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सिविल टैक्नोलॉजिस्टों को कोविड-19 की महामारी के दौरान सरकार की मदद करनी चाहिए

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06/04/2020
शशांक श्रीनिवासन

दिसंबर 2019 में भारत सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक लागू किया था. इस विधेयक का चारों ओर व्यापक विरोध होने लगा और फिर इस विरोध का भी विरोध होने लगा. अगले कई सप्ताह तक भारत के कस्बों और शहरों में भारी संख्या में लोग इकट्ठा होने लगे और वहीं पुलिस और अर्धसैन्य बलों की तैनाती कर दी गई. जहाँ विरोध हो रहा था, वहीं हिंसक वारदातें भी शुरू हो गईं और इस झड़प में अनेक लोग घायल हो गए और कुछ लोगों की मौत भी हो गई. हालाँकि यह सवाल अभी-भी बाकी है कि किस गुट ने हिंसा की वारदात शुरू की, लेकिन यह तो तय है कि सरकारी पुलिस बल ने बहुत बर्बरता से कार्रवाई की और इस कार्रवाई में अनेक भारतीय नागरिक घायल भी हो गए. हाल ही में कोविड-19 की महामारी के कारण पूरे भारत में लॉकडाउन लागू कर दिया गया और इसे लागू करते हुए राज्य की पुलिस ने हिंसा का तांडव मचा दिया और इस कार्रवाई के अनेक पक्के सबूत भी मौजूद हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे अनेक वीडियो देखे जा सकते हैं, जहाँ पुलिस दुकानों, दुकानदारों और रेड़ी वालों पर डंडे बरसा रही है और बंगाल से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार पुलिस एक ऐसे आदमी को पीट-पीट कर मार डालती है जो दूध लेने के लिए घर से बाहर निकला था. इसमें संदेह नहीं कि सरकार को अपने इलाके में बल-प्रयोग का पूरा वैधानिक अधिकार है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में कश्मीर और पूर्वोत्तर में और पिछले कुछ महीनों में सीमापार के इलाकों में हिंसा का जो तांडव हुआ है, वह कतई विधिसंगत नहीं है और इससे मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है. साथ ही यह भारतीय संविधान में निहित मूल्यों के भी विरुद्ध है. इस संदर्भ में यह साफ़ दिखाई देता है कि सिविल टैक्नोलॉजिस्ट सरकार को यह जताने में उसकी मदद नहीं कर रहे हैं कि सरकार को इस तरह से बलप्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे देश के नागरिकों को किसी भी तरह से चोट पहुँचे.

इस महामारी की रोक-थाम के लिए लोग व्यक्तिगत स्तर पर, अनौपचारिक मंच, स्टार्ट-अप और भारतीय टैक्नोलॉजी के क्षेत्र से जुड़ी प्रतिष्ठित कंपनियाँ अपने साधनों का उपयोग करते हुए सरकार की मदद में जुटी हैं. इनमें से कुछ संस्थाएँ अपनी तमाम सदाशयता के बावजूद इसके संभावित प्रभावों से अनजान हैं कि इसका देश के ताने-बाने पर क्या असर हो सकता है. वैंटिलेटर के 3-डी प्रिंटेबल वॉल्व का डिज़ाइन तैयार करना या फिर उत्पादन लाइन को मास्क के उत्पादन में लगा देना एक बात है, लेकिन क्वारंटाइन के लिए आवश्यक जियोफ़ेंसिंग के अनुप्रयोग डिज़ाइन करना या लॉकडाउन की निगरानी के लिए ड्रोन को तैनात करना दूसरी बात है.

दिसंबर से शुरू हुई हिंसा की आरंभिक वारदातों के दौरान खास तौर पर ड्रोन की स्थितियों पर यदि विचार करें तो पाएँगे कि सरकार की ओर से दिल्ली में होने वाले विरोध की घटनाओं पर निगरानी रखने के लिए कुछ अज्ञात लोग ड्रोन का उपयोग कर रहे थे. साथ ही बहुत बड़ी संख्या में युनिफ़ॉर्म पहने हुए पुलिस अधिकारी कैमरों से लैस होकर निगरानी के काम में जुटे हुए थे. उसके बाद गृहमंत्री ने घोषणा की कि वे विरोध के दौरान एकत्रित वीडियो के आधार पर विरोध में जुटे लोगों के चेहरों की पहचान के लिए चेहरे की पहचान करने वाले उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं. पिछले कुछ सप्ताहों में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इलाके में कुछ ऐसे लोगों की पुलिस ने धर-पकड़ भी की है, लेकिन महामारी की खबरों में इनमें से अधिकांश रिपोर्टें छिप गई हैं. इस बात की पूरी संभावना है कि ड्रोन के फ़ूटेज का प्रयोग उनकी पहचान के लिए किया गया हो. यह तो स्पष्ट नहीं है कि यह कार्रवाई विधिसंगत है या नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि विरोध का स्वर दबाने के लिए सरकार को ड्रोन नाम का एक और हथियार मिल गया है.

आज क्वारंटाइन के नियम पूरे देश में लागू हो गए हैं, लेकिन लोगों को अपनी ज़रूरत की चीज़ों के लिए घर से बाहर निकलने की छूट भी दी गई है. व्यावहारिक तौर पर सरकार द्वारा घोषित इन नियमों का मतलब यही है कि आप पुलिस बल के गैर-कानूनी हमले के डर के कारण नहीं, बल्कि आवश्यक होने पर ही घर से बाहर निकलें. पुलिस को आदेश हैं कि क्वारंटाइन के नियमों का पालन कराने के लिए वे ड्रोन का भी उपयोग कर सकते हैं ताकि सार्वजनिक स्थानों पर लोगों को इकट्ठा होने से रोका जो सके और इस पर निगरानी रखी जा सके और ज़रूरत पड़ने पर वे “कार्रवाई भी कर सकते हैं”. अधिकांशतः इस तरह की कार्रवाई में बल प्रयोग और हिंसा की प्रच्छन्न भावना छिपी होती है, लेकिन इसके लिए ड्रोन के उपयोग का अर्थ यह नहीं है कि “ड्रोन का उपयोग अच्छा” ही रहता है.  

इसी तरह मोबाइल फ़ोन का उपयोग क्वारंटाइन के मरीज़ों को ट्रैक करने और उन पर निगरानी रखने के लिए सरकार द्वारा किया जाता है. सरकार की अपेक्षा रहती है कि क्वारंटाइन में रहने वाला व्यक्ति अपने फ़ोन पर आवश्यक अनुमति लेकर एक ऐप लगा ले ताकि समय रहते उसके ठिकाने की पहचान की जा सके. कोई गारंटी नहीं है कि इस तरह के डेटा की सुरक्षा पर कोई आँच नहीं आएगी और यह सूचना गोपनीय रखी जाएगी. उदाहरण के लिए कर्नाटक के स्वास्थ्य विभाग ने एक ऐसी सूची जारी की है, जिसमें पूरे राज्य में चौदह दिनों तक घर पर ही क्वारंटाइन में रहनेवाले प्रत्येक व्यक्ति का सही पता भी दिया गया है. निश्चय ही इसका उद्देश्य क्वारंटाइन नियमों के अनुसार उन पर सामुदायिक रूप में निगरानी रखना है. इस प्रकार की सूचनाओं को जानबूझकर जारी करने से यह विश्वास भी कमज़ोर पड़ जाता है और जब तक व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक व्यापक रूप में व्यक्तिगत डेटा को संरक्षण प्रदान नहीं करता तब तक सरकारी निगरानी के अनुप्रयोगों का निर्माण बंद कर देना चाहिए. ऐसे ही संदर्भ में दक्षिण कोरिया ने क्वारंटाइन को लागू करने के लिए एक ऐप विकसित करके उसे फ़ोन पर लगा दिया है, लेकिन इसका प्रयोग अनिवार्य नहीं किया गया है. क्वारंटाइन वाले लोग चाहें तो इस सिस्टम से बाहर भी निकल सकते हैं.   हालाँकि टैक्नोलॉजी को लागू करने के संबंध में दक्षिण कोरिया की नीति काफ़ी उदार है, फिर भी जिन लोगों को इसकी मदद से ट्रैक किया जाता है उनकी निजता को लेकर चिंता प्रकट की जा रही है.

हम देख रहे हैं कि सार्वजनिक हित में सरकारें भारत में और विश्व के अन्य देशों में भी निगरानी रखने के लिए आवश्यक ढाँचा तैयार करने में जुटी हैं. ड्रोन, चेहरा पहचानने वाले उपकरण और अनिवार्य जियोलोकेशन के अनुप्रयोग इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं, जिनका आज प्रयोग किया जा रहा है. कुछ अन्य खतरनाक उपकरण ऐसे हैं जो पूरे डेटाबेस में पैटर्न का मिलान कर सकते हैं और ये उपकरण भी इसी तरह धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में बहुत घातक सिद्ध हो सकते हैं. इस प्रकार के सिस्टम में थोड़ा-सा परिवर्तन करके उन्हें अन्य सरकारी डेटाबेस से जोड़ा जा सकता है और उनकी मदद से व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर लोगों की जाति, धर्म, आय-वर्ग या उनके मूल स्थान की जानकारी जुटाई जा सकती है. उचित सुरक्षात्मक उपायों को लागू करने से पहले ही अगर इनका उपयोग शुरू कर दिया जाए तो बहुत थोड़े समय में ही हाशिये पर रहने वाले भारत के समुदाय पुलिस की हिंसा के डर से आतंकित रहने लगेंगे. अब यह सिविल टैक्नोलॉजिस्टों पर निर्भर करता है कि वे यह सुनिश्चित करें कि इन उपकरणों का उपयोग भारत के हितों की रक्षा के लिए किया जाए, न कि लोगों का दमन करने के लिए.

शशांक श्रीनिवासन वन्यजीवन प्रौद्योगिकी (Technology for Wildlife) के संस्थापक हैं. यह परामर्श देने वाली एक ऐसी संस्था है जो वन्यजीवन और पर्यावरण के संरक्षण के लिए टैक्नोलॉजी को समझने, उसे उपलब्ध कराने और उसका उपयोग करने में संस्थाओं की मदद करती है. वह एक अनुभवी ड्रोन पायलट होने के साथ-साथ स्थानिक विशेषज्ञ भी हैं. उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से संरक्षण नेतृत्व कार्यक्रम के अंतर्गत एम.फ़िल किया है.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919