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परमाणु संरक्षकों का संरक्षण

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15/07/2013
क्रिस्टोफ़र क्लैरी

सन् 1998 के परमाणु परीक्षण की पंद्रहवीं वर्षगाँठ को कुछ सप्ताह ही हुए हैं. सन् 1974 के भारत के “शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण” की चालीसवीं वर्षगाँठ को पूरा होने में साल भर से कम समय बचा है. भारत अपने परमाणु वैज्ञानिकों की उपलब्धियों पर गर्व का अनुभव करता है. अंतर्राष्ट्रीय  हुकूमत द्वारा प्रगति को धीमा करने के लिए किये गये प्रयासों को देखते हुए भारतीय वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और यहाँ तक कि नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों ने एकजुट होकर परमाणु ऊर्जा की भिन्न-भिन्न प्रकार की अवसंरचनाओं को निर्मित करने और परमाणु हथियारों को बनाने की क्षमता विकसित करने के लिए निरंतर प्रयास किये हैं. इन बाधाओं को दूर करने के लिए भारत ने एक गुप्त और परस्पर संबद्ध एन्क्लेव का निर्माण किया है. ऐसा हो जाने पर क्या अब इस प्रतिष्ठान को सार्वजनिक किया जाएगा?

पोखरन-II के पंद्रह साल के बाद भी हो सकता है कि विश्व उत्तर कोरिया को छोड़कर अन्य परमाणु हथियार संपन्न देशों की तुलना में भारत के परमाणु हथियारों के बारे में कम ही जानता हो.विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह गौरव की बात नहीं है. भारत की जनता भी इस कार्यक्रम को लेकर अब शांत हो गयी है,लेकिन कभी-कभी कुछ लोग इसकी उपलब्धियों का बढ़-चढ़कर बखान कर देते  हैं. इसके बारे में इतनी कम चर्चा भी दुर्भाग्यपूर्ण हो सकती है. प्रतिष्ठान बंद होने से विकृति आ सकती है जो व्यापक सार्वजनिक हित में अक्सर नुक्सानदेह होती है. कभी-कभी वे संगठनात्मक लक्ष्य हासिल करने के लिए सुरक्षा में भी कोताही बरतने लगते हैं. सीमित मात्रा में सार्वजनिक जानकारी होने के कारण हमें नहीं मालूम कि परमाणु विकिरण के खतरों से बचने के लिए भारत परमाणु संबंधी मानकों का पूरी तरह से पालन कर रहा है या नहीं.

भारत सरकार ने सुरक्षा को अधिकाधिक बढ़ाने के लिए और निवारण को सुनिश्चित करने के लिए अगर कोई कदम उठाये हैं, तो उसकी भी कोई झलक दिखायी नहीं देती. अगर हमारे पास कोई सूचना है तो उसका आधार सन् 2003 में इस विषय पर जारी किया गया एक पृष्ठ का प्रैस रिलीज़ ही है.   दस साल से अधिक समय हो गया है, लेकिन भारत के किसी भी राजनैतिक नेता ने इस पर खास तौर पर तब जब परमाणु कार्यक्रम में महत्वपू्र्ण गतिविधियों के संकेत मिल रहे हों, किसी भी प्रकार की कोई सार्वजनिक टिप्पणी नहीं की है. पूर्व विदेश सचिव श्याम सरण ने अप्रैल माह में नयी दिल्ली में दिये गये अपने भाषण में इस बारे में कुछ खुलासा किया था. उन्होंने अपने भाषण में परमाणु हथियारों के भंडारण और परिवहन की प्रक्रिया के समीक्षार्थ परमाणु कमान प्राधिकरण के समर्थन के लिए रणनीतिक कार्यक्रम के कर्मचारियों के अस्तित्व की घोषणा की थी.

इस बारे में सुरक्षा के प्रयोजन से गठित संस्था के अलावा कुछ और ज्ञात नहीं है.  कुछ अलग-थलग और अविश्वसनीय रिपोर्टें ज़रूर हैं, जैसे परमाणु ऊर्जा विभाग और रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन के पास ऐसे कार्मिक स्क्रीनिंग कार्यक्रम हैं, जिनसे विकिरण के खतरे से ग्रस्त होने की आशंका वाले कर्मचारियों को परमाणु सामग्री से बचाया जा सकता है, लेकिन सार्वजनिक रूप में ऐसे किसी कार्यक्रम की सूचना प्रसारित नहीं की गयी है और न ही कोई ऐसी सूचना है कि भारत की सशस्त्र सेना के पास इससे मिलता-जुलता कोई कार्यक्रम है.

यह मात्र शैक्षणिक चिंता का विषय नहीं है. भारत की सशस्त्र सेना मानसिक बीमारियों से निरापद नहीं है. हर साल उनके अपने रैंक में 100 आत्महत्याएँ होती हैं और न ही वे किसी हिंसक अवज्ञा से निरापद हो सकते हैं, जैसा कि सन् 2012  में साम्बा और नियोमा के आर्मी यूनिटों की अलग-अलग घटनाओं से पता चलता है और न ही वे परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान कुचालकों से अभेद्य हैं. उस घटना के बाद किसी ने कैगा के अणुशक्ति स्टेशन पर ट्रिटियम डाल दिया था. “द हिंदू” को एक परमाणु शक्ति के पदाधिकारी ने बताया था, “हमारे अणुशक्ति केंद्रों में कर्मचारियों की कोई जाँच नहीं की जाती”. बल्कि लगता है कि परमाणु हथियार संबंधी मुद्दों से जुड़े लोगों की ज़्यादा स्क्रीनिंग की जाती है, लेकिन वह जाँच कैसे की जाती है, यह स्पष्ट नहीं है. यह उल्लेखनीय है कि जहाँ तक लोगों के पास जानकारी उपलब्ध है, किसी भी व्यक्ति को कैगा घटना के लिए दोषी सिद्ध नहीं किया गया है. इसके अलावा डीआरडीओ का रिकॉर्ड भी निर्दोष नहीं है. हम इस बारे में भी बहुत कम जानते हैं कि अपनी पृष्ठभूमि की जाँच होने के बावजूद उनके एक कनिष्ठ अनुसंधानकर्मी को एक आतंकी वारदात के लिए पकड़ा गया था. हाल ही में राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी ने अनुसंधानकर्मी को उस पर लगाये गये आरोपों से मुक्त कर दिया गया है, लेकिन यह घटना अभी भी गले की फाँस बनी हुई है.

इस डर के कारण कि कार्मिक स्क्रीनिंग कार्यक्रम पर्याप्त नहीं हैं, पाकिस्तान सहित अनेक परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्रों ने ऐसे कुछ “परमिसिव ऐक्शन लिंक्स ” बना लिये हैं जो परमाणु हथियारों को लॉन्च या डेटोनेट करने से रोकते हैं अर्थात् उनका कोड शून्य रहता है और यह तभी मिलता है जब इसे राजनैतिक नेताओं की अनुमति मिलती है. “क्या भारत के पास परमिसिव ऐक्शन लिंक्स हैं? फिर वही जवाब है कि हम नहीं जानते. अगर भारत में ऐसे संपर्क हैं तो क्या वे बहुत मज़बूत और निर्विवाद हैं? सन् 1998 के एक गुप्त संदर्भ में छिपे सेफ़्टी इंटरलॉक संबंधी एक प्रैस रिलीज़ में कहा गया था कि इस बारे में कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है. सन् 2012  में  वाइस एडमिरल वर्गीज़ कोईथारा ने भारत के परमाणु हथियारों से संबंधित अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला है कि राष्ट्रीय कमान प्राधिकरण को इलैक्ट्रॉनिक साधनों के माध्यम से परमाणु हथियारों पर नियंत्रण रखने की क्षमता पर भरोसा नहीं था और बताया था कि परमिसिव ऐक्शन लिंक्स या तो बिल्कुल नहीं थे या फिर बहुत निचले स्तर के थे.

एक दशक पहले अगर आपने भारत में परमाणु हथियारों का अध्ययन करने वाले किसी विद्वान् से पूछा होता तो वह आपको यही जवाब देता कि परमिसिव ऐक्शन लिंक्स बहुत महत्वपूर्ण तो हैं, लेकिन भारत के संदर्भ में ये अनिवार्य नहीं हैं. भारत की धारणा थी कि यदि परमाणु हथियारों को आंशिक रूप में बिना असेंबल किये या बिना जोड़े रखा जाए तो हथियार शांति काल के दौरान अनधिकृत लॉन्च के लिए निरापद ही रहेंगे. परंतु बिना किसी सार्वजनिक औचित्य के इसमें भी परिवर्तन आने लगा. भरत कर्नाड ने सन् 2008 के इस कार्यक्रम से संबंधित अपने अध्ययन में बताया था कि कुछ हथियार शांति-काल में जोड़कर रखे जाते थे. डीआरडीओ के प्रमुख अविनाश चंदर ने भी इसी महीने के आरंभ में कर्नाड के दावे से मिलता-जुलता अपना बयान दिया था कि “दूसरे प्रहार की क्षमता में सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि आप कितनी जल्दी अपनी प्रतिक्रिया देते हैं. हम कैनिस्टराइज़्ड प्रणाली पर काम रहे हैं जिसमें उपग्रह को कहीं से भी और कभी-भी लॉन्च किया जा सकता है..... हम ऐसे उपग्रह बना रहे हैं जिनमें प्रतिक्रिया का समय कुछ मिनट ही रहता है.” कैनिस्टराइज़्ड प्रणाली वह प्रणाली है जिसमें उपग्रह को सीलबंद ट्यूब में रखा जाता है. यह वारहैड मेटिंग जैसा लगता है और इसकी असेम्बली लॉन्च से काफ़ी पहले कर दी जाती है. इसका अर्थ यह है कि मुखास्त्र उपकरणों को भौतिक रूप में अलग करने जैसे पुराने सुरक्षा उपायों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है. अगर भारत ने उपग्रहों की मेटिंग का काम शांतिकाल में ही करने का निर्णय कर लिया है तो टैम्पर-प्रूफ़ परमिसिव ऐक्शन लिंक्स की उपस्थिति और भरोसेमंद कार्मिक विश्वसनीय कार्यक्रमों की ज़रूरत नहीं रह जाती, लेकिन अनधिकृत लॉन्च से बचने के लिए यह अनिवार्य है. 

तीव्र प्रतिक्रिया के लाभ इतने स्पष्ट नही हैं, जैसा कि चंदर ने बताया है. यदि भारत कुछ ही मिनटों में प्रहार कर देता है तो चीन या पाकिस्तान लाखों लोगों की जान-माल की रक्षा के लिए विवश हो जाएँगे और बीजिंग और इस्लामाबाद परमाणु युद्ध की विभीषिका से बचने का प्रयास करेंगे? लेकिन तीव्र गति के कारण दुर्घटनाएँ और गल्तियाँ भी हो सकती हैं और फिर पूरी तरह से तैयार रहने पर भी खर्च तो आता ही है. यही कारण है कि परमाणु संपन्न राष्ट्रों ने यह मानक बना लिया है कि मुखास्त्रों की मेटिंग और असेम्बली का काम शांतिकाल में ही करके रखा जाए. लगता है कि पाकिस्तान अपेक्षाकृत “निचले स्तर” के निवारक की अपनी आरंभिक स्थिति के बावजूद शांतिकाल के दौरान ही तैयारी पूरी कर लेने की रणनीति अपनाने की तरफ़ बढ़ रहा है. 

खास तौर पर शीतयुद्धोत्तर विश्व के लिए हथियारोँ की संख्या उचित रूप में घटाने से इनकार करने के कारण अमरीकी निवारक स्थिति की अपनी कमज़ोरियाँ हैं. लेकिन इसके कारण कुछ हद तक एक मॉडल भी बन जाता है. अमरीका ने उन तमाम तकनीकी सुरक्षा उपायों के ब्यौरे प्रकाशित किये हैं जो गल्ती से लॉन्च होने वाली या महँगी दुर्घटनाओं को रोकने का काम करते हैं. इन ब्यौरों में उन उपायों की कार्यविधि भी बतायी गयी है जिनसे खतरनाक लोगों के हाथों में परमाणु सामग्री पहुँच जाने से रोका जा सकता है. महत्वपूर्ण बात यही है कि जब गल्तियाँ हों तो दंड तुरंत मिलना चाहिए और कठोर होना चाहिए.

कमज़ोरी सभी व्यक्तियों और संगठनों में हो सकती है, लेकिन अमरीकी मॉडल लगातार जाँच और निरीक्षण के महत्व को दर्शाता है. अमरीका सहित बड़ी परमाणु शक्तियों का परमाणु दुर्घटनाओं का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. अभी हाल ही में सन् 2007 में अमरीकी वायुसेना ने गल्ती से यह समझकर कि ये परंपरागत हथियार हैं, छह परमाणु मुखास्त्रों को परिवहन के लिए ढोना शुरू कर दिया था.  भले ही इसमें बचाव तो हो गया, लेकिन यह घटना बहुत गंभीर हैः यदि उड़ान के दौरान हथियारों की  ढुलाई में कोई दिक्कत आ जाती तो चालक दल को यह भी समझ में नहीं आता कि ऐसे हथियारों की अतिरिक्त देखभाल कैसे की जानी चाहिए. ज़मीन पर भी इन हथियारों को अच्छी तरह से जोड़कर नहीं रखा जाता. इस घटना से भी सीख ली जानी चाहिए, क्योंकि ऐसी घटनाओं की खबरें कुछ ही दिनों में सार्वजनिक हो जाती हैं. सभी स्तरों के कर्मचारी अनुशासित थे. अंततः वरिष्ठतम सिविलियन और अमरीकी सैन्य अधिकारियों को इस घटना के कारण इस्तीफ़ा देना ही पड़ा. कल्पना करें कि अगर ऐसी कोई घटना भारत में घटती तो ? किसे पता चलता? क्या कोई अनुशासित होता? क्या गल्ती की जाँच हो पाती? क्या हम इससे कोई सीख लेते?

जैसे- जैसे परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में भारत की हैसियत को विश्व समुदाय में अधिकाधिक स्वीकृति मिलती है तो भारत अधिक पारदर्शिता के साथ सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए आवश्यक कदम उठा सकता है. खुला सवाल यही है कि क्या भारत ऐसा करेगा या फिर रहस्यमय बने रहने की पुरानी आदत के अनुरूप अपने बिल में सिमटा रहेगा.

 

क्रिस्टोफ़र क्लैरी मैसाचुएट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैक्नोलॉजी में राजनीति विज्ञान में पीएचडी के प्रत्याशी हैं और रैंड कॉर्पोर्शन में स्टैंटन न्यूक्लियर सिक्योरिटी प्री-डॉक्टरल फ़ैलो हैं.  

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>