहीं की.

कोविड-19 की विश्वव्यापी महामारी से लोगों की जान बचाने के लिए वैंटिलेटर सपोर्ट वाले उन्नत किस्म के इंटैंसिव केयर की आवश्यकता होगी. इन्हें उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक तकनीकी क्षमता वाली सार्वजनिक सेवाओं की आवश्यकता होगी, लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधारों की पिछली पीढ़ी के अंतर्गत अपनायी गयी नीति के कारण अधिकांश राज्यों में यह क्षमता बहुत सीमित है. हाल ही में इस नीति में यह सुधार किया गया है कि सार्वजनिक सेवाओं को कुछ बेहद चुनींदा और न्यूनतम सेवाओं के पैकेज तक ही सीमित रखा जाए और बाकी सब काम निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया जाए. प्रमुख महानगरों को छोड़कर अधिकांश ज़िला अस्पतालों और यहाँ तक कि मैडिकल कॉलेज के अस्पतालों में भी इंटेसिव केयर के ऐसे साधन मौजूद नहीं हैं जो इस महामारी के इलाज के लिए आवश्यक हैं और इन साधनों का निर्माण बहुत बड़ी चुनौती सिद्ध होगा.

स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त सार्वजनिक निवेश नहीं हुआ है
निजी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवा की सुविधाओं के मूल ढाँचागत डिज़ाइन में ही बिस्तरों, उपकरणों और कर्मचारियों के रूप में पर्याप्त मात्रा में अधिकाधिक क्षमता उपलब्ध होनी चाहिए, ताकि ज़रूरत पड़ने पर अधिक बोझ को वहन करने के लिए इन सुविधाओं को अतिरिक्त बिस्तर लगाकर बढ़ाया जा सके, लेकिन अधिकांश सरकारी अस्पतालों का डिज़ाइन इसके ठीक विपरीत है. इन अस्पतालों में न्यूनतम सुविधाएँ ही रहती हैं और कभी-कभी तो इन सुविधाओं का भी अभाव रहता है. इन अस्पतालों में सेवाओं के बड़े पैकेज तो होते हैं, लेकिन इन अस्पतालों में उनकी निर्धारित क्षमता से अधिक भीड़ रहती है. 

2005 से 2012 तक के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत सार्वजनिक स्वास्थ्य के व्यय में वृद्धि होती रही है और इस राशि का उपयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य की ढाँचागत सुविधाओं को बढ़ाने और सेवाओं की डिलीवरी में किया जाता रहा है, फिर भी कुल उपलब्ध सेवाओं में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो पायी है. वर्तमान सरकार के शासन काल में स्वास्थ्य सेवा को सबसे कम प्राथमिकता दी गई है. 2016-17 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य के लिए निधि के कम आबंटन को लेकर हमने Economic & Political Weekly  के 2016 के अंक में यह चेतावनी दी थीः “लगता है कि वित्त मंत्रालय ने उद्योग, रक्षा और आर्थिक वृद्धि की दरों को ध्यान में रखकर ही बजट तैयार किया है. बिना किसी स्पष्ट चेतावनी के भी हम वित्त मंत्रालय को यह जता देना ज़रूरी समझते हैं कि पिछले चार वर्षों में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लगातार कम वित्तपोषण होते रहने के कारण स्थिति इतने खतरनाक स्तर पर पहुँच गई है कि देश की स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ-साथ आर्थिक विकास पर भी खतरा मँडराने लगा है और न केवल सुदूर भविष्य में बल्कि निकट भविष्य में भी गरीब और अमीर सबके लिए यह खतरा बन सकता है.”  

लॉकडाउन लागू करने के बाद भारत सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को तत्काल मज़बूत बनाने के लिए 15,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि देने की घोषणा की है. यह निश्चय ही स्वागतयोग्य कदम था, लेकिन सरकार को चाहिए था कि वह पिछले चार वर्षों के अपने नीतिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वित्तपोषण में वार्षिक आधार पर बढ़ोतरी करती.

स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता की आवश्यकता
प्रधानमंत्री ने बार-बार दोहराया है कि स्वास्थ्य की देखभाल के मामले में उच्च मानक वाले सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के लिए प्रसिद्ध देश भी इस विश्वव्यापी महामारी से जूझ रहे हैं. किसी भी देश के लिए, भले ही उसके पास कितनी ही मज़बूत ढाँचागत सुविधाएँ क्यों न हों, महामारी से लड़ने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में स्वास्थ्य संबंधी कुछेक खास वस्तुओं और उपकरणों की आवश्यकता होती है. नये विषाणु (वायरस) के लिए पर्याप्त परीक्षण किटों, वैंटिलेटरों और अपने कर्मचारियों के लिए व्यक्तिगत रक्षात्मक उपकरण (PPE) की प्रमुख रूप से आवश्यकता रहती है. यह उल्लेखनीय है कि मुख्य रूप से चीन, दक्षिण कोरिया, जर्मनी और आइसलैंड आदि देशों ने इस संबंध में बहुत तेज़ी से कार्रवाई करके इसकी सप्लाई की सुचारु व्यवस्था कर ली है. इन देशों ने अपने यहाँ लॉकडाउन तो सीमित रखा है, लेकिन गहन परीक्षण की व्यापक व्यवस्था कर ली है, लेकिन तीसरी दुनिया में फ़ार्मेसी के क्षेत्र में व्यापक विनिर्माण की अपनी भारी क्षमता के बावजूद भारत परीक्षण किटों, व्यक्तिगत रक्षात्मक उपकरणों (PPEs) या वैंटिलेटरों के उत्पादन में तेज़ी लाने में असमर्थ रहा है. इन क्षेत्रों में भारत पूरी तरह से आयात पर निर्भर हो गया है. इन क्षेत्रों में विनिर्माण की इसकी सीमित क्षमता भी निर्यात बाज़ार पर ही केंद्रित रही है. अब जब हमारी ज़रूरतें शिखर छूने लगी हैं तो आयात में भी भारी कमी आ गई है. हर देश अपनी आवश्यकताओं को ही उत्पादन में प्राथमिकता देता है. देर से ही सही, पिछले दो सप्ताहों में निर्यात पर रोक लगा दी गई है. देरी से ही सही, अब विनिर्माताओं को उत्पादन के लिए चिह्नित और प्रमाणित किया जाने लगा है और उन्हें ऑर्डर भी दे दिये गए हैं. अगर यह महामारी और बढ़ती है, जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा है, हमारा देश भारी संकट में फँस जाएगा. अब समय आ गया है कि हम मुक्त व्यापार की लीक को छोड़कर कुछ कदम वापस लें और स्वास्थ्य संबंधी वस्तुओं के विनिर्माण के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए स्वास्थ्य आत्मनिर्भरता, स्वास्थ्य सुरक्षा और स्वास्थ्य की प्रभुसत्ता को सर्वोपरि मानकर दिशा-निर्देश के रूप में इन्हें अपनाएँ.

चूँकि भारत को अपनी स्वास्थ्य प्रणाली की तैयारी में काफ़ी समय लग सकता है, इसलिए इस संकट से उबरने के लिए जल्द ही दवाएँ और वैक्सीन बनाना हमारे लिए वरदान सिद्ध हो सकता है. लेकिन न्यूनतम समय में उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के लिए भारत के पास राजनीतिक इच्छा-शक्ति होनी चाहिए.

यह उल्लेखनीय है कि जिन राज्यों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य की देखभाल संबंधी अपनी सेवाओं को विकसित करने के लिए निवेश किया है, आज अस्पताल में देखभाल और तत्संबंधी सेवाओं की ज़रूरतों को पूरा करने के संदर्भ में बेहतर स्थिति में हैं. केरल इसका अच्छा उदाहरण है. केरल में “आरद्रम” नाम से स्वास्थ्य की देखभाल संबंधी सेवाओं की गुणवत्ता और व्यापकता को बढ़ाने के लिए एक नवोन्मेषी कार्यक्रम शुरू किया गया है. भले ही केरल के लोगों में बुज़ुर्ग लोगों की मात्रा अधिक है या इस वजह से वे आपदा के जल्दी शिकार भी हो जाते हैं, लेकिन आपदाओं से उबरने में उनकी क्षमता बहुत अच्छी है. बिहार, उत्तर प्रदेश या झारखंड में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं का भारी अभाव है और ऐसे संकट से उबरने में वे कतई सक्षम भी नहीं हैं. और इतने थोड़े समय में इस अंतराल को भरना उनके लिए अगर असंभव नहीं तो मुश्किल तो अवश्य होगा. केंद्र सरकार का ध्यान बीमा तंत्र के माध्यम से निजी क्षेत्र द्वारा निर्मित देखभाल संबंधी उपकरणों की खरीद पर गया है, लेकिन इससे संकट को टालने में बहुत कम मदद मिलेगी. अभी निजी अस्पताल को इस काम में जोड़ने के लिए एक प्रस्ताव रखा गया है. निजी अस्पताल को सार्वजनिक प्राधिकरण के अंतर्गत लाकर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की क्षमता का विस्तार किया जा सकता है.  

लॉकडाउन के रहते कुछ समय तो बीत जाएगा, लेकिन इसकी भारी सामाजिक कीमत चुकानी होगी
लॉकडाउन की प्रशंसा और सामाजिक दूरी बनाये रखने को एकमात्र रणनीति बताते हुए अतीत की और मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली की तैयारियों की विफलताओं पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. भारत में लॉकडाउन की घोषणा एक कड़ा कदम तो हो सकता है, लेकिन हमें नहीं मालूम कि यह कदम प्रभावी सिद्ध हुआ भी है या नहीं. हमें यह तो मालूम ही है कि भारत के उन तमाम कामगारों के लिए, जिनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा, पक्के काम का आश्वासन या बचत नहीं है, यह कदम कितना बर्बर और निर्मम सिद्ध हुआ होगा. ये प्रवासी कामगार निराश होकर अपने गाँव में घर लौटने के लिए विवश हो गए थे. घर लौटते समय इन प्रवासी कामगारों को कितनी तरह की हिंसक झड़पों का शिकार होना पड़ा है और उनके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है. असंगठित क्षेत्र के इन कामगारों तक राहत सामग्री भी अच्छी तरह पहुँच नहीं पा रही है और लॉकडाउन के इस दौर में सहायता की सबसे अधिक ज़रूरत इन कामगारों को ही है. खेती-बाड़ी में लगे मज़दूरों पर भी इस लॉकडाउन का बहुत बुरा असर पड़ा है. छोटे-मोटे उद्योग तो खत्म ही हो गए हैं और तपेदिक एवं पानी से पैदा होने वाली बीमारियों और असंचार रोगों जैसे असाध्य और मारक बीमारियों से जूझने वाली माँओं और बच्चों के लिए आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं के लॉकडाउन के कारण चिंता और भी बढ़ गई है और इसके कारण समग्र रूप में स्वास्थ्य संबंधी परिणामों पर गंभीर असर पड़ सकता है.

घनी आबादी वाली बस्तियों के भीड़-भाड़ भरे घरों में रहने वाले अधिकांश लोग तो सामाजिक दूरी का भी पालन नहीं कर सकते. और प्रवासियों के रूप में बहुत से लोग पकड़े जाने पर भेड़-बकरी की तरह ठूँसकर अस्थायी तंबुओं में रहने को विवश लोगों के लिए तो सामाजिक दूरी असल में और भी कम हो गई है. परीक्षण की मौजूदा रणनीति यह डेटा उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त नहीं है कि लॉकडाउन से इसमें कितनी मदद मिली है, लेकिन अगर लॉकडाउन प्रभावी भी रहा हो तो भी इस बात में संदेह की गुंजाइश नहीं है कि एक बार लॉकडाउन हटने के बाद महामारी की घटनाओं में तेज़ी से बढ़ोतरी तो होगी ही. बस इतना ही हुआ है कि लॉकडाउन से हमें अपनी स्वास्थ्य प्रणाली को दुरुस्त करने का कुछ समय मिल गया है, लेकिन इसकी भारी कीमत भी हमें चुकानी पड़ी है और बार-बार लॉकडाउन भी तो नहीं किया जा सकता. लॉकडाउन के कारण संगठित क्षेत्र में काम करने वाली भारी आबादी के इस देश में जिस तरह की समस्याएँ पैदा होंगी, उनसे उनके हालात और भी बिगड़ सकते हैं.  भारी सामाजिक सुरक्षा-जाल से भी असंगठित क्षेत्र के इन कामगारों की तकलीफ़ों को कम नहीं किया जा सकता. प्रभावी सामाजिक सुरक्षा या स्वास्थ्य संबंधी देखभाल के बिना खतरनाक काम-धंधों में लगे असंगठित क्षेत्रों के अधिकांश कामगार तो दो-जून रोटी के लिए भी तरस जाते हैं.

यही कारण है कि भारत को अपने अतीत की ओर लौटकर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करना होगा. इसका सबसे अच्छा समय तो दस साल पहले था, लेकिन इसका अगला सबसे अच्छा समय अभी है.

टी. सुंदररामण  टाटा विज्ञान संस्थान में स्वास्थ्य प्रणाली अध्ययन स्कूल के डीन हैं और CASI 2012 में विज़िटिंग स्कॉलर रहे हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.